कामासक्त व्यक्ति का कोई इलाज नहीं है। अर्थात् काम रोग की कोई चिकित्सा नहीं है।
धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत।
—नीतिवाक्यामृत : ३-२
धर्म और धन का नाश न करते हुए काम का सेवन करना उचित है।
नागो जहा पंकजलावसन्नो, दट्ठुं थलं नाभिसमेइ तीरं।
एवं जिआ कामगुणेसु गिद्धा, सुधम्ममग्गे न रया हवंति।।
—इन्द्रियपराजयशतक : ५९
जैसे कीचड़—युक्त जल में रहा हाथी तट की भूमि को देखते हुए भी तट पर नहीं आ सकता, वैसे ही काम—विषय में आसक्त बना मनुष्य समझते हुए भी धर्म मार्ग में लीन नहीं हो सकता।
पज्जलिओ विसयअग्गी, चरित्तसारं डहिज्ज कसिणंपि।
—इन्द्रियपराजयशतक : ८२
प्रज्जवलित कामाग्नि समस्त चारित्र रूपी धन को जला डालती है।
जैसे मूर्ख व्यक्ति राख के लिए चंदन और डोरे के लिए मोती को नष्ट करते हैं, वैसे ही मानवीय भोगों में मूढ़ मनुष्य जीवन की दिव्य उपलब्धियों को तुच्छ वस्तुओं के लिए नष्ट करते हैं।