किन्तु सम्यक्त्व रूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधनाविहीन होने से संसार में अर्थात् नरकादि गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। श्रुतज्ञानेऽपि जीवो, वर्तमान: स न प्राप्नोति मोक्षम्। यस्तप:संयममयान् , योगान् न शक्नोक्ति वोढुम्।।
श्रुतज्ञान में निमग्न जीव भी यदि तप—संयम रूप योग को धारण करने में असमर्थ हो तो मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। सत्क्रियाविरहात् ईप्सित—संप्रापकं न ज्ञानमिति। मार्गज्ञो वाऽचेष्टो, वातविहीनोऽथवा पोत:।।
(शास्त्र द्वारा मोक्षमार्ग को जान लेने पर भी) सत्क्रिया से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे मार्ग का जानकार पुरुष इच्छित देश की प्राप्ति के लिए समुचित प्रयत्न न करे तो वह गन्तव्य तक नहीं पहुूंच सकता अथवा अनुवूâल वायु की प्रेरणा के अभाव में जलयान इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता। स्तोके शिक्षिते जयति, बहुश्रुतं यश्चारित्र—सम्पूर्ण:। य: पुनश्चारित्रहीन:, किं तस्य श्रुतेन बहुकेन।।
चारित्र संपन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है और चारित्रविहीन का बहुत श्रुतज्ञान भी निष्फल है। यद् ज्ञात्वा योगी, परिहारं करोति पुण्यपापानाम्। तत् चारित्रं भणितम् , अवकिल्पं कर्मरहितै:।।
जिसे जानकर योगी पाप व पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, उसे ही कर्मरहित निर्विकल्प चारित्र कहा गया है। चारित्रं खलु धर्मो, धर्मो य: स सम: इति निर्दिष्ट:। मोहक्षोभविहीन:, परिणाम आत्मनो हि सम:।।
वास्तव में चारित्र ही धर्म है। इस धर्म को शमरूप कहा गया है। मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही शम या समतारूप है। समता तथा माध्यस्थ्यं, शुद्धो भावश्च वीतरागत्वम्। तथा चारित्रं धर्म:, स्वभावाराधना भणिता।।
समता, माध्यस्थ, भाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्वभाव—आराधना—ये सब शब्द एकार्थ हैं। निश्चय: साध्यस्वरूप:, सरागं तस्यैव साधनं चरणम्। तस्मात् द्वे अपि च क्रमश:, प्रतीष्यमाणं प्रबुध्यध्वम्।।
निश्चय चारित्र तो साध्यरूप है तथा सराग (व्यवहार) चारित्र उसका साधन है। साधन तथा साध्य स्वरूप दोनों चारित्र को क्रमपूर्वक धारण करने पर जीव प्रबोध को प्राप्त होता है।