धर्मास्तिकाय रसरहित है, रूपरहित है, गंधरहित है और शब्दरहित है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त है, अखण्ड है और विशाल है तथा असंख्यातप्रदेशी है। उदकम् यथा मत्स्यानां, गमनानुनुग्रहकरं भवति लोके। तथा जीवपुद्गलानां, धर्मद्रव्यं विजानीहि।
जैसे इस लोक में जल मछलियों के गमन में सहायक होता है वैसे ही धर्मद्रव्य जीवों तथा पुद्गलों के गमन में सहायक या निमित्त बनता है। न च गच्छति धर्मास्तिकाय: गमनं न करोत्यन्यद्रव्यस्य। भवति गते: स प्रसरो, जीवानां पुद्गलानां च।।
धर्मास्तिकाय स्वयं गमन नहीं करता और न अन्य द्रव्यों का गमन कराता है। वह तो जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन कारण है। यही धर्मास्तिकाय का लक्षण है।