जैसे कछुवा अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही मेधावी (ज्ञानी) पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है। वय समिदि कसायाणं दंडाणं तह इंदियाण पंचण्हं। धारण—पालन णिग्गह चाय जओ संजमो भणिओ।।
व्रत धारण, समितिपालन, कषाय—निग्रह, मन—वचन—शरीर की प्रवृत्ति—दण्डों (हिंसा) का त्याग, पंचेन्द्रिय—विजय—इन सबको संयम कहा जाता है। श्रुिंत च लब्ध्वा श्रद्धां च, वीर्यं पुनर्दुर्लभम्। बहवो रोचमाना अपि, नो च तत् प्रतिपद्यन्ते।।
धर्म श्रवण तथा (उसके प्रति) श्रद्धा हो जाने पर भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यन्त दुर्लभ है। बहुत से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यक् रूपेण स्वीकार नहीं कर पाते।