आकाशकालजीवा:, धर्माधर्मौ च र्मूितपरिहीना:।
मूर्तं पुद्गलद्रव्यं, जीव: खलु चेतनस्तेषु।।
—समणसुत्त : ६२६
आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य अर्मूितक हैं। पुद्गल द्रव्य र्मूितक है। इन सबमें केवल जीव द्रव्य ही चेतन है।
दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं।
—पंचास्तिकाय : १०
द्रव्य का लक्षण सत् है और वह सदा उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवत्व भाव से युक्त होता है।
आकाशकालपुद्गलधर्माधर्मेषु न सन्ति जीवगुणा:।
तेषामचेतनत्वं, भणितं जीवस्य चेतनता।।
—समणसुत्त : ६२५
आकाश, काल, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्यों में जीव के गुण नहीं होते, इसलिए उन्हें अजीव कहा गया है। जीव का गुण चेतनता है।
जीवा: पुद्गलकाया:, सह सक्रिया भवन्ति न च शेषा:।
पुद्गलकरणा: जीवा: स्कन्धा: खलु कालकरणास्तु।।
—समणसुत्त : ६२७
जीव और पुद्गलद्रव्य ये दो द्रव्य सक्रिय हैं। शेष सब द्रव्य निष्क्रिय हैं। जीव के सक्रिय होने का बाह्य साधन कर्म—नोकर्मरूप पुद्गल है और पुद्गल के सक्रिय होने का बाह्य साधन कालद्रव्य है।
धर्मोऽधर्म आकाशं, द्रव्यमेवैâकमाख्यातम्।
अनन्तानि च द्रव्याणि, काल: (समया:) पुद्गला जन्तव:।।
—समणसुत्त : ६२८
धर्म, अधर्म और आकाश—ये तीनों द्रव्य संख्या में एक—एक हैंं (व्यवहार) काल, पुद्गल और जीव—ये तीनों द्रव्य अनंतानंत हैं।
धर्माऽधर्मौ च द्वावप्येतौ, लोकमात्रौ व्याख्यातौ।
लोकेऽलोके च आकाश: समय: समयक्षेत्रिक:।।
—समणसुत्त : ६२९
धर्म और अधर्म—ये दोनों ही द्रव्य लोकप्रमाण हैं। आकाश, लोक और अलोक में व्याप्त है। (व्यवहार-काल समयक्षेत्र अर्थात् मनुष्य क्षेत्र में ही है।)
अन्योऽन्यं प्रविशन्त:, ददत्यवकाशमन्योऽन्यय।
मिलन्तोऽपि च नित्यं, स्वभावं स्वभावं न विजहति।।
—समणसुत्त : ६३०
ये सब द्रव्य परस्पर में प्रविष्ट हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को अवकाश देते हुए स्थित है। ये इसी प्रकार अनादिकाल से मिले हुए हैं, किन्तु अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं।
द्रव्यं पर्यववियुतं, द्रव्य-वियुक्ताश्च पर्यवा: न सन्ति।
उत्पादस्थितिभंगा:, खलु द्रव्यलक्षणमेतत्।।
—समणसुत्त : ६६२
पर्याय के बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य के बिना पर्याय नहीं। उत्पाद, स्थिति (ध्रुवता) और व्यय (नाश) द्रव्य का लक्षण है। अर्थात् द्रव्य उसे कहते हैं, जिसमें प्रतिसमय उत्पाद आदि तीनों घटित होते रहते हैं।
द्रव्य की अन्य (उत्तरवर्ती) पर्याय उत्पन्न (प्रकट) होती है और अन्य (पूर्ववर्ती) पर्याय नष्ट (अदृश्य) हो जाती हैं। फिर भी द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है—द्रव्य के रूप में सदा ध्रुव (नित्य) रहता है।
—देखें : गुण, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य।