रागद्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होता है। उसके आस्रव—द्वार बराबर खुले रहने के कारण मन—वचन—काय के द्वारा निरन्तर कर्म करता रहता है। भणितं खलु तत् प्रमाणं, प्रत्यक्षपरोक्षभेदाभ्याम्।
जो ज्ञान वस्तु—स्वभाव के यथार्थ स्वरूप को सम्यक् रूप से जाना है, उसे प्रमाण कहते हैं। इसके दो भेद हैं—प्रत्यक्ष और परोक्ष।