अपने तेज का बखान नहीं करते हुए भी सूर्य का तेज स्वत: जगविश्रुत है। सच्चं जसस्स मूलं, सच्चं विस्सासकारणं परमं। सच्चं सग्गद्दारं सच्चं, सिद्धीइ सोपाणं।।
सत्य यश का मूल कारण है। सत्य ही विश्वास प्राप्ति का मुख्य साधक है। सत्य स्वर्ग का द्वार है एवं सिद्धि का सोपान है। सत्ये वसति तप:, सत्ये संयम:, तथा वसन्ति शेषा अपि गुणा:। सत्यं निबन्धनं हि च, गुणानामुदधिरिव मत्स्यानाम्।।
सत्य में तप, संयम और शेष समस्त गुणों का वास होता है। वैसे समुद्र मत्स्यों का कारण—उत्पत्ति स्थान है, वैसे ही सत्य समस्त गुणों का कारण है। बहव: इमे असाधव:, लोके उच्यन्ते साधव:। न लपेदसाधुं साधु: इति साधु: इति आलपेत्।।
(परन्तु) ऐसे भी बहुत से असाधु हैं जिन्हें संसार में साधु कहा जाता है लेकिन असाधु को साधु नहीं कहना चाहिए, साधु को ही साधु कहना चाहिए। प्रज्ञापनीया: भावा:, अनन्तभाग: तु अनभिलाप्यानाम्। प्रज्ञापनीयानां पुन:, अनन्तभाग: श्रुतनिबद्ध:।।
संसार में ऐसे बहुत से पदार्थ हैं जो अनभिलाप्य हैं। शब्दों के द्वारा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसे पदार्थों का अनन्तवाँ भाग ही प्रज्ञापनीय (कहने योग्य) होता है। इन प्रज्ञापनीय पदार्थों का भी अनन्तवाँ भाग ही शास्त्रों में निबद्ध हैं (ऐसी स्थिति में वैâसे कहा जा सकता है कि अमुक शास्त्र की बात या अमुक ज्ञानी की बात ही निरपेक्ष सत्य है।) परसंतावयकारण—वयणं, मोत्तूण सपरहिदवयणं। जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्स दु धम्मो हवे सच्चं।।
दूसरों की संताप का कारण बनने वाले वचनों का त्यागकर जो भिक्षु स्व—परहितकारी वचनों का वरण करता है, वह सत्य धर्म से संपन्न हुआ करता है। आत्मार्थं पदार्थं वा, क्रोधाद्धा यदि वा भयात्। हिंसक न मृषा ब्रूयात् , नाप्यन्यं वदापयेत्।।
(साधक/व्यक्ति) अपने लिए अथवा दूसरों के लिए, क्रोधादि के कारण अथवा भय के कारण, िंहसापरक असत्य वचन न तो स्वयं बोले, न दूसरों से बुलवाए।