इस आर्यखण्ड में भारतवर्ष सदा पावन और पूज्य रहा,
तीर्थंकर महापुरुष के गौरव से यहाँ का इतिहास भरा।
यहीं नगरि अयोध्या है जहाँ पर तीर्थंकर सदा जनमते हैं,
शाश्वत तीरथ सम्मदेशिखर से मुक्ति प्राप्त वह करते हैं।।१।।
पर वर्तमान में यहाँ अभी हुण्डावसर्पिणी आया है,
अघटित घटनाएं हो इसमें, शास्त्रों में यह बतलाया है।
है काल प्रभाव जो इस युग में हैं केवल पांच प्रभू जन्मे।
बाकी उन्निस तीर्थंकर जिनवर अलग—अलग भू पर जन्में।।२।।
उन चौबीस तीर्थंकर में सोलहवें प्रभुवर की गाथा है,
हैं शान्ति के दाता शान्तिनाथ, चरणों में झुकता माथा है।
कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर का नाम है जगख्याता,
कौरव पाण्डव के युद्ध से है संसार में वह जाना जाता।।३।।
पर बीत गए हैं युगों—युगों, इतिहास आज बतलाती हँ,
शरणागतजन श्री शान्तिनाथ की अनुपम कथा सुनाती हूँ।।
यह वही हस्तिनापुर नगरी जहां प्रथम ऋषभ आहार हुआ,
रक्षाबन्धन का पर्व इसी भूमी से है साकार हुआ।।४।।
रानी रोहिणि, सती मनोवती आदि की रोमांचक घटना,
इतिहास उठाकर पढ़ो अगर हर पन्ना है आदर्श बना।
उस पावन भू हस्तिनापुरी में विश्वसेन महाराज हुए,
उनकी रानी ऐरादेवी मानो रति का ही रूप लिए।।५।।
उन तीन ज्ञान के धारी नृप की र्कीति चहूं दिश व्यापी थी,
थी प्रजा वहाँ की बहुत सुखी, गुणगान नृपति का गाती थी।
अब सुनो इक दिवस पटरानी ऐरादेवी निद्रा में मगन,
सोलह सपने सुन्दर दीखे, आश्चर्यचकित रोमांचित मन।।६।।
उठ गई मात ऐरादेवी, श्री जिनवर का स्मरण किया,
सखियों ने पूछा बात है क्या, कहकर हो गर्इं वह हर्षमना।
उन ब्रह्ममुहूर्त के स्वप्नों का फल निज स्वामी से जब पूछा,
नृप बोले–धन्य हो तुम देवी ! तव गर्भ में तीर्थंकर प्रगटा।।७।।
ऐसा सुन रोमांचित माता पति को प्रणाम कर हर्षमुद्रा,
छाई थीं गजपुर में खुशियां, महलों में आनन्द उत्सव था।
जब प्रभु का गर्भकल्याण हुआ, सौधर्म इन्द्र हरषाता था,
१५ महिनों तक रत्नवृष्टि कर धनद भी खुशी मनाता था।।८।।
शुभ ज्येष्ठ वदी चौदस आयी, शांतीश्वर ने जब जन्म लिया,
स्वर्गों में बाजे बाज उठे, तत्क्षण सुर ने सिर नमित किया।
सब इन्द्र सपरिकर उमड़ पड़े, प्रभु का जन्मोत्सव खूब किया,
मेरू की पांडुशिला पर जा तीर्थंकर शिशु का न्वहन किया।।९।।
क्षीरोदधि का जल एक सहस कलशे भर—२ कर ढुरा दिया,
उस जन्मकल्याणक के अभिषव का दृश्य अलौकिक अनुपम था”
स्वर्गों से लाए दिव्य वस्त्र से, शचि ने किया अलंकृत
जब प्रभुवर की शोभा न्यारी थी, लिखने में नहिं लेखनि सक्षम।।१०।।
प्रभु को निरखा जब निरख न पाया, नेत्र हजार बनाए थे,
आनन्द नाम का उत्सव कर सौधर्म इन्द्र हरषाए थे।।
जन्मोत्सव कर प्रभु को सौंपा सुर आज्ञा ले निज द्वार चले।
प्रभु झूल रहे हैं रत्न पालना, उनकी उपमा कौन धरे।।११।।
नृप विश्वसेन की दूजी रानी यशस्वती कहलाई हैं,
मुक्तीपति धीर—वीर चक्रायुध की माता कहलाई है।
देवों संग शान्तिनाथ खेले, कभी भ्राता संग बतलाते थे,
उन बालसुलभ क्रीड़ाओं से, वह सबका मन हरषाते थे।।१२
अब आठ वर्ष की वय आई द्वादश व्रत प्रभु ने ग्रहण किए,
इक लाख वर्ष की आयू थी, चालीस धनुष की काय लिए।
तीर्थंकर चक्री, कामदेव, इन तीन पदों के धारी हैं,
उन शान्तिनाथ प्रभु के चरणों में नितप्रति धोक हमारी है।।१३
अब शैशव से बचपन आया, फिर तरुणाई ने घेर लिया,
कुछ पुण्यवती कन्याओं के संग, पितु ने ब्याह रचाय दिया।
पच्चीस सहस वर्षों तक उनने नानाविध सुख भोगे थे,
पितु आज्ञा पाई और राजसिंहासन पर फिर बैठे थे।।१४।।
इन्द्रों ने राज्य अभिषेक किया, वस्त्राभूषण भी लाए थे,
मस्तक पर बांधा राज्यपट्ट, सुर नर कुटुम्बि हरषाए थे।
पच्चीस सहस वर्षों तक उनने राज्यलक्ष्मि का भोग किया,
जब चौदह रत्न उत्पन्न हुए, दिग्विजय हेतु प्रस्थान किया।।१५।।
षट्खण्ड विजय करके शांतीप्रभु चक्रवर्ति कहलाए थे,
छ्यानवे हजार रानियों संग आनन्द से समय बिताए थे।
नौ निधियाँ प्रकट हुई उनके, अद्भुत वैभव के स्वामी थे,
सुर नर वन्दित वे शान्तिप्रभू तद्भव मुक्ति के गामी थे।।१६।।
प्रभुवर को क्यों वैराग्य हुआ, अब उसकी कथा सुनाती हूं,
चक्रीश ने अतुलित वैभव क्यों छोड़ा बन्धू ! बतलाती हूँ।
इक दिवस प्रभू दर्पण में अपना रूप निरख हरषाते थे,
दो छाया ज्यों ही दिखी उन्हें, आश्चर्य में गोते खाते थे।।१७।।
निज अवधिज्ञान से जान लिया, यह मेरी ही पर्याये हैं,
यह राज्य सम्पदा, आयु, रानियाँ क्षणभंगुर कहलाए हैं।
वैराग्य प्रगट ज्यों हुआ तुरत लौकान्तिक सुर आ नमन किया,
वनगमन के सम्मुख हुए तभी इन्द्रों ने उत्सव खूब किया।।१८।।
निज पुत्र को राज्यभार सौंपा, दीक्षा लेने का कदम बढ़े,
सर्वार्थसिद्धि पालकि पर चढ़, प्रभु शान्तिनाथ वनगनम करें।
चल पड़े प्रभू पालकि पर चढ़, रानियाँ शोक में मग्न हुईं ,
हे प्राणनाथ ! मत जाओ छोड़, कह गिर पड़तीं उस ओर चलीं।।१९।।
कुछ विज्ञ पुरुष के समझाने से सभी रानियाँ मान गई,
प्रभु सहस्राम्र वन में पहुंचे, मुक्तीसखि हेतू दीक्षा ली।
मन्दरपुर में राजा सुमित्र के महल प्रथम आहार हुआ,
रत्नों की वर्षा हुई और देवों ने जय—जयकार किया।।२०।।
चक्रायुध आदि मुनी के संग प्रभु निश्चल ध्यानरूढ़ हुए,
कर क्षपक श्रेणि पर आरोहण ,शांती प्रभुवर केवली बने।
सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से की धनद ने समवसरण रचना,
उस समवसरण की रचना का अद्भुत वर्णन कैसे करना ।।२१।।
उस समवसरण की चार दिशा में सुन्दर मानस्तम्भ बने,
मिथ्यादृष्टि का मान गलित हो जाता है दर्शन से अरे।
पृथ्वी से बीस हजार हाथ ऊपर है समवसरण रचना,
है आठ भूमि से शोभित वह पर प्रभुवर ने नहिं उसे चुना।।२२।।
कमलासन से भी चउ अंगुल जा प्रभुवर अधर विराजे हैं,
ऊँकारमयी दिव्यध्वनि सुन सुर नर पशु सब हरषाते हैं।
चक्रायुध भ्राता गणधर बन मुक्तीश्री वरने हेतु चले,
उस समवसरण की शोभा का वर्णन मम जिह्वा कर न सके।।२३
प्रभु जहाँ–जहाँ करते विहार, शत—शत योजन सुभिक्ष होता,
प्रभु पग रखते थे जहाँ इन्द्र कमलों की रचना कर देता।
जब एक मास की आयु शेष भी गिरि सम्मेद विराजे जा,
अवशेष अघाती नष्ट किये, अरु सिद्धशिला पर राजे जा।।२४।।
सम्मेदशिखर गिरि पूज्य हुई जहां से प्रभुवर निर्वाण गए,
देवों ने की पूजा भक्ती अरु उनकी काया भस्म किए।
उस अतुलित अव्याबाध, शान्त स्थान पे प्रभू विराज गए,
पुनरागति नहिं होती है कभी उस सिद्धशिला को नमन करें।।२५।।
बारह भव में निज काया को, तप की अग्नी में तपा दिया,
लोहे से सोना बन करके पारसमणि उसको बना लिया।
उन बारह भव का भी वर्णन मैं लघू रूप में गाती हूँ,
कैसे बन गए श्री शान्तिप्रभू यह बात तुम्हें बतलाती हूँ।।२६।।
पहले भव में वह श्रीषेण राजा के रूप में जन्में थे,
थे नीतिपरायण जिनधर्मी अरु पात्रदान वह करते थे।
शुभ पात्रदान के ही फल से वह भोगभूमि में आर्य हुए,
अनुपम सुख भोगे वहां और वहां से चयकर वे स्वर्ग गए।।२७।।
सौधर्म स्वर्ग में श्रीप्रभ देव के रूप में उनका जन्म हुआ,
स्वर्गों के सुख भोगे लेकिन जिनधर्म में उनको राग बड़ा।
पुनरपि राजा श्री अर्ककीर्ति के अमिततेज सुत बन जन्में,
वैराग्य भाव जब उचित हुआ दीक्षा ले दुश्कर तप वे करें।।२८।।
करके समाधि से मरण वे आनत स्वर्ग में जाकर देव हुए,
जिनवर की पूजा भक्ती कर सुखसागर में वे मग्न रहे।
फिर प्रभाकरी नगरी के राजा के सुत बनकर जन्में थे,
अपराजित नाम से ख्यात हुए बलभद्र बड़े जिनधर्मी थे।।२९।।
इक समय उन्हें वैराग्य हुआ सुत को दे राज्य चले वन को,
मुनिराज यशोधर से दीक्षा ले, संयम में धारा निज को।
वैराग्य भाव का चिन्तन कर, करते कठोर तप की चर्या,
कर प्राण त्याग बन अच्युतेन्द्र जिनवर को पुन: प्रणाम किया।।३०।।
स्वर्गों के दिव्य सुखों को भोगा पुन: वहाँ से चय करके,
है नगर रत्नसंचयपुर वहाँ क्षेमंकर नृप के पुत्र बने।
वज्रायुध नाम था उस सुत का हर विद्या में वह निपुण हुआ,
कर न्यायनीति से राज्य पुन: वह चक्रवर्ति सम्राट बना।।३१।।
संसार से हुई विरक्ति उसे भोगों से घृणा हो आई थी,
क्षेमंकर तीर्थंकर सम्मुख जा ज्ञान की ज्योति जलाई थी।
दीक्षा ले घोर तपश्चर्या कर उत्तम विधि से मरण किया,
अहमिन्द्र बने वह पुण्यात्मा स्वर्गों में आनन्द उत्सव था।।३२।।
उन्तिस सागर की आयु भोग आए पुण्डरीकिणि नगरी में,
घनरथ तीर्थंकर के सुत थे जिनधर्मि मेघरथ रूप में वे।
ये तीन ज्ञान के धारी वह, न्यायोचित राज काज करते,
श्रावक के षट्आवश्यक कर्तव्यों का भी पालन करते।।३३।।
इक बार मेघरथ राजा घनरथ तीर्थंकर के पास गए,
कर समवसरण में नमन प्रभू को दिव्यध्वनि का पान करें।
दिव्यध्वनि सुनकर वैरागी हो राजपाट सब त्याग दिया,
ली सात हजार नृपति संग दीक्षा पुन: घोर तप शुरू किया।।३४।।
प्रायोपगमन सन्यास मरण से निज काया को त्याग दिया,
सर्वार्थसिद्धि में राजे जा जिसके ऊपर है सिद्धशिला।
अहमिन्द्र बने जिनभक्ती की अरु तत्व की चर्चा खूब किया,
तैंतिस सागर की आयू को इस तरह से उनने पूर्ण किया।।३५।।
वहां से चय करके शान्तिनाथ स्वामी के रूप में जन्मे थे,
हे शांतिप्रदाता ! शांतिप्रभू ! इस तरह से तुम जिनराज बने।
तब चरणों में नत माथा है प्रभु मुझ पर कृपादृष्टि करना,
भव—भव की मेटो प्रभु फेरी, अब ‘इन्दु’ ले रही तव शरणा।।३६।।
था कालदोष जो जन्मभूमि लोगों को विस्मृत हो आई,
पर गणिनी ज्ञानमती माता शारद माँ बन भू पर आई।
प्रेरणा मिली उनकी जिनवर की जन्मभूमि फिर चमक उठी,
वह विश्वक्षितिज में आज शांति कुंथू अर जिनवर जन्मथली।।३७।।
वहां विश्वप्रसिद्ध बनी रचना जो जम्बूद्वीप कहाती है,
वह देश—विदेश में आकर्षण का केन्द्रबिन्दु बन छाती है।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती इस युग की अमिट धरोहर हैं,
जो कार्य किए अनुपम उनने शब्दों में कहें असक्षम हैं।।३८।।
है पुण्य उदय हम सबका युग की प्रथम बालसति को पाया,
जिनधर्म की र्कीतिपताका को दुनिया में उनने फहराया।
जगती उनके उपकारों का कभी बदला चुका न पाएगी,
जब तक नभ में सूरज चन्दा, गुणगाथा उनकी गाएगी।।३९।।
प्रेरणा ज्ञानमति माता की, प्रभु की हों जन्मभूमि विकसित,
उनके आदर्शों को लेकर हर मानव हो जाए प्रमुदित।
जिनधर्म पताका फहराओ, तीरथ का खूब विकास करो,
आगम के पथ पर चल करके, मानव जीवन को सफल करो।।४०।।
है वीरप्रभू से यही प्रार्थना, वरदहस्त हम पर उनका,
हो मरण समाधि अंत में बस, नहिं पुनरपि जन्मूँ यह इच्छा।
उन शांतिप्रभू को ‘इन्दु’ नमे, अरु नमे ज्ञानमति माताजी।
भारत माता की गोदी इस माता से कभी न हो सूनी।।४१।।