प्रमादबहुल चर्या, मन की कलुषता, विषयों के प्रति लोलुपता, परपरिताप (परपीड़ा) और परिंनदा—इनसे पाप का आस्रव (आगमन) होता है। न हु पावं हवइ हिय, विसं जहा जीवियत्थिस्स।
जैसे कि जीवितार्थी के लिए विषय हितकर नहीं, वैसे ही कल्याणार्थी के लिए पाप हितकर नहीं। त्रीणि पातकानि सद्य: फलन्ति, स्वामिद्रोह: स्त्रीवधो बालवधश्चेति।
स्वामी—वध, स्त्री—वध और बच्चे का वध–ये तीन महापाप है, जिनका कुफल मनुष्य को इसी लोक में तत्काल भोगना पड़ता है। खर पवनाइद्धं विसमं पत्तं परिभमइ गिरि णिउंजम्मि। इय पाव—पवन—परिहट्टिओ वि जीवो परिब्भमइ।।
जिस तरह प्रचंड पवन से उड़ा हुआ पत्ता पहाड़ की खोह में इधर—उधर भटकता रहता है, वैसे ही पाप रूपी पवन से प्रेरित हुआ जीव चारों गति में भटकता रहता है।