जरा यावत् न पीडयति, व्याधि: यावत् न वद्र्धते।
यावदिन्द्रियाणि न हीयन्ते, तावत् धर्मं समाचरेत्।।
—समणसुत्त : २९५
जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियां (रोगादि) नहीं बढ़ती और इन्द्रियाँ अशक्त अक्षम) नहीं हो जातीं, तब तक (यथाशक्ति) धर्माचरण कर लेना चाहिए क्योंकि बाद में अशक्त एवं असमर्थ देहेन्द्रियों से धर्माचरण नहीं हो सकेगा।