जो चार प्राणों से वर्तमान में जीता है, भविष्य में जीयेगा और अतीत में जिया है, वह जीव द्रव्य है। प्राण चार हैं—बल, इन्द्रिय, आयु और उच्छ्वास। अणुगुरुदेहप्रमाण: उपसंहारप्रसप्र्पत: चेतयिता। असमवहत: व्यवहारात्, निश्चयनयत: असंख्यदेशो वा।।
व्यवहारनय की अपेक्षा समुद्घात अवस्था को छोड़कर संकोच—विस्तार की शक्ति के कारण जीव अपने छोटे या बड़े शरीर के बराबर परिमाण (आकार) का होता है। किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा जीव असंख्यात प्रदेशी है। यथा पद्मरागरत्नं, क्षिप्तं क्षीरे प्रभासयति क्षीरम्। तथा देही देहस्थ:, स्वदेहमात्रं प्रभासयति।।
जैसे पद्मरागमणि दूध में डाल देने पर अपनी प्रभा से दूध को प्रभासित करती है—दुग्ध पात्र के बाहर किसी के पदार्थ को प्रकाशित नहीं करती, वैसे ही जीव शरीर में रहकर अपने शरीर मात्र को प्रभासित करता है—अन्य किसी बाह्य द्रव्य को नहीं। जीव: अक्ष: अर्थव्यापन—भोजनगुणाविन्तो येन। तं प्रति वर्तते ज्ञानं, यत् प्रत्यक्षं तत् त्रिविधम्।।
जीव का ‘अक्ष’ कहते हैं। यह शब्द ‘अशु व्याप्तौ’ धातु से बना है। जो ज्ञान रूप में समस्त पदार्थों में व्याप्त है, वह अक्ष अर्थात् जीव है। ‘अक्ष’ शब्द की व्युत्पत्ति भोजन के अर्थ में ‘अश्’ धातु से भी की जा सकती है। जो तीनों लोक की समस्त समृद्धि आदि को भोगता है, वह अक्ष अर्थात् जीव है। इस तरह दोनों व्युत्पत्तियों से (अर्थव्यापन व भोजनगुण से) जीव का अक्ष अर्थ सिद्ध होता है। उस अक्ष से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके तीन भेद हैं—अवधि, मन:पर्यय और केवल। उत्तमगुणाण धामं, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं। तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो।।
तुम निश्चयपूर्वक यह जानो कि जीव उत्तम गुणों का आश्रय, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य और सब तत्त्वों में परम तत्त्व है। जह रयणं मयणसुगूहियं पि अंतो फूरंत कन्तितिल्लं। इय कम्मरासि गूढो जीवो वि हु जाणए किन्चि।।
जैसे मोम में लिपटा हुआ रत्न मोम के भीतर भी प्रकाशमान होता है, वैसे ही कर्मावृत जीव कर्म के भीतर अपने ज्ञानादि गुणों से प्रकाशित होता रहता है। जह दीवो वरभवणं तुंगं पिहु दीहरं पि दीवेइ। मल्लयसंपुडछूढो तत्तियमेत्तं पयासेइ।। तह जीवो लक्खसमूसियं पि देहं जणेइ सज्जीवं। पुण कुन्थुदेहछूढो तत्तियमेत्तं संतुट्ठो।।
जिस तरह दीपक विशाल और ऊँचे प्रासाद को भी प्रकाशित करता है तथा छोटे से पात्र में रहकर उतने ही भाग को प्रकाशित करता है, उसी तरह से जीव भी लाखों श्वासों को लेने वाले बड़े देह को सजीव करता है और कुन्थु जैसे छोटे शरीर को भी प्रकाशित करता है। जह वच्चइ को वि नरो निहरिउं जरघराऊ नवयम्मि। जह जीवो चइऊणं जरदेहं जाइ देहम्मि।।
जैस कोई मनुष्य जीर्ण—शीर्ण घर छोड़कर नये घर में प्रवेश करता है, वैसे ही जीव जरा—जर्जरति देह को छोड़कर नये देह में जाता है। जह गयणपले पवणो वच्चंतो नेव दीसइ जणेण। तह जीवों वि भमंतो नयणेहि न घेप्पइ भवम्मि।।
जैसे आकाश में घूमता पवन आँखों को दिखाई नहीं देता है, वैसे ही भवभ्रमण करता हुआ जीव आँखों को दिखाई नहीं देता है। जह किर तिलेसु तेल्लं अहवा कुसुमम्मि होइ सोरब्भं। अन्नोन्नाणुगयं चिय एवं चिय देहजीवाणं।।
जैसे तिलों में तेल अथवा पुष्पों में सुगंध रहती है, वैसे ही देह और जीव का अन्योन्य सम्बन्ध है। जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणप्पगा दुविहा।
चेतन स्वभाव संपन्न जीव दो प्रकार के होते हैं—संसारी और निर्वाण—प्राप्त। जीवो त्ति हवदि चेदा।
जीव चेतन हुआ करता है।