जो कषायरहित है, इस लोक में निरपेक्ष है, परलोक में भी अप्रतिबद्ध (अनासक्त) है और विवेकपूर्वक आहार–विहार की चर्या रखता है, वही सच्चा श्रमण है। आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि।
शास्त्रज्ञान से शून्य श्रमण न अपने को जान पाता है और न पर को। जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं। न हणइ न हणावेइ अ, ससमणती तेण सो समणो।।
जिस प्रकार मुझको दु:ख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी जीवों को दु:ख प्रिय नहीं है, जो ऐसा जानकर न स्वयं िंहसा करता है, न किसी से िंहसा करवाता है, वह समत्वयोगी ही सच्चा ‘श्रमण’ है। तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ ण होइ पावमणो। सयणे अ जणे अ समो, समो अ माणावमाणेसु।।
जो मन से सु—मन (निर्मल मन वाला) है, संकल्प से कभी पापोन्मुख नहीं होता, स्वजन तथा परजन में, मान एवं अपमान में सदा सम रहता है, वह ‘श्रमण’ होता है। सुविदित पदार्थसूत्र:, संयमतप:संयुतो विगतराग:। श्रमण: समसुखदु:खो, भणित: शुद्धोपयोग इति।।
जिसने (स्वद्रव्य या परद्रव्य के भेद ज्ञान के श्रद्धान तथा आचरण द्वारा) पदार्थों और सूत्रों को भलीभाँति जान लिया है, जो संयम और तप से युक्त है, विगतराग है, सुख—दु:ख में समभाव रखता है, उसी श्रमण को शुद्धोपयोगी कहा जाता है। जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो।
श्रमण वह हुआ करता है, जो उपयुक्त आहार—विहार से संपन्न तथा कषायों से रहित हो।