मोहनीय आदि कर्मों के उदय आदि (उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि) से होने वाले जिन परिणामों से युक्त जीव पहचाने जाते हैं, उनको सर्वदर्शी जिनेन्द्र देव ने ‘गुण’ या ‘गुणस्थान’ संज्ञा दी है अर्थात् सम्यक्त्व आदि की अपेक्षा जीवो की अवस्थाएँ श्रेणियाँ—भूमिकाएँ गुणस्थान कहलाती हैं। मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यकद्रस्ति, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशान्त मोह, क्षीणमोह, सयोगकेवलीजिन, अयोगकेवली जिन—ये क्रमश: चौदह जीवसमास या गुणस्थान हैं। सिद्ध जीव गुणस्थानातीत होते हैं। सम्यक्त्वरत्नपवर्त—शिखरात्, मिथ्याभावसमभिमुख:। नाशित सत्यक्त्व: स:, सास्वादननामा मन्तव्य:।।
सम्यक्त्व—रत्नरूपी पर्वत के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्वभाव के अभिमुख हो गया है—मिथ्यात्व की ओर मुड़ गया है, परन्तु (सम्यक्त्व के नष्ट हो जाने पर भी) जिसने अभी साक्षात् रूपेण मिथ्यात्वभाव में प्रवेश नहीं किया है, उस मध्यवर्ती अवस्था को सासादन नामक गुणस्थान कहते हैं। दधिगुडमिव व्यामिश्रं, पृथक्भावं नैव कर्तुं शक्यम्। एवं मिश्रकभाव:, सम्यक्मिथ्यात्वमिति ज्ञातव्यम्।।
दही और गुड़ के मेल के स्वाद की तरह सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित भाव या परिणाम, जिसे अलग नहीं किया जा सकता, सम्यक्—मिथ्यात्व या मिश्र गुणस्थान कहलाता है। नो इन्द्रियेषु विरतो, नो जीवे स्थावरे त्रसे चापि। य: श्रद्दधाति जिनोक्तं, सम्यक्दृष्टिविरत: स।।
जो न तो इन्द्रिय विषयों से विरत है और न त्रस—स्थावर जीवों की हिंसा से विरत है, लेकिन केवल जिनेन्द्र—प्ररूपित तत्त्वार्थ का श्रद्धान करता है, वह व्यक्ति अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती कहलाता है। यस्त्रसवधाद्विरत:, नो विरत: अत्र स्थावरवधात्। प्रतिसमयं स: जीवो, विरताविरतो जिनैकमति:।।
जो त्रस जीवों की हिंसा से तो विरत हो गया है, परन्तु एकेन्द्रिय स्थावर जीवों (वनस्पति,जल, भूमि, अग्नि, वायु) की हिंसा से विरत नहीं हुआ है तथा वह एकमात्र जिन भगवान में ही श्रद्धा रखता है, वह श्रावक देशविरत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। व्यक्ताव्यक्तप्रमादे, यो वसति प्रमत्तसंयतो भवति। सकलगुणशीलकलितो, महाव्रती चित्रलाचरण:।।
जिसने महाव्रत धारण कर लिए हैं, सकल शील—गुण से समन्वित हो गया है, फिर भी अभी जिसमें व्यक्त—अव्यक्त रूप में प्रमाद शेष है, वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। इसका व्रताचरण किन्चित सदोष होता है। नष्टशेषप्रमादो, व्रतगुणशीलावलिमण्डितो ज्ञानी। अनुपशमक: अक्षपको, ध्यानविलीनो हि अप्रमत्त: स:।।
जिसका व्यक्त—अव्यक्त सम्पूर्ण प्रमाद नि:शेष हो गया है, जो ज्ञानी होने के साथ—साथ व्रत, गुण और शील की माला से सुशोभित है, फिर भी जो न तो मोहनीय कर्म का उपशमकरता है और न क्षय करता है—केवल आत्मध्यान में लीन रहता है, वह श्रमण अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती कहलाता है। (नोट: अप्रमत्तसंयम गुणस्थान से आगे दो श्रेणियां प्रारंभ होती हैं—उपशम और क्षपक। उपशम श्रेणी वाला तपस्वी मोहनीय कर्म का उपशम करते हुए ग्यारहवें गुणस्थान तक चढ़ने पर पुन: मोहनीय कर्म का उदय होने से नीचे गिर जाता है और दूसरा क्षपक श्रेणी वाला मोहनीय कर्म का समूल क्षय करते हुए आगे बढ़ता जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है।) एतस्मिन् गुणस्थाने, विसदृशसमयस्थितैजीवै:। पूर्वमप्राप्ता यस्मात् , भवन्ति अपूर्वा हि परिणामा:।।
इस आठवें गुणस्थान में विसदृश (विभिन्न) समयों में स्थित जीव ऐसे-ऐसे अपूर्व परिणामों (भावों) को धारण करते हैं जो पहले कभी नहीं हो पाए थे। इसीलिए इसका नाम अपूर्वकरण गुणस्थान है। तादृशपरिणामस्थितजीवा:, हि जिनैर्गलिततिमिरै:। मोहस्यापूर्वकरणा:, क्षपणोपशमनोद्यता: भणिता:।।
अज्ञानांधकार को दूर करने वाले (ज्ञान सूर्य) जिनेन्द्र देव ने उन अपूर्व—परिणामी जीवों को मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करने में तत्पर कहा है। (मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम तो नौवें और दसवें गुणस्थानों में होता है किन्तु उसकी तैयारी इस अष्टम् गुणस्थान में ही शुरू हो जाती है।) भवन्ति अनिर्वितनस्ते, प्रतिसमयं येषामेकपरिणामा:। विमलतरध्यानहुतवह—शिखाभिर्निर्दग्धकर्मवना:।।
वे जीव अनिवृत्तिकरण गुणस्थान वाले होते हैं, जिनके प्रतिसमय (निरन्तर) एक ही परिणाम होता है। (इनके भाव अष्टम् गुणस्थान वालों की तरह विसदृश नहीं होते)। ये जीव निर्मलतर ध्यान रूपी शिखाओं से कर्म—वन को भस्म कर देते हैं।