देवपन, इन्द्रपन, चक्रवर्तीपन और राज्य आदि के उत्तम भोगों को मैंने अनंत बार पाया है, परन्तु अभी तक मैंने इनसे लेशमात्र भी तृप्ति नहीं पाई है। सव्वग्गंवथविमुक्को, सीईभूओ पसंतचित्तो अ। जं पावइ मुत्तिसुहं, न चक्कवट्टी वि तं लहइ।।
सर्व ग्रंथियों से रहित, विषय के विकारों से उपशांत तथा समता से प्रशांत चित्त वाला व्यक्ति भी संतोष से जो सुख प्राप्त करता है, वह सुख चक्रवर्ती भी नहीं पा सकता।