व्यवहार (नय) के बिना परमार्थ (शुद्ध आत्मतत्त्व) का उपदेश करना अशक्य है। स्वाश्रितो निश्चय:।
स्व अर्थात् उस ही एक द्रव्य के आश्रय से जो बोध है, वह निश्चय—नय है। पराश्रितो व्यवहार:।
पर अर्थ के आश्रय से जो बोध अथवा निरूपण है, वह व्यवहार—नय है। यो ज्ञानिनां विकल्प:, श्रुतभेदो वस्त्वंशसंग्रहणम्। स इह नय: प्रयुक्त:, ज्ञानी पुनस्तेन ज्ञानेन।।
श्रुतज्ञान के आश्रय से युक्त वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाले ज्ञानी के विकल्प को ‘नय’ कहते हैं। उस ज्ञान से जो युक्त है, वह ज्ञानी है। यस्मात् न नयेन विना, भवति नरस्य स्याद्वादप्रतिपत्ति:। तस्मात् स बोद्धव्य:, एकान्तं हन्तुकामेन।।
नय के बिना मनुष्य को स्याद्वाद का बोध नहीं होता। अत: जो एकान्त का या एकान्त आग्रह का परिहार करना चाहता है, उसे नय को अवश्य जानना चाहिए। धर्म्मविहीन: सौख्यं, तृष्णाच्छेदं जलेन यथा रहित:। तथेह वांछति मूढो, नयरहितो द्रव्यनिश्चती।।
जैसे धर्म—विहीन मनुष्य सुख चाहता है या कोई जल के बिना अपनी प्यास बुझाना चाहता है, वैसे ही मूढ़जन नय के बिना द्रव्य के स्वरूप का निश्चय करना चाहते हैं। परस्परसापेक्षो नयविषयोऽथ प्रमाणविषयो वा। तत् सापेक्षं भणितं, निरपेक्षं तर्योिवपरीतम्।।
नय का विषय हो या प्रमाण का, परस्पर—सापेक्ष विषय को ही सापेक्ष कहा जाता है और इससे विपरीत को निरपेक्ष। (प्रमाण का विषय सर्व नयों की अपेक्षा रखता है और नय का विषय प्रमाण की तथा अन्य विरोधी नयों की अपेक्षा रखता है, तभी वह विषय—सापेक्ष कहलाता है।) यावन्तो वचनपथास्तावन्तो वा नया: ‘अपि’ शब्दात्। त एव च परसमया: सम्यक्त्वं समुदिता: सर्वे।।
(वास्तव में देखा जाए तो लोक में) जितने वचन—पन्थ हैं, उतने ही नय हैं, क्योंकि सभी वचन वक्ता के किसी न किसी अभिप्राय या अर्थ को सूचित करते हैं और ऐसे वचनों में वस्तु के किसी एक धर्म की ही मुख्यता होती है। अत: जितने नय सावधारण (हठग्राही) हैं, वे सब पर—समय हैं, मिथ्या हैं और अवधारणरहित (सापेक्ष सत्यग्राही) तथा स्यात् पद से युक्त समुदित सभी नय सम्यक् होते हैं। परसमयैकनयमतं, तत्प्रतिपक्षनयतो निवर्तयेत्। समये वा परिगृहीतं, परेण यद् दोष—बुद्धया।।
नय—विधि के ज्ञाता को पर समय रूप (एकान्त या आग्रहपूर्ण) अनित्यत्व आदि के प्रतिपादक ऋजुसूत्र आदि नयों के अनुसार लोक में प्रचलित मतों का निवर्तन या परिहार नित्यादि का कथन करने वाले द्रव्र्यािथक नय से करना चाहिए। तथा स्वसमय रूप जिन—सिद्धांत में भी अज्ञान या द्वेष आदि दोषों से युक्त किसी व्यक्ति से दोषबुद्धि से कोई निरपेक्ष पक्ष अपना लिया हो तो उसका भी निवर्तन (निवारण) करना चाहिए। जह रससिद्धो वाई हेमं काऊण भुंजये भोगं। तह णयसिद्धों जोई अप्पा अणुहवउ अणवरयं।।
जैसे रससिद्ध वैद्य सोना बनाकर भोगों को भोगता है, वैसे ही नयसिद्ध योगी सतत आत्मा का अनुभव करता है।