कर्मबंध वस्तु से नहीं, राग और द्वेष के अध्यवसाय—संकल्प से होता है। भोगामिषदोषण्ण: हितनि:श्रेयसबुद्धिविपर्यस्त:। बालश्च मन्दित: मूढ:, बध्यते मक्षिकेव श्लेष्मणि।।
आत्मा को दूषित करने वाला भोगामिष (आसक्तिजनक भोग) में निमग्न, हित और श्रेयस में विपरीत बुद्धि वाला, अज्ञानी, मंद और मूढ़ जीव उसी तरह (कर्मों से) बंध जाता है, जैसे श्लेष्म (बलगम) में मक्खी। अध्यवसितेन बन्ध:, सत्त्वान् मारयेद् मा अथ मारयेत्। एष बन्धसमासो, जीवानां निश्चयनयस्य।।
िंहसा करने के अध्यवसाय से ही कर्म का बंध होता है, फिर कोई जीव मरे या न मरे। निश्चय—नय के अनुसार संक्षेप में जीवों के कर्मबंध का यही स्वरूप है। सौर्विणकमपि निगलं, बध्नाति कालायसमपि यथा पुरुषम्। बध्नात्येवं जीवं, शुभमशुभं वा कृतं कर्म।।
बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों की बेड़ियाँ बांधती हैं। इसी प्रकार जीव को शुभ—अशुभ कर्म बांधते हैं। अर्थेन तत् न बध्नाति, यदनर्थेन स्तोकबहुभावात्। अर्थे कालादिका:, नियामका: न त्वनर्थके।।
प्रयोजनवश कार्य करने से अल्प कर्मबंध होता है और बिना प्रयोजन कार्य करने से अधिक कर्मबंध होता है क्योंकि सप्रयोजन कार्य में तो देशकाल आदि परिस्थितियों की सापेक्षता रहती है, लेकिन निष्प्रयोजन प्रवृत्ति तो सदा ही (अमर्यादित रूप से) की जा सकती है। भावेन येन जीव:, प्रेक्षते जानात्यागतं विषये। रज्यति तेनैव पुन—र्बध्यते कर्मेत्युपदेश:।।
जीव अपने राग या द्वेष रूप जिस भाव से संयुक्त होकर इन्द्रियों के विषयों के रूप में आगत या ग्रहण किए गए पदार्थों को जानता—देखता है, उन्हीं से उपरक्त होता है, और उसी उपरागवश नवीन कर्मों का बंध करता है। सर्वजीवनां कर्म तु, संग्रहे षड्दिशागतम्। सर्वेष्वपि प्रदेशेषु, सर्वं सर्वेण बद्धकम्।।
सभी जीवों के लिए संग्रह (बद्ध) करने के योग्य कर्म—पुद्गल छहों दिशाओं में सभी आकाश—प्रदेशों में विद्यमान हैं। वे सभी कर्म—पुद्गल आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ बद्ध होते हैं।