िंसह के नख से विदारित होने पर हाथी के कुम्भस्थल में मोती दिखाई पड़ते हैं अथवा कृपणों के मरने पर ही उनका भंडार (धन) प्रकट होता है। सोसं न गओ रसायलं, जलहिं ! कि न पुâडियोसि ? तउ संठिया वि सउणा, तण्हइया जस्स वोलीणा।।
जिसके किनारे पर रहकर भी पक्षीगण प्यासे रह जाते हैं, ऐसे हे समुद्र ! तू सूख क्यों नहीं गया ? रसातल में क्यों नहीं गया ? अथवा फूट क्यों नहीं गया ? (धनवान के पास से यदि कोई याचक निराश लौट जाता है तो उस अयोग्य के पास रहा हुआ धन नष्ट क्यों नहीं होता।) अं अत्थीहिं न पिज्जइ आसाइज्जइ न सउणसत्थेहिं। तं सायरस्स सलिलं खवंत वडवानल ! नमो ते।।
पक्षीरूप सार्थ जिस जल को न पीते हैं और न आस्वादन करते हैं, उस सागर के जल को खाने वाले हे बडवानल! तुझे नमस्कार है। बरसंति न मेहा गज्जिऊण न दिंति हसिऊण। न फलंति तरू जे फूल्लिऊण ते कह न लज्जंति।।
गरज करके जो बादल नहीं बरसते, हँसकर जो अतिथि को दान नहीं देते, विकसित होकर भी जो वृक्ष फल नहीं देते, सचमुच ये सब ऐसा करते हुए लज्जित क्यों नहीं होते ?