वस्तु का अपना स्वभाव ही उसका धर्म है। धर्मो बंधुश्च मित्रञ्च धर्मोऽयं गुरुरंगिनाम्। तस्माद् धर्मे मिंत धत्स्व स्वर्गमोक्षसुखदायिनि।।
धर्म ही मनुष्य का सच्चा बंधु है, मित्र है और गुरु है। इसलिए स्वर्ग एवं मोक्ष के सुख देने वाले धर्म में वृद्धि को स्थिर करना चाहिए। स धर्मो यत्र नाधर्म: तत्सुखं यत्र नासुखम्। तज् ज्ञानं यत्र नाऽज्ञानं, सा गतिर्यत्र नाऽगति:।।
धर्म वही है जिसमें अधर्म न हो। सुख वही है जिसमें असुख न हो। ज्ञान वही है जिसमें अज्ञान न हो और गति वही है जिसमें आगति अर्थात् लोटना न हो। संकल्प्य कल्पवृक्षस्य, चिन्त्यं चिन्तामणेरपि। असंकल्प्यमसंचिन्त्यं, फलं धर्मादवाप्यते।।
कल्पवृक्ष से संकल्प किया हुआ और चिंतामणि से चिंतन किया हुआ पदार्थ प्राप्त होता है किन्तु धर्म से तो असंकल्प्य एवं अचिन्त्य फल मिलता है। तव—नियमसुट्ठियाणं, कल्लाणं जीवियांपि मरणं पि। जीवंतज्जंति गुणा, मया पुण सुग्गइं जंति।।
तप—नियम रूप धर्म में रहे हुए जीवों का जीना और मरना दोनों ही अच्छे हैं। जीवित रहकर तो वे गुणों का अर्जन करते हैं और मरने पर सद्गति को प्राप्त होते हैं। आत्मशुद्धिसाधनं धर्म:।
आत्मा की शुद्धि करने वाला साधन धर्म है। मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा। यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तप: क्षान्तिमिंहस्रताम्।।
(प्रथम तो चतुर्गतियों में भ्रमण करने वाले जीव को मनुष्य शरीर ही मिलना दुर्लभ है, फिर) मनुष्य—शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण तो और भी कठिन है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अिंहसा को प्राप्त किया जाए। आहत्य श्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धा परमदुर्लभा। श्रुत्वा नैयायिकम् मार्गं, बहव: परिभ्रश्यन्ति।।
कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाए, तो उस पर श्रद्धा होना महाकठिन है क्योंकि बहुत से लोग न्यायसंगत मोक्षमार्ग का श्रवण करके भी उससे विचलित हो जाते हैं। धम्मविहीणो सोक्खं, तण्हाछेयं जलेण जह रहिदो।
जिस प्रकार मनुष्य जल के बिना प्यास नहीं बुझा सकता, उसी प्रकार मनुष्य धर्मविहीन सुख नहीं पा सकता। धम्मु ण पढियइं होइ धम्मु ण पोत्था पिच्छियइँ। धम्मु ण मठिय—पएसि धम्मु ण मत्था लुंचियइँ।। राय—दोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ। सो धम्मु वि जिण उत्तिमउ जो पंचम—गइ णेइ।।
पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पुस्तक और पीछी से धर्म नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी धर्म नहीं है और केशलुंचन से भी धर्म नहीं कहा जाता। जो राग और द्वेष, दोनों का परित्याग कर अपनी आत्मा में वास करता है, उसे ही अर्हन्त से उत्तम धर्म कहा है, जो मोक्ष प्रदायक है। तिक्खो वि खरो वि सलोहओ वि परपीडगो वि लहुओ वि। लग्गो धम्मम्मि नरो सरोव्व गरुअं गुणं लहइ।।
क्रोधी, कठोर, लोभी, परपीड़क, क्षुद्र प्रकृति व्यक्ति भी यदि धर्म में संलग्न हो जाए तो वह भी बाण की तरह ऊध्र्व दिशा की ओर जाता है, गुणों को प्राप्त करता है। एओ चेव सुभो णवरि सव्वसोक्खायरो धम्मो।
केवल एक धर्म ही शुभ है। वही सब सुख प्रदान करने वाला है। खंतीमद्दवअज्जवलाघवतवसंजमो अिंकचणदा। तह होइ बम्हचेरं सच्चं चागो य दस धम्मा।।
क्षमा, मार्दव, आर्जव, शुद्धि, सत्य, संयम, तप, त्याग, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य; यह दस प्रकार का धर्म हुआ करता है।