‘मैं केवल—शक्ति स्वरूप हूँ’—ज्ञानी ऐसा िंचतन करे। जह कणयमग्गितवियं पि, कणयभावं ण तं परिच्चयइ। तह कम्मोदयतविदो, ण जहदि णाणी दु णाणित्तं।।
जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि से तप्त होने पर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता, वैसे ही ज्ञानी भी कर्मोदय के कारण उत्तप्त होने पर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता। लब्ध्या निधिमेकस्तस्य, फलमनुभवति सुजनत्वेन। तथा ज्ञानी ज्ञाननिधिं, भुंक्ते त्यक्ता परितृप्तिम्।।
जैसे कोई व्यक्ति निधि प्राप्त होने पर उसका उपभोग स्वजनों के बीच करता है, वैसे ही ज्ञानीजन प्राप्त ज्ञान—निधि का उपभोग पर—द्रव्यों से विलग होकर अपने में ही करता है। यद् अज्ञानी कर्म, क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभि:। तद् ज्ञानी त्रिभिर्गुप्त:, क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण।।
अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्मों या वर्षों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा एक सांस में सहज कर डालता है। जो अप्पाणं जाणदि, असुइ—सरीरादु तच्चदोभिन्नं। जाणग रूव—सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं।।
जो आत्मा को इस अपवित्र देह से तत्त्वत: भिन्न और ज्ञायक भाव रूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों का ज्ञाता होता है।