भगवान जिनेन्द्रदेव की वाणी बारह अंगरूप है। इसलिए जिनवाणी को द्वादशांग वाणी कहा जाता है। इन बारह अंगों मेें सबसे पहले अंग का नाम आचारांग है। सिद्धांतचक्रवर्ती श्री वसुनंदि आचार्य ने इसे समस्त श्रुतसमूह का आधारभूत कहा है। यथा-
‘‘श्रुतस्कंधाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं’’……… घातिकर्मक्षयोत्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्याय-खचित-षट्द्रव्यनवपदार्थजिनवरोपदिष्टं द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नानेक-प्रकारद्र्धिसमन्वितगणधरदेवरचितं मूलगुणोत्तरगुणस्वरूप-विकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाचारांग’’ अर्थात् जो श्रुतस्वंâध का आधारभूत है, अठारह हजार पद प्रमाण है, घातिया कर्मों के क्षय से प्रगट हुए केवलज्ञान के द्वारा जिन्होंने संपूर्ण गुणों और पर्यायों से खचित-व्याप्त ऐसे छह द्रव्य और नव पदार्थों को जान लिया है, ऐसे जिनेन्द्रदेव के द्वारा जो उपदिष्ट है, बारह प्रकार के तपों का अनुष्ठान करने से उत्पन्न हुई अनेक प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित ऐसे गणधर देवों के द्वारा जो रचित है, जिसमें मूलगुण और उत्तरगुणों का स्वरूप, इनके भेद-प्रभेद उपाय (प्राप्त करने के कारण), साधन (इनकी उत्पत्ति के कारण), सहाय (इनके लिए सहायक सामग्री) और मूलगुण तथा उत्तरगुणों का फल, इन सब बातों को बतलाने में कुशल है ऐसा आचारांग नाम का प्रथम अंग है जो कि आचार्य परम्परा से प्रवर्तमान है।
जिनकी अल्प बुद्धि है, अल्प शक्ति है और अल्प आयु है ऐसे आधुनिक शिष्यों के लिए इस महान आचारांग को बारह अधिकारों में संक्षिप्त करते हुए श्री वट्टकेर अपरनाम कुन्दकुन्द आचार्य ने मूलाचार ग्रंथ की रचना की है। चूंकि दिगम्बर संप्रदाय में अंग और पूर्वरूप आगम को लिपिबद्ध नहीं किया जाने रूप माना गया है इसीलिए वर्तमान में हमारे यहाँ अंग और पूर्वरूप ग्रंथ न होकर मात्र उनके अंश-अंशरूप ही ग्रंथ हैं जो प्रामाणिक आचार्यों द्वारा रचित होने से पूर्ण प्रामाणिक हैं और वर्तमान के ह्रास के युग में जिनकी बुद्धि, शक्ति तथा आयु दिन पर दिन कम होती जा रही है, ऐसे शिष्यों के लिए वे रचे गये हैं। तात्पर्य यह हुआ कि आचारांग आगम जो कि संपूर्ण श्रुत का आधार है, उसके आधार से ही मुनियों के मूलगुण आदि का वर्णन किया गया है।
मूलगुण शब्द का अर्थ-यद्यपि मूल शब्द अनेक अर्थ में है तथापि यहाँ पर प्रधान अर्थ में लिया गया है। गुण शब्द के भी अनेक अर्थ हैं फिर भी यहाँ पर आचरण विशेष के अर्थ में गृहीत है इसलिए मूलगुण अर्थात् प्रधान अनुष्ठान जो कि उत्तर गुणों के लिए आधारभूत है। इन मूलगुणों को धारण करने वाले मुनि इस लोक में पूजा, सर्वजन मान्यता, गुरुता, बड़प्पन और सभी जनों में मैत्री भाव आदि को प्राप्त कर लेते हैं। परलोक में देवों का ऐश्वर्य, तीर्थंकर पद, चक्रवर्ती और बलदेव आदि के पद भी प्राप्त कर लेते हैं। तथा-
‘मूलगुणै: शुद्धस्वरूपं साध्य-साधनमिदं मूलगुणं शास्त्रं’
इन मूलगुणों के द्वारा आत्मा का शुद्ध स्वरूप साध्य है और यह मूलगुण प्रतिपादक शास्त्र साधन है। इस वाक्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन मूलगुणों के बिना आज तक किसी को आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं हुआ है न होता है और न होगा ही। मूलगुणों को धारण करने वाले महामुनि ही सराग चारित्र के अनन्तर वीतराग चारित्र को प्राप्त करते हैें।
मूलगुण के भेद-ये मूलगुण २८ होते हैं-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इंद्रियनिरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण हैं।
महाव्रत शब्द का अर्थ महान व्रत ऐसा होता है। महान शब्द का अर्थ महत्व अर्थात् प्रधान अर्थ में है और व्रत शब्द पापयोग की निवृत्ति के अर्थ में है अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए निमित्तभूत आचरण विशेष में है अर्थात् जो मोक्ष के लिए प्रधान कारण है वह महाव्रत है। अथवा तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुष इनको पालन करते हैं इसलिए ये महाव्रत कहलाते हैं अथवा महान पुरुषार्थ जो मोक्ष उसकी प्राप्ति ये स्वत: कराने वाले हैं इसलिए ये महाव्रत हैं। इनके पाँच भेद हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पाँचों पापों का सर्वथा त्याग कर देना ही पाँच महाव्रत कहलाते हैं।
(१) काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि इनमें जीवों को जानकर चलने, फिरने, ठहरने आदि प्रसंगों में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है।
(२) रागादि के द्वारा असत्य वचनों को और पर को संतापकारी ऐसे सत्य वचनों को भी छोड़कर सूत्र तथा अर्थ के कथन में अयथार्थ वचन का त्याग करना सत्य महाव्रत है।
(३) ग्राम, नगर आदि स्थानों में पड़ी हुई, गिरी हुई, भूली हुई आदि स्वल्प या बहुत वस्तु को तथा पर के द्वारा संगृहीत छात्र-शिष्य आदि को या अन्य किन्चित् भी परवस्तु को बिना दिये नहीं ग्रहण करना अचौर्य महाव्रत है।
(४) वृद्धा, बाला, युवती इन तीन भेद सहित स्त्रियों को माता, सुता और बहन के समान समझकर तथा इनके चित्र आदिकों से भी विरक्त होकर स्त्रीकथा श्रवण आदि से निवृत्त होना यह तीन लोक में पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है।
(५) जीव से संबंधित मिथ्यात्व, वेद, रागादिक, जीव से असंबंधित क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादिक तथा जीव से उत्पन्न शंख, सीप, वंâबल आदि इन सभी प्रकार के परिग्रहों से जो कि मुनिपने के अयोग्य हैं उनका सर्वथा परित्याग कर देना और इतर पिच्छी, कमण्डलु, शास्त्रादि ग्रहण कर उनमें भी निर्मम रहना यह अपरिग्रह महाव्रत है।
सम्यक् प्रवृत्ति को समिति कहते हैं ये व्रतों के लिए बाढ़ के समान हैं। इनके पाँच भेद हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति।
(६) दिवस मेें प्रासुक मार्ग से चार हाथ आगे देखकर गमन करना ईर्यासमिति है।
(७) चुगली, हँसी, कर्कश, परनिंदा, आत्मप्रशंसा और विकथा आदि से रहित अपने तथा पर के लिए हितकारी वचन बोलना भाषासमिति है।
(८) छ्यालीस दोषों से रहित, कारण सहित, नवकोटि से विशुद्ध और ठंडे-गर्म आदि में समता भावपूर्वक जो आहार ग्रहण करना है वह एषणासमिति है।
(९) शास्त्र, कमण्डलु आदि को, अन्य संस्तर घास, पाटा आदि को प्रयत्नपूर्वक पिच्छी से शोधन करके ग्रहण करना और रखना आदान-निक्षेपणसमिति है।
(१०) एकांत, जीव जन्तु रहित और अविरुद्ध ऐसे स्थान में मलमूत्र आदि का विसर्जन करना प्रतिष्ठापन समिति है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन इन्द्रियों को अपने विषयों से रोकना अथवा अशुभ विषयों से हटाकर शुभ में प्रवृत्ति कराना सो इन्द्रियनिरोध है।
(११) सचित्त, अचित्त आदि वस्तुओं को देखने में रागादि का त्याग करना चक्षु इन्द्रियनिरोध है।
(१२) जीव के या वीणा आदि के शब्दों में राग द्वेष नहीं करना श्रोत्र इन्द्रियनिरोध है।
(१३) सुगंध और दुर्गंध में राग द्वेष नहीं करना घ्राण इन्द्रियनिरोध है।
(१४) चार प्रकार का आहार जो कि श्रावकों द्वारा दिया गया है, उसमें गृद्धि नहीं करना रसना इन्द्रिय- निरोध है।
(१५) कर्कश, मृदु इत्यादि स्पर्श में हर्ष-विषाद नहीं करना स्पर्शन इन्द्रियनिरोध है।
अवश्यकर्तव्यानि आवश्यकानि निश्चयक्रिया: सर्वकर्म-निर्मूलनसमर्थनियमा:।
जो अवश्य करने योग्य कर्तव्य हैं उन्हें आवश्यक कहते हैं, ये संपूर्ण कर्म के निर्मूलन में समर्थ नियम विशेष हैं। इन्हें निश्चय क्रिया भी कहते हैं। इन आवश्यक के छह भेद हैं-समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
(१६) जीवन-मरण, सुख-दु:ख आदि में समता रखना और त्रिकाल देववंदना करना यह सामायिक व्रत है।
(१७) चतुर्विंशति तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन आदि करना स्तव है।
(१८) कृतिकर्म विधिपूर्वक अर्हंत, सिद्ध, उनकी प्रतिमा और गुरु आदि की वंदना करना वंदना है।
(१९) भूतकाल में हुए अपराध का विशोधन करना प्रतिक्रमण है।
(२०) भविष्यत्काल में अयोग्य वस्तु का त्याग करना और प्रतिदिन आहार के अनन्तर अगले दिन आहार ग्रहण करने तक चतुराहार का त्याग करना तथा तप के लिए किसी योग्य वस्तु नमक आदि का त्याग करना प्रत्याख्यान है।
(२१) दैवसिक आदि क्रियाओं में काय से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है अथवा महामंत्र का उच्छ्वासपूर्वक स्मरण करना।
(२२) अपने हाथों से दाढ़ी, मूंछ और मस्तक के केशों का उत्पाटन करना (उखाड़ना) केशलोंच है। यह दो महीने में करने से उत्तम, तीन महीने में मध्यम और चार महीने में जघन्य माना जाता है, केशलोंच के दिन उपवास करना होता है।
(२३) श्रमण के अयोग्य संपूर्ण परिग्रह का अर्थात् वस्त्र और आभूषणों का त्याग करना आचेलक्य है अर्थात् नग्नरूप दिगम्बर मुद्रा धारण करना।
(२४) स्नान, उबटन आदि का त्याग करना अस्नानव्रत है।
(२५) पृथ्वी पर अर्थात् घास, पाटा, शिला या भूमि पर शयन करना क्षितिशयन मूलगुण है।
शंका-क्षिति अर्थात् पृथ्वी पर सोना कहने पर घास, पाटा या चटाई आदि का ग्रहण कहाँ से होता है ?
समाधान-मूलाचार में स्वयं टीकाकार ने कहा है यथा-‘‘क्षितौ पृथिव्यां तृणफलकपाषाणादौ शयनं स्वपनं क्षितिशयनं।’’ इसी ग्रंथ में आगे भी कहा है-संस्तरकरणं-चट्टिकादिप्रस्तरणं’’ शिष्य गुरू का विनय करते हुए उनका संस्तर लगावें अर्थात् चटाई आदि बिछावें। ऐसे ही शिवकोटि आचार्य ने भगवती आराधना ग्रंथ में जगह-जगह चार प्रकार के संस्तर का उल्लेख किया है। यथा-‘‘तृणफलयसिलाभूमी सेज्जा तह केसलोचे य।’’ तृण, फलक-पाटा, पत्थर की शिला और भूमि इन चार प्रकार के संस्तर पर शयन करना इत्यादि।
शंका-कुछ विद्वान कहते हैं कि साधु घास तो बिछा सकते हैं किन्तु चटाई नहीं ले सकते हैं ?
समाधान-चटाई बिछाने का यह प्रमाण भी आगम का है जो कि सिद्धान्तचक्रवर्ती वसुनंदि आचार्य द्वारा प्रतिपादित है। पुन: शंका करने की गुंजाइश ही नहीं रहती है। आजकल बहुत से विद्वान प्राय: समयसार, नियमसार आदि ग्रंथों का खूब गहरा अध्ययन करते हैं किन्तु भगवतीआराधना, अनगारधर्मामृत, मूलाचार, आचारसार आदि शास्त्रों का स्वाध्याय नहीं करते हैं यही कारण है कि वे शुद्धोेपयोगी जिनकल्पी साधुओं को ढूंढना चाहते हैं और शुभोपयोगी स्थविरकल्पी साधुओं की अवहेलना करते रहते हैं। उनके छिद्रान्वेषण में ही सारी शक्ति लगाते रहते हैं। सचमुच यदि वे भगवतीआराधना आदि ग्रंथों को पढ़ें तो उन्हें आज के साधु भी अच्छे लगने लगेंगे।
एक बार एक विद्वान ने तो यहाँ तक लिख दिया कि यदि साधु घास बिछा लेवे तो आचेलक्य-नग्नत्व व्रत ही खत्म हो जावेगा, क्योंकि साधु के आचेलक्य व्रत में तृण के, रुई के, चर्म के, ऊन के और रेशम के ऐसे पाँच प्रकार के वस्त्रों का त्याग रहता है। अरे भाई! तृण के बने हुए वल्कल आदि से यदि मुनि अपने शरीर को ढक लेवे, अर्थात् पत्ते आदि को वस्त्र जैसा बनाकर पहन लेवे तब तो नग्नत्व का अभाव हो ही जायेगा किन्तु यदि वे आगम की आज्ञा के अनुसार घास, चटाई, पाटा आदि पर सोते या बैठते हैं तो कोई दोष नहीं है अत: विद्वानों को सोच-समझकर लेखनी चलानी चाहिए।
शंका-क्या घास के समान कागज की कतरन पर भी साधु सो सकते हैं?
समाधान-कागज की कतरन का कहीं आगम में वर्णन नहीं आता है।
(२६) दांतों का घर्षण-दातौन, मंजन आदि नहीं करना यह अदंतघर्षण है।
(२७) पैरों में चार अंगुल अन्तर रखकर खड़े होकर आहार लेना स्थितिभोजन है।
(२८) दिन में एक बार आहार ग्रहण करना एकभक्त मूलगुण है।
इस प्रकार ये अट्ठाईस मूलगुण दिगम्बर मुनिराजों के कहे गये हैं, ये बारह तप और बाईस परीषहजय इन ३४ उत्तर गुणों के लिए और भी नाना प्रकार के उत्तर गुणों के लिए आधारभूत हैं अर्थात् जैसे मूल-जड़ के बिना वृक्ष और नींव के बिना मकान असंभव है उसी प्रकार से इन मूलगुणों के बिना उत्तर गुणों की प्राप्ति होना और शुद्धोपयोगरूप अवस्था में शुद्धात्मा का अनुभव होना असंभव है जो अध्यात्म की लम्बी- लम्बी चर्चा करते हैं उन्हें पहले मूलगुणों को धारण कर आत्मा को शुद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि मात्र कोरी चर्चा से आत्मा का आनंद नहीं मिलने वाला है।