आज से ९ लाख वर्ष पूर्व बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान के तीर्थकाल में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचन्द्र ने उत्तर भारत के परम पावन तीर्थ अयोध्या में जन्म लेकर अपने क्रियाकलापों से संसार में आदर्श उपस्थित किया था पुन: जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर विहार करते हुए दक्षिण भारत के इस पर्वत पर आकर उन्होंने कठोर तपश्चर्या करके मोक्षधाम प्राप्त किया था। उनके साथ ही हनुमान, सुग्रीव, सुडील, गव, गवाक्ष, नील, महानील आदि ९९ करोड़ मुनियों ने भी इस पर्वत से सिद्धपद प्राप्त किया है, ऐसा पद्मपुराण आदि जैन ग्रंथों में वर्णित है।
मांगीतुंगी (भिलवाड) ग्राम के उत्तर दिशा की ओर एक पर्वतराज है, जिसकी दो चूलिकाएँ हैं। प्रथम श्री मांगीगिरि व द्वितीय श्री तुंगीगिरि के नाम से प्रसिद्ध है, जो देखने में अद्वितीय है। यह पूरा पहाड़ी क्षेत्र ‘‘गालना हिल्स’’ कहलाता है, जो समुद्र सतह से ४५०० फीट की ऊँचाई पर है। दोनों पर्वत पर दिगम्बर जैन गुफाएँ हैं और ऊपर गगनचुंबी शिखर हैं।
इन दोनों पहाडियों पर हजारों वर्ष प्राचीन प्रतिमाएँ एवं यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियाँ विराजमान हैं। तलहटी से २५० फीट ऊँचाई पर सुध-बुध मुनिराज के नाम से दो गुफाएँ हैं। इन गुफाओं के अंदर मूलनायक भगवान मुनिसुव्रतनाथ एवं भगवान नेमिनाथ विराजमान हैं।
वस्तुत: मांगीतुंगी गिरि पर अनेकों दिगम्बर जैन प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं तथा अनेक इतिहासों को अपने गर्भ में संजोए ‘‘मांगीतुंगी’’ सिद्धक्षेत्र प्राचीनकाल से एक तपस्वी की भांति अडिग और निष्कामरूप से खड़ा अपनी पावनता का संदेश दे रहा है, जहाँ भक्तगण श्रद्धापूर्वक जाकर वंदना करते हैं तथा अपने असंख्य कर्मों की निर्जरा करते हैं।
बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री १०८ शांतिसागर जी महाराज की अक्षुण्ण परम्परा के पंचम पट्टाधीश स्व० आचार्यश्री १०८ श्रेयांससागर महाराज की प्रेरणा से सन् १९८७ से इस तीर्थ के विकास का कार्य एवं जीर्णोद्धार प्रारंभ हुआ।
१. श्री सातिशय विश्वहितंकर चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनमंदिर
२. श्री १००८ मूलनायक आदिनाथ भगवान जिनमंदिर
३. संकटमोचन श्री पार्श्वनाथ भगवान जिनमंदिर
४. मूलनायक मुनिसुव्रतनाथ भगवान व २४ खड्गासन तीर्थंकर जिनमंदिर
५. सहस्रकूट कमल मंदिर (गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से निर्मित) साथ ही एक मानस्तंभ है।
भगवान पार्श्वनाथ मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा अतिशय चमत्कारिक है, जहाँ भक्तगण अपने मनोरथ सिद्ध करते हैं।
पूज्य स्व. आचार्य श्री श्रेयांससागर महाराज की पावन प्रेरणा से यहाँ वर्तमान चौबीसी मंदिर का निर्माण हुआ, मानस्तंभ का पुन: निर्माण हुआ तथा सहस्रकूट जिनप्रतिमाओं का निर्माण हुआ।
आचार्यश्री अपने संघ सहित जहाँ भी विहार करते थे, इस सिद्धभूमि के विकास हेतु श्रावकों को मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की यात्रा एवं वहाँ सहयोग देने की प्रेरणा प्रदान करते थे।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के चतुर्थ पट्टाधीश आचार्यश्री १०८ अजितसागर महाराज की समाधि के पश्चात् १० जून १९९० को लोहारिया (राज.) की विशाल जनसभा में चतुर्विध संघ द्वारा श्री श्रेयांससागर जी महाराज को पंचम पट्टाचार्य पदवी से अलंकृत किया गया था पुन: सन् १९९२ में उन्होंने अपने संघ सहित राजस्थान से श्रवणबेलगोला की ओर विहार किया, तब मार्ग में मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र के पंचकल्याणक की भावना उनके मन में थी किन्तु १९ फरवरी १९९२ फाल्गुन कृ. एकम् को खांदूकालोनी में अचानक दो दिन की बीमारी से उनका समाधिमरण हो गया पुन: उनकी संघस्थ शिष्या पूज्य आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी ने गुरु के अपूर्ण कार्य को पूर्ण करने का संकल्प लिया और अपना काफी समय इस विकास हेतु क्षेत्र के लिए समर्पित किया ।
महाराजश्री की समाधि के पश्चात् आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी एवं वहाँ के ट्रस्टीगण चाहते थे कि इस प्राचीन आचार्य परम्परा की सर्ववरिष्ठ दीक्षित साध्वी ,दिव्यशक्ति परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के पावन निर्देशन एवं सानिध्य में ही यहाँ का पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हो, इस हेतु उन लोगों ने अपने प्रबल प्रयास प्रारंभ कर दिये थे किन्तु अत्यधिक दूरी एवं स्वास्थ्य की प्रतिकूलता उसमें बाधा उत्पन्न कर रही थी।
किन्तु आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी एवं ट्रस्टियों की ओर से पूज्य माताजी को पुन:-पुन: निवेदन चलता रहा कि पूज्य माताजी! आप जैसी दिव्यशक्ति के आने पर ही यहाँ का रुका कार्य पूर्ण हो सकता है अत: आप एक बार मांगीतुंगी अवश्य पधारकर अनेक वर्षों से रुके पंचकल्याणक को सम्पन्न करा दीजिए।।
परिणामस्वरूप एक दिन २५ नवम्बर १९९५ को पूज्य माताजी के भाव बन गए और वे कहने लगीं कि मुझे मांगीतुंगी के लिए विहार करना है। देखते ही देखते २७ नवम्बर १९९५ को हस्तिनापुर से माताजी का संघ सहित मांगीतुंगी के लिए विहार हो गया, फिर तो पूज्य माताजी के प्रवेश के साथ ही वहाँ यात्रियों का तांता लग गया।
यह सिद्धक्षेत्र के चमत्कार का ही प्रतिफल रहा है कि १९ मई १९९६ से २३ मई १९९६ तक वहाँ होने वाली पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में तीन-तीन संघों का (आचार्य श्री रयणसागर महाराज,गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी का) सानिध्य प्राप्त हुआ। इतिहास बताता है कि वि.सं. १९९७ में यहाँ मानस्तंभ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के समय आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज एवं आचार्यकल्प मुनि श्री वीरसागर जी महाराज का संघ सहित पदार्पण हुआ था।
उसके पश्चात् दीर्घकालीन अवधि के बाद इस तीर्थ पर त्रय संघ सानिध्य में पंचकल्याणक सम्पन्न हुआ। भगवान मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के तीर्थकाल में श्रीराम, हनुमान आदि ९९ करोड़ मुनिराज सिद्ध हुए थे, इसलिए आचार्यश्री श्रेयांससागर महाराज की प्रेरणा से २१ फीट उत्तुंग काले पाषाण की भगवान मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा एवं ६-६ फीट की अन्य २४ प्रतिमाएँ विराजमान की गईं ।
पुन: वहाँ विराजित आर्यिका संघ के, क्षेत्र के ट्रस्टियों एवं महाराष्ट्र प्रान्तीय भक्तों के विशेष आग्रह पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का संघ सहित १९९६ का चातुर्मास मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर ही हुआ, इस चातुर्मास में अनेक उपलब्धियों के साथ एक विशेष उपलब्धि हुई, जो विश्व का आश्चर्य बन कर प्रगट हो रहा है, वह है पर्वत की अखण्ड शिला में प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव की १०८ फुट विशालकाय मूर्ति निर्माण की पावन प्रेरणा ।
पूज्य माताजी ने शरदपूर्णिमा- १९९६ को इस मूर्ति के निर्माण की घोषणा की,जिसका पूरे देशवासियों ने स्वागत करते हुए अपना तन-मन-धन न्योछावर करने का संकल्प किया और इसी के साथ मूर्तिनिर्माण योजना जोर-शोर से शुरू हो गई । पुन: मूर्तिनिर्माण कमेटी का गठन होकर उसकी अध्यक्षता का भार कर्मयोगी ब्र०रवीन्द्रकुमारजी (वर्तमान रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी)के कन्धों पर डाला गया, महामंत्री डा० पन्नालाल जैन पापडीवाल को बनाया गया ।
समिति में अनेकानेक करमठ कार्यकर्ताओं के सहयोग से सर्वप्रथम पहाड पर निर्माण हेतु सरकार से स्वीकृति लेने के लिए सरकारी कार्यवाही पूर्ण करके, मूर्ति निर्माण हेतु नई कमेटी गठित करके ३ मार्च २००२ को पर्वत पर शिलापूजन समारोह भव्यतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
मूर्ति निर्माण का कार्य योजनाबद्ध तरीके से चला। और अब वह क्षण आ गया है , जब प्रतिमा का निर्माण ५० प्रतिशत से अधिक पूर्ण हो चुका है और इस मूर्ति निर्माण की संप्रेरिका पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने स्वयं अपने मुखारविन्द से ८ अक्टूबर २०१४- शरदपूर्णिमा के दिन पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महामस्तकाभिषेक की घोषणा करके सारे संसार को नया आश्चर्य देखने का सुअवसर प्रदान किया है ।
११ फरवरी २०१६ से १७ फरवरी २०१६ , वीर निर्वाण संवत् २५४२ , माघ शुक्ला तीज से माघ शुक्ला दशमी ।
अब इस पंचकल्याणक महोत्सव की व्यापक तैयारियाँ चल रही हैं । श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी की अध्यक्षता में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की एवं प्रान्तीय स्तर की कमेटियों का गठन हुआ और पूरा समारोह भवयता के साथ संपनन हुआ।
मांगीतुंगी तीर्थ पर अन्य और भी अनेक निर्माणकार्य चल रहे हैं, यहाँ एक भव्य प्रवेशद्वार है। यात्रियों की सुविधा के लिए भोजनशाला एवं आवास हेतु अनेक धर्मशालाएँ हैं तथा पानी – बिजली आदि की पूर्ण सुविधा है। यहाँ पर प्रतिवर्ष कार्तिक सुदी पूर्णिमा के दिन भव्य मेला लगता है। इस मेले में हजारों जैन, हिंदू आदि बंधु एकत्रित होते हैं।
ऐसे पावन सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी तीर्थ को शतश: नमन ।
ऋषभगिरि-मांगीतुंगी तीर्थ पूजन (अंग्रेजी)
मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र परिचय एवं पूजन
चैत्र कृष्णा ९, ऋषभदेवपुरम मांगीतुंगी (११-०३-२०१८)
मांगीतुंगी लघु पंचकल्याणक ( ०४-०२-२०१८)
मांगीतुंगी में भगवान ऋषभदेव की 108 फुट मूर्ति निर्माण के नये चित्र
मांगीतुंगी पंचकल्याणक में सान्निध्य प्रदान करने वाले साधु-साध्वी
सबसे बड़ी मूर्ति का, मांगीतुंगी तीर्थ का
सबसे ऊँची प्रतिमा हमें बनाना है
भगवान ऋषभदेव १०८ फुट मूर्ति सम्बन्धी भजन
मांगीतुंगी यात्रा ज्ञानमती माता जी की