इस प्रकार कर्मों के रूप में परिणत वे पुद्गल—पिण्ड देह से देहान्तर को—नवीन शरीर रूप परिवर्तन को—प्राप्त होते रहते हैं। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्म के फलरूप में नया शरीर बनता है और नये शरीर में नवीन कर्म का बंध होता है। इस तरह जीव निरन्तर विविध योनियों में परिभ्रमण करता रहता है। सम्यक्त्व—रत्नसारं, मोक्षमहावृक्षमूलमिति भणितम्। तज्ज्ञायते निश्चय—व्यवहारस्वरूपद्विभेदम्।। जीवादीनां श्रद्धानं, सम्यक्त्वं जिनवरै: प्रज्ञप्तम्। व्यवहारात् निश्चयत:, आत्मा ननु भवति सम्यक्त्वम्।।
रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन ही श्रेष्ठ है और इसी को मोक्षरूपी महावृक्ष का मूल कहा गया है। यह निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का है। व्यवहार से जीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को जिनदेव ने सम्यक्त्व कहा है। निश्चय से तो आत्मा ही सम्यग्दर्शन है।