संल्लेखना दो प्रकार की है—आभ्यन्तर और बाह्य। कषायों को कृश करना आभ्यन्तर संल्लेखना है और शरीर को कृश करना बाह्य संल्लेखना है। कषायान् प्रतनून् कृत्वा, अल्पाहार: तितिक्षते। अथ भिक्षुग्र्लायेत् , आहारस्येव अन्तिकम्।।
(संल्लेखना धारण करने वाला साधु) कषायों को कृश करके धीरे—धीरे आहार की मात्रा घटाए। यदि वह रोगी है—शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है तो आहार का सर्वथा त्याग कर दे। नापि कारणं तृणमय: संस्तार:, नापि च प्रासुका भूमि:। आत्मा खलु संस्तारो भवति, विशुद्धं मनो यस्य।।
जिसका मन विशुद्ध है, उसका संस्तारक न तो तृणमय है और न प्रासुक भूमि है। उसकी आत्मा ही उसका संस्तारक है। (नोट : संल्लेखनाधारी के लिए प्रासुक भूमि में तृणों का संस्तारक लगाया जाता है जिस पर वह विश्राम करता है। इसी को लक्ष्य करके यह भाव—कथन किया गया है।)