जिसकी आत्मा संयम में, नियम में एवं तप में सन्निहित (तल्लीन) है, उसकी सच्ची सामायिक होती है, ऐसी केवली भगवान् ने कहा है। जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ। तस्स सामाइयं होइ, इह केवलिभासिअं।।
जो त्रस (कीट, पतंगादि) और स्थावर (पृथ्वी, जल आदि) सब जीवों के प्रति सम है, अर्थात् समत्वयुक्त है, उसी की सच्ची सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान् न कहा है। किं तिव्वेण तवेणं, किं जवेणं किं चरित्तेणं। समयाइ विण मुक्खो, न हु हुओ कहवि न हु होई।।
चाहे कोई कितना ही तीव्र तप तपे, जप जपे अथवा मुनि—वेष धारणकर स्थूल क्रियाकाण्ड रूप चारित्र पाले, परन्तु समता भाव रूप सामायिक के बिना न किसी को मोक्ष हुआ है और न होगा। सामायिके तु कृते, श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात्। एतेन कारणेन, बहुश: सामायिकं कुर्यात् ।
सामायिक करने से (सामायिक काल में) श्रावक श्रमण के समान (सर्वसावद्ययोग से रहित एवं समता भावयुक्त) हो जाता है। अतएव अनेक प्रकार से सामायिक करनी चाहिए। सामायिकमिति कृत्वा, परचिन्तां यस्तु चिन्तयति श्राद्ध:। आर्तवशार्थोपगत:, निरर्थकं तस्य समायिकम्।।
सामायिक करते समय जो श्रावक पर चिन्ता करता है, वह आत्र्तध्यान को प्राप्त होता है। उसकी सामायिक निरर्थक है। समभावो सामायिकं, तृणकांचनशत्रुमित्रविषय: इति। निरभिष्वंगं चित्तं, उचितप्रवृत्तिप्रधानं च।।
तिनके ओर सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही सामायिक है। अर्थात् रागद्वेष रूप अभिष्वंग रहित (ध्यान या अध्ययन रूप) उचित प्रवृत्ति प्रधान चित्त को सामायिक कहते हैं। वचनोच्चारणक्रियां, परित्यक्त्वा वीतरागभावेन। यो ध्यायत्यात्मानं, परमसमाधिर्भवेत् तस्य।।
जो वचन—उच्चारण की क्रिया का परित्याग करके वीतरागभाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसके परम समाधि या सामायिक होती है।