(किन्तु) जिसके सामने (अपने संयम, तप आदि साधना का) कोई भय या किसी भी तरह की क्षति की आशंका नहीं है, उसके लिए भोजन का परित्याग करना उचित नहीं है। यदि वह (फिर भी भोजन का त्याग कर) मरना ही चाहता है तो यह कहना होगा कि वह मुनित्व से ही विरक्त हो गया है। स्थिरधृतशीलमाला, व्यपगतरागा यशओघप्रतिहस्ता:। बहुविनयभूषितांगा, सुखानि साधव: प्रयच्छन्तु।।
शीलरूपी माला को स्थिरतापूर्वक धारण करने वाले, रागरहित यश:समूह से परिपूर्ण तथा प्रवर विजय से अलंकृत शरीर वाले साधु मुझे सुख प्रदान करें। ज्ञानदर्शनसम्पन्नं, संयमे च तपसि रतम्। एवं गुणसमायुक्तं, संयतं साधुमालपेत्।।
ज्ञान और दर्शन से संपन्न संयम और तप में लीन इसी प्रकार के गुणों से युक्त संयमी को ही साधु कहना चाहिए। गुणै: साधुरगुणैरसाधु:, गृहाण साधुगुणान् मुंचाऽसाधुगुणान्। विजानीयात् आत्मानमात्मना:, य: रागद्वेषयो: सम: स पूज्य:।।
(कोई भी) गुणों से साधु होता है और अवगुणों से असाधु। अत: साधु के गुणों को ग्रहण करो और असाधुता का त्याग करो। आत्मा को आत्मा के द्वारा जानते हुए जो राग—द्वेष में समभाव रखता है, वही पूज्य है। देहादिषु अनुरक्ता:, विषयासक्ता: कषायसंयुक्ता:। आत्मस्वभावे सुप्ता:, ते साधव: सम्यक्त्वपरित्यक्ता:।।
देहादि में अनुरक्त, विषयासक्त, कषायसंयुक्त तथा आत्मस्वभाव में सुप्त साधु सम्यक्त्व से शून्य होते हैं। सूत्रार्थं चिन्तयन्तो, निद्राया वशं न गच्छन्ति।
स्वाध्याय और ध्यान में लीन साधु रात में बहुत नहीं सोते हैं। सूत्र और अर्थ का चिन्तन करते रहने के कारण वे निद्रा के वश नहीं होते। देहादिसंगरहित:, मानकषायै: सकलपरित्यक्त:। आत्मा आत्मनि रत:, स भाविंलगी भवेत् साधु:।।
जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है तथा जो अपनी आत्मा में ही लदन है, वह साधु भाविंलगी है।