प्रश्न1-गति मार्गणा किसे कहते हैंं
उत्तर-गति नाम कर्म के उदय से उस-उस गाति विषयक भाव के कारणभूत जीव की अवस्था विशेष को गति कहते हैंं “
प्रश्न2–गति मार्गणा कितने प्रकार की हैंं
उत्तर-गति मार्गणा चार प्रकार की होती है- (1) नरकगति (2) तिर्यव्यगति (3) मनुष्यगति (4) देवगति । ६३- द्रसै. 13 टी.) नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति ० सिद्धगति में भी जीव होते हैं । (य.7ा522)
प्रश्न3-नरकगति किसे कहते हैं?
उत्तर-जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में स्वय तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं उनको नारक कहते हैं । नारक की गति को नरकगति कहते हैं । (गो. जी. 147) नीचे अधोलोक में घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा तथा माघवी नामकी सात पृथिवियाँ हैं । उनमें नारकी जीव रहते हैं । वे नारकी क्षेत्रजनित, मानसिक और शारीरिक आदि अनेक प्रकार के दुःखों को दीर्घ काल तक भोगते हैं, उनकी गति को नरकगति कहते हैं ।
प्रश्न4-तिर्यज्जगति किसे कहते हैं?
उत्तर- देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोड्कर शेष सभी तिर्यव्व कहलाते हैं। तियब्बों की गति को तिर्यव्यगति कहते हैं । (त. सू ’27) (1) जो मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त हो। (2) जिनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) हो । (3) जो निकृष्ट अज्ञानी हो । (4) जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय वे तिर्यब्ज है । इन तिर्यञ्च की गति को तिर्यज्जगति कहते हैं । (गो. जी. 148)
प्रश्न5-_ मनुष्यगति किसे कहते हैं?
उत्तर-जिनके मनुष्यगति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं ( उनकी गति को मनुष्य गति कहते है । जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके, जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो, जो शिल्प-कला आदि में कुशल हो तथा जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं । (गो. जी. 149)
प्रश्न:6-देवगति किसे कहते हैं?
उत्तर-भवनवासी आदि चार प्रकार के देवों की गति को देवगति कहते हैं । ( 1) जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों, (2) जो अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हौं, ( 3) जिनका रूप-लावण्य-यौवन सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं । उन देवों की गति को देवगति कहते हैं । (गो. जी. 151 मै.)
प्रश्न:7-सिद्धगति किसे कहते हैं?
उत्तर-यद्यपि सिद्ध भगवान के किसी गति नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी आठ कर्मों का नाश करके सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग में गमन करते हैं । ( 1) जो एकेन्द्रिय आदि जाति, बुढ़ापा, मरण तथा भय से रहित हों, ( 2) जो इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग से रहित हों, (3) जो आहारादि संज्ञाओं से रहित हों, (4) जो रोग, आधि-व्याधि से रहित हों, वे सिद्ध भगवान हैं, उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं । (गो. जी. 152) जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूप अमृत के अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भाव कर्म रूपी अञ्जन से रहित हैं, नित्य हैं, जिनके सम्बल्लादि भाव रूप मुख्य गुण प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं और उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं । ( गो. जी. 68)
== तालिका संख्या 1 { class=wikitable width=100% – ! क्रम!! स्थान !! संख्या !!विवरण !!विशेष – 1 गति 1 नरकगति – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय – 3 काय 1 त्रस – 4 योग 11 4 मनो. 4 वच.3 काय.औदारिकद्विक तथा आहारकद्विक नहीं हैं । – 5 वेद 1 नपुसक – 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय स्त्रीवेद तथा पुरुषवेद नहीं हैं – 7 ज्ञान 6 3 कुज्ञान, 3 ज्ञान मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं है। – 8संयम 1 असंयम – 9 दर्शन 3 चक्षु, अचक्षु, अवधि केवलदर्शन नहीं है । – 10 लेश्या 3 कृ. नी. का. शुभ लेश्याएँ नहीं है । – 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्षा. क्षयो. उप. सा सा. मिश्र. मि. – 13 संज्ञी 1 सैनी – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 4 मि. सा. मिश्र अविरत – 16 जीवसमाास 1 सैनी पंचेन्द्रिय – 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. मन. – 18 प्राण10 5 इन्दि., 3 बल, श्वा. आयु. – 19 संज्ञा 4 आ. भ. मै. पीर. – 20 उपयोग 9 6 ज्ञानो. 3 दर्शनोपयोग – 21 ध्यान 9 4 आ. 4 री. 1 धर्म.आज्ञाविचय धर्मध्यान होता है । – 22 आस्रव 51 5मि. 12 अ. 23 क. 11 यो. – 23 जाति 4 लाख नरक सम्बन्धी तिर्य., मनुष्य तथा देवों की जातियाँ नहीं हैं । – 24कुल 25 लाख क. नरक सम्बन्धी तिर्य., मनुष्य तथा देवों की कुल नहीं हैं । }
प्रश्न:8- नरक कितने हैं?
उत्तर-नरक सातहैं – (1) रत्नप्रभा (2) शर्कराप्रभा (3) बालुकाप्रभा (4) पंकप्रभा (5) कूप्रभा (6) तमःप्रभा (7) महातमःप्रभा । ये सात पृथिवियाँ हें । इनमें सात नरक हैं- (1) घम्मा (2) वंशा (3) मेघा (4) अंजना (5) अरिष्टा (6) मघवा (7) माघवी । (ति प. 1/153)
प्रश्न:9-नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं तो वहाँ कीड़ों से भरी नदी कैसे बताई गई है?
उत्तर- यह सत्य है कि नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव तिर्यञ्चगति में ही पाये जाते हैं । नरकों में जो वैतरणी नदी को कीड़ों से भरी हुई बतलाया है वे कीड़े स्वय नारकी अपनी विक्रिया के बल से बन जाते है । उनका कीड़ों का आकार आदि होने पर भी वे नारकी ही होते हैं क्योंकि उनके नरकगति, नरकायु आदि प्रकृतियों का उदय होता है । जैसे- नारकी हांडी, वसूला, करीत, भाला आदि रूप विक्रिया कर लेने से अजीव नहीं हो जाते, गाय आदि की विक्रिया कर लेने से गाय आदि के समान दूध देने में समर्थ नहीं हो जाते हैं वैसे ही कीड़ों के बारे में भी समझना चाहिए । (ति. प. 2? 318 – 322 के आधार से)
प्रश्न:10-क्या नरक में स्थावर जीव नहीं पाये जाते हैं?
उत्तर-सूूूूक्ष्म स्थावर जीव सर्व लोक में ठसाठस भरे हुए हैं । (गो. जी. 184) अत: यदि नरकों में स्थावर जीव होवे तो कोई आश्चर्य नहीं है, लेकिन वे स्थावर जीव नरक की भूमि में रहने मात्र से नारकी नहीं हो जाते और न वे नरकगति के जीव ही कहला सकते हैं, क्योंकि नारकी तो वही होता है जिसके नरकायु आदि का उदय होता है । इन स्थावरों के इन प्रकृतियों का उदय नहीं होता है । अत: वे नरक भूमि में रहकर भी नारकी नहीं कहलाते हैं । जैसे- असुरकुमार आदि देव भी नरक में जाते हैं । कुछ समय तक वहाँ रुकते भी हैं । इसका अर्थ यह नहीं कि वे नारकी हो जाते हैं क्योंकि उनके देवगति नामकर्म का उदय है ।
प्रश्न:11-नारकियों के कार्मण- काययोग में कौन- कौनसा गुणस्थान हो सकता है?
उत्तर-नारकियों के कार्मण काययोग में दो गुणस्थान हो सकते हैं- ( 1) मिथ्यात्व (2) अविरत सम्यग्दृष्टि । नोट- ( 1) कोई भी जीव दूसरे गुणस्थान को लेकर नरक गति में नहीं जाता तथा तीसरे गुणस्थान में मरण नहीं होता (ध. 1) अत: ये दोनों गुणस्थान नारकियों की कार्मण काययोग अवस्था में नहीं होते हैं । (2) चौथा गुणस्थान मात्र प्रथम नरक की कार्मण अवस्था में ही होता है, अन्य नरकों में नहीं ।
प्रश्न:12-नारकियों के निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में सासादन गुणस्थान क्यों नहीं होता?
उत्तर-सासादन गुणस्थान वाला नरक में उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि सासादन गुणस्थान वाले के नरकायु का बन्ध नहीं होता है । जिसने पहले नरकायु का बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि नरकायु का बन्ध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण नहीं होता है । (ध.1/325-26)
प्रश्न:13-नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कितने योग होते हैं?
उत्तर-नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में एक योग ही होता है- वैकियिकमिश्रकाय योग । क्योंकि कार्मण-काययोग विग्रहगति में तथा शेष योग पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं ।
प्रश्न:14- नारकियों के आहारक अवस्था में कितने योग होते हैं?
उत्तर-नारकियों के आहारक अवस्था में दस योग होते हैं – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, 2 काययोग (वैक्रियिक द्विक)
प्रश्न:15-नारकियों के नपुंसक वेद ही क्यों होता है?
उत्तर-नरक गति पाप के उदय से प्राप्त होती है । वहाँ जीवों को दुःख ही दुःख होते है । लीवेद वाला पुरुष के साथ तथा पुरुषवेद वाला स्त्री के साथ रमण करके सुख प्राप्त कर लेता है । नपुंसकवेद वाले की वासनाएँ सी-पुरुष वेद वालों की अपेक्षा कई गुणी होती है, लेकिन वह न पुरुष के साथ रम सकता है और न स्त्री के साथ इसलिए वह वासनाओं से संतप्त रहता है । नरकों में यदि खी-पुरुष वेद होगा तो उन्हें सुख मिल जायेगा । परन्तु वहाँ पंचेन्द्रियजनित विषयों से उत्पन्न. कोई सुख नहीं होता है, शायद इसीलिए उनके नर्गुसक वेद ही होता है । निरन्तर दुःखी होने के कारण उनके दो (स्त्री-पुरुष) वेद नहीं होते हैं । (ध. 1 ‘ 347)
प्रश्न16- चतुर्थ नरक के नारकियों के कितनी कषायें होती हैं?
उत्तर-चतुर्थ नरक के नारकियों के अधिक से अधिक 23 कषायें होती है – अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क तथा स्वीवेद- पुरुषवेद के बिना हास्यादि 7 नोकषाय । कम-से-कम 19 कषायें होती हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अभाव होने पर सम्यग्दृष्टि जीव के 19 कषायें होती हैं ।
नोट : इसी प्रकार सभी नरकों में जानना चाहिए ।
प्रश्न:17-क्या कोई ऐसा सम्यग्दृष्टि नारकी है जिसके अवधिज्ञान नहीं होता है?
उत्तर-हाँ, जो सम्यग्दृष्टि जीव (मनुष्य) अवधिज्ञान लेकर नरक में नहीं जाता है, उस सम्यग्दृष्टि नारकी के विग्रहगति में निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तथा पर्याप्त अवस्था में जब तक अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता तब तक उस सम्यग्दृष्टि नारकी के अवधिज्ञान नहीं होता है ।
प्रश्न:18-क्या सभी नारकियों के छहों ज्ञान होते हैं?
उत्तर-नहीं, सभी नारकियों के छहों ज्ञान नहीं होते हैं- सम्यग्दृष्टि नारकी के तीन ज्ञान होते हैं – मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान । मिथ्यादृष्टि तथा सासादन सम्यग्दृष्टि के तीन – कुशान (अज्ञान) होते है कुमतिशान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिशान मिश्र गुणस्थानवर्ती नारकी के तीनों ही ज्ञान मिश्र रूप होते हैं ।
प्रश्न:19-क्या सभी नारकियों के समान रूप से तीनों अशुभ लेश्याएँ होती हैं?
उत्तर-नहीं, सभी नरकों में अलग- अलग लेश्याएँ होती हैं –
{” class=”wikitable” “- ! क्रम !! नरक !! लेश्या “- ” 1″”प्रथम नरक में “” जघन्य कापोत “- ” 2 “”दूसरे नरक में “” मध्यम कापोत “- ” 3 “”तीसरे नरक में “” उत्कृष्ट कापोत तथा जघन्य नील “- ” 4 “”चतुर्थ नरक में “” मध्यम नील “- “5 “”पंचम नरक में “” उत्कृष्ट नील तथा जघन्य कृष्ण “- ” 6 “” छठे नरक में “” मध्यम कृष्ण “- ” 7 “” सातवें नरक में “” उत्कृष्ट कृष्ण । (त. सा.. 2० टी. “}
प्रश्न:20-नारकियों के अशुभ लेश्या ही क्यों होती है?
उत्तर-नारकियों के नित्य संफ्लेश परिणाम ही होते हैं, इसलिए उनके अशुभ लेश्याएँ ही होती हैैँ”
प्रश्न:21-क्या नारकियों के द्रव्य और भाव से अशुभ लेश्या ही होती है?
उत्तर-हाँ, नारकियों के शरीर नियम से हुण्डक संस्थान वाले ही होते हैं, इसलिए उनके द्रव्य से अशुभ लेश्या ही होती है । सभी नारकियों के पर्याप्तावस्था में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है । (ध. 2745०) नारकानित्याशुभ. (त. सू 3) के अनुसार उनके भाव भी हमेशा अशुभतर ही रहते हैं इसलिए उनके भाव से भी अशुभ लेश्या ही होती है ।
प्रश्न:22-नारकियों की अपर्याप्त- अवस्था में कितने सम्य? होते हैं?
उत्तर-नारकियों की अपर्याप्त-अवस्था में तीन सम्यक्त्व होते हैं- ( 1) मिथ्यात्व (2) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ( 3) क्षायिक सम्यक्त्व। (1) घम्मा नरक की अपर्याप्त अवस्था में तीनों सम्यक्त्व होते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा समझना चाहिए । वैशा आदि माघवी पर्यन्त नरकों की अपर्याप्त अवस्था में केवल म्स्क मिथ्यात्व ही होता नोट – बद्धायुष्क तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला भी क्षायोपशमिक सभ्यक्ल को लेकर प्रथम नरक में नहीं जा सकता है । क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्य वेदक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि को छोड्कर शेष कोई भी जीव सम्यग्दर्शन को लेकर नरक में नहीं जा सकता है । ( 2) प्रथमोपशम सम्यक्त्व तथा मिश्र सम्यक्त्व में मरण नहीं होता और सासादन को लेकर जीव नरक में नहीं जाता इसलिए नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में ये तीनों सम्यक्त्व नहीं होते हैं । प्रश्न:23-नारकी कौन-कौनसा सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकते हैं? उत्तर-नारकी दो सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकते हैं- ( 1) प्रथमोपशम-सम्यग्दर्शन (2) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन । नारकी क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं कर सकते; क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही करते हैं । कृतकृत्य वेदक वहाँ जाकर सम्यक् प्रकृति का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दर्शन का निष्ठापन कर सकता है । नोट – सम्यक्त्व मार्गणा में से नारकी मिथ्यात्व, सासादन तथा मिश्र सम्यक्त्व को भी उत्पन्न कर सकते है । प्रश्न:24-नारकियों की पर्याप्त अवस्था में कितने सम्यक्त्व होते हैं? उत्तर-प्रथम नरक के नारकियों की पर्याप्त अवस्था में सभी सम्यक्त्व होते है । दूसरे से सातवें नरक तक क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नरक से आगे नहीं जाता है । अर्थात् प्रथम नरक में सभी सम्मल्ल होते हैं और शेष नरकों में क्षायिक सम्यक्त्व के बिना पाँच ही सम्यक्त्व होते हैं । प्रश्न:25-नारकियों में पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते? उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित हिंसा में आनन्द मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दुःखों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दश गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं । (नि. प. 2 – 76) प्रथमादि चार गुणस्थानों के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्भाव नहीं है; क्योंकि संयमासंयम और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है । ४- 172०8) प्रश्न:26-नारकियों के आर्तध्यान कैसे घटित होते हैं? उत्तर-नारकियों मेंआर्तध्यान – इष्ट वियोगज : नारकी जब अपनी विक्रिया से शस्रादि बनाते हैं, उसको यदि दूसरे नारकी छीन ले, ध्वस्त (नष्ट) कर दे तो इष्ट वियोग हो सकता है, हो जाता है । तीसरे नरक तक कोई देव किसी को सम्बोधन करने गया । वह जब संबोधन करके चला जाता है तो उसके वियोग में नारकी को इष्ट वियोग आर्त्तध्यान हो सकता है । अनिष्ट संयोगज : एक नारकी को जब दूसरे नारकी मारते हैं, दुःख देते हैं तो उन्हें दूर करने के लिए बार-बार विचार उत्पन्न होते हैं तब उस नारकी के अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हो सकता है । वेदना- आर्तध्यान : नारकियों के शीत-उष्ण आदि वेदनाओं को दूर करने की भावनाओं से वेदना आर्त्तध्यान सभव है । निदान- आर्तध्यान : नारकी जातिस्मरण से भोगों को जानकर भावी भोगों की आकांक्षा कर सकते हैं । तीसरे नरक तक आये हुए देवों के वैभव को देखकर निदान कर सकते हैं । नारकियों में ऐसे ही और भी आर्त्तध्यान हो सकते हैं । प्रश्न27-नारकी जीव भगवान के दर्शन, पूजा, स्वाध्याय, गुरुओं की भक्ति, आहारदान आदि कुछ नहीं कर सकता है, तो उसके धर्मध्यान कैसे हो सकता है? उत्तर-भगवान की पूजा, दर्शनादि कार्य एकान्त से धर्मध्यान नहीं हैं । पूजा आदि कार्य धर्मध्यान प्राप्त करने की पूर्व भूमिका है । इन सब कार्यों को करते हुए भी मिथ्यादृष्टि जीव के धर्मध्यान नहीं होता है । सम्यग्दृष्टि नारकी के ” जो जिनेन्द्र भगवान ने सच्चे देव-शास्त्र -गुरु, तत्त्व द्रव्य, मोक्षमार्ग आदि का स्वरूप बताया है वही सच्चा है, उसी से मेरा कल्याण अर्थात् मुझे शाश्वत सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है’ ‘ इस प्रकार की श्रद्धा (आज्ञा सम्यक्त्व) होती है और इसी रूप में नारकी के द्ग्ल आज्ञाविचय धर्मध्यान होता है । प्रश्न:28-सम्यग्दृष्टि नारकी के आसव के कितने प्रत्यय होते हैं? उत्तर-प्रथम नरक में सम्यग्दृष्टि नारकी के आसव के 42 प्रत्यय होते हैं- 12 अविरति, 19 कषाय (अनन्तानुबन्धी चतुष्क तथा दो वेद रहित) तथा 11 योग (औदारिकद्बिक तथा आहारकल्कि बिना) । दूसरे आदि नरकों में वैक्रियिक मिश्र तथा कार्मण काय योग सम्बन्धी आसव के प्रत्यय भी निकल जाने से 4० प्रत्यय ही होते हैं ” ==
तिर्यंचगति
== तालिका संख्या 2 {” class=”wikitable” width=”100%” “- ! क्रम !!स्थान !!संख्या !! विवरण !!विशेष “- “1 “”गति “”1″”तिर्यंचगति “” “- “2 “”इन्द्रिय “”5″”ए,द्वी,,त्री,चतु,पंचे.”” “- ” 3 “” काय “”6″”1. त्रस. 5 स्थावर “” “- “4 “”योग “”11″”4 मन. 4 वचन 3 काय. “”वैक्रियिकद्विक तथा आहारकद्विक नहीं हैं । “- “5 “”वेद “”3″”स्त्री., पू., नपु. “” “- ” 6 “”कषाय “”25″”16 कषाय 9 नोकषाय “” “- “7 “”ज्ञान “”6″”3 कुज्ञान, 3 ज्ञान “”मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं है । “- “8 “”संयम “”2″”सयमासयम, असंयम “”सामायिकादि संयम नहीं हैं । “- ” 9 “”दर्शन लेश्य “”3″”चक्षु, अचक्षु, अवधि “” केवलदर्शन नहीं है “- “10 “”लेश्या “” 6 “”द्रव्य और भावरूप से सभी लेश्याएँ “” “- ” 11 “”भव्यत्व “”2 “”भव्यत्व, अभव्यत्व “” “- ” 12 “”सम्यक्त्व “”6 “”क्षा. क्षयो. उप. सासा.मिश्र. मि. “”क्षायिक सम्यक भोगभूमि की अपेक्षा होता है । “- ” 13 “”संज्ञी “”2 “”सैनी, असैनी “” “- ” 14 “”आहार “”2 “”आहारक, अनाहारक “” “- ” 15 “”गुणस्थान “”5 “”मि. सा. मिश्र.अवि. सयमा. “” “- ” 16 “”जीवसमास “”19 “” 14 स्थावर तथा 5 त्रस सम्बन्धी “” “- “17 “” पर्याप्ति “”6 “”छहों पर्यातियाँ “” “- “18 “” प्राण “”10 “”5 इन्दिय., 3 बल,श्वा. आयु.””1० प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय के ही होते हैं । “- “19 “” संज्ञा “”4 “”चारों संज्ञाएँ “” “- ” 20 “”उपयोग “”9 “”6 ज्ञानो. 3 दर्शनोपयोग “” “- “21 “” ध्यान “”11 “”4 आ. 4 रौ. 3 धर्म. “”संस्थान विचय धर्मध्यान नहीं है। “- ” 22 “”आसव “”53 “”5 मि. 12 अ. 25 क. 11 यो.”” “- ” 23 “”जाति “”62 लाख””एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक “”नरक, मनुष्य तथा देव सम्बन्धी जातियाँ नहीं हैैं । “- ” 24 “”कुल “”134 1/2 ला.क.””एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक “”नरक, मनुष्य तथा देव सम्बन्धी कुल नहीं हैं । “} प्रश्न:29-तिर्यंंच कितने प्रकार के होते ईं? उत्तर-तिर्यञ्चगति के जीव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय के भेद से, शम्बूक, दू मच्छर आदि विकलेन्द्रिय के भेद से, जलचर-थलचर, नभचर, द्विपद, चतुष्पदादि पंचेन्द्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं । (पं. का. ता. 118) जन्म की अपेक्षा तिर्यञ्च दो प्रकार के होते हैं- ( 1) गर्भज ( 2) सम्मूछन जन्म वाले (का. अ. 13०) प्रश्न:30-तिर्यञ्च जीव कहाँ- कहाँ रहते ई? उत्तर-पन्द्रह कर्म-भूमियों में भी तिर्यब्ज रहते हैं । ढाईद्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में स्थित सभी भोगभूमियों तथा आधे स्वयँमूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र में तिर्यच्च ही रहते हैं । भोग-भूमियों में भी तिर्यच्च रहते हैं । विशेष रूप से एकेन्द्रिय तिर्यव्व सर्वलोक में ठसाठस भरे हुए हैं । प्रश्न:31-किन-किन तिर्यञ्च के नपुंसक वेद ही होता है? उत्तर-एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव और समर्चन पर्याप्त पंचेन्द्रिय तथा लस्थ्यपर्यातक पंचेन्द्रिय तिर्यब्ज भी नपुंसकवेद वाले ही होते हैं । (त. सू 275०) प्रश्न:32-तिर्यंंच की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कितनी लेश्याएँ होती हैं? उत्तर-तिर्यञ्च की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं क्योंकि तेजोलेश्या और पसलेश्या वाले देव यदि तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं तो नियम से उनकी शुभ लेश्याएँ नष्ट हो जाती हैं इसलिए तिर्यब्जों के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं । (ध. 27473) प्रश्न:33-तिर्यञ्चोंं में क्षायिकसम्यग्दर्शन किस अपेक्षा से होता है? उत्तर-जिस मनुष्य ने तिर्यब्ज आयु का बन्ध कर लिया है फिर क्षायिकसम्यक्त्व का प्रतिष्ठापक हुआ है या क्षायिक सम्बक्म प्राप्त किया है तो वह मरकर भोगभूमि में तिर्यब्ज बनता है । कर्मभूमिया तिर्यञ्च के किसी भी अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है । प्रश्न:34-क्या बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य के समान बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि तिर्यस्थ्य भी भोगभूमि में जा सकता है? उत्तर-नहीं, तिर्यञ्च क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रतिष्ठापक नहीं होता और न कर्मभूमिया तिर्यञ्च को क्षायिकसम्यग्दर्शन ही होता है, क्योंकि, क्षायिक-सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में करते हैं । तथा जिसने तिर्यब्ज, मनुष्य और नरकायु को बाँध लिया है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरणकर तिर्यव्यादि गतियों में जाताहै, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य (बद्धायुष्क मनुष्य को छोड्कर) और तिर्यब्ज नियम से स्वर्ग में ही जाते हैं । प्रश्न:35-बद्धायुष्क किसे कहते हैं? उत्तर-जिसने अगले भव की आयु बाँध ली है वह बद्धायुष्क कहलाता है । बद्धायुष्क का कथन क्षायिक एवं कृतकृत्यवेदक की मुख्यता से ही किया गया है । प्रश्न:36-क्या इसी प्रकार बद्धायुष्क मुनि भी भोगभूमिया तिर्यञ्च बन सकता है? उत्तर-नहीं, जिस मनुष्य ने देवायु को छोड्कर शेष किसी भी आयु का बनय कर लिया है, वह अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता है, ऐसा नियम है । इसलिए बद्धायुष्क मुनि भी भोगभूमि में उत्पन्न नहीं हो सकता है । (गो. क. 334) इसी प्रकार देवायु को छोड़कर शेष आयु बाँधने वाला तिर्यञ्च भी अणुव्रत धारण नहीं कर सकता है । प्रश्न:37-क्या मत्स्य भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो सकता है? उत्तर-नहीं, मत्स्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है क्योंकि तिर्यञ्च में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भोग-भूमियों में ही होते हैं । भोग- भूमि में जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं (ति. प. 47328) इसलिए मत्स्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है । मख्स नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं । नोट – इसी प्रकार समर्थन मक्य के प्रथमोपशम सम्यक्त्व भी नहीं होता है क्योंकि प्रथमोपशमसम्यक्त्व गर्भज जीवों के ही होता है । (ध. पु.) प्रश्न:१-सम्मूर्च्छन तिर्यञ्च के कौन- कौनसे सम्यक्त्व हो सकते हैं? समर्चन तिर्यञ्च के चार सम्यक्त्व हो सकते हैं- ( 1) मिथ्यात्व (2) सासादन (3) सम्यग्मिथ्यात्व (4) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व । भोगभूमि में सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं, इसलिए सम्मूर्च्छन तिर्यञ्च में क्षायिक-सम्यक्त्व नहीं कहा है । प्रश्न:38-यदि सम्मूर्च्छन जीवों के उपशम-सम्य? नहीं होता है, तो उनके सासादन- सम्यक्त्व कैसे हो सकता है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व के बिना सासादन सभ्य? नहीं हो सकता है? उत्तर-यद्यपि सब्रुर्च्छन जीवों के प्रथमोपशम सम्बक्च नहीं होता है फिर भी पूर्व भव से अर्थात् कोई मनुष्य-तिर्यब्ज सासादन-सम्यकव को लेकर सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होता है तो उसके सासादन-सम्यक्त्व का अस्तित्व बन जाता है । प्रश्न:39-क्या तिर्यञ्च की निर्वृत्यपर्याप्तक- अवस्था में भी सभी सम्यक्त्व होते हैं? उत्तर-नहीं, तिर्यञ्च की निर्वृत्यपर्याप्तक-अवस्था में चार सम्बक्च होते हैं- ( 1) मिथ्यात्व ( 2) सासादन ( 3) क्षयोपशम और (4) क्षायिक सम्यक्त्व । उपशम और मिश्र नहीं होते हैं । नोट – क्षयोपशम सम्यक्त्व भोगभूमि में जाते समय कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा कहा गया हे । क्षायिक- सम्यक्त्व भोगभूमि की अपेक्षा है । प्रश्न:40-किन-किन तिर्यञ्च के पंचमगुणस्थान नहीं होता है? उत्तर-( 1) एकेन्द्रियादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों के । (2) संज्ञी पंचेन्द्रिय में भी लब्ध्यपर्यातक जीवों के । (3) समस्त भोगभूमिज तथा कुभोगभूमिज जीवों के हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से भगवान आदिनाथ स्वामी के समय में भोगभूमि में ही तीर्थंकर, संयमी, संयमासंयमी आदि हुए थे” । तथा (4) म्लेच्छखण्ड में तिर्यञ्च में पचम गुणस्थान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है । नोट – म्लेच्छखण्ड से यहाँ आकर हाथी-घोड़ा आदि कोई पंचमगुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं । (मनुष्यों के समान तिर्यञ्च का कथन आगम में नहीं आता है) क्या भोगभूमि में किसी भी अपेक्षा पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यल्थ नहीं हो सकते हैं? भोगभूमि में भी पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यव्व हो सकते हैं । वैर के सम्बन्ध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यञ्च का सब जगह सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए वहाँ पर अर्थात् भोग-भूमि में भी पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यल्द का अस्तित्व बन जाता है । ४- 1 ‘ 4०4) नोट : इसी प्रकार संयतासंयत मनुष्य व संयत मुनि भी पाये जा सकते हैं । प्रश्न:41-क्या क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च के संयतासंयत गुणस्थान हो सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि तिर्यञ्च में यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो वे भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं, दूसरी जगह नहीं । परन्तु भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों की उत्पत्ति नहीं होती है, वहाँ पर अणुव्रत होने में आगम से विरोध है । (ध.1/4०5) प्रश्न 42: किन- किन तिर्यञ्च के कितने-कितने प्राण होते हैं? उत्तर-: तिर्यञ्च के प्राण – {” class=”wikitable” width=”100%” “- ! निर्वृत्य-पर्याप्तावस्था !! पर्याप्तावस्था !!निर्वृत्य- पर्याप्तावस्था!! “- ” एकेन्द्रियों के “” 3 “” 4 “”(स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल,श्वासोच्छवास, आयु) “- ” द्वीन्द्रियों के “”4 “” 6″” (2 इन्द्रिय, वचन-कायबल,श्वासोच्छवास, आयु) “- “त्रीन्द्रियों के “”5 “”7″”(3 इन्द्रिय, 2 बल श्वासो. आयु) “- “चतुरिन्द्रियों के “”6 “” 8″”(4 इन्द्रिय, 2 बल श्वासो. आयु) “- ” असैनी पचेन्द्रियों के “” 7 “” 9″” (5 इन्द्रिय, 2 बल श्वासो. आयु) “- “सैनी पंचेन्द्रियों के “”7 “”10 “” 5 इन्द्रिय, 3 बल,श्वासो. आयु) “} नोट-:सभी जीवों के निर्वृत्यपर्यासक अवस्था में श्वासोच्चवास, वचनबल तथा मनोबल नही होते हैं ।. असैनी पर्यन्त जीवों के मनोबल नहीं होता है । प्रश्न 42: सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च के आसव के कितने प्रत्यय हो सकते हैं? उत्तर-चतुर्थगुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च के आसव के 44 प्रत्यय हो सकते हैं- 12 अविरति 21 कषाय (अनन्तानुबन्धी बिना) तथा11 योग (4 मनो. 4 वचन. 3 काय.) प्रश्न:44-औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग भोगभूमि की अपेक्षा बन जायेंगे । तिर्यञ्च की बासठ लाख जातियों कौन-कौन सी हैं? उत्तर-तिर्यञ्चों की जातियाँ – (1) नित्यनिगोद की – 7 लाख (2) इतर निगोद की – 7 लाख (3) पृथ्वीकायिक की – 7 लाख (4) जलकायिक की – 7 लाख (5) अग्रिकायिक की – 7 लाख (6) वायुकायिक की – 7 लाख (7) वनस्पतिकायिक की -10 लाख (8) द्वीन्द्रिय की – 2 लाख (9) त्रीन्द्रिय की – 2 लाख (1०) चतुरिन्द्रिय की – 2 लाख (1) पंचेन्द्रिय की -4 लाख कुल =62 लाख प्रश्न45 :तिर्यञ्चों के 134 1/2 लाख करोड़ कुल कौन-कौन से हैं? उत्तर : तिर्यञ्चों के कुल- (1) पृथ्वीकायिक के -22 लाख करोड़ (2) जलकायिक के – 7 लाख करोड़ (3) अग्रिकायिक के – 3 लाख करोड़ (4) वायु कायिकक- 7 लाख करोड़ (5) वनस्पतिकायिक के – 28 लाख करोड़ (6) द्वीन्द्रिय के – 7 लाख करोड़ (7) त्रीन्द्रिय के -8 लाख करोड़ (8) चतुरिन्द्रिय के -9 लाख करोड़ (9) जलचर के – 12 1/2 लाख करोड़ (1०) थलचर के – 19 लाख करोड ( 11) नभचर के – 12 लाख करोड़ योग=134 1/2 लाख करोड़ कुल प्रश्न:46-भोगभूमिया तिर्यंंच के कितने कुल होते हैं? उत्तरभोगभूमिया तिर्यञ्चों के 31 लाख करोड़ कुल होते हैं- थलचर के – 19 लाख करोड़ तथा नभचर के 12 लाख करोड़ । भोगभूमि में एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं । इसलिए उनके कुल ग्रहण नहीं किये है । नोट – यद्यपि वहाँ एकेन्द्रिय जीव होते हैं, लेकिन वे भोगभूमिया नहीं होते हैं, सामान्य एकेन्द्रिय हैं, इसलिए यहाँ उनके कुलों का ग्रहण नहीं किया है । ==
मनुष्य-गति
== तालिका संख्या 3 {” class=”wikitable” width=”100%” “- ! क्रम !!स्थान !! संख्या !! विवरण !! विशेष “- ” 1 “” गति “” 1 “” मनुष्य-गति “” “- “2 “”इन्द्रिय “”1 “”पंचेन्द्रिय “” “- “3 “”काय “”1 “” त्रस “” “- ” 4 “”योग “”13 “” 4 मन. 4 बच, 5 काय. “”आहारकद्विक 6 ठे गुणस्थान में ही होते हैं “- “5 “”वेद “”3 “”स्त्री. पु. नपुँ. “” “- “6 “”कषाय “”25 “”16 कषाय 9 नोकवाय “” “- “7 “”ज्ञान “”8 “”3 कुज्ञान, 5 ज्ञान “”5 ज्ञान सम्यग्दृष्टि के ही होते है “- “8 “”सयम “”7 “”सा.छे.पीर.सू.यथा.संय.अस.”” “- “9 “”दर्शन “”4 “”चक्षु, अचक्षु, अव. केव.”” “- “10 “”लेश्या “”6 “”कृ-नी.का.पी.प. शुक्ल “” “- “11 “”भव्यत्व “” 2 “”भव्य, अभव्य “” “- “12 “” सम्यक “”6 “”क्षा. क्षयो. उप. सा. मिश्र.मि.”” “- “13 “”संज्ञी “”1 “” संज्ञी “” “- “14 “” आहार “”2 “” “” “- “15 “”गुणस्थान “”14 “”पहले से चौदहवें तक”” “- “16 “”जीवसमास “”1 “” संज्ञी पंचेन्द्रिय”” “- “17 “”पर्याप्ति “”6 “”आ.श.इ.श्वा.भा. मन.”” “- “18 “” प्राण””10 “”5 इन्दि., 3 बल, श्वा.आयु.”” “- “19 “”संज्ञा “”4 “”आ .भ.मै.परि.”” “- “20 “”उपयोग “”12″” 8 ज्ञान,4 दर्शन “” “- “21 “”ध्यान “”16 “”4 आ. 4 री. 4 ध.4 शुक्ल”” “- “22 “”आस्रव “”55 “”5 मि. 12 अवि. 25 क.13.यो.””वैक्रियिकद्विक नहीं होते हैं । “- ” 23 “”जाति “”14 लाख “”मनुष्य सम्बन्धी “” “- “24 “”कुल “”14 ला.क. “”मनुष्य सम्बन्धी”” “} प्रश्न:47-मनुष्य कितने प्रकार के होते हैं? उत्तर-मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- ( 1) आर्य मनुष्य ( 2) म्लेच्छ मनुष्य ( त. सू. 3/36) ( 1) कर्मभूमिज मनुष्य (2) भोग भूमिज मनुष्य (नि. सा. 16) मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं- ( 1) पर्यातक मनुष्य (2) निर्वृत्यपर्यातक मनुष्य ( 3) लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य । (ति. प. 4) मनुष्य चार प्रकार के होते हैं- ( 1) कर्मभूमिज (2) भोगभूमिज (3) अन्तरद्बीपज ( 4) सम्पूर्च्छनज । (भ. आ. 7807 क्षेपक) प्रश्न:48-आर्य आदि मनुष्य किसे कहते हैं।? उत्तर-आर्य मनुष्य – गुण और गुणवानों से जो सेवित हैं वे आर्य कहलाते हैं । (रा. वा. 3736) म्लेच्छ मनुष्य – पाप क्षेत्र में जन्म लेने वाले म्लेच्छ कहलाते हैं । उनका आचार खान- पान आदि असभ्य होता है । (निसा. 16) कर्म भूमिज – जहाँ शुभ और अशुभ कर्मों का आसव हो उसे कर्मभूमि कहते हैं । वहाँ उत्पन्न होने वाले कर्मभूमिज कहलाते हैं । (स. सि. 3) भोगभूमिज ए भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों को भोगभूमिज कहते हैं । (भ. आ.) लब्ध्यपर्याप्तक – जो जीव श्वास के अठारहवें भाग में मर जाते है वे लस्थ्यपर्याप्तक जीव हैं । (गो. जी. 122) अंतर्द्वीपज – जो अंतर्द्वीपों में उत्पन्न होते हैं वे अंतर्द्वीपज मनुष्य कहलाते हैं । (सर्वा. 3? 39) सम्मूर्च्छनज – लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं । (का. अ. 132 – 33) प्रश्न:49-क्या मनुष्य के पेट में जो कीड़े पाये जाते हैं वे भी मनुष्य हैं? उत्तर-नहीं, मनुष्य के पेट, घाव आदि में पड़ने वाले कीड़े मनुष्य नहीं हैं यद्यपि मनुष्य के पेट में पड़ने वाले कीड़े, पटार आदि औदारिक शरीर तथा मल-मूत्र, भोजन आदि में उत्पन्न होते हैं लेकिन वे दो इन्द्रिय ही होते हैं इसलिए वे तिर्यञ्चगति के जीव ही हैं, मनुष्य नहीं । प्रश्न:50-किन- किन मनुष्यों को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है? उत्तर-जिनको केवलज्ञान नहीं हो सकता है वे मनुष्य हैं- ( 1) लब्ध्यपर्यातक (2) आठ वर्ष से कम उम्र वाले ( 3) 126 भोगभूमियों में उत्पन्न ( 4) पाँचवें-छठे नरक से आये हुए ( 5) न्ल्यू निगोद से आये हुए ( 6) अभव्य तथा अभव्यसम भव्य (7) वब्रवृषभनाराचसंहनन को छोड्कर शेष सहनन वाले (8) बद्धायुष्क मनुष्य (9) द्रव्य सी एवं द्रव्य नपुंसक वेद वाले आदि । प्रश्न:51-एक सौ छब्बीस भोगभूमियों कौन-कौन सी हैं? उत्तर-एक सौ छब्बीस भोगभूमियाँ- 1० जघन्य भोगभूमियाँ – 5 हैमवत, 5 हैरण्यवत क्षेत्र की । 1० मध्यम भोगभूमियाँ – 5 हरिवर्ष, 5 रम्यक क्षेत्र की । 1० उत्तम भोगभूमियाँ – 5 देवकुरु, 5 उत्तरकुरु की । 96 अन्तरद्वीपों में पाई जाने वाली कुभोगभूमियाँ । कुल 126 भोगभूमियाँ । इनमें मनुष्य भी रहते हैं । शेष ढाईद्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में जघन्य भोगभूमियाँ हैं, जहाँ केवल तिर्यस्थ ही रहते हैं । (तिप.) नोट- 48 लवण समुद्र सम्बन्धी तथा 48 कालोदधिसमुद्र सम्बन्धी इस प्रकार 96 अन्तरद्वीप प्रश्न:52-क्या कुभोगभूमियों में तिर्यथ्य भी पाये जाते हैं? उत्तर-ही, कुभोगभूमियों में तिर्यव्व भी पाये जाते है । यद्यपि इन भोगभूमियों में किस-किस आकृति वाले तिर्यव्व रहते हैं, क्या खाते हैं आदि वर्णन जिस प्रकार मनुष्यों के बारे में आता है, वैसा तिर्यञ्चों के बारे में नहीं मिलता है, फिर भी वहाँ तिर्यब्ज पाये जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है क्योंकि आचार्य यतिवृषभमहाराज तिलोयपण्णत्ति ग्रन्य के चौथे अध्याय की 2515 वीं गाथा में कहते हैं कि इन द्वीपों में जिन मनुष्य-तिर्यञ्च ने सम्यग्दर्शन रूप रत्न को ग्रहण किया है वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । इससे सिद्ध है कि वहाँ तिर्यब्ज भी पाये जाते हैं । प्रश्न:53-क्या अंधे, काणे, लूले-लँगड़े मनुष्य को भी केवलज्ञान हो सकता है? उत्तर-ही, अंधे, काले, ज्जे, लँगड़े आदि मनुष्यों को भी केवलज्ञान हो सकता है । यद्यपि अंधा, काणा, ख्ता, लँगड़ा व्यक्ति दीक्षा की पात्रता नहीं रखता और दीक्षा लिये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, लेकिन यदि कोई मनुष्य दीक्षा लेने के बाद अर्थात् मुनि बनने के बाद अखि फूटने के कारण काणा, मोतियाबिन्द आदि के कारण अंधा हो जावे, लकवा आदि के कारण ख्ता-लँगड़) हो जावे तो केवलज्ञान होने में कोई बाधा नहीं है । कभी- कभी उपसर्गादि के कारण भी ऐसा हो सकता है । केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए तो वब्रवृषभनाराचसंहनन, द्वितीयशुक्ल ध्यान, चार घातिया कर्मों का क्षय होना आवश्यक है । केवलज्ञान होने पर शरीर सांगोपांग हो जायेगा प्रश्न:54-क्या कुबड़े-बने आदि को भी केवलज्ञान हो सकता है? उत्तर-ही, कुबड़े-बौने आदि बेडौल शरीर वाले को भी केवलज्ञान हो सकता है, क्योंकि तेरहवें गुणस्थान तक छहों संस्थानों का उदय पाया जाता है (गो. क.) फिर भी मुनि बनने के योग्य संस्थान होना आवश्यक है । ==
मनुष्यों में लेश्याएँ
== प्रश्न:55-किन-किन मनुष्यों के कौन-कौन सी लेश्याएँ होती हैं? उत्तर-मनुष्यों में लेश्याएँ- {” class=”wikitable” WIDTH=”100%” “- ! क्रम !! मनुष्य !! पर्याप्तापर्याप्त !! लेश्या “- ” 1 “” कर्मभूमिया “” पर्याप्तक “” 6 लेश्या “- “2 “”कर्मभूमिया “”निर्वृत्यपर्यातक “”6 लेश्या “- “3 “”लब्ध्यपर्याप्तक “”3 अशुभलेश्या “” “- “4 “”भोगभूमिया सम्यग्दृष्टि””निर्वृत्यपर्यातक “”1 कापोत लेश्या (ति.प.4/424) “- “5 “” भोगभूमिया मिथ्यादृष्टि “”निर्वृत्यपर्यातक””3 अशुभलेश्या (ति.प.4/424) “- “6 “”भोगभूमिया सासादन सम्यग्दृष्टि “”निर्वृत्यपर्यातक “”3 अशुभलेश्या (ति.प.4/426) “- “7 “”भोगभूमिया “” पर्यातक “” 3 शुभलेश्या “- “8 “”कुभोग भूमि “” निर्वृत्यपर्यातक “”3 अशुभलेश्या “- “9 “”कुभोग भूमि “” पर्यातक “”1 पीतलेश्या “- “10 “”अन्तरद्वीपज म्लेच्छ “”- “”4 पीतलेश्या “- “11 “” कर्मभूमिया म्लेच्छ “”- “”6 पीतलेश्या “- ” 12 “”विद्याधर “”पर्याप्तापर्याप्त “”6 पीतलेश्या “} प्रश्न:56-क्या म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों को सम्यग्दर्शन हो सकता है? उत्तर-हाँ, म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों को भी सम्यग्दर्शन हो सकता है । दिग्विजय के लिए गये हुए चक्रवर्ती के स्कन्धावार (कटक सेना) के साथ जो म्लेच्छ राजा आदिक आर्यखण्ड में आ जाते हैं, और उनका यहाँ वालों के साथ विवाहादि सम्बन्ध हो जाता है, तो उनकेसंयम धारण करने में कोई विरोध नहीं है । अथवा दूसरा समाधान यह भी किया है कि चक्रवर्ती आदि को विवाही गई म्लेच्छ कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न हुई सन्तान की मातृपक्ष की अपेक्षा यहाँ ‘ अकर्मभूमिथ’ पद से विवक्षा की गई है, क्योंकि अकर्मभूमिज सन्तान को दीक्षा लेने की योग्यता का निषेध नहीं पाया जाता है । (य. पु.) अन्तर्द्वीपों में रहने वाले म्लेच्छों को भी सम्यग्दर्शन होता है, वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । (ति. प. 4? 2515) प्रश्न:57-पाँच वर्ष के बच्चे को सभ्यक्ल मार्गणा क्त कौन-कौनसा स्थान हो सक्ता है? उत्तर-पाँच वर्ष का बच्चा यदि पुरुष है तो उसके मिथ्यात्व, क्षायोपशमिकएवं क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है और यदि वह खी या नपुसक है तो मात्र मिथ्यात्व ही होगा; क्योंकि सम्यग्दृष्टि सी तथा नपुंसक नहीं बनता है । यदि वह बच्चा सादि मिथ्यादृष्टि है, तो उसके सम्बइत्मथ्यात्व प्रकृति का उदय आ
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष 1 गति 1 तिर्यञ्चगति 2 इन्द्रिय 1 स्वकीय द्वीन्द्रिय के द्वीन्द्रिय 3 काय 1 त्रस 4 योग 4 1 वचनयोग 3 काययोग अनुभय वचनयोग होता है । 5 वेद 1 नंपुसक 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय स्त्री तथा पुरुषवेद नहीं होते हैं 7 ज्ञान 2कुमति-कुश्रुतज्ञान 8 संयम 1 असंयम 9 दर्शन 1,2 चखुदर्शन, अचक्षु.चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रिय के ही होता है । 10 लेश्या 3 कृ. नी. का. 11 भव्य 2 भव्य, अभव्य 12 सम्बक्ल 2 सासा. मिथ्यात्व 13 संज्ञी 1 असैनी 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक 15 गुणस्थान 2 मिथ्यात्व, सासादन 16 जीवसमास स्वकीय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय में से 17 पर्याप्ति 5 आ. श. इ. श्वा. भा.मनःपर्याप्ति नहीं होती है । 18 प्राण 6,7,8 द्वीन्द्रिय के 6, त्रीन्द्रिय के 7, चतुरिन्द्रिय के 8 प्राण 19 संज्ञा 4 आ. भ. मैं. पीर. 20 उपयोग 3,4 2 ज्ञानो. 1 दर्शनो,; 2 दर्शनो चतुरिन्द्रिय जीव के 4 उपयोग हैं । 21 ध्यान 8 4 आ. 4 रौ. 22 आस्रव स्वकीय 40,41,42 द्वीन्द्रिय के 4०, त्रीन्द्रिय के 41 चतुरिन्द्रिय के 42 । 23जाति स्वकीय 2 ला.2 ला.2 ला. 24 कुल स्वकीय 7 ला.क,8 ला.क.,29 ला.क.
प्रश्न:1-काय मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर-जाति नामकर्म के उदय से अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न आत्मा कीं त्रस तथा स्थावर रूप पर्याय को काय कहते हैं ।
व्यवहारी पुरुषों के द्वारा ‘त्रस-स्थावर’ इस प्रकार से कहा जाता है, वह काय है । पुद्गल स्कन्धों के द्वारा जो पुष्टि को प्राप्त हो वह काय है ।
काय’ में जीवों की खोज करना काय मार्गणा है । (गो.जी. 181)
प्रश्न:-2काय मार्गणा कितने प्रकार की है?
उत्तर-काय मार्गणा छह प्रकार की है- ( 1) पृथ्वीकाय ( 2) जलकाय ( 3) अग्निकाय (4) वायुकाय (5) वनस्पतिकाय (6) त्रसकाय । ३- द्र.. 13 टी.) पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक तथा कायातीत जीव क होते हैं । (गो. जी. 18 ‘)
प्रश्न:-3 स्थावर जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-स्थावर जीव एष्क स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है, उसका स्वामीपना करता है इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है । (ध. 1? 241) स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर कहलाते हैं ।
स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण ये पाँचों ही स्थावर कहलाते हैं । (ध. 1? 267)
प्रश्न:-4 त्रसकायिक जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न वृत्तिविशेष वाले जीव त्रस कहे जाते हैं । रखा, 1) लोक में जो दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय से सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हें वीर भगवान के उपदेश से त्रसकायिक जानना चाहिए (पस.)
प्रश्न:-5 अकाय जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-जिस प्रकार सोलह ताव के द्वारा तपाये हुए सुवर्ण में बाह्य किट्टिका और अध्यन्तर कालिमा इन दोनों ही प्रकार के मल का बिस्कुल अभाव हो जाने पर फिर किसी दूसरे मल का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार महाव्रत और धर्मध्यानादि से सुसस्कृत रख सुतप्त आत्मा में से एष्क बार शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा बाह्य मल काय और अंतरंग मल कर्म के सम्बन्ध के सर्वथा छूट जाने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता और वे सदा के लिए काय तथा कर्म से रहित होकर सिद्ध हो जाते हैं । (गो. जी. 2०3)
तालिका संख्या 8
प्रथ्वीकायिकादि चार
! क्रम !! स्थान !! संख्या !! विवरण !! विशेष
1 गति 1 तिर्यञ्चगति
2 इन्द्रिय 1 एकेन्द्रिय
3 काय स्वकीय पृथ्वीकायिकादि पृध्वीकायिक में पृथ्वीकायिक
4 योग 3 औदारिकद्बिक और कार्मण
5 वेद 1 नपुसक
6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय
7 ज्ञान 2 कुमति, कुश्रुत
8 संयम 1 असंयम
9 दर्शन 1 अचखुदर्शन
10 लेश्या 3 कृ. नी. का.शुभ लेश्या नहीं है ।
11 भव्यत्व2 भव्य, अभव्य
12 सम्यक्त्व 2मिथ्यात्व, सासादनअग्निकायिक, वायुकायिक में सासादन सम्बक्ल नहीं है।
13 संज्ञी 1 असैनी
14 आहार 2 आहारक, अनाहारक
15 गुणस्थान 2 पहला, दूसरा
16 जीवसमास स्वकीय अपने-अपने सूक्ष्म बादर की अपेक्षा दो-दो ।
17 पर्याप्ति 4 आ. श. इ. श्वासो.
18 प्राण 4 1 इ. 1 बल, श्वा. आ.कायबल होता है।
19 संज्ञा 4 आ. भ. मै. पीर.
20 उपयोग 3 2 कुज्ञानो. 1 दर्शनो.अचखुदर्शनो. होता है।
21 ध्यान 8 4 आ. 4 रौ.
22 आसव 38 5 मि. 7 अ. 23 क. 3 यो.
23 जाति स्वकीय अपनी-अपनी 7-7 लाख
24 कुल स्वकीयपू. 22 लाक., ज. 7 ला.क.अग्नि 3 लाक., ११२१ ला.क
प्रश्न:-6पृथ्वी कितने प्रकार की है?
उत्तर-पृथ्वी चार प्रकार की है – 1. पृथ्वी 2. पृथ्वीकाय 3. पृथ्वीकायिक 4. पृथ्वी जीव ।
पृथिवी (पृथ्वी) जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठिन गुणवाली है वह पृथिवी या पृथ्वी है यह पृथिवी आगे के तीनों भेदों में पायी जाती है ।
पृथिवीकाय – काय का अर्थ शरीर है, अत: पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह पृथिवीकाय कहलाता है । यथा-मरे हुए मनुष्य का शरीर-शव ।
पृथिवी कायिक – जिस जीव के पृथ्वी रूप काय विद्यमान है, उसे पृथिवी कायिक कहते
पृथ्वी जीव – कार्मण काययोग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथिवी को काय रूप में ग्रहण नहीं किया है तब तक वह पृथ्वी जीव कहलाता है । (सर्वा. 286)
प्रश्न:-7 पृथिवीकायिक जीव कौन-कौन से हैं?
उत्तर-मिट्टी, बालू शर्करा, स्फटिकमणि, चन्द्रकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, गेरू, चन्दन (एक पत्थर होता है, कारंजा में इस पत्थर की प्रतिमा है) हरिताल, हिंगुल, हीरा, सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा आदि छत्तीस प्रकार के पृथिवीकायिक जीव हैं । (बू 206 – 9)
प्रश्न:-8 जल कितने प्रकार का है?
उत्तर-जल चार प्रकार का है- 1. जल 2. जलकाय 3. जलकायिक 4 जलजीव ।
जल – जो जल आलोड़ित हुआ है, उसे एवं कीचड़ सहित जल को जल कहते हैं ।
जलकाय – जिस जलकायिक में से जीव नष्ट हो चुके हैं अथवा गर्म पानी जलकाय है ।
जलकायिक – जल जीव ने जिस जल को शरीर रूप में ग्रहण किया है, वह जलकायिक
जलजीव – विमगति में स्थित जीव जो एष्क दो या तीन समय में जल को शरीर रूप में ग्रहण करेगा, वह जल जीव है । (मिसादी. 11? 14 – 15)
प्रश्न:-9 जलकायिक जीव कौन-कौन से हैं?
उत्तर-ओस, हिम (बर्फ), कुहरा, मोटी बूँदें, शुद्ध जल, नदी, सागर, सरोवर, कुआ, झरना, मेघ से बरसने वाला जल, चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न जल, घनवात आदि का पानी जलकायिक जीव है । (भू 21० आ.)
प्रश्न:-10-अग्नि कितने प्रकार की होती है?
उत्तर- अग्नि चार प्रकार की होती है-
1अग्नि 2. अग्निकाय 3. अग्निकायिक 4. अग्निजीव ।
अग्नि – प्रचुर भस्म से आच्छादित अग्नि अर्थात् जिसमें थोड़ी उष्णता है वह अग्नि है ।
अग्निकाय – भस्म आदि से अथवा जिस अग्निकायिक को अमि जीव ने छोड़ दिया है वह अग्निकाय है ।
अग्निकायिक – जिस अग्नि रूपी शरीर को अग्नि जीव ने धारण कर लिया है वह अग्निकायिक
अग्निजीव – जो जीव अग्नि रूप शरीर को धारण करने के लिए जा रहा है, विग्रहगति में स्थित है, ऐसा जीव अग्नि जीव है । (सि. सा. दी. 11 ‘ 17 – 18)
प्रश्न:-11 अग्निकायिक जीव कौन- कौन से हैं?
उत्तर-अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धाग्रि और अग्नि ये सब अग्निकायिक जीव हैं ।
अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धअग्नि, धुआँ सहित अग्नि, बढ़वाग्रि, नन्दीश्वर के मंदिरों में रखे हुए धूप घटों की अग्नि, अग्निकुमार देवों के मुकुटों से उत्पन्न अग्नि आदि सभी अग्निकायिक जीव हैं । १- 211 आ.)
प्रश्न:-12 वायु कितने प्रकार की है?
उत्तर-वायु चार प्रकार की है – 1? वायु 2. वायुकाय 3. वायुकायिक 4. वायुजीव ।
वायु – धूलि का समुदाय जिसमें है ऐसी भ्रमण करनेवाली वायु, वायु है ।
वायुकाय – जिस वायुकायिक में से जीव निकल चुका है, ऐसी वायु का पौद्गलिक वायुदेह वायुकाय है ।
वायुकायिक – प्राण युक्त वायु को वायुकायिक कहते हैं ।
वायुजीव – वायु रूपी शरीर को धारण करने के लिए जाने वाला ऐसा विग्रहगति में स्थित जीव वायु जीव है । (मिसा. दी. 11० – 21)
प्रश्न:-13 वायुकायिक जीव कौन-कौनसे हैं?
उत्तर-घूमती हुई वायु, उत्कलि रूप वायु, मण्डलाकार वायु, गुजावायु, महावायु, घनोदधि वातवलय की वायु और तनु-वातवलय की वायु से सब वायुकायिक जीव हैं । ( पू 212 आ.)
प्रश्न:-14 पृथ्वी आदि वनस्पति पर्यन्त कौनसी गति के जीव हैं? ।
उत्तर-पूजा आ।दे वनस्पति पर्यन्त सभी तिर्यञ्चगति के जीव हैं । ये पाँचों स्थावर कहलाते हैं’ । लेकिन स्थावर कोईगति नहीं है । कहा भी है- ” औपपादिकमनुष्येथ्य: शेषास्तिर्यग्योनय: ” (न. लू: 4? 27) अर्थात् उपपाद जन्म वाले देव, नारकी और मनुष्यों को छोड्कर शेष सभी तिर्यव्व हैं ।
प्रश्न:-15 स्थावर जीवों के कृष्णलेश्या कैसे सिद्ध होती है?
उत्तर-तीव्रक्रोध, वैरभाव, क्लेश संताप, हिंसा से युक्त तामसी भाव कृष्णलेश्या के प्रतीक हैं । तस्मानिया के जंगलों में ‘ होरिजन्टिल-स्कन’ नामक वृक्षों की डालियाँ व जटायें जानवरों या मनुष्यों के निकट आते ही उनके शरीर से लिपट जाती हैं । तीव्र कसाव से (कस जाने के कारण) जीव उससे छुटकारा पाने की कोशिश करते हुए अन्तत: वहीं मरण को प्राप्त हो जाता है, इस क्रिया से उनकी हिंसात्मक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से समझ में आती है, यह कृष्ण लेश्या की प्रतीक है ।
प्रश्न:-16 स्थावरों में नीललेश्या कैसे समझ में आती है?
उत्तर-आलस्य, मूर्खता, भीरुता, अतिलोलुपता आदि नीललेश्या के प्रतीक हैं । कई वनस्पतियाँ आलसी एन्यै हठी होती हैं । उनके बीज सुपुप्तावस्था में पड़े रहते हैं । शंख पुष्पी, बथुआ, बैंगन आदि के बीजों को अंकुरित कराने के लिए उपचारित करना पड़ता है उन्हें उच्चताप, निम्नताप, प्रकाश, अन्त, पानी या रासायनिक पदार्थों से सक्रिय किया जाता है तभी वे अंकुरित होते हैं । इसी प्रकार तम्बाखू गोखरू, सिंघाड़ा आदि की भी स्थिति है । कलश, पादप, सनद? आदि पौधे गध, रंग, रूप आदि से कीड़ों को आकर्षित करते है । उन्हें खाने की लोलुपता इनमें विशेष रहती है । युटीकुलेरियड का पौधा स्थिर पानी में उगता है । इसकी पत्तियाँ सुई के आकार की होती हैं और पानी में तैरती हैं । पत्तियों के बीच में छोटे-छोटे हरे रग के गुब्बारे के आकार के फूले अंग रहते हैं । पौधा इन्हीं गुब्बारों से कीड़ों को पकड़ता है । गुब्बारे की भीतरी दीवारों से पौधा एक रस छोड़ता है कीड़ों को नष्ट कर देता है इसे इसकी अतिलोलुपता अर्थात् नील लेश्या का प्रतीक माना जा सकता
प्रश्न:-17 स्थावरों में कापोतलेश्या को कैसे समझा जा सकता है?
उत्तर-निन्दा, ईर्षा, रोष, शोक, अविश्वास आदि कापोत लेश्या के लक्षण हैं । इस लेश्या वाले दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले होते हैं । नागफनी, काकतुरई, क्रौंच, चमचमी आदि वनस्पतियाँ काँटे, दुर्गन्ध या खुजली पहुँचाने वाले होते हैं । इनको छूने से या इनके निकट जाने से कुछ कष्ट अवश्य होता है । इसे कापोतलेश्या के रूपमें स्वीकार किया जा सकता है । अशुभलेश्या के उदाहरण वनस्पति में स्पष्ट रूपसे समझ में आते हैं । पृथ्वी आदिमें इनका स्पष्टीकरण नहीं होता है फिर भी पानी में भँवर आना, वायु में चक्रवात, अग्नि में बड़वानल, दावानल, ज्वालामुखी आदि प्रवृत्तियों से अशुभलेश्याओं का अनुमान लगाया जा सकता
प्रश्न:-18 क्या पृथ्वीकायिकादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान होता है?
उत्तर-पृथ्वीकायादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान सम्बन्धी दो विचार हैं –
( 1) इन्द्रिय मार्गणा की अपेक्षा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं । यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त जीवों में सासादन गुणस्थान निर्वृत्यपर्याप्त दशा में ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं; क्योंकि पर्याप्त दशा में तो वहाँ एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । (पं. सं. प्रा.)
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असैनी में तो अपर्याप्त तथा सैनी के पर्याप्त- अपर्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान होता है । (गो. जी. जी. 695)
एकेन्द्रियों में जाने वाले वे जीव बादर पृथिवीकायिक, बादरजलकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्यासको में ही जाते हैं, अपर्यातकों में नहीं । ४.०)
(2)कौन कहता है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में होते है? किन्तु वे उस एकेन्द्रिय में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं ऐसा हमारा निश्चय है, न कि वे अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं; क्योंकि उनमें आयु के छिन्न होने के समय सासादन गुणस्थान नहीं पाया जाता है । ९.) सासादन सम्यग्दृष्टियों की एकेन्द्रियों में उत्पत्ति नहीं है । (य. 7)
प्रश्न:-19 पृथ्वीकायिकादि में कितनी व कौन-कौन सी अविरतियों होती हैं?
उत्तर-पृथ्वीकायिकादि में सात अविरतियाँ होती हैं – षट्कायिक जीवों की हिंसा के अत्यागरूप छह तथा स्पर्शन इन्द्रिय को वश में नहीं करने रूप एक = कुल सात ।
तालिका संख्या 9
वनस्पति कायिक
! क्रम !! संख्या !! स्थान !! विवरण !! विशेष
1 गति 1 तिर्यव्यगति
2 इन्द्रिय 1 एकेन्द्रिय
3 काय 1 स्वकीय वनस्पति कायिक
4 योग 3 औदारिकद्विक, कार्मण
5 वेद 1 नपुंसक
6 कषाय 23 16 क. 7 नो.क. स्त्री तथा पुरुषवेद नहीं हैं
7 ज्ञान 2 कुमति, कुश्रुत
8 संयम 1 असंयम
9 दर्शन 1 अचखुदर्शन
10 लेश्या 3 कृ. नी. का. शुभ लेश्या नहीं होती है
11 भव्य 2 भव्य, अभव्य
12 सम्यक्त्व 2 मिथ्यात्व, सासादन
13 संज्ञी 1 असैनी
14 आहार 2 आहारक, अनाहारक
15 गुणस्थान 2 मिथ्यात्व, सासादन
16 जीवसमास 6 वनस्पति सम्बन्धी
17 पर्याप्ति 4 आ. श. इ. श्वा.
18 प्राण 4 1 इ. 1 ब. श्वा. आ. स्पर्शन इन्द्रिय होती है ।
19 संज्ञा 4 आ. भ. मै. पीर.
20 उपयोग 3 2 ज्ञानो. 1 दर्शनो.
21 ध्यान 8 4 आ. 4 रौ.
22 आसव 385 मि. 7 अ. 23 क. 3 यो.
23 जाति 24 लाख वनस्पति सम्बन्धीनित्यनिगोद तथा इतरनिगोद सम्बन्धी जाति भी ग्रहण करना चाहिए ।
24 कुल 28 ला.क.वनस्पति सम्बन्धी
प्रश्न:-20 वनस्पति जीव कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-वनस्पति जीव चार प्रकार के हैं- 1. वनस्पति, 2 ए वनस्पति काय, 3३ वनस्पतिकायिक 4. वनस्पति जीव ।
वनस्पति – जिसका अध्यन्तर भाग जीवयुक्त है, और बाह्य भाग जीव रहित है, ऐसे वृक्ष आदि को वनस्पति कहते है ।
वनस्पतिकाय – छिन्न- भिन्न किये गये तृण आदि को वनस्पतिकाय कहते हैं ।
वनस्पतिकायिक – जिसमें वनस्पतिकायिक जीव पाये जाते हैं उन्हें वनस्पतिकायिक जीव कहते हैं ।
वनस्पतिजीव – आयु के अन्त में पूर्व शरीर को त्याग कर जो जीव वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न होने के लिए विग्रहगति में जा रहा है, उसे वनस्पति जीव कहते हैं । (सिसादी. 11 ‘ 22 – 25)
प्रश्न:-21वनस्पति जीव कौन- कौनसे होते हैं?
उत्तर-पर्व, बीज, कन्द, स्कन्ध तथा बीजबीज, इनसे उत्पन्न होने वाली और सम्पूर्छिम वनस्पति कही गयी है । जो प्रत्येक और अनन्तकाय ऐसे दो भेद रूप है । ग्ल में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ अ बीज हैं, जैसे-हल्दी आदि । (गो. जी. 186)
प्रश्न:-22 वनस्पति कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-वनस्पति दो प्रकार की होती है- 16 साधारण वनस्पति 2. प्रत्येक वनस्पति ।
प्रश्न:-23 साधारण वनस्पति किसे कहते हैं?
उत्तर-बहुत आत्माओं के उपभोग के हेतु रूप से साधारण शरीर जिसके निमित्त से होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है ।
जिस कर्म के उदय से जीव साधारण शरीर होता है उस कर्म की साधारण शरीर यह संज्ञा हे । (य. 6)
जिस कर्म के उदय से एक ही शरीर वाले होकर अनन्त जीव रहते हैं, वह साधारण शरीर नामकर्म है । (य. 13? 365)
प्रश्न:-24 प्रत्येक वनस्पति किसे कहते हैं?
उत्तर-जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथकृ-पृथक् शरीर होता है उन्हें प्रत्येक शरीर कहते हैं । जैसे-खैर आदि वनस्पति । ७.०)
जिस जीव ने एक शरीर में स्थित होकर अकेले ही सुख-दुःख के अनुभव रूप कर्म उपार्जित किया है वह जीव प्रत्येक शरीर है । (य. 3 ‘ 333)
प्रश्न:-25 स्थावर और एकेन्द्रिय में क्या अन्तर है?
उत्तर-एकेन्द्रिय नामकर्म में इन्द्रिय की मुख्यता है और स्थावर नामकर्म में काय की मुख्यता है । एकेन्द्रिय जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है और स्थावर जीवों के पृथ्वीकायिक आदि नामकर्म का उदय होता है ।
प्रश्न:-26 वनस्पति-कायिक सम्बन्धी कितने जीवसमास हैं?
उत्तर-वनस्पतिकायिक सम्बन्धी छह जीवसमास हैं-
1. नित्यनिगोद
‘
2. नित्यनिगोद बादर ।
3. इतरनिगोद सूक्ष्म
4. इतरनिगोद बादर ।
5. सप्रतिष्ठित प्रत्येक
6. अप्रतिष्ठित प्रत्येक ।
प्रश्न:-27 वनस्पति सम्बन्धी 24 लाख जातियाँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर-वनस्पति सम्बन्धी 24 लाख जातियाँ-
नित्यनिगोद की – 7 लाख, इतरनिगोद की 7 लाख, तथा वनस्पति कायिक की 1० लाख .मर
नोट – नित्यनिगोद एवं इतर निगोद को वनस्पतिकायिक में ग्रहण नहीं करने पर 1० लाख जातियाँ ही होती हैं ।
प्रश्न:-28 क्या ऐसे कोई वनस्पतिकायिक जीव हैं, जिनके कार्मण काययोग होता ही नहीं ३ है ?
उत्तर-ही, जो वनस्पतिकायिक जीव अनुगति से जाते हैं, उनके कार्मण काययोग नहीं होता है । नोट : इसी प्रकार ऋजुगति से जाने वाले सभी जीवों के जानना चाहिए ।
तालिका संख्या 10
त्रसकायिक
! क्रम !! स्थान !! संख्या !! विवरण !! विशेष
1 गति 4 न.ति.म.दे.
2 इन्द्रिय 4 द्वी. त्री. चतु. पंचे.
3 काय 1 त्रस
4 योग 15 4 मनो. 4 व. 7 काय.मनोयोग सैनी जीवों के ही होते हैं ।
5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.
6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय
7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान 5 ज्ञान सम्यग्दृष्टि के ही होते हैं ।
8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं.
9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव. केव.केवलदर्शन मनुष्यों में ही होता है।
10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.
11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य
12 सभ्यक्ल 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.
13 संज्ञी 2 सैनी, असैनीअसैनी जीव तिर्यच्चों में ही होते हैं।
14 आहार 2 आहारक, अनाहारक
15 गुणस्थान 14 पहले से 14 वें तक
16 जीवसमास 5 द्वी.त्री.चतु.सै.असैनी पंचे.
17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.मनःपर्याप्ति सैनी जीवों के ही होती है।
18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.
19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.
20 उपयोग 12 8 ज्ञानो. 4 दर्शनो.
21 ध्यान 16 4 ओ. 4 रौ. 4 ध. 4 शु.
22 आस्रव 57 5 मि.12 अवि.25 क.15 यो.
23 जाति 32 ला. द्वी. 2 ला., त्री. 2 ला., चतु.2 ला. पंचे. 26 लाख पंचेन्द्रिय में नारकी, देव, मनु तिर्य सबको ग्रहण करना चाहिए ।
24 कुल 132 1/2ला.क.द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवों के कुल
प्रश्न28 : त्रस जीव कितने प्रकार के हैं?
उत्तर : त्रस जीव दो प्रकार के हैं- 1 विकलेन्द्रिय 2, सकलेन्द्रिय ।
विकलेन्द्रिय – द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों को विकलेन्द्रिय जानना चाहिए ।
सकलेन्द्रिय – सिंह आदि थलचर, मच्छ आदि जलचर, हँस आदि आकाशचर तिर्यब्ज और देव, नारकी, मनुष्य ये सब पंचेन्द्रिय हैं १- 218 – 1 आ.)
अथवा – त्रस जीव 1, पर्याप्त तथा 2 ‘ अपर्याप्त के भेद से भी दो प्रकार के हैं । ४.? 272) त्रस जीव चार प्रकार के हैं- 1? द्वीन्द्रिय 2 श् त्रीन्द्रिय 3 चतुरिन्द्रिय 4. पंचेन्द्रिय । (न. च. 122)
प्रश्न29- ऐसे कौनसे त्रस जीव हैं, जिनके औदारिक काययोग नहीं होता है?
उत्तर :वे त्रस जीव जिनके औदारिक काययोग नहीं होता है-
1 विग्रहगति, निर्वृत्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में स्थित त्रस जीव ।
2. चौदहवें गुणस्थान वाले अयोग केवली भगवान (इनके योग ही नहीं होता है) 3 देव-नारकी ।
4. एक समय में एक जीव के एक ही योग होता है इसलिए किसी भी योग के साथ कोई भी योग नहीं होता है ।
प्रश्न३०- क्या ऐसे कोई त्रस जीव हैं जिनके वेद का अभाव हो गया हो?
उत्तर :ही, नवम गुणस्थान की अवेद अवस्था से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक स्थित त्रस जीवों के वेद का अभाव हो जाता है ।
प्रश्न31-त्रम जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में कम-से-कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर :त्रस जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में कम-से-कम 2 प्राण होते हैं । 1? कायबल, 2 व आयु ये दो प्राण तेरहवें गुणस्थान वाले केवली
प्रश्न 32- भगवान की समुद्घात अवस्था में होते हैं । क्या ऐसे कोई त्रस्र जीव हैं जिनके संज्ञाएँ नहीं होती हैं?
उत्तर : ही, ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के त्रस जीवों के आहारादि कोई संज्ञाएँ नहीं होती हैं । (गो.जीजी. 702)
प्रश्न३३- क्या ऐसा कोई त्रस जीव है, जिसके जीवन में सभी उपयोग हो जावें?
उत्तर :ही, किसी एक तद्भव मोक्षगामी मनुष्य के अपने जीवनकाल में सभी उपयोग हो सकते हैं, अन्य किसी जीव के नहीं हो सकते ।
जैसे-किसी मिथ्यादृष्टि मनुष्ये ने सम्यग्दर्शन प्राप्त करके अवधिज्ञानो. प्राप्त कर लिया तो उसके मति, भुल, अवधिज्ञानो. होगा । फिर वही सम्बक्ल से क्षत हुआ तो उसके कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधिज्ञान होगा ।
वही पुन: सम्यग्दर्शन प्राप्त कर मुनि बनकर मनःपर्ययज्ञानो. प्राप्त कर ले तो उसके चार ज्ञानो. हो जायेंगे ।
वही जब चार घातिया कर्मों को नष्ट कर देता है तो उसके केवलज्ञानने, हो जायेगा । चक्षु तथा अचखुदर्शनी. सभी मनुष्यों के होते हैं जिसने अवधिज्ञानो. प्राप्त किया उसके अवधि दर्शनो. होगा तथा घातिया कर्म क्षय करने पर केवलदर्शनो. हो जायेगा । इस प्रकार एष्क मनुष्य अपने जीवनकाल में सभी उपयोग प्राप्त कर सकता है, लेकिन छद्मस्थ’ जीवों के एक समय में एक ही उपयोग होता है और केवली भगवान के दर्शन तथा ज्ञान दोनों उपयोग एक साथ होते हैं ।
नोट – कुमति, कुसुत, कुअवधिज्ञानो. सम्बक्ल प्राप्त होने के पहले भी होते हैं ।
त्रम जीवों के कम- से-कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं ।
त्रस जीवों के कम-से-कम 7 आसव के प्रत्यय होते हैं ।
तेरहवें गुणस्थान में मात्र 7 योग ही आसव के कारण है । सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो मनोयोग और वचनयले का निरोध हो जाने पर (उस अवस्था में स्थित सभी जीवों के) मात्र एक औदारिक काययोग ही आसव का कारण बचता है । इस अपेक्षा त्रस जीवों के कम-से- कम एक आसव भी कहा जा सकता है ।
अयोगी भगवान भी त्रस हैं, उनके एष्क भी आसव का प्रत्यय शेष नहीं है ।
प्रश्न३४- क्या सभी त्रस जीवों के 57 आसव के प्रत्यय हो सकते हैं?
उत्तर : नहीं, नाना जीवों की अपेक्षा त्रस जीवों के कुल मिलाकर सत्तावन आसव के प्रत्यय हो जाते हैं-
सत्यमनो. सत्य वचनयोग तथा – संज्ञीपंचेन्द्रिय से 1 वें गुणस्थान तक । अनुभय मनोयोगअसत्य उभय मन तथा वचन योग – संज्ञीपचेन्द्रिय से १-, गुणस्थान तक । अनुभयवचनयोग – द्वीन्द्रिय से 1 वें गुणस्थान तक ।
औदारिकद्विक – मनुष्य-तिर्यच्चों के ।
वैक्रियिकद्विक – देव-नारकियों के ।
आहारकद्बिक – छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के ।
1 छ जो ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म के उदय में स्थित होते हैं उन्हें छद्यस्थ कहते हैं । ये 1 वें गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।
कार्मणकाययोग …. – चारों गति की अपेक्षा कहा गया है । 5 मिथ्यात्व और 23 कवायें – मिथ्यादृष्टि नारकी एवं समर्चन पंचे. एं तथा विकलत्रय की अपेक्षा ।
स्त्रीवेद पुरुषवेद – देव, मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तिर्यच्चों की अपेक्षा ।
12 ‘अविरति – मात्र संज्ञी पंचेन्द्रिय के ही हो सकती
नोट – द्वीन्द्रिय आदि जीवों के बारह में से कुछ-कुछ अविरतियाँ होती हैं ।
प्रश्न35-त्रम जीवों की 32 लाख जातियों कौन-कौन सी हैं?
उत्तर :त्रस जीवों की 32 लाख जातियाँ –
( 1) द्वीन्द्रिय की – 2 लाख (2) त्रीन्द्रिय की – 2 लाख
(3) चतुरिन्द्रिय की – 2 लाख (4) पंचेन्द्रिय तिर्यंच की – 4 लाख
(5) नारकियों की – 4 लाख (6) देवों की – 4 लाख
(7) मनुष्य की – 14 लाख
प्रश्न 36-त्रस जीवों के 132 -ा? लाखकरोड़ कुल कौन- कौनसे हैं?
उत्तर : त्रस जीवों के 132 -2 लाखकरोडू कुल-
द्वीन्द्रियों के – 7 लाखकरोड़ नारकियों के – 25 लाखकरोड़ एए?
त्रीन्द्रियोंके – 8 लाखकरोडू देवों के – 26 लाखकरोडू चतुरिन्द्रिय के – 9 लाखकरोड़ मनुष्यों के – 14 लाखकरोड़
पंचेन्द्रिय तिर्यच्चों में-जलचरों के 12 -ा? लाखकरोड़, थलचरों के 19 लाखकरोड़, नभचरों के 12 लाखकरोड़ zZ 132 -ा? लाखकरोड़ ।
प्रश्न37- ऐसी कौनसी कषायें हैं जो त्रस्र जीवों के तो होती हैं लेकिन स्थावर जीवों के नहीं होती हैं?
उत्तर :मात्र दो कवायें ऐसी हैं जो त्रस जीवों के होती हैं लेकिन स्थावर जीवों के नहीं होती- स्त्रीवेद और पुरुषवेद नोकषाय ।
प्रश्न38-ऐसी कौनसी अविरति हैं जो त्रस तथा स्थावर दोनों के होती हैं?
उत्तर :7 अविरतियाँ त्रस तथा स्थावर दोनों जीवों के होती हैं-
षट्काय की हिंसासम्बन्धी तथा स्पर्शन इन्द्रिय सम्बन्धी ।
प्रश्न39- चौबीस स्थानों में से ऐसे कौन से स्थान हैं जिनके सभी उत्तरभेद त्रसों में पाये जाते ई?
उत्तर :चौबीस स्थानों में से 19 स्थान ऐसे हैं जिनके सभी उत्तर भेद त्रसों में पाये जाते हैं- 1. गति 2. योग 3. वेद 4. कषाय5. ज्ञान 6. संयम 7. दर्शन 8. लेश्या 9 भव्य 1०. सम्बक्ल 11 संज्ञी 12. आहारक13. गुणस्थान 14. पर्याप्ति 15. प्राण 16. सज्ञा17 उपयोग 18. ध्यान 19 आसव के प्रत्यय
प्रश्न40- स्थावर जीवों में किस- किस स्थान के सभी उत्तरभेद नहीं पाये जाते हैं?
उत्तर :स्थावर जीवों में 21 स्थानों के सभी उत्तर भेद नहीं पाये जाते हैं-
1. भव्य 2. आहारक 3. संज्ञा, इन तीन स्थानों को छोड्कर शेष सभी स्थानों के सभी उत्तर भेद स्थावर जीवों में नहीं पाये जाते हैं । अर्थात् गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, सम्बक्च, संज्ञी, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, उपयोग, ध्यान, आसव के प्रत्यय, जाति तथा कुल इन 21 स्थानों के सभी उत्तर भेद नहीं होते हैं ।
प्रश्न41-ऐसे कौन- कौनसे उत्तर भेद हैं जो त्रसों में होते हैं लेकिन स्थावरों में नहीं होते हैं?
उत्तर :वे उत्तर भेद जो त्रसों में होते हैं लेकिन स्थावरों में नहीं होते हैं-
! क्रम !! संख्या स्थान !! विवरण
1 3 गतियाँ देवगति, नरकगति, मनुष्यगति
2 4 इंद्रियाँ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय,पंचेन्द्रिय
3 1 काय त्रस
4 12 योग 4 म. 4 व 4 काययोग ।
5 2 वेद स्त्रीवेद , पुरुषवेद
6 2 कषाय स्त्रीवेद , पुरुषवेद
7 6 ज्ञान 5 ज्ञान 1 कुअवधिज्ञान
8 6 संयम असंयम को छोडकर शेष संयम
9 3 दर्शन चक्षु, अवधि, केवलदर्शन
10 3 लेश्या पीत, पद्म, शुक्ल
11 सम्यक्त्व मिथ्यात्व और सासादन को छोड्कर ।
12 1 संज्ञी सैनी
13 12 गुणस्थान तीसरा आदि 12 गुणस्थान
14 5 जीवसमास 5 जीवसमास
15 2 पर्याप्ति भाषा तथा मन
16 6 प्राण 4 इन्द्रिय, वचनबल, मनोबल
17 9 उपयोग 6 ज्ञानो. 3 दर्शनो.
18 8 ध्यान 4 ध. 4 शु.
19 19 आसव के प्रत्यय 5 अविरति. 2 वेद, 12 योग
2० जाति 32 लाख
21 कुल132 1/२ लाख करोड़
प्रश्न42- ब्रस्र काय की जाति एवं पंचेन्द्रिय की जाति में क्या अन्तर है?
उत्तर-त्रस काय की जातियों से पंचेन्द्रिय जीवों में 6 लाख जातियों का अन्तर है । अर्थात् त्रसकाय में 32 लाख जातियाँ हैं तथा पंचेन्द्रिय जीवों की मात्र 26 लाख जातियाँ हैं । त्रस जीवों में विकलत्रय की जातियाँ भी होती हैं, पंचेन्द्रियों में नहीं ।
प्रश्न43- किस काय वाले के सबसे ज्यादा कुल होते हैं?
उत्तर :त्रसकायिक जीवों के कुल सबसे ज्यादा हैं क्योंकि उनमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, देव-नारकी-मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच सबके कुलों का ग्रहण हो जाता है । स्थावरकाय में केवल एकेन्द्रिय जीवों के. कुलों का ही ग्रहण होता है । त्रसों के 132 र? लाख करोड़ तथा पृथ्वीकायिकादि पाँच कायिक में केवल 67 लाख करोड़ कुल होते हैं ।
प्रश्न44- जलकायिक के कुल के बराबर कुल कौनसी कायवालों के होते हैं?
उत्तर : जलकायिक के कुल के बराबर कुल वायुकायिक जीवों के होते है । दोनों में प्रत्येक के 7 लाख करोड़ कुल होते हैं ।
प्रश्न 1-योग मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर : कर्म वर्गणा रूप पुद्गल स्कन्धों को ज्ञानावरण आदि कर्म रूप से और नोकर्म वर्गणा रूप पुद्गल स्कन्ध को औदारिक आदि नोकर्म रूप से परिणमन में हेतु जो सामर्थ्य है तथा आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द को योग कहते हैं ।
जैसे- अग्रि के संयोग से लोहे में दहन शक्ति होती है, उसी तरह अंगोपांग और शरीर नामकर्म के उदय से जीव के प्रदेशों में कर्म और नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न होती है । (गो. जी. 216) जीवों के प्रदेशों का जो संकोच-विकोच और परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है, वह योग कहलाता है । (ध. 1०7437) मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तक आत्मप्रदेश का परिस्पन्द योग है । (ध. 10437) उपर्युक्त योगों में जीवों की खोज करने को योग मार्गणा कहते हैं ।
प्रश्न 2-योग कितने होते हैं?
उत्तर : योग दो प्रकार के हैं- 1. द्रव्य योग 2. भाव योग । योग के तीन भेद हैं- 1 मनोयोग. 2 वचनयोग. 3 काययोग । (त. सू 6) योग के पन्द्रह भेद होते हैं – 4 मनोयोग – सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्यमृषामनोयोग असत्यमृषामनोयोग । (सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग) 4 वचनयोग – सत्यवचनयोग, मृषावचनयोग, सत्यमृषावचनयोग, असत्यमृषा- वचन योग । (सत्यवचनयघो, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग) 7 काययोग – औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययणे, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग तथा कार्मणकाययोग ।
प्रश्न 3- द्रव्ययोग किसे कहते हैं?
उत्तर : भावयोग रूप शक्ति से विशिष्ट आत्मप्रदेशों में जो कुछ हलन-चलन रूप परिस्पन्द होता है वह द्रव्य योग है । ( गो.जी. 216)
प्रश्न4- भावयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : पुद्गल विपाकी अंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय रूप से परिणत तथा कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा का अवलम्बन करने वालेसंसारी जीव के लोकमात्र प्रदेशों में रहने वाली जो शक्ति कर्मों को ग्रहण करने में कारण है वह भावयोग है । (मै।. म्बूँ।. मै 16)
प्रश्न 5-मनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : अध्यन्तर में वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम रूप मनोलब्धि के सन्निकट होने पर और बाह्य निमित्त रूप मनोवर्गणा का अवलम्बन होने पर मनःपरिणाम के प्रति अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है उसे मनोयोग कहते हैं । (रा. वा. 671०) मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्य के आलम्बन से जो संकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है । (ध. 7776)
प्रश्न 6-वचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : भाषा वर्गणा सम्बन्धी पुद्गल स्कन्धों के अवलम्बन से जीव प्रदेशों का जो संकोच-विकोच होता है वह वचनयोग है । ४. ‘ 76) शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचन वर्गणाओं का अवलम्बन लेने पर तथा वीर्यान्तराय का क्षयोपशम और मति अकरादि ज्ञानावरण के क्षयोपशम आदि से अध्यन्तर में वचनलब्धि का सान्निध्य होने पर वचन परिणाम के अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता है वह वचनयोग कहलाता है । (सर्वा. 610)
प्रश्न 7-काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर : वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर औदारिक आदि सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक के अवलम्बन की अपेक्षा करके जो आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है, वह काययोग है (सर्वा. मि. 671) जो चतुर्विध शरीरों’ के अवलम्बन से जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच होता है, वह काययोग है । (य. 7 ‘ 76) वात, पित्त व कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जीव प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है । (ध. 1०7437)
प्रश्न 8- योग मार्गणा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर : योग मार्गणा के अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी तथा काययलेईा तथा अयोगी जीव होते हैं । (व. खै. 17278 – 8०) अत: योग मर्प्ताया तीन प्रकार की होती है – मनोयोग, वचनयोग, काययोग । 1. औदारिक, वैक्रियिक, आहारक एव कार्मण शरीर । तैजस शरीर के निमित्त से योग नहीं बनता है, इसलिए उसे ग्रहण नहीं किया है ।
प्रश्न 9- योगमार्गणा में द्रव्य योग को ग्रहण करना चाहिए या भावयोग को?
उत्तर : योगमार्गणा में भावयोग को ही ग्रहण करना चाहिए । सूत्र में आये हुए ‘ इमानि’ पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिए । द्रव्य मार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि द्रव्य मार्गणाएँ देश, काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं, अतएव अल्पज्ञानियों को उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । ( ध. 17131)
प्रश्न 10- योग क्षायोपशमिक है तो केवली भगवान के योग कैसे हो सकता है?
उत्तर : वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयलेकेवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश-पीरस्पन्दन होता है वह भी योग है, ऐसा जानना चाहिए । (सर्वा. 61०) सयोग केवली में योग के अभाव का प्रसग नहीं आता, योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से हैं । असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योग का सयोग केवली में अभाव मानने में विरोध आता है । ४.) शरीर नामकमोदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है । इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है । ७.) नोट – शरीर नाम कर्म कीं उदीरणा व उदय से योग उत्पन्न होता है इसलिए योग मार्गणा औदयिक है । ९.? 316)
प्रश्न 11- अयोग केवली (योग रहित जीव) कैसे होते हैं?
उत्तर : जिन आत्माओं के पुण्य-पाप रूप प्रशस्त और अप्रशस्त कर्मबन्ध के कारण मन, वचन, काय की क्रिया रूप शुभ और अशुभ योग नहीं हैं वे आत्माएँ चरम गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली और उसके अनन्तर गुणस्थानों से रहित सिद्ध पर्याय रूप परिणत मुक्त जीव होते हैं । (गो. जी. 243) जो मन, वचन, काय वर्गणा के अवलम्बन से कर्मोंके ग्रहण करने में कारण आत्मा के प्रदेशों का पीरस्पन्दन रूप जो योग है, उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं । ( वृद्रसं. टी. 13)
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 4 न.ति.म.दे. – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय एकेन्द्रियादि के ये योग नहीं हैं। – 3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय सत्यमनोयोगी के सत्य मनोयोग -5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय-7 ज्ञान 83 कुज्ञान. 5 ज्ञान -8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं.- 9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव. केव.- 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 1 सैनी, सैनी-असैनी से रहित के भी होते हैं । – 14 आहार 1 आहारक, अनाहारक अवस्था में पर्याप्ति पूर्ण नहीं होने से ये तीनों योग नहीं होते । – 15 गुणस्थान 13 पहले से 13 वें तक- 16 जीवसमास 1 सैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा.भा . म.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 12 8 ज्ञानो. 4 दर्शनो.- 21 ध्यान 14 4 आ . 4 रौ. 4 ध. 2 शु. आदि के दो शुक्ल ध्यान हैं – 22 आस्रव 43 5 मि. 12 अवि.25 क.1यो.स्वकीय योग – 23 जाति 26 ला. ना.म.देव तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच की – 24 कुल 108 1/2ला.क. ना.म.देव तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच की
प्रश्न12- : सत्य मनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : सम्यग्ज्ञान के विषयभूत अर्थ को सत्य कहते हैं । जैसे-जल ज्ञान का विषय जल सत्य है, क्योंकि स्नान-पान आदि अर्थक्रिया उसमें पाई जाती हैं । सत्य अर्थ का ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति रूप भाव मन सत्य मन है । उस सत्य मन से उत्पन्न हुआ योग अर्थात् प्रयत्न विशेष सत्य मनोयोग है । (गो. जीजी. 217 – 18)
प्रश्न 13-सत्य वचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : सत्य अर्थ का वाचक वचन सत्य वचन है । स्वर नामकर्म के उदय से प्राप्त भाषा पर्याप्ति से उत्पन्न भाषा वर्गणा के आलम्बन से आत्मप्रदेशों में शक्ति रूप जो भाव वचन से उत्पन्न योग अर्थात् प्रयत्न विशेष है, वह सत्यवचन योग है । (गो. जी. 22० सं. प्र.) दस प्रकार के सत्यवचन में वचन वर्गणा के निमित्त से जो योग होता है वह सत्य वचन योग है । (पस. प्रा.)
प्रश्न 14- अनुभय मनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : जो मन सत्य और असत्य से युक्त नहीं होता, वह असत्यमृषामन है अर्थात् अनुभय अर्थ के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति रूप भावमन से उत्पन्न प्रयत्न विशेष अनुभय मनोयोग है । ( गो.जी. 219) अनुभय ज्ञान का विषय अर्थ अनुभय है, उसे न सत्य ही कहा जा सकता है और न असत्य ही कहा जा सकता है । जैसे-कुछ प्रतिभासित होता है । यहाँ सामान्य रूप से प्रतिभासमान अर्थ अपनी अर्थक्रिया करने वाले विशेष के निर्णय के अभाव में सत्य नहीं कहा जा सकता और सामान्य का प्रतिभास होने से असत्य भी नहीं कहा जा सकता । इसलिए जात्यन्तर होने से अनुभय अर्थ स्पष्ट चतुर्थ अनुभय मनोयोग है । जैसे-किसी को बुलाने पर ‘ हे देवदत्त’ यह विकल्प अनुभय है । ( गो. जी. 217)
प्रश्न 15- सत्य तथा अनुभय मन- वचनयोग का कारण क्या है?
उत्तर : सत्य तथा अनुभय मन-वचनयोग का मूल कारण (निमित्त) प्रधानकारण पर्याप्त नामकर्म और शरीर नामकर्म का उदय है । (गो. जी. 227)
प्रश्न 16- सत्य मनोयोगी के क्षायिकसम्य? में कितने गुणस्थान होते हैं?
उत्तर : सत्य मनोयोगी के क्षायिक सम्बक्ल में चौथे से तेरहवें गुणस्थान तक के 1० गुणस्थान होते हैं ।
प्रश्न 17- सत्य वचनयोगी के केवलदर्शन में कितने गुणस्थान हो सकते हैं?
उत्तर : सत्य वचनयोगी के केवलदर्शन में एक ही गुणस्थान होता है-तेरहवीं ।
प्रश्न 18- सत्य मनोयोगी जीव के कम-से-कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर : सत्य मनोयोगी जीव के कम-से-कम चार प्राण होते हैं- 1. वचन बल 2. कायबल 3. श्वासोच्चवास 4 भू.- आयु । ये चार प्राण सयोगकेवली की अपेक्षा कहे गये हैं ।
प्रश्न 19- केवली भगवान के मनोयोग है तो मनोबल क्यों नहीं कहा गया है?
उत्तर : अंगोपांग नामकर्म के उदय से हृदयस्थान में जीवों के द्रव्य मन की विकसित खिले हुए अष्टदल पद्म के आकार रचना हुआ करती है । यह रचना जिन मनोवर्गणाओं के द्वारा होती है उनका श्रीजिनेन्द्र भगवान सयोगिकेवली के भी आगमन होता है इसलिए उनके उपचार से मनोयोग कहा गया है । लेकिन ज्ञानावरण तथा अन्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय हो जाने से उनके मनोबल नहीं होता है । क्योंकि मनोबल की उत्पत्ति ज्ञानावरण तथा अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है । (गो. जी. 229)
प्रश्न20 – क्या ऐसे कोई सत्य मनोयोगी हैं जिनके मात्र दो संज्ञाएँ हों?
उत्तर : ही, नवम गुणस्थान के सवेदी मनोयोगी मुनिराज के मात्र दो संज्ञाएँ पाई जाती हैं- 1. मैथुन सज्ञा 2. परिग्रह सज्ञा ।
प्रश्न 21- सत्यादि तीन योगों में चौदह ध्यान ही क्यों होते हैं?
उत्तर : इन सत्यादि तीन योगों में चार आर्त्तध्यान, चार रौद्रध्यान, चार धर्मध्यान तथा दो शुक्लध्यान होते हैं । जब केवली भगवान मनोयोग तथा वचनयोग को नष्ट कर देते हैं एवं जब सूक्ष्म काययोग रह जाता है तब तीसरा श्लक्रियाप्रतिपाती ध्यान होता है । अर्थात् तीसरा शुक्लध्यान औदारिक काययोग से ही होता है । जैसा कि तत्त्वार्थख्य महाग्रन्थ में भी कहा है- ” त्येकयोगकाययोगायोगानाम्’ ‘ (9) शुक्लध्यान……….. तीसरा शुक्लध्यान काययोग से होता है मनोयोग तथा वचनयोग से नहीं । इसीलिए इन तीनों योगों में 14 ध्यान ही कहे हैं, पन्द्रह नहीं । प्रश्न 22- अनुभय मनोयोगी के आसव के कम-से-कम कितने प्रत्यय होते हैं?
उत्तर : अनुभय मनोयोगी के आसव का कम-से-कम एक प्रत्यय हो सकता है । ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान में केवल एक स्वकीय अर्थात् अनुभयमनोयोग सम्बन्धी आसव का प्रत्यय होगा, क्योंकि एक समय में एक ही योग हो सकता है तालिका संख्या 12
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष- 1 गति 4 न.ति.म.दे. – 2 इन्द्रिय 4 द्वी. त्री. चतु. पंचे.- 3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय अनुभय वचनयोग -5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.-6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान – 8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं.- 9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव. केव. केवलदर्शन मनुष्यों में ही होता है। -10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 2 सैनी, असैनी- 14 आहार 1 आहारक, – 15 गुणस्थान 13 पहले से 13 वें तक- 16 जीवसमास 5 द्वी.त्री.चतु.सै.असैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 12 8 ज्ञानो. 4 दर्शनो.- 21 ध्यान 14 4 आ. 4 रौ. 4 ध. 2 शु. तीसरा चौथा शुक्लध्यान 22 आस्रव 43 14 योग बिना अनुभय वचन योग ही होता है। – 23 जाति 32 ला. द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त -24 कुल 132 1/2ला.क.द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त एकेन्द्रिय सम्बन्धी कुल नहीं है।
प्रश्न23-अनुभयवचन योग किसे कहते हैं?
उत्तर : जो सत्य और असत्य अर्थ को विषय नहीं करता वह असत्यमृषा अर्थ को विषय करने वाला वचन व्यापार रूप प्रयत्न विशेष अनुभय वचन योग है । दो इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की जो अनकरात्मक भाषा है तथा संज्ञी पंचेन्द्रियों की जो आमन्त्रण आदि रूप अक्षरात्मक भाषा है
जैसे- ‘ ‘देवदत्त! आओ’ ‘, ” यह मुझे दो’ ‘ ” क्या करूँ’ ‘ आदि सब अनुभयवचनयोग कहे जाते हैं । (गोजी. 221) उपर्युक्त ” देवदत्त आओ’ ‘ आदि को अनुभव वचन योग क्यों कहा गया है? ‘देवदत्त आओ’ ‘ आदि वचन श्रोताजनों को सामान्य से व्यक्त और विशेष रूप से अव्यक्त अर्थ के अवयवों को बताने वाले हैं । इनसे सामान्य से व्यक्त अर्थ का बोध होता है इसलिए इन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता और विशेष रूप से व्यक्त अर्थ को न कहने से इन्हें सत्य भी नहीं कहा जा सकता है । (गो. जी. 223)
प्रश्न24-अनक्षरात्मक भाषा में सुव्यक्त अर्थ का अंश नहीं होता है, तब वह अनुभय रूप कैसे हो सकती है?
उत्तर : अनक्षरात्मक भाषा को बोलने वाले दो इन्द्रिय आदि जीवों के सुख-दुःख के प्रकरण आदि के अवलम्बन से हर्ष आदि का अभिप्राय जाना जा सकता है । इसलिए व्यक्तपना सम्भव है । अत: अनक्षरात्मक भाषा भी अनुभय रूप ही है । (गो. जी. 226)
प्रश्न 25- सयोग केवली के अनुभय एवं सत्यवचनयोग की सिद्धि कैसे होती है?
उत्तर : भगवान की दिव्य ध्वनि के सुनने वालों के श्रोत्र प्रदेश को प्राप्त होने के समय तक अनुभव भाषा रूप होना सिद्ध है । उसके अनन्तर श्रोताजनों के इष्ट पदार्थों में संशय आदि को दूर करके सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न करने से सयोग केवली भगवान के सत्यवचनयोगपना सिद्ध है । (गो. जी.)
प्रश्न 26- तीर्थकर तो वीतराग हैं अर्थात् उनके बोलने की इच्छा का तो अभाव है फिर उनके मात्र सत्य वाणी ही क्यों नहीं खिरी, अनुभय वाणी भी क्यों खिरी?
उत्तर : तीर्थंकरों के जीव ने पूर्व में ऐसी भावना भायी थी कि संसार के सभी जीवों का कल्याण कैसे हो । उसी भावना से उनके सहज तीर्थंकर गोत्र (प्रकृति) का बन्ध पड़ गया था । इसी के उदय में वाणी खिरती है । अनादि काल से जीव अज्ञान के कारण पौद्गलिक कर्मों से बँधा हुआ है । ऐसे जीवों को मोक्षमार्ग दिखाने के लिए जीव का तादात्म्य सम्बन्ध अपनी गुण-पर्याय के साथ किस प्रकार का है, उसी का ज्ञान कराने के लिए सत्यवाणी खिरी है और जीव की पौद्गलिक कर्मों के संयोग से कैसी अवस्था हो रही है । इसका ज्ञान कराने के लिए अनुभय वाणी खिरी है । यह दोनों प्रकार की वाणी एक साथ सहज खिर रही है । इस वाणी को सुनकर ही गणधर देवों ने सूत्रों की रचना की है । (चा. चक्र)
प्रश्न 27- क्या, कोई ऐसे अनुभयवचनयोगी है, जिनके वेद नहीं हो?
उत्तर : ही, नवम गुणस्थान के अवेद भाग से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक के अनुभयवचनयोगी वेद रहित होते हैं । इसी प्रकार सत्यादियोगों में भी जानना चाहिए ।
प्रश्न 28- अनुभयवचनयोगी के कम- से- कम कितनी कषायें होती हैं?
उत्तर : दसवें गुणस्थान की अपेक्षा अनुभयवचनयोगी के कम-से-कम एक कषाय होती है तथा ग्यारहवें से 13 वें गुणस्थान तक अनुभयवचनयोगी कषाय रहित भी होते हैं ।
प्रश्न 29- अनुभयवचनयोगी जीव संज्ञी होते हैं या असंज्ञी?
उत्तर : अनुभयवचनयोगी जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं तथा इन दोनों से अतीत अर्थात् संज्ञी- असंज्ञीपने से रहित सयोग केवली भगवान के भी अनुभयवचनयोग पाया जाता
प्रश्न 30- अनुभयवचनयोगी के अवधिज्ञान में कितने गुणस्थान हो सकते हैं?
उत्तर : अनुभयवचनयोगी के अवधिज्ञान में चौथे गुणस्थान से 12 वें गुणस्थान तक के 9 गुणस्थान होते हैं ।
प्रश्न 31- अनुभयवचनयोगी के कौनसे संयम में सबसे ज्यादा गुणस्थान होते हैं?
उत्तर : सामायिक-छेदोपस्थापना संयम में अनुभयवचनयोगी के छठे से नवमे गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते हैं । असंयम में पहले से चौथे तक चार गुणस्थान होते हैं ।
प्रश्न 32- क्या ऐसे कोई अनुभयवचनयोगी हैं जिनके मात्र एक ही सभ्य? होता है?
उत्तर : ही, तेरहवें गुणस्थान में तथा क्षपक श्रेणी के 8 वें, 9 वें, 1० वें 12 वें गुणस्थान में केवल एक क्षायिक सम्बकव ही होता है । द्वीन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक के जीवों में भी सम्बक्च मर्लणा में से केवल एक मिथ्यात्व ही होता है ।
प्रश्न 33- अनुभयवचनयोगी अनाहारक क्यों नहीं होते?
उत्तर : अनुभयवचनयोग में अनाहारकपना नहीं होने के दो कारण हैं- पहली बात : मात्र कार्मण काययोग में ही जीव अनाहारक होता है । दूसरी बात : भाषा पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचनयोग नहीं होता, अनाहारक अवस्था में भाषा पर्याप्ति पूर्ण होना तो बहुत दूर, प्रारम्भ भी नहीं होती है ।
प्रश्न ३४- अनुभय मनोयोग में जातियों ज्यादा हैं या अनुभय वचन योग में?
उत्तर : अनुभयवचनयोग में जातियाँ ज्यादा हैं क्योंकि वह द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है तथा अनुभयमनोयोग पंचेन्द्रिय से तेरहवें गुणस्थान तक होता है । अर्थात् अनुभय मनोयोग में 26 लाख जातियाँ है और अनुभय वचनयोग में 32 लाख जातियाँ
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 4 न.ति.म.दे.-2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय- 3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय असत्यमनोयोग में असत्य-मनोयोग – 5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 7 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान केवलज्ञान नहीं हैं – 8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं.- 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. – 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 1 सैनी, – 14 आहार 1 आहारक, – 15 गुणस्थान 12 पहले से 12 वें तक-16 जीवसमास 1 सैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 10 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो.-21 ध्यान 14 4 आ. 4 रौ. 4 ध. 2 शु.- 22 आस्रव 43 14 योग बिना-23 जाति 26 ला. ना.ला.ति.4 ला.मनु.14 ला.तथा देवों की 4 ला. – 24 कुल 108 1/2ला.क. ना.25 ला.क.,ति.43 1/2 ला.क.,मनु.14ला.क.,देव 26 ला.क. “}
प्रश्न 35- असत्यमनोयोग किसे कहते हें?
उत्तर : असत्य अर्थ को विषय करने वाले ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति रूप भाव मन से उत्पन्न प्रयत्न विशेष मृषा अर्थात् असत्यमनोयोग है । जैसे-मरीचिका में जलज्ञान का विषय जल असत्य है । क्योंकि उसमें स्नान-पान आदि अर्थक्रिया का अभाव है । (गो.जी.)
प्रश्न 36- असत्य वचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : असत्य अर्थ का वाचक वचन असत्यवचन व्यापार रूप प्रयत्न असत्यवचन योग है । (गो. जी. 220)
प्रश्न 37- उभय मनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : सत्य और असत्य दोनों के विषयभूत पदार्थ को उभय कहते हैं; जैसे-कमण्डलु को यह घट है, क्योंकि कमण्डलु घट का काम देता है इसलिए कथंचित् सत्य है और घटाकार नहीं है इसलिए कथंचित् असत्य भी है । सत्य और मृषा रूप योग को असत्यमृषा मनोयोग कहते हैं । (गोजी. 219)
प्रश्न 38- उभयवचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : कमण्डलु में घट व्यवहार की तरह सत्य और असत्य अर्थ विधायक वचन व्यापार रूप प्रयत्न उभय वचनयोग है । (गो. जी. 22०)
प्रश्न 39- प्रमाद के अभाव में श्रेणिगत जीवों के असत्य और उभयमनोयोग एवं वचन योग कैसे हो सकता है?
उत्तर : नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञान के कारणभूत मन का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक या उपशमक जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है । (ध. 1) ऐसी शंका व्यर्थ है क्योंकि असत्यवचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्यवचन के सद्भाव का प्रतिपादन किया है और इसीलिए उभयसंयोगज सत्यमृषावचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है । (ध. 1)
प्रश्न40-ध्यानस्थ अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में वचनयोग या काययोग का सद्भाव कैसे हो सकता है?
उत्तर : नहीं, क्योंकि ध्यान अवस्था में भी अन्तर्जल्प के लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत न्ल्यू प्रयत्नरूप काययोग का सत्व अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवर्ती जीवों के पाया ही जाता है इसलिए वहाँ वचनयोग एवं काययोग भी सम्भव ही हैं । (ध. 2 ‘ 434)
प्रश्न 41- संसार में ऐसे कौन-कौन से जीव हैं जिनके मनोयोग नहीं होता है? उत्तर : ससार के जीव जिनके मनोयोग नहीं होता है,
उत्तर : एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीव । लब्ध्यपर्याप्त तथा जब तक मन: पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक । तेरहवें गुणस्थान में केवली समुद्घात तथा छठे गुणस्थान में आहारक समुद्घात में जब तक मन: पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती । चौदहवें गुणस्थान में अयोगी । मनोयोग का निरोध होने के बाद तेरहवें गुणस्थान में ।
प्रश्न 42- क्या लब्ध्यपर्याप्तक सैनी जीवों के भी असत्यवचनयोग होता है?
उत्तर : नहीं, किसी भी लब्ध्यपर्यातक जीव के औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययले को छोड्कर अन्य कोई योग नहीं होता है क्योंकि भाषा तथा मनःपर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचन तथा मनोयोग नहीं बन सकता है ।
प्रश्न 43-असत्य तथा उभय मन- वचन योग का कारण क्या है?
उत्तर : आवरण का मन्द उदय होते हुए असत्य की उत्पत्ति नहीं होती अत: असत्यमनोयोग, असत्यवचनयप्तो, उभय मनोयोग, उभय वचनयोग का मूल कारण आवरण के तीव्र अनुभाग का उदय ही है, यह स्पष्ट है । इतना विशेष है कि तीव्रतर अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवम्ण असत्यमनोयोग और असत्य वचनयोग का कारण है । और तीव्र अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवरण उभयमनोयघो और उभयवचनयप्तो का कारण हे । (गो. जी. 227) यदि सत्य तथा अनुभय मन- वचन योग का कारण आवरणकर्म का तीव्र मन्द अनुभाग होता है
प्रश्न 44- तो केवली भगवान के योग कैसे बनेंगे?
उत्तर : यद्यपि योग का निमित्त आवरणकर्म का मन्द-तीव्र अनुभाग का उदय है किन्तु केवली के सत्य और अनुभययोग का व्यवहार समस्त आवरण के क्षय से होता है । (गो. जी. 227) असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान कितने गुणस्थानों में होता है? असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान छठे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के सात गुणस्थानों में होता है ।
प्रश्न 45- असत्य और उभय मनोयोगी के कितने कुल नहीं होते हैं?
उत्तर : असत्य और उभय मनोयोगी के 91 लाखकरोड़ कुल नहीं होते हैं- पृथ्वीकायिक के 22 लाखकरोड़ वनस्पतिकायिक के 28 लाखकरोड़ जलकायिक के 7 लाखकरोड़ द्वीन्द्रिय के 7 लाखकरोड़ अग्रिकायिक के 3 लाखकरोड़ त्रीन्द्रिय के 8 लाखकरोड़ वायुकायिक के 7 लाखकरोड़ चतुरिन्द्रिय के 9 लाखकरोड़
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 2 तिर्यञ्च, मनुष्य – 2 इन्द्रिय 5 ए. द्वी. त्री. चतु. पंचे.- 3 काय 6 पृथ्वी आदि 5 स्थावर 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय औदारिक काययोग 5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान – 8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं. अस. तथा संयमातिर्यच्च के भी होते हैं । – 9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव.केव. – 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सभ्यक्व 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी, – 14 आहार 1 आहारक, अनाहारक नहीं होते – 15 गुणस्थान 13 पहले से 13 वें तक- 16 जीवसमास 19 14 एकेन्द्रियसम्बन्धी, 5 त्रस के- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.-19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 12 8 ज्ञानो. 4 दर्शनो.- 21 ध्यान 15 4 आ. 4 रौ. 4 ध. 3 शु. अन्तिम शुक्लध्यान नहीं है । – 22 आस्रव43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो.- 23 जाति 76 ला. ति.62 ला.मनु.14 ला.देव नारकियों की जाति नहीं है। – 24 कुल 148 1/2ला.क. ति.134 1/2 ला.क.,मनु.14ला.क.””देव नारकियों के कुल नहीं हैं।
प्रश्न 46- औदारिक काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर : औदारिक शरीर के लिए आत्मप्रदशों की जो कर्म और नोकर्म को आकर्षण करने की शक्तिहै उसेहीऔदारिक काययोग कहते हैं । ऐसी अवस्थामें औदारिक वर्गणा केस्कन्धों का औदारिककाय रूप परिणमन में कारण जो आत्मप्रदेशों का पीरस्पन्द है वह औदारिककाययोग है । (गोजी. 230) उदार या स्कूल में जो उत्पन्न हो उसे औदारिक जानना चाहिए । उदार में होने वाला जो काययोग है वह औदारिककाययोग है । (पसंप्रा.) औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों में परिस्पन्द का कारणभूत जो प्रयत्न होता है उसे औदारिककाययोग कहते हैं । ७.)
प्रश्न 47- औदारिक काययोग किस-किस के होता है?
उत्तर : औदारिक काययोग पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि के, वृक्ष, लता, गुल्म, आम्र, जामफल, लौकी, परवल आदि सब्जियों के, गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, कबूतर, चिड़िया, मयूर आदि के, चींटी, कीड़े, भ्रमर, लट, केंचुआ आदि के, भोगभूमिया, कर्मभूमिया, कुभोगभूमिया मनुष्य-तिर्यंचों के, तीर्थंकर भगवान, अरिहन्त केवली, ऋद्धिधारक मुनिराज आदि के, 85० प्लेच्छ खण्डों में, आर्यखण्डों में तथा समस्त पर्याप्त तिर्यंच-मनुष्यों के औदारिक काययोग होता है ।
प्रश्न 48- क्या ऐसे कोई औदारिक काययोगी हैं जिनके कषायें नहीं होती हैं?
उत्तर : ही, ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान वाले औदारिक काययोगी के कषायें नहीं होती हैं । यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी कवायें नहीं होती हैं लेकिन वहाँ औदारिक काययोग नहीं होता है ।
प्रश्न 49- क्या ऐसा कोई औदारिक काययोगी है जिसके मतिज्ञान नहीं होता?
उत्तर : ही, प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थान में तथा तेरहवें गुणस्थान वाले जीवों के मतिज्ञान नहीं होता है । यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी मतिज्ञान नहीं है लेकिन वहाँ योग का अभाव
प्रश्न-50- :औदारिक काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर :- औदारिक शरीर के लिए आत्मप्रदशों की जो कर्म और नोकर्म को आकर्षण करने की शक्तिहै उसे हीऔदारिक काययोगकहते हैं । ऐसी अवस्थामें औदारिक वर्गणा के स्कन्धों का औदारिककाय रूप परिणमन में कारण जो आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द है वह औदारिककाययोग है । (गोजी. 23०) उदार या स्कूल में जो उत्पन्न हो उसे औदारिक जानना चाहिए । उदार में होने वाला जो काययोग है वह औदारिककाययोग है । (पसंप्रा.) औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों में परिस्पन्द का कारणभूत जो प्रयत्न होता है उसे औदारिककाययोग कहते हैं । ४२९)
प्रश्न 51-औदारिक काययोग किस-किस के होता है?
उत्तर : औदारिक काययोग – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि के, वृक्ष, लता, गुल्म, आम्र, जामफल, लौकी, परवल आदि सब्जियों के, गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, कबूतर, चिड़िया, मयूर आदि के, चींटी, कीड़े, भ्रमर, लट, केंचुआ आदि के, भोगभूमिया, कर्मभूमिया, कुभोगभूमिया मनुष्य- तिर्यंचों के, तीर्थंकर भगवान, अरिहन्त केवली, ऋद्धिधारक मुनिराज आदि के, 85० प्लेच्छ खण्डों में, आर्यखण्डों में तथा समस्त पर्याप्त तिर्यंच-मनुष्यों के औदारिक काययप्तो होता है ।
प्रश्न 52- ऐसे कोई औदारिक काययोगी हैं जिनके कवायें नहीं होती हैं?
उत्तर : ही, ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान वाले औदारिक काययोगी के कषायें नहीं होती हैं । यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी कवायें नहीं होती हैं लेकिन वहाँ औदारिक काययोग नहीं होता है ।
प्रश्न 53-क्या ऐसा कोई औदारिक काययोगी है जिसके मतिज्ञान नहीं होता?
उत्तर : ही, प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थान में तथा तेरहवें गुणस्थान वाले जीवों के मतिज्ञान नहीं होता है । यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी मतिज्ञान नहीं है लेकिन वहाँ योग का अभाव
प्रश्न 54–औदारिक काययोग में केवलदर्शन किस अपेक्षा से पाया जाता है?
उत्तर : औदारिक काययोग में केवलदर्शन सयोगकेवली भगवान की अपेक्षा होता है । यद्यपि केवलदर्शन अयोगी केवली और सिद्ध भगवान के भी होता है लेकिन उनके कोई योग नहीं होता है इसलिए औदारिक काययोग में केवल तेरहवें गुणस्थान में ही केवलदर्शन कहा है ।
प्रश्न 55- औदारिक काययोग में कम-से- कम कितनी पर्याप्तियों होती हैं?
उत्तर : औदारिक काययोग में कम-से- कम चार पर्यातियाँ होती हैं- आहार पर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति तथा श्वासोच्चवास पर्याप्ति । ये चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय की अपेक्षा जाननी चाहिए ।
प्रश्न 56- औदारिक काययोग में कितने प्राण होते हैं?
उत्तर : औदारिक काययोग में कम-से-कम 2 प्राण होते हैं- . तेरहवें गुणस्थान में श्वासोच्चवास तथा वचनयोग का निरोध होने पर उनके काय बल एव आयु प्राण । . औदारिक काययोग में अधिक-से- अधिक 1० प्राण होते हैं- 5 इन्द्रिय, 3 बल, श्वासोच्चवास तथा आयु 1० प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यातक जीवों के होते हैं ।
प्रश्न 57-क्या औदारिक काययोगी के आठों ज्ञानोपयोग एक साथ हो सकते हैं?
उत्तर : यद्यपि नाना जीवों की अपेक्षा औदारिक काययोगी के आठों ज्ञानोपयोग एक साथ हो जाते हैं लेकिन एक जीव की अपेक्षा आठों ज्ञानोपयोग एक साथ नहीं हो सकते हैं । क्योंकि अभिव्यक्ति की अपेक्षा एक जीव के एक समय में एक ही ज्ञानोपयोग हो सकता है । फिर भी एक जीव के नाना समयों की अपेक्षा आठों ज्ञानोपयोग एक जीवन में हो सकते हैं । औदारिक काययोगी मिथ्यादृष्टि एवं सासादन सम्यग्दृष्टि के तीन कुज्ञानो. होते हैं- कुमति, कुसुत, कुअवधि ज्ञानो. । चौथे, पाँचवें गुणस्थान में तीन ज्ञानो. होते हैं- मति, सुत तथा अवधिज्ञानो. । छठे से 12 वें गुणस्थान तक 4 ज्ञानो. होते हैं- मतिज्ञानो., हतशानो., अवधिज्ञानो. और मन: पर्ययशानो. । तेरहवें गुणस्थानवर्ती औदारिक काययोगी के 1 ज्ञानो. है- केवलज्ञानो. ।
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष- 1 गति 2 तिर्यञ्च, मनुष्य -2 इन्द्रिय 5 ए. द्वी. त्री. चतु. पंचे.-3 काय 6 पृथ्वी आदि 5 स्थावर 1 त्रस -4 योग 1 स्वकीय औदारिकमिश्र -5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 2516 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान कुअवधि तथा मनःपर्ययज्ञान नहीं हैं।- 8 संयम 2 यथा.असं.-9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव.केव.- 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यत्क्व 4 क्षा.क्षायो.सा.मि.मिश्र और उपशम नहीं होते।- 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी, – 14 आहार 1 आहारक, – 15 गुणस्थान 41 ला.2 रा.4 था .13 वाँ – 16 जीवसमास 19 14 एकेन्द्रियसम्बन्धी, 5 त्रस के- 17 पर्याप्ति 2 आ. श.इन्द्रिय श्वासोच्चवासादि पर्यातियाँ पर्याप्तक के ही होती हैं ।-18 प्राण 10 4 इन्द्रिय 1 बल श्वा.आ.कायबल होता है। – 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 10 6 ज्ञानो. 4 दर्शनो.- 21 ध्यान 10 4 आ. 4 रौ. 2 ध.- 22 आस्रव 43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो.14 योग नहीं हैं। – 23 जाति 76 ला. ति.62 ला.मनु.14 ला.देव नारकियों की जाति नहीं है। 24 कुल 148 1/2ला.क. ति.134 1/2 ला.क.,मनु.14ला.क. देव नारकियों के कुल नहीं हैं। “}
प्रश्न 58- : औदारिकमिश्र काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर : मिश्रकाययोग कहते हैं । क्योंकि यह योग औदारिक वर्गणाओं और कार्मणवर्गणाओं इन दोनों के निमित्त से होता है । अतएव इसको औदारिक मिश्र काययोग कहते हैं । (गो. जी. 231) औदारिकमिश्र वर्गणाओं के अवलम्बन से जो योग होता है वह औदारिकमिश्र काययोग हे । (सर्वा. 61)
प्रश्न 59- यदि कार्मण काययोग की सहायता से मिश्रयोग होता है तो ऋजुगति से जाने वाले के मिश्रयोग कैसे बनेगा?
उत्तर : सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में सात प्रकार की काय वर्गणाएँ बताई गई हैं । उनमें से जो औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र तथा आहारकमिश्र वर्गणाएँ हैं उनको औदारिक मिश्रादि अवस्थाओं में ग्रहण करने से औदारिक मिश्र आदि योग बन जाते हैं । इसमें कोई बाधा नहीं है ।
नोट – इसी प्रकार केवलीसमुद्घात में औदारिक मिश्र काययोग बन जाता है ।
प्रश्न 60-किन-किन जीवों के औदारिक मिथकाययोग ही होता है?
उत्तर :जो जीव ऋजुगति से लब्ध्यपर्यातक तिर्यच्च-मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं उनके औदारिकमिश्रकाययोग ही होता है क्योंकि वे औदारिककाययप्तो होने के पहले ही मरण को प्राप्त हो जाते हैं तथा ऋजुगति से आने के कारण कार्मणकाययोग नहीं है ।
प्रश्न61-क्या कोई ऐसे जीव भी हैं जिनके औदारिकमिश्र काययोग के समान वैकियिकमिश्र का्ययोग ही हों?
उत्तर : नहीं, संसार में ऐसे कोई जीव नहीं हैं जिनके औदारिकमिश्र काययोग के अल वैक्रियिकमिश्रकाययोग ही हो, क्योंकि मनुष्य-तिर्यच्चों के समान देव-नारकियों में ० भी जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले मरण को प्राप्त नहीं होते हैं । ‘ ब्रह्मों वैक्रियिकमिश्रकाययोगवाले जीव नियम से वैक्रियिक काययोगी बनते ही हैं । इसलिए ०- वैक्रियिकमिश्र काययोगी जीव नहीं हो सकते हैं ।
प्रश्न 62-औदारिकमिश्र काययोग में कम-से- कम कितनी कषायें हो सकती हैं?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में कम- से- कम 19 कषायें हो सकती हैं – 4 अप्रत्याख्यानावरण 4 प्रत्याख्यानावरण, 4 संज्वलन 6 हास्यादि नोकषायें तथा पुरुष वेद । ये 19 कषायें चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव की अपेक्षा कही गई हैं । अर्थात् औदारिकमिश्र ‘ वाले सम्यग्दृष्टि जीवों के अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सीवेद तथा नपुंसक वेद नहीं होते हैं तेरहवें गुणस्थान में भी औदारिकमिश्र काययोग है लेकिन वहाँ कवायें नहीं होती हैं ।
प्रश्न63-क्या ऐसे कोई औदारिकमिश्र काययोग वाले जीव हैं जो भव्य ही हों?
उत्तर : ही, दूसरे तथा चौथे गुणस्थान वाले और तेरहवें गुणस्थान वाले औदारिकमिश्र काययोगी जीव भव्य ही होते हैं तथा औदारिकमिश्रकाययोगी सादि मिथ्यादृष्टि जीव भी भव्य ही होते “
प्रश्न64-औदारिकमिथकाययोग में कौन-कौनसे सम्यक्त्व नहीं होते हैं?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में दो सम्बक्ल नहीं होते हैं- 1० सम्बग्मिथ्यात्व2 उपशम सभ्यक्ल । क्योंकि इन दोनों सम्यकों में मरण नहीं होता है । यद्यपि द्वितीयोपशम सम्बक्ल में मरण होता है लेकिन वे मरकर मनुष्य-तिर्यच्चों में उत्पन्न नहीं होते हैं जिससे उनके औदारिकमिश्रकाययोग बन जावे ।
प्रश्न 65-औदारिकमिथकाययोग में क्षायिक सम्यग्दर्शन किस-किस अपेक्षा पाया जाता है?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में क्षायिक सम्यग्दर्शन की अपेक्षाएँ- 1. बद्धायुष्क मनुष्य जब क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करके अथवा कृतकृत्य वेदक बनकर भोगभूमि में जाता है । 2 क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव-नारकी मरकर जब मनुष्य बनते हैं । 3 तेरहवें गुणस्थान की समुद्घात अवस्था में जब औदारिकमिश्रकाययोग होता है ।
प्रश्न 66-औदारिक मिअकाययोगी सम्यग्दृष्टि के छहों लेश्याएँ कैसे सम्भव हैं?
उत्तर : छठी पृथ्वी से निकलकर जो अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य पर्याय में आते हैं उनके अपर्याप्तकाल में वेदक सम्यक के साथ कृष्णलेश्या पाई जाती है । ४. ‘ 752) पहली से छठी पृथ्वी तक के असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव अपने-अपने योग्य कृष्ण, नील, कापोत लेश्या के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । उसी प्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि देव भी अपने-अपने योग्य पीत, पथ और शुक्ल लेश्याओं के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्यों के अपर्याप्त काल में अर्थात्-औदारिकमिश्रकाययोग में छहों लेश्याएँ बन जाती हैं ।
प्रश्न 67-औदारिक मिश्र काययोग में कम-से-कम आसव के कितने प्रत्यय हैं?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में कम-से-कम आसव का एक प्रत्यय होता है- तेरहवें गुणस्थान में समुद्घात की अपेक्षा केवल औदारिकमिश्र काययथे सम्बन्धी आसव का प्रत्यय पाया जाता है ।
प्रश्न68-औदारिक मिश्र काययोग में कौन- कौनसी जातियों नहीं होती हैं?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में 8 लाख जातियाँ नहीं होती हैं- 4 लाख देवों की, 4 लाख नारकियों की । तालिका संख्या 16 ==
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 2 नरक,देव – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रीय-3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय””वैक्रियिक काययोग -5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान कुअवधि तथा मनःपर्ययज्ञान नहीं हैं। – 8 संयम 1 असंयम- 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. -10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यत्क्व 6 क्षा.क्षायो. उ.सा.मिश्र .मि.- 13 संज्ञी सैनी, – 14 आहार 1 आहारक, -15 गुणस्थान 4 पहला,दूसरा,तीसरा,चौथा- 16 जीवसमास 1 सैनी पंचेन्द्रिय- 17 पर्याप्ति 6 आ. श.इ.श्वा.भा.मन.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल .श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 9 6 ज्ञानो. 3 दर्शनो.-21 ध्यान 10 4 आ. 4 रौ. 2 ध.-22आस्रव 43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो.14 योग नहीं हैं। – 23 जाति 8 ला. 4 ला.नार. 4 ला.देव मनुष्य तिर्यञ्चों की जातियाँ नहीं हैं । 24 कुल 51ला.क. 25 ला.क.,नरक के .126ला.क.देवों के मनुष्य तिर्यञ्चों के कुल नहीं हैं “}
प्रश्न 69- वाकोयककाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर- नाना प्रकार के गुण और ऋद्धियों से युक्त देव तथा नारकियों के शरीर को वैक्रियिक अथवा विगुर्व कहते हैं और इसके द्वारा होने वाले योग को कैर्णीक अथवा वैक्रियिक काययोग कहते हैं । (गो. जी. 222)
प्रश्न 70-वैकियिक शरीर एवं वैकियिक काययोग में क्या विशेषता है?
उत्तर-वैक्रियिक शरीर एव वैक्रियिक काययोग में विशेषता –
1. तेजकायिक तथा वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यज्व तथा मनुष्यों के भी वैक्रियिक शरीर होता है लेकिन वैक्रियिक काययोग नहीं होता है । देव-नारकियों के वैक्रियिक शरीर भी होता है और वैक्रियिक काययोग भी होता है ।
2. मनुष्य-तिर्यव्यों के वैक्रियिक शरीर में नाना गुणों और ऋद्धियों का अभाव है लेकिन देवों के वैक्रियिक शरीर में नाना गुण और अणिमादि ऋद्धियाँ होती हैं ।
3. अष्टाह्निका में नन्दीश्वर द्वीप में पूजा के लिए, पंचकल्याणक आदि के समय देवों का मूल वैक्रियिक शरीर नहीं जाता है फिर भी यदि उस समय काययोग होता है तो वैक्रियिक काययोग ही होता है ।
4. नारकियों के वैक्रियिक शरीर की अपृथक् विक्रिया होती है, देवों के वैक्रियिक शरीर की पृथक् तथा अपृथक् दोनों विक्रिया होती हैं लेकिन दोनों के वैक्रियिक काययोग
प्रश्न 71-वैक्रियिक काययोग वालों के .उपशम सभ्य? कितनी बार हो सकता है?
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वालों के अपने जीवन में अनेक बार उपशम सम्बक्म हो सकता है क्योंकि एक बार प्रथमोपशम सम्बक्ल प्राप्त करने के बाद पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल व्यतीत होने पर जीव पुन: प्रथमोपशम सम्बक्ल प्राप्त करने के योग्य हो जाता है । वैक्रियिक काययोग वालों की उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागरोपम प्रमाण होती है इसलिए उनके अनेक बार उपशम सम्बक्म होने में कोई बाधा नहीं है । ७. के आधार से)
प्रश्न72- वैकियिक काययोग वालों के पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते है?
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वालों के पंचमादि गुणस्थान नहीं होने के कारण-
( 1) वैक्रियिक काय वालों के अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का तीव्र उदय पाया जाता है इसलिए उनके संयमासंयम तथा संयम नहीं हो सकता है अर्थात् पंचमादि गुणस्थान नहीं हो सकते ।
(2) भोगभूमि में पंचमादि गुणस्थान न होने का कारण भोग की प्रधानता कही गई है फिर देवों में तो भोगभूमि से भी ज्यादा भोग पाये जाते हैं फिर वहाँ सयम कैसे हो सकता है और नारकियों में कषायों की सहज रूप से तीव्रता रहती है, उनके संयम कैसे हो सकता हे?
(3) जिनके नियत भोजन है अर्थात् इतने समय के बाद नियम से उनको भोजन करना ही होगा । ऐसी स्थिति में त्याग रूप प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? संभवत: वैक्रियिक काययोग वालों के सयम नहीं होने का एक कारण यह भी माना जा सकता है ।
प्रश्न 73- वैक्रियिक काययोग वाले देव महीनों? वर्षों? पक्षों तक भोजन नहीं करते हैं, इसी प्रकार नारकी भी बहुत काल के बाद थोड़ी सी मिट्टी खाते हैं उनके नित्य आहार संज्ञा कैसे कही जा सकती है?
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वाले भले ही पक्षों? महीनों तक भोजन नहीं करें फिर भी उनके आहार सज्ञा का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि आहार सज्ञा जिनागम में छठे गुणस्थान तक बताई गई है और उसका अंतरंग कारण असातावेदनीय कर्म का उदय? उदीरणा कहा गया है । ये दोनों ही कारण वैक्रियिक काययोग वालों के पाये जाते हैं इसलिए उनके भी नित्य आहार सज्ञा कहने में कोई विरोध नहीं है । (गो. जी. 135 के आधार से)
प्रश्न 74-वैकियिक काययोग में छहों लेश्याएँ किस अपेक्षा पायी जाती हैं?
उत्तर-वैक्रियिक काययोग में तीन अशुभ लेश्याएँ नारकियों की अपेक्षा होती हैं तथा तीन शुभ लेश्याएँ देवों की अपेक्षा होती हैं ।
प्रश्न75-वैकियिक काययोगी के तीसरे गुणस्थान में कितने उपयोग होते हैं?
उत्तर-तीसरे गुणस्थान वाले वैक्रियिक काययोगी के 6 उपयोग होते हैं- – मिश्रमतिज्ञानो., मश्रश्रुतज्ञानो. तथा मिश्र अवधिज्ञानो. । – चखुदर्शनी., अचखुदर्शनो., अवधि दर्शनों. ।
प्रश्न 76-वैकियिक काययोगी सम्यग्दृष्टि के कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?
उत्तर-वैक्रियिक काययोगी सम्यग्दृष्टि के आसव के 34 प्रत्यय होते हैं- 12 अविरति, 21 कषाय, 1 योग (वैक्रियिक काययोग) ८34 प्रत्यय तालिका सख्या 17 ==
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 2 नरक,देवगति मनुष्य-तिर्यंच गति नहीं हैं -2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रीय-3 काय 1 त्रस -4 योग 1 स्वकीय””वैक्रियिक मिश्र – 5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.-6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- ज्ञान 8 2 कुज्ञान. 3 ज्ञान कुअवधि तथा मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञान नहीं हैं। – 8 संयम 1 असंयम- 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. केवलदर्शन नहीं हैं। – 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य- 12 सम्यत्क्व 6 क्षा.क्षायो. उ.सा.मि.सासादन तथा उपशम सम्यक्त्व देवों की अपेक्षा- 13 संज्ञी 1सैनी, – 14 आहार 1 आहारक, -15 गुणस्थान 3 पहला,दूसरा,चौथा- 16 जीवसमास 1 सैनी पंचेन्द्रिय-17 पर्याप्ति 2 आ. श. इ.श्वा. भा. मनःपर्याप्ति नहीं हैं ।-18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 1 बल . आ.श्वासो. वचन तथा मनोबल प्राण नहीं हैं । – 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर. 20 उपयोग 8 5 ज्ञानो. 3 दर्शनो.-21 ध्यान 10 4 आ. 4 रौ. 2 ध. विपाकविचय तथा संस्थानविचय धर्म ध्यान नहीं हैं। -22 आस्रव 43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो.वैक्रियिक मिश्र काययोग -23 जाति 8 ला. 4 ला.नार. 4 ला.देव””मनुष्य तिर्यञ्चों की जातियाँ नहीं हैं । -24 कुल 51ला.क. 25 ला.क.,नरक के .26ला.क.देवों के””मनुष्य तिर्यञ्चों के कुल नहीं हैं
प्रश्न 77 :वैक्रियिक मिथकाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर जब तक वैक्रियिक शरीर पूर्ण नहीं होता तब तक उसको वैक्रियिकमिश्र कहते हैं और उसके द्वारा होने वाले योग को, आत्मप्रदेश परिस्पन्दन को वैक्रियिक मिश्रकाययोग कहते हैं । (गो. जी. 234)
प्रश्न78-वैकियिक मिथकाययोग में कम-से- कम कितनी कषायें होती हैं?
उत्तर वैक्रियिक मिश्रकाययोग में कम- से-कम 2० कषायें होती हैं- अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन तीनों के क्रोध मान, माया, लोभ । 8 नोकषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, नपुंसक वेद । उपर्युक्त कषायें चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा कही गयी हैं । यहाँ नपुसक वेद सम्यग्दर्शन को लेकर प्रथम नरक में जाने वाले की अपेक्षा कहा गया है अन्यथा सम्यग्दृष्टि मरकर नपुंसक वेद वाला नहीं बनता है ।
प्रश्न79-किन- किन जीवों के वैकियिकमिश्र काययोग में अवधिज्ञान होता है?
उत्तर जो जीव मनुष्य पर्याय में गुणप्रत्यय अवधिज्ञान प्राप्त करते हैं, वे अनुगामी अवधिज्ञान को लेकर जब नरकगति (बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि वा कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा) में जाते हैं तथा मनुष्य-तिर्यज्व अनुगामी अवधिज्ञान को लेकर देवगति में जाते हैं तब उनके वैक्रियिक मिश्रकाययोग में अवधिज्ञान का अस्तित्व बन जाता है । अर्थात् वैक्रियिक मिश्र काययोग में स्थित सम्यग्दृष्टि जीव के अवधिज्ञान हो सकता है ।
प्रश्न 80-वैकियिक मिथकाययोगी अभव्य जीवों के कितनी लेश्याएँ होती हैं?
उत्तर वैक्रियिक मिश्र काययोगी अभव्य जीवों के छहों लेश्याएँ होती हैं – तीन अशुभ लेश्याएँ नारकियों तथा भवनत्रिक की अपेक्षा तथा तीन शुभ लेश्याएँ देवों की अपेक्षा होती हैं । शुक्ल लेश्या भी बन जाती है क्योंकि अभव्य जीव का उत्पाद नवें ग्रैवेयक तक माना गया
प्रश्न 81- वैकियिक मिश्र काययोगी क्षायिक सम्यग्दृष्टि के कितने वेद होते हैं?
उत्तर वैक्रियिक मिश्र काययोगी क्षायिक सम्यग्दृष्टि के दो वेद होते हैं – पुरुषवेद – वैमानिक देवों की अपेक्षा । नपुंसक वेद – प्रथम नरक की अपेक्षा ।
प्रश्न 82- ऐसा कौनसा सम्य? है जो वैक्रियिक मिथकाययोग में तो होता है लेकिन औदारिकमिथकाययोग में नहीं होता है?
उत्तर द्वितीयोपशम सम्बक्च श्रेणी में अथवा द्वितीयोपशम सम्यक के साथ मरण की अपेक्षा वैक्रियिकमिश्रकाययोग में हो सकता है, लेकिन औदारिक मिम्रकाययोग में नहीं हो सकता है, क्योंकि कोई भी देव-नारकी द्वितीयोपशम सम्पक्क प्राप्त नहीं कर सकता । इसका भी कारण यह है कि द्वितीयोपशम सम्बक्ल उपशम श्रेणी के सम्मुख मुनिराज के ही होता है । उतरते समय अन्य गुणस्थानों में भी हो सकता है ।
प्रश्न 83- वैकियिक मिथकाययोग में कितने सभ्य? नहीं होते हैं?
उत्तर वैक्रियिकमिअकाययोग में एक सम्यक नहीं होता है- मिश्र । क्योंकि इसमें मरण नहीं होता है । सासादन सम्बक्ल एव द्वितीयोपशम सम्बक्च देवों की अपेक्षा वैक्रियिकमिश्रकाययोग में बन जायेंगे । प्रश्न84-किन जीवों के वैकियिक मिथकाययोग में क्षयोपशम सभ्य? पाया जाता है? उत्तर वैमानिक देवों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीव अथवा कृतकृत्य वेदक जीवों के वैक्रियिकमिश्रकाययोग में क्षायोपशमिक सम्बक्ल पाया जाता है । बद्धायुष्क (जिसने नरकायु को बाँध लिया है) कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जब प्रथम नरक में जाता है उसके भी वेदक (क्षायोपशमिक) सम्बक्ल पाया जाता है । प्रश्न85-वैकियिक मिथकाययोग में दो धर्मध्यान किस अपेक्षा कहे जाते हैं? उत्तरवैक्रियिक मिश्र काययले में दो धर्मध्यान – आज्ञाविचय और अपायविचय देवों की अपेक्षा कहे गये हैं, क्योंकि नारकियों के तो एक आज्ञाविचय धर्मध्यान ही होता है । वैक्रियिक मिथकाययोग में कम-से- कम कितने आसव के प्रत्यय हो सकते हैं? वैक्रियिकमिश्रकाययोग में (सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा) कम-से-कम आसव के 33 प्रत्यय हो सकते हैं- 12 अविरति, 2० कषाय तथा 1 योग (वैक्रियिक मिश्र) । 5 मिथ्यात्व, 4 अनन्तानुबन्धी, सीवेद तथा 14 योग नहीं होते हैं । वैक्रियिक मिथकाययोगी के दूसरे गुणस्थान में कितनी जातियों होती हैं? दूसरे गुणस्थान वाले वैक्रियिकमिश्रकाययोगी के 4 लाख जातियाँ होती हैं क्योंकि सासादन गुणस्थान को लेकर जीव नरक में नहीं जाता है और वैक्रियिक मिश्रकाययोग में सासादनगुणस्थान उत्पन्न नहीं होता है; इसलिए वहाँ नरकगति सम्बन्धी जातियाँ नहीं पाई जाती हैं । इसी प्रकार कुल भी 26 लाखकरोड़ ही जानना चाहिए । तालिका संख्या 18 ==
क्रम स्थान संख्या विवरण !! विशेष – 1 गति 1 मनुष्यगति – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय- 3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय आहारक में आहारक – 5 वेद 1 पुरुषवेद – 6 कषाय 11 16 कषाय 9 नोकषाय स्त्री नपुंसक वेद नहीं हैं। – 7 ज्ञान 3 मति.श्रुत.अवधि. मनःपर्यय और केवलज्ञान नहीं हैं। – 8 संयम 2 सा.छे. – 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. केवलदर्शन नहीं है । – 10 लेश्या 3 पी.प.शु.अशुभ लेश्या नहीं है। – 11 भव्यत्व 1 भव्य, – 12 सम्यक्त्व 2 क्ष.क्षायो.उपशम के साथ आहारक ॠद्धि नहीं होती। – 13 संज्ञी 1 सैनी, – 14 आहार 1 आहारक, – 15 गुणस्थान 1 पहले से 12 वें तक- 16 जीवसमास 1 सैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6/2 आ. श. इ. श्वा. भा. म.आहारक मिश्र काययोग में दो पर्याप्तियाँ होती है । – 18 प्राण 10/7 “5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.आहारकमिश्र में श्वासो. तथा दो बल नहीं हैं । – 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 6 3 ज्ञानो. 3 दर्शनो.- 21 ध्यान 7 3 आ. 4 ध. निदान आर्त्तध्यान नहीं है। – 22 आस्रव 12 11क.1 योग संज्वलन की चार तथा 7 नोकषाय – 23 जाति 14 ला. मनुष्य सम्बन्धी – 24 कुल 14 ला.क. मनुष्य सम्बन्धी
प्रश्न86- : आहारक काययोग किसे कहते हैं
उत्तर-असंयम का परिहार, संदेह को दूर करना आदि के लिए आहारकऋद्धि के धारक छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से आहारक शरीर होता है, इसके निमित्त से जो योग होता है वह आहारक काययोग है । (गो. जी. 235)
प्रश्न87-आहारक मिश्र काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर-जब तक आहारक शरीर पर्याप्त नहीं होता है तब तक उसको आहार मिश्र कहते हैं और उसके द्वारा होने वाले योग को आहारकमिश्र काययोग कहते हैं । (ध. 1 ‘ 297)
प्रश्न89-आहारक काययोग में कितने संयम होते हैं?
उत्तर-आहारक काययोग में दो संयम होते हैं – 1. सामायिक 2. छेदोपस्थापना । पीरहारविशुद्धि संयम के साथ आहारकऋद्धि नहीं होती तथा शेष संयम छठे गुणस्थान में नहीं हो सकते हैं इसलिए यहाँ दो संयम कहे गये हैं ।
प्रश्न90-आहारकमिश्र काययोग में कौन-कौनसे सभ्य? नहीं हो सकते हैं?
उत्तर-आहारकमिश्र काययोग में चार सम्बक्ल नहीं हो सकते हैं- 1. मिथ्यात्व 2. सासादन 3. मिश्र 4. उपशम सम्यक । उपशम सम्यक के साथ आहारकऋद्धि नहीं होती है इसलिए यहाँ उसका ग्रहण नहीं किया है ।
प्रश्न91-आहारकमिश्र काययोग में कितने ध्यान हो सकते हैं?
उत्तर-आहारकमिश्र काययोग में सात ध्यान पाये जाते हैं- निदान के बिना 3 आर्त्तध्यान तथा चार धर्मध्यान होते हैं ।
प्रश्न92-आहारक शरीर की कौन-कौनसी विशेषताएँ हैं?
उत्तर-आहारक शरीर की विशेषताएँ- ( 1) रस आदि सात धातुओं से रहित होता है । (2) समचतुरस संस्थान वाला होता है । (3) अस्थिबन्धन से रहित अर्थात् संहनन से रहित होता है । (4) चन्द्रकान्तमणि से निर्मित की तरह अत्यन्त स्वच्छ होता है । (5) एक हस्त प्रमाण अर्थात् चौबीस व्यवहारीगुल परिमाण वाला होता है । (6) उत्तमांग मस्तक से उत्पन्न होता है । (7) पर से अपनी और अपने से पर की बाधा से रहित होता है । (8) आहारक शरीर छठे गुणस्थान वाले मुनिराज के ही होता है । (गो. जी. 237) तालिका संख्या 19
कार्मण काययोग –
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष 1 गति 44 न. ति. म. देव 2 इन्द्रिय 5 ए. द्वी. त्री. चतु. पंचे. 3 काय 6 5 स्थावर 1 त्रस 4 योग 1 स्वकीयकार्मण काययोग 5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु. 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय 7 ज्ञान 6 2 कुज्ञान. 4 ज्ञान कुअवधि तथा मनःपर्ययज्ञान नहीं हैं। 8 संयम 2 यथा.असं. 9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव.केव. 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु. 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य 12 सम्यत्क्व 5 क्षा.क्षायो.उ. सा.मि.मिश्र सम्यक्त्व नहीं हैं” 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी, 14 आहार 1 आहारक, 15 गुणस्थान 41 .2 .4 .13 वाँ 16 जीवसमास 19 14 एकेन्द्रियसम्बन्धी, 5 त्रस के 17 पर्याप्ति 0 एक भी पर्याप्ती नहीं हैं । 18 प्राण 7 5 इन्द्रिय 1 बल .आ.कायबल होता है। 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर. 20 उपयोग 10 6 ज्ञानो. 4 दर्शनो. 21 ध्यान 10 4 आ. 4 रौ. 2 ध. 22 आस्रव 43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो. 23 जाति 84 ला. चारों गति सम्बन्धी 24 कुल 199 1/2ला.क. चारों गति सम्बन्धी
प्रश्न93-कार्मणकाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर-ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्मों के समूह को अथवा कार्मण नामकर्म के उदय से होने वाली काय को कार्मणकाय कहते हैं और उसके द्वारा होने वाले योग कर्मापकर्षण शक्ति युक्त आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन को कार्मण काययोग कहते हैं । (गो. जी. 241) कार्मण शरीर के निमित्त से जो योग होता है उसे कार्मण काययोग कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि अन्य औदारिकादि शरीर वर्गणाओं के बिना केवल एक कर्म से उत्पन्न हुए वीर्य के निमित्त से आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप जो प्रयत्न होता है उसे कार्मण काययोग कहते हैं । (ध. 1? 297)
प्रश्न94-क्या कार्मण काययोग मात्र विग्रहगति में ही होता है?
उत्तर-नहीं, विग्रहगति में तो कार्मणकाययोग ही होता है लेकिन 13 वें गुणस्थान की समुद्घात अवस्था में भी तीन समय तक बिना विग्रहगति के भी कार्मण काययोग होता है ।
प्रश्न95-कार्मण काययोग में कुअवधिज्ञान क्यों नहीं होता?
उत्तर-कुअवधिज्ञान अनुगामी नहीं होता, जिसको साथ ले जाने से कार्मण काययोग में कुअवधिज्ञान बन जावे और कार्मण काययोग के अल्पकाल में कुअवधिज्ञान उत्पन्न भी नहीं हो सकता इसलिए कार्मण काययोग में कुअवधिज्ञान नहीं होता है ।
प्रश्न96-कार्मण काययोग में अवधिज्ञान किस- किस अपेक्षा होता है?
उत्तर-कार्मण काययोग में अवधिज्ञान की अपेक्षाएँ- 1. अनुगामी अवधिज्ञान को लेकर जाने वाले चारों गति के जीवों के । 2. सर्वार्थसिद्धि से आने वाले जीवों के 3. तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाले देव और नरकगीत से आने वाले जीवों के, आदि ।
प्रश्न97- कार्मणकाययोग में चसुदर्शन किन-किन जीवों में पाया जाता है?
उत्तर-कार्मण काययोग में स्थित चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव प्रथम, द्वितीय गुणस्थानवर्ती तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के चतुर्थगुणस्थान में भी चखुदर्शन पाया जाता है ।
प्रश्न98-कार्मणकाययोग में कौनसा सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकता है?
उत्तर-कार्मणकाययोग में कोई भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि सम्यग्दर्शन की पूर्व भूमिका में जिस विशुद्धि की आवश्यकता होती है वह विशुद्धि इतने अल्पकाल में नहीं हो पाती है इसलिए वहाँ कोई भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता है ।
प्रश्न99- किन-किन योगों में सैनी जीव ही होते हैं ”
उत्तर-11 योगों में सैनी जीव ही होते हैं- 4 मनोयोग, 3 वचनयोग (अनुभयवचनयोग बिना) आहारककाययले, आहारकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग तथा वैक्रियिकमिश्र काययोग ।
विशेष – दो मनोयोग तथा दो वचन योग सैनी-असैनी से रहित जीवों के भी होते हैं । ऐसे कौन से योग हैं जो असैनी जीवों के भी होते हैं? चार योग असैनी जीवों के भी होते हैं- 1० औदारिककाययोग 2. औदारिकमिश्रकाययोग 3. कार्मणकाययोग 4. अनुभयवचनयोग ।
प्रश्न100-किस- किस योग में चार गुणस्थान ही होते हैं?
उत्तर-तीन योगों में 4 ही गुणस्थान होते हैं – औदारिकमिश्र काययोग – पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवां कार्मण काययोग – पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवां वैकियिक काययोग – पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा
प्रश्न101-किस- किस योग में 13 गुणस्थान होते हैं?
उत्तर-पाँच योगों में 13 गुणस्थान होते हैं- 2 मनोयोग – सत्यमनोयोग, अनुभयमनोयोग । 2 वचनयोग – सत्यवचनयले, अनुभयवचनयोग । 1 काययोग – औदारिककाययले ।
प्रश्न102-कितने योगों में सभी जीवसमास होते हैं?
उत्तर-तीन योगों में सभी जीवसमास होते हैं । 1. औदारिक 2. औदारिकमिश्र तथा 3? कार्मणकाययोग ।
प्रश्न103-ऐसे कौनसे योग हैं जिनमें श्वासोच्छास प्राण नहीं पाया जाता है?
उत्तर-चार योगों में श्वासोच्चवास प्राण नहीं पाया जाता है- 1. औदारिकमिश्र 2. वैक्रियिकमिश्र 3. आहारकमिश्र 4? कार्मणकाययोग ।
प्रश्न104-ऐसे कौन- कौनसे योग हैं जिनमें संज्ञाओं का अभाव भी हो सकता है?
उत्तर-4 मनोयोग, 4 वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग तथा कार्मण काययोग; इन 11 योगों में संज्ञाओं का अभाव भी हो सकता है ।
प्रश्न105-किस-किस योग में संज्ञातीत जीव नहीं होते हैं?
उत्तर-चार योगों में संज्ञातीत जीव नहीं होते हैं – . वैक्रियिक द्विक – क्योंकि देव-नारकी चतुर्थ गुणस्थान से आगे नहीं जा सकते हैं । . आहारक द्विक – छठे गुणस्थान में ही होता है ।
प्रश्न106-कौन-कौनसे योग में आसव के 43 प्रत्यय होते हैं?
उत्तर-आहारककाययोग तथा आहारकमिश्रकाययोग को छोड्कर शेष 13 योगों में अर्थात् 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, औदारिकद्बिक, वैक्रियिकद्रिक तथा कार्मण काययघो में आसव के 43 प्रत्यय होते हैं ।
प्रश्न107-सबसे कम आसव के प्रत्यय किस काययोग में होते हैं?
उत्तर-सबसे कम आसव के प्रत्यय आहारकद्बिक काययोग में होते हैं- इन में आसव के 12 प्रत्यय हैं 4 संज्वलन कषाय, 6 नोकषाय, 1 पुरुषवेद तथा 1 योग । आहारक काययोग मेंआहारकतथा आहारकमिश्रमें आहारकमिश्रकाययोगहोताहै । जहाँकेवल औदारिक्काययले ही शेष रहता है ऐसे अरहन्त केवली भगवान के आसव का मात्र एक (औदारिककाययोग रूप) प्रत्यय शेष रहता है । इसी प्रकार औदारिक मिश्र तथा कार्मण काययोग में भी केवली भगवान के एक ही स्वकीय योग रूप आसव का प्रत्यय होता है ।
प्रश्न108-अयोगी केवली के 24 स्थानों में से कौन- कौनसे स्थान होते हैं?
उत्तर-अयोगी केवली के 24 स्थानों में से 17 स्थान होते हैं- (1) गति मनुष्यगति (2) इन्द्रिय पंचेन्द्रिय (3) काय त्रस (4) ज्ञान केवलज्ञान (5) संयम यथाख्यात (6) दर्शन केवलदर्शन (7) भव्यत्व – भव्य (8) सम्बक्च – क्षायिक सम्बक्ल (9) आहारक -अनाहारक (1०) गुणस्थान – चौदहवाँ (11) जीवसमास -पंचेन्द्रिय (12) पर्याप्ति -छह (13) प्राण -1 आयु (14) उपयोग -केवलज्ञान केवलदर्शन (15) ध्यान -1 ब्पयुरतक्रियानिवृति (16) जाति -14 लाख । (17) कुल -14 लाख करोड़ ।
प्रश्न109- : किस-किस योग में किस अपेक्षा से नपुंसक वेद होता है?
उत्तर-योगों में नपुंसक वेद की अपेक्षाएँ – चार मनोयोगों एव तीन वचनयोगों में – पर्याप्त नारकी, पर्याप्त तिर्यंच तथा पर्याप्त मनुष्यों में । अनुभय वचन योग में – पर्याप्त द्वीन्द्रिय से लेकर पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पर्याप्त मनुष्य तथा पर्याप्त नारकियों के । औदारिक काययोग – पर्याप्त एकेन्द्रिय से लेकर नवम गुणस्थान के सवेद भाग तक । औदारिक मिश्र काययोग – निर्वृत्यपर्यातक तथा लब्ध्यपर्यातक मनुष्य-तिर्यंचों में । वैक्रियिक काययोग – पर्याप्त नारकियों के । वैक्रियिक मिश्रकाययोग – निर्वृत्यपर्यातक नारकियों के । कार्मण काययोग – अनाहारक नारकी, मनुष्य तथा तिर्यंचों के ।
विशेष : 1. आहारकद्विक काययोग में नपुंसक वेद नहीं होता है । 2. औदारिक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग तथा सत्य अनुभय मन वचन योग में केवली भगवान को ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे वेदातीत होते हैं ।
प्रश्न 1-वेद मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर-वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं । (य. 1) आत्मा की चैतन्य रूप पर्याय में मैथुनरूप चित्त विक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते है । (गो. जी. 272) वेदों में जीवों की खोज करने को वेदमार्गणा कहते हैं ।
प्रश्न2-वेदमार्गणा कितने प्रकार की है?
उत्तर-वेद मार्गणा तीन प्रकार की है- 1. स्त्रीवेद 2 व पुरुषवेद 3? नपुंसकवेद । ३- द्र. सं. 1 टी.) वेद मर्थणा के अनुवाद से स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद तथा अपगतवेद वाले जीव होते (ध.1/340) अथवा – वेद दो प्रकार के हैं- 1८३ द्रव्य वेद 2? भाव वेद ।
प्रश्न3-स्वीवेद किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से जीव पुरुष में अभिलाषा रूप मैथुन सज्ञा से आक्रान्त होता है वह स्त्रीवेद है । जिसके उदय से पुरुष के साथ रमने के भाव हों वह स्त्रीवेद हे । (गो. जी. 271)
प्रश्न4-पुरुषवेद किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से जीव सी में अभिलाषा रूप मैथुन सज्ञा से आक्रान्त होता है वह पुरुषवेद हे । जिसके उदय से स्त्री के साथ रमने के भाव हों वह पुरुषवेद है । (गो. जी. 271)
प्रश्न5- नपुंसकवेद किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से जीव के स्त्री और पुरुष की अभिलाषा रूप तीव्र कामवेदना उत्पन्न होती है वह नपुंसकवेद है । जिसके उदय से स्त्री तथा पुरुष दोनों के साथ रमने के भाव हों वह नपुसक वेद है । (गो. जी. 271)
प्रश्न6-द्रव्यवेद किसे कहते हैं?
उत्तर-जो योनि, मेहन आदि नामकर्म के उदय से रचा जाता है वह द्रव्यवेद है । (सवी. 2)
प्रश्न7- भाववेद किसे कहते ई?
उत्तर-भाव लित्र आत्मपरिणाम स्वरूप है । वह सी, पुरुष व नपुंसक इन तीनों में एक-दूसरे की अभिलाषा लक्षण वाला है और वह चारित्रमोह के विकल्परूप स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक वेद नामके नोकषाय के उदय से होता है । (रा. वा. 2? 6)
प्रश्न8-वेद मार्गणा में किस वेद को ग्रहण करना चाहिए?
उत्तर-वेद मार्गणा में भाववेद को ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यदि यहाँ द्रव्यवेद से प्रयोजन होता तो मनुष्य स्त्रियों के अपगतवेद स्थान नहीं बन सकता, क्योंकि द्रव्यवेद चौदहवें गुणस्थान् के अन्त तक पाया जाता है । परन्तु अपगतवेद भी होता है । इस प्रकार वचन निर्देश नौवें गुणस्थान के अवेद भाग से किया गया है । (जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ भाववेद से प्रयोजन है, द्रव्यवेद से नहीं ।) (य. 2? 513)
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष -1 गति 3 ति.म.दे. नहीं होता है । – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय- 3 काय 1 त्रस विकलत्रय के नहीं होता है । – 4 योग 134 म.4 व.5 का. आहारकद्विक नहीं होता है । – 5 वेद 1 स्वकीय स्त्रीवेद – 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय””पुरुष एवं नपुंसकवेद नहीं हैं। – 7 ज्ञान 6 3 कुज्ञान. 3 ज्ञान मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं हैं। – 8 संयम 4 सा.छे.संय.असं.- 9 दर्शन3 चक्षु. अच. अव. केवलदर्शन अवेदी के होता है। -10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.-11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्ष.क्षायो.उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 1 सैनी,असैनी – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 9 पहले से नौवें तक नौवें गुणस्थान के सवेद भाग तक होता है। – 16 जीवसमास 2 सैनी तथा असैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा.भा . म.-18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.आहार और भय संज्ञा से रहित भी है । – 20 उपयोग 9 6 ज्ञानो. 3 दर्शनो.- 21 ध्यान 13 4 आ . 4 रौ. 4 ध. 1 शु.- 22 आस्रव 53 5 मि. 12 अवि.23 क.13यो.- 23 जाति 22 ला. 4 ला.ति.14 मनु.4 देव की नरक सम्बन्धी जाति नहीं है। -24 कुल 83 1/2ला.क. तीन गति संबंधि नरक सम्बन्धी कुल नहीं हैं ।
प्रश्न9-स्त्रीवेद किसके समान होता है?
उत्तर-सीवेद के उदय में जीव पुरुष को देखते ही उसी प्रकार द्रवित हो उठता है जिस प्रकार आग को छूते ही लाख पिघल जाती है । विधा, 4789) स्त्रीवेद कण्डे की अग्रि के समान माना गया है ।
प्रश्न10-स्त्रीवेदी जीव कहाँ-कहाँ पाये जाते हैं?
उत्तर-मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति में तथा देवों में सोलहवें स्वर्ग तक सीवेदी जीव पाये जाते हैं । लेकिन समर्चन लस्थ्यपर्यातक मनुष्य-तिर्यच्चों में स्त्रियाँ नहीं होती हैं क्योंकि समर्चन जीव नपुसक वेद वाले ही होते हैं ।
प्रश्न11-स्त्रीवेदी के आहारकद्विक काययोग क्यों नहीं होते हैं?
उत्तर-अप्रशस्त वेदों के साथ आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है । ( ध. 2 ‘ 667)
प्रश्न12-क्या स्त्रीवेदी की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में भी अवधिदर्शन हो सकता है?
उत्तर- नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीवेदी में उत्पन्न नहीं होता । अवधिदर्शन सम्यग्दृष्टि तथा सम्बग्मिथ्यादृष्टि के होता है, तीसरे गुणस्थान वाले का मरण नहीं होता, इसलिए स्त्रीवेदी के निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में अवधिदर्शन नहीं हो सकता । इसी प्रकार नपुंसक वेद में जानना चाहिए लेकिन नरक की अपेक्षा नपुंसकवेदी की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में भी अवधिदर्शन होता है ।
प्रश्न13-स्त्रीवेद वाले के कौन-कौन से संयम नहीं हो सकते हैं?
उत्तर-स्त्रीवेद वाले के 3 सयम नहीं हो सकते हैं- 1. परिहारविशुद्धि 2. सूक्ष्म साम्पराय 3. यथाख्यात सयम । परिहारविशुद्धि संयम पुरुषवेद वाले के ही होता है । सूक्ष्म साम्पराय तथा यथाख्यात संयम अवेदी जीवों के होते हैं इसलिए स्त्रीवेद में ये तीनों सयम नहीं होते हैं । इसी प्रकार नपुंसक वेद में भी ये संयम नहीं हो सकते हैं ।
प्रश्न14-स्त्रीवेदी के निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कितने सभ्य? हो सकते हैं?
उत्तर-स्त्रीवेदी के निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में दो सम्बक्ल हो सकते हैं- 1. मिथ्यात्व, 2. सासादन । पर्याप्त अवस्था में सभी सम्बक्ल हों सकते हैं क्योंकि भावस्त्रीवेदी मोक्ष जा सकते हैं ।
प्रश्न15-खीवेदियों में कौन-कौनसी संज्ञाओं का अभाव हो सकता है?
उत्तर-सीवेदियों में दो संज्ञाओं का अभाव हो सकता है- 1. आहार संज्ञा, 2 भयसज्ञा । सातवें गुणस्थान से आहार संज्ञा का तथा आठवें गुणस्थान के आगे भय संज्ञा भी नहीं होती तालिका संख्या 21
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 3 ति. म. देव नरकगति नहीं होता है । -2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय-3 काय 1 त्रस – 4 योग 154 म. 4 व. 7 का.-5 वेद 1 पुरुषवेद – 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय स्री एवं नपुंसकवेद नहीं हैं। -7 ज्ञान 7 3 कुज्ञान 4 ज्ञान केवलज्ञान अपगतवेदी के होते हैं। – 8 संयम 5 सा. छे. प. सय. असं.- 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. केवलदर्शन नहीं है । – 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य- 12 सम्यक्त्व 6 क्षा.क्षायो.उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 9 पहले से नौवें तक- 16 जीवसमास 2 सैनी तथा असैनी पंचेन्द्रिय -17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा.भा . म.-18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ. १० प्राण सैनी के ही होते है । -19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. परि.-20 उपयोग 10 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो.- 21 ध्यान 13 4 आ . 4 रौ. 4 धर्म. 1 शु.-22 आस्रव 55 5 मि. 12 अवि. 23 क. 15यो.-23 जाति २२ ला. 4 ला.तिर्य.14ला.मनु.4ला.देव. नारकियों की जातियाँ नहीं है । – 24 कुल 83 1/2ला.क. 43 1/2 ला.क. तिर्य. 14ला.क. मनु. 26 ला.क.देव }
प्रश्न16-पुरुषवेद में जीव की स्थिति कैसी होती है?
उत्तर-पुरुषवेद युक्त प्राणी स्त्री को देखते ही वैसे ही पिघल जाता है जैसे-जमे हुए घी का घड़ा अग्नि के स्पर्श होते ही क्षणभर में पानी-पानी हो जाता है । (व. चा. 4 / 90) पुरुषवेद तृण की अग्रि के समान कहा गया है ।
प्रश्न17-क्या ऐसे कोई पंचेन्द्रिय जीव हैं जिनके पुरुषवेद नहीं होता है?
उत्तर-हाँ, ऐसे भी पंचेन्द्रिय जीव हैं जिनके पुरुषवेद नहीं होता है । वे हैं- 1. सभी नारकी 2. नौवें गुणस्थान के अवेद भाग से आगे विराजमान सभी जीव 3. सर्न्च्छन जन्म वाले पंचेन्द्रिय जीव 4. स्त्री तथा नपुंसक वेद वाले जीवों के भी पुरुष वेद नहीं होता है ।
प्रश्न18- ऐसे कौनसे असैनी पंचेन्द्रिय जीव हैं जिनके पुरुषवेद भी होता है?
उत्तर-जो जीव गर्भ से उत्पन्न होने पर भी मन से रहित हैं उन तोता मैना आदि तिर्यच्चगति के पंचेन्द्रिय जीवों के पुरुषवेद भी हो सकता है अर्थात् उनके तीनों वेद होते हैं ।
प्रश्न 19-पुरुषवेदी के कौन-कौनसे संयम नहीं हो सकते है?
उत्तर-पुरुषवेदी के दो संयम नहीं हो सकते हैं- 1. सूक्ष्म साम्पराय और 2. यथाख्यात । क्योंकि ये दोनों संयम अवेदी जीवों के होते हैं ।
प्रश्न 20- पुरुषवेद तो भगवान के भी दिखता है तो उनके चारों शुख्म ध्यान क्यों नहीं कहे?
उत्तर- यद्यपि द्रव्य पुरुषवेद भगवान के भी दिखता है लेकिन उनके भाववेद नहीं होता है क्योंकि भाववेद का कारण मोहनीय कर्म (वेद कषाय) का उदय कहा है । भगवान के वेद कषाय का उदय नहीं पाया जाता है । यहाँ सभी कथन भाववेद की अपेक्षा किया गया है इसलिए पुरुषवेद वालों के चारों शुक्लध्यान नहीं होते हैं । नवमें गुणस्थान तक वेद है वहाँ एक ही शक्ल ध्यान होता है।
प्रश्न21-पुरुषवेद वालों के कम- से-कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-पुरुषवेद वालों के कम-से-कम 7 प्राण होते हैं । सैनी या असैनी पंचेन्द्रिय जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में 5 इन्द्रिय, 1 कायबल तथा आयु प्राण । आहारकमिश्र अवस्था में भी ये ही सात प्राण होते हैं ।
प्रश्न22-पुरुषवेदी के कम-से- कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?
उत्तर-पुरुषवेदी के कम-से-कम आसव के चौदह प्रत्यय होते हैं-
4 कषाय – (संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ)
9 योग – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, 1 औदारिककाययोग ।
1 वेद – पुरुषवेद । ये आसव के प्रत्यय 9 वें गुणस्थान में सवेद भाग तक होते हैं ।
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 3 न. ति. म. देवगति नहीं है। -2 इन्द्रिय 5 ए. द्वी. त्री. चतु. पंचे.- 3 काय 6 5 स्थावर 1 त्रस -4 योग 134 म. 4 व. 5 का. आहारकद्विक नहीं होता है ।- 5 वेद 1 स्वकीय नपुंसकवेद- 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय – 7 ज्ञान 6 3 कुज्ञान 3 ज्ञान मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं हैं ।- 8 संयम4 सा. छे. संय. असं.-9 दर्शन 3 च. अच. अव. केवलदर्शन नहीं है ।- 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य- 12 सम्यक्त्व 6 क्षा.क्षायो.उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 9 पहले से नौवें तक- 16 जीवसमास 19 14 स्थावर के 5 त्रस के – 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा.भा . म.-18 प्राण 10 5 इन्द्रिय, 3 बल श्वा.आयु .- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. परि.- 20 उपयोग 9 6 ज्ञानो. 3 दर्शनो.- 21 ध्यान 13 4 आ . 4 रौ. 4 धर्म. 1 शु. पृथक्ववितर्कदीचार शुक्लध्यान है । -22आस्रव 53 5 मि. 12 अ. 23 क. 13यो.2 योग और 2 नोकषाय नहीं है । -23 जाति 80 ला.4ला.न. 62ला.तिर्य. 14ला.मनु. देवसम्बन्न्धी जाति नहीं है । -24 कुल 173 1/2ला.क. ना.ति.मनु. सम्बन्धी देव सम्बन्धी कुल नहीं है।
प्रश्न 1- नपुंसकवेद किसके सामान है ?
उत्तर- नपुंसकवेद के उदय से जीव ईंट पकाने के आवे की अग्रि के समान तीव्र कामवेदना से पीड़ित होने से कलुषित चित्तवाला होता है । (गो. जी. 275)
ईटों के आवे के समान जब किसी प्राणी में काम उपभोग सम्बन्धी भयंकर विकलता होती तथा अत्यन्त निन्दनीय कुरूपपना होता है वही नपुंसक वेद का परिपाक है । (व. चा. 4 / 91)
प्रश्न 2 किन-किन जीवों के नपुंसक वेद ही होता है-
उत्तर- वे जीव जिनके नपुंसक वेद ही होता है, वे हैं – 1. सातों पृथिवियों के नारकी 2. एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय । 3. समर्चन संज्ञी पंचेन्द्रिय 4. सम्पूर्च्छन असंज्ञी पंचेन्द्रिय ।
प्रश्न 3 – कहाँ – कहाँ पर नपुंसक वेद नहीं होता है?
उत्तर-वे स्थान जहाँ नपुंसक वेद नहीं होता- 1. देवगति में सभी देव-देवांगनाओं के । 2. भोग भूमि तथा कुभोग भूमि में । 3. परिहारविशुद्धि संयमी के । 4. आहारक तथा आहारकमिश्र काययोग में । 5. मन: पर्ययज्ञानी जीवों के । 6. किसी भी ऋद्धिधारी मुनिराज के तथा । 7. उसी भव में तीर्थंकर होने वाले जीवों के तथा सभी प्लेच्छों के नपुंसक वेद नहीं होता है । 63 शलाका पुरुषों के भी नपुंसक वेद नहीं होता है । भवनवासी, वान- व्यतर, ज्योतिषी, कल्पवासी देव, तीस भोगभूमियों में उत्पन्न तिर्यब्ज- मनुष्य, भोगभूमि के प्रतिभाग में उत्पन्न असख्यात वर्ष की आयु वाले (कुभोग भूमिया) तथा सर्व प्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य-तिर्यव्व नपुंसकवेद वाले नहीं होते हें । (आ. समु. 34)
प्रश्न 4 – विग्रहगति में शरीर नहीं होता अत: वहाँ खी, पुरुष तथा नपुंसक वेद कैसे हो सकता
उत्तर-यद्यपि अनाहारक अवस्था में शरीर नहीं होता है फिर भी वहाँ उनके भाववेद का अभाव नहीं होता है क्योंकि भाववेद वेदकषाय के उदय से होता है । विग्रहगति में भी वेद का उदय रहता है इसलिए वहाँ भी तीनों वेदों का सद्भाव कहा गया है ।
प्रश्न 5- नपुंसक वेद वाले के कम-से- कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-नपुंसकवेद वाले के कम-से-कम 3 प्राण हो सकते हैं – एकेन्द्रिय जीवों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में या लब्ध्यपर्यातक एकेन्द्रिय जीवों के 3 प्राण होते हैं । .
प्रश्न 6- नपुंसक वेद में कितने शुक्लध्यान हो सकते हैं?
उत्तर-नपुंसक वेद में पहला ‘ ‘पृथक्लवितर्क वीचार’ ‘ शुक्लध्यान हो सकता है । यह ध्यान आठवें नवमें गुणस्थान की अपेक्षा कहा गया है । जो आचार्य दसवें गुणस्थान तक धर्मध्यान मानते हैं उनकी अपेक्षा नपुंसकवेद में एक भी शुक्लध्यान नहीं हो सकता है । इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेद में भी जानना चाहिए ।
प्रश्न 7- तीनों वेदों में मनुष्य-तिर्यथ्य आदि की पूरी-पूरी जातियाँ ग्रहण की गई हैं तो क्या सभी तिर्यथ्य, मनुष्य स्वीवेद, पुरुषवेद या नपुंसक वेद वाले होते हैं अथवा हो सकते हैं?
उत्तर-नहीं, सभी मनुष्य-तिर्यच्च स्त्री, पुरुष, नपुसक वेद वाले नहीं होते तथा न हो ही सकते हैं लेकिन प्रत्येक जाति में तीनों वेद वाले जीव उत्पन्न होते हैं, हो सकते हैं । जैसे-पर्याप्त मनुष्य उनतीस अक प्रमाण होते हैं और मनुष्यों की जातियाँ मात्र चौदह लाख बताई गई हैं । एक-एक जाति में करोड़ों, करोड़ों मनुष्य उत्पन्न हो सकते हैं, उन करोड़ों मनुष्यों में कोई सी वेद वाला, कोई पुरुष वेद वाला तो कोई नपुंसक वेद वाला हो सकता है । सम्भवत: इसीलिए तीनों वेदों में पूरी-पूरी जातियों का ग्रहण किया गया है । नोट : इसी प्रकार कुलों में भी जानना चाहिए । तालिका संख्या 23 ==
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 1 मनुष्यगति – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय- 3 काय 1 त्रस -4 योग 114 म. 4 व. 3 का. औदारिकद्विक और कार्मण – 5 वेद 0-6 कषाय4 संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ कषायातीतभी होते हैं । – 7 ज्ञान 5 मति. श्रु. अव. मन.केवल.- 8 संयम 4 सा. छे. सू. य. – 9 दर्शन 4 च. अच. अ. केव. – 10 लेश्या 1 शुक्ल लेश्यातीत भी होते हैं। -11 भव्यत्व 1 भव्य भव्याभव्य से रहित भी होते हैं। – 12 सम्यक्त्व 2 क्षायिक, उपशम- 13 संज्ञी 1 सैनी सैनी असैनी से रहित भी होते हैं। – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 6 नवें से चौदहवें तक नवें के अवेदभाग से ग्रहण करना चाहिए ।-16 जीवसमास 1 सैनी पंचेन्द्रिय समासातीत भी होते हैं । – 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.पर्याप्ति से रहित भी होते हैं । -18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल, श्वाआ. प्राणातीत भी होते हैं। – 19 संज्ञा 1 परिग्रह सज्ञातीत भी होते हैं। – 20 उपयोग 9 5 ज्ञा. 4 दर्शन.- 21 ध्यान 4 चारों शुक्लध्यान ध्यानातीत भी होते हैं। – 22 आस्रव 154 क. 11 योग आस्रवरहित भी होते हैं। -23 जाति 14 ला.””मनुष्य सम्बन्धी जाति से रहित भी होते हैं। – 24 कुल 14 ला.क.मनुष्य सम्बन्धी कुलातीत भी होते हैं।
प्रश्न 1 – अपगतवेदी किसे कहते हैं?
उत्तर- जो स्री, पुरुष तथा स्री-पुरुष दोनों की अभिलाषा रूप परिणामों की तीव्र वेदना से होने वाले संक्लेश से रहित हैं, वे अपगतवेदी हैं । जो कारीष, तृण तथा इष्टपाक की अग्रि के समान परिणामों के वेदन से उन्मुक्त हैं और अपनी आत्मा में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनन्तसुख के धारक भोक्ता हैं वे अपगतवेदी हैं । (पं. सं. प्रा. 1 / 108) जिनके तीनों प्रकार के वेदों से उत्पन्न होने वाला संताप दूर हो गया है वे वेदरहित जीव हैं । (ध. १ / ३४२)
प्रश्न 2 – अपगतवेदी जीवों के कितनी कषायें होती हैं?
उत्तर-अपगतवेदी जीवों के 4 कवायें होती हैं संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । नवमें गुणस्थान में पहले वेद का अभाव होता है । उसके बाद संज्वलन कषायों का नाश होता है । इसलिए नवमें गुणस्थान में संज्वलन क्रोधादि चारों पाये जाते हैं तथा दसवें गुणस्थान में केवल सैज्वलन लोभ पाया जाता है । (ध. 2) ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक तथा सिद्ध भगवान भी अपगतवेदी होते हैं लेकिन उनके कषाय भी नहीं होती है ।
प्रश्न 3 – अपगतवेद में पाँचों ज्ञान किस अपेक्षा से पाये जाते हैं?
उत्तर-अपगतवेदी के 9 वें, 1० वें, 11 वें तथा 12 वें गुणस्थान में मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान होता है । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में केवलज्ञान पाया जाता है । (ध. 2) सिद्ध भगवान के ज्ञान को भी केवलज्ञान कहते हैं ।
नोट – इसी प्रकार चार दर्शनों में भी जानना चाहिए ।
प्रश्न 4 – अपगतवेद में संयम की विवेचना किस प्रकार करनी चाहिए?
उत्तर-अपगतवेद में – सामायिक-छेदोपस्थापना सयम नवमें गुणस्थान की अवेद अवस्था में होते है । सूक्ष्म साम्पराय संयम – दसवें गुणस्थान में होता है । यथाख्यात संयम – 11 वें, 12 वें, 13 वें तथा 14 वें गुणस्थान में पाया जाता है । (ध. 2)
प्रश्न 5 – अपगतवेद में दो सम्यकत्व किस अपेक्षा से कहे गये हैं?
उत्तर – अपगतवेदी के उपशम सम्यकत्व – उपशम श्रेणी में स्थित नवमें (अवेद भाग में) दसवें तथा ग्यारहवें गुणस्थान में पाया जाता है।
क्षायिक सम्यकत्व – उपशम श्रेणी में स्थित नवमें से ग्यारहवें गुणस्थान तक तथा क्षपक श्रेणी में स्थित नवमें, दसवें, बारहवें गुणस्थान में और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान तथा सिद्ध भगवान के भी पाया जाता है । (ध. 2)
प्रश्न 6 – अपगतवेदी के वेद का अभाव भाव की अपेक्षा होता है या द्रव्य की अपेक्षा ?
उत्तर- (यद्यपि पाँचवें गुणस्थान से आगे भी द्रव्यवेद का सद्भाव पाया जाता है, परन्तु केवल द्रव्य वेद से ही विकार उत्पन्न नहीं होता है ।) यहाँ पर तो भाववेद का अधिकार है । इसलिए भाववेद के अभाव से ही उन जीवों को अपगतवेदी जानना चाहिए, द्रव्यवेद के अभाव से नहीं । (ध. 1 / 345)
प्रश्न 1 – किन-किन जीवों के तीनों वेद होते हैं?
उत्तर-तिर्यंच असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेद से युक्त होते हैं । ‘ (ध. 1 /सु 1०7 – 8) मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेद वाले होते है । आगम में नवें गुणस्थान के सवेद भाग पर्यन्त द्रव्य से एक पुरुषवेद और भाव से तीनों वेद हैं ऐसा कथन किया है । (गो. जीजी. 271)
प्रश्न 2- कौन सी गति के जीवों में एक, दो, तीन वेद तथा वेद रहित अवस्था भी होती है?
उत्तर- मनुष्यगति के जीवों में एक वेद, दो वेद, तीन वेद तथा वेद रहित अवस्था भी होती है- एक पुरुष वेद – आहारक ऋद्धि, मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम तथा सभी शलाका पुरुषों के आदि…. ।
एक नपुंसक वेद – सभी समर्चन मनुष्यों के ।
दो वेद – भोगभूमि, कुभोगभूमि तथा सर्व प्लेच्छ खण्डों में
तीन वेद – कर्मभूमिया मनुष्य ।
अपगतवेदी – नवमें गुणस्थान के अवेद भाग से आगे 14 वें गुणस्थान तक के मनुष्य ।
प्रश्न 3- ऐसे कौन-कौन से योग हैं जो तीनों वेद वालों के भी होते हैं और अपगतवेदी के भी होते हैं?
उत्तर- 11 योग तीनों वेदों में भी होते हैं तथा अपगतवेदी के भी होते हैं –
4 मनोयोग, 4 वचनयोग तथा 3 (औदारिकद्विक तथा कार्मण) काययोग (ध. 2)
प्रश्न 4 – ऐसा कौन- कौनसा वेद है जिसकी अनाहारक अवस्था में तीन ही गतियाँ होती है?
उत्तर-तीनों ही वेदों की अनाहारक अवस्था में तीन गतियाँ ही होती हैं –
स्रीवेद में -२: – तिर्यगति, मनुष्यगति, देवगति ।
पुरुषवेद में – तिर्यशाति, मनुष्यगति, देवगति ।
नपुंसक वेद में – ‘ नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति ।
प्रश्न ५ -नरकगति में जाते समय द्रव्य स्री और पुरुष वेदी के कम-से-कम कितने आस्रव के प्रत्यय हो सकते हैं?
उत्तर-द्रव्य सीवेदी जो यहाँ से नरकगति में जा रहा है उसके विग्रहगति में कम-से-कम आसव के 41 प्रत्यय हो सकते हैं – 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 23 कषाय तथा 1 योग । द्रव्य पुरुषवेदी के नरक में जाते समय कम-से-कम – 32 आसव हैं – 12 अविरति, 19 कषाय तथा 1 योग । नोट: द्रव्य पुरुषवेदी ही सम्यग्दर्शन को लेकर नरकगति में जा सकता है क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा कृतकृत्य वेदक सम्यक द्रव्य पुरुष-वेदी के ही होते हैं । इसलिए उसके 5 मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी आस्रव के प्रत्यय निकल जावेंगे ।
प्रश्न 6 – क्या अपगतवेदी आसव रहित भी होते हैं?
उत्तर- हाँ, चौदहवें गुणस्थानवर्ती अपगतवेदी आस्रवरहित ही होते हैं । सिद्ध भगवान भी आस्रवरहित ही होते हैं ।
प्रश्न 7- किस-किस स्थान के सभी उत्तर भेदों में तीनों वेद पाये जाते हैं?
उत्तर- 8 स्थानों के सभी उत्तर भेदों में तीनों वेद पाये जाते हैं- ( 1) लेश्या (2) भव्यत्व ( 3) सम्बक्च (4) संज्ञी (5) आहार (6) पर्याप्ति (7) प्राण ( 8) संज्ञा ।
प्रश्न – कषाय और कषाय मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर- जो तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्बक्ल, अणुव्रत रूप देशचारित्र, महाव्रत रूप सकल चारित्र और यथाख्यात चारित्र रूप आत्मा के विशुद्ध परिणामों को कषती अर्थात् घातती है उसे कषाय कहते हैं । (गो. जी. 282 – 83) जो संसारी जीव के ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति के भेद से भिन्न शुभ- अशुभ कर्म रूप क्षेत्र को कवति अर्थात् जोतती हैं वे कषायें हैं । क्रोधादि कषायों में अथवा कषाय और अकषाय में जीवों की खोज करने को कषाय मार्गणा कहते हैं ।
प्रश्न- मार्गणा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-खास मार्गणा चार प्रकार की होती है – ( 1) क्रोध (2) मान (3) माया (4) लोभ । चूके- सं. 13 टी.) कषायें पच्चीस होती हैं – अनन्तानुबन्धी – क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानावरण – क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण – क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन – क्रोध, मान, माया, लोभ । ८ कुल 16 नौ नोकषाय – हास्य, रति, अरति, शोक, भय-जुगुप्सा, खीवेद, पुरुषवेद और नपुसक वेद । 16 स् 9८25 (त. सू- 8? 9) कषाय मार्गणा के अनुवाद से क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी तथा कवायरहित जीव होते हैं । ( थ. 17348)
प्रश्न-क्या कषायरहित जीव भी होते हैं?
उत्तर-ही, कषायरहित जीव भी होते हैं । 11 वें, 1 दवे, 13 वें, 1 वें गुणस्थान वाले तथा सिद्ध भगवान कषाय से रहित होते हैं ।
प्रश्न-नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-ईषत् कषाय को नोकषाय कहते हैं । यहाँ ईषत् अर्थात् किंचित् अर्थ में नम का प्रयोग होने से किंचित् कषाय को नोकषाय कहा है । (सर्वा. 879) जिस प्रकार कुत्ता स्वामी का इशारा पाकर बलवन्त हो जाता है और जीवों को मारने के लिए प्रवृत्ति करता है तथा स्वामी के इशारों से वापिस आ जाता है; उसी प्रकार क्रोधादि कषायों के बलपर ही ईषत् प्रतिषेध होने पर हास्यादि नोकषायों की प्रवृत्ति होती है । क्रोधादि कषायों के अभाव में निर्बल रहती हैं इसलिए हास्यादि को ईषत्- कषाय, अकषाय या नोकषाय कहते हैं । (रा. वा. 8? 9)
प्रश्न-ये चारों चौकड़ी किसका घात करती हैं?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषायें – सभ्यक्च एव चारित्र का घात करती हैं । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषायें देशसंयम – अणुव्रतों का घात करती हैं । प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कवायें सकल संयम – महाव्रतों का घात करती हैं । संज्वलन क्रोधादि कषायें यथाख्यात सयम का घात करती हैं ।
प्रश्न-क्रोध कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-युक्तायुक्त विचार से रहित दूसरे के घात की वृत्ति, शरीर में कम्पन, दाह, नेत्रों में लालिमा तथा मुख की विवर्णता लक्षण वाला क्रोध है । अपने या पर के अपराध से अपना या दूसरों का नाश होना या नाश करना क्रोध है । ४, ति. च. 87467) जिसके उदय से अपने और पर के घात करने के परिणाम हों तथा पर ० उपकार ०० अभाव रूप भाव ० पर का उपकार ० छ भाव न वा कूर भाव हो सो क्रोध कषाय है ।
प्रश्न-मान कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-मन में कठोरता, ईर्षा, दया का अभाव, दूसरों के मर्दन का भाव, अपने से बड़ों को नमस्कार नहीं करना, अहंकार, दूसरों की उन्नति को सहन नहीं करना मान है । जाति आदि के मद से दूसरे के तिरस्कार रूप भाव को मान कषाय कहते हैं । युक्ति दिखा छ पर भी दुराग्रह नहीं छोड़ना मान है । (रावा. 8) 9) रोष से या विद्या आदि के मद से दूसरे के तिरस्कार रूप भाव को मान कषाय कहते हैं । ( ध. 1? 349)
प्रश्न-माया कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-नाना प्रकार के प्रतारण के उपायों द्वारा ठगने के लिए आकुलित मति और विनय, विश्वासाभास से चित्त को हरण करने के लिए बनी आकृति माया है । दूसरों को ठगने के लिए जो छल-कपट और कुटिल भाव होता है वह माया है । (रा. वा. – भग ६०४ क ।वचारा का छपाने को जो छ ०’ ‘ ० माया ० । (ध. 12)
प्रश्न -लोभ कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर- परिग्रह के ग्रहण में अतीव लालायित मानसिक भावना, परिग्रह के लाभ से अतिप्रसन्नता, ग्रहण किये हुए परिग्रह के रक्षण से उत्पन्न आर्त्तध्यान लोभ है । चेतन स्त्री-पुत्रादि में और अचेतन धन- धान्यादिक पदार्थों में ये ” मेरे हैं’ ‘ इस प्रकार की चित्त में उत्पन्न हुई विशेष तृष्णा को लोभ कहते हैं । अथवा इन पदार्थों की वृद्धि होने पर जो विशेष संतोष होता है, इनके विनाश होने पर महान् असंतोष होता है वह लोभ है । ४. ति. च. 8) 467)
प्रश्न-कषायों का वासना काल कितना है?
उत्तर-कषायों का वासना काल – कषाय वासना काल संज्वलन चतुष्क का एष्क अन्तर्मुहूर्त्त प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का. एक पक्ष अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का 2 छह माह अनन्तानुबन्धी चतुष्क का? संख्यात भव, असंख्यात भव, अनन्त भव । ( गो. क. जी. 46 – 47)
प्रश्न-वासना काल किसे कहते हैं?
उत्तर-उदय का अभाव होते हुए भी कषाय का सस्कार जितने काल तक रहता है, उसे ५११४४४ काल कहते हैं । (गो. क. जी. 46 – 47) जैसे – किसी पुरुष ने क्रोध किया । फिर करा; छूट कर वह अपने काम में लग गया । वहाँ क्रोध का उदय तो नहीं है परन्तु वासना ० है इसलिए जिस पर क्रोध किया था, उस पर क्षमा रूप भाव उत्पन्न नहीं हुआ है । ०’ प्रकार सभी कषायों का वासना काल जानना चाहिए ।
प्रश्न-किस गति के प्रथम समय में कौनसी कषाय की प्रधानता है?
उत्तर-नरक गति में उत्पन्न जीवों के प्रथम समय में क्रोध का उदय, मनुष्यगति में मान का, ‘न् गति में माया का और देव गति में लोभ के उदय का नियम है । ऐसा आचार्य उपदेश है । ४.) विशेष : महाकर्मप्रकृति प्रामृत प्रथम सिद्धान्त के कर्त्ता भूतबली आचार्य के ०८० किसी भी कषाय का उदय हो सकता । तालिका संख्या 24
क्र. | स्थान | संख्या | विवरण | विशेष |
1 | गति | 4 | न,ति.म.दे. |
स्थान?….? गति इन्द्रिय काय का…? वेद कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सभ्यक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 84 ला. 1 कुल 199 – ला., 2 अनन्तानुबन्धी चतुष्क विवरण नतिमदे. ए,द्वीत्रीचप. 5 स्थावर 1 श्स 4 म. 4 व. 5 का. सी. पुरु. नपुं. स्वकीय तथा 9 नोक. कुमति, कुश्रुत, कुअव. असयम चक्षु. अचक्षु. कृ. नी. का. पी. प. शु. भव्य, अभव्य मिथ्या. सा. सैनी, असैनी आहारक, अनाहारक पहला, दूसरा 14 एके. विक.2 पंचे. आ. श. इ. श्वा. भा. म. 5 इन्द्रिय उबल. श्वा. आ. आ. भ. मै. पीर. 3 ज्ञानो. 2 दर्शनो. मै आ. 4 रौ. 5 मि. 1 अ. ०क. 13 यो चारों गति सम्बन्धी चारों गति सम्बन्धी विशेष आहारकद्विक नहा है। क्रोध में क्रोध अवधि तथा केवलदर्शन नहीं हैं। 5 ज्ञानो. नहीं हैं । 15 कषाय तथा 2 योग रूप प्रत्यय नहीं हैं ।
प्रश्न- अनन्तानुबन्धी कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर- अनन्त ससार का कारण होने से मिथ्यादर्शन को अनन्त कहते हैं । उस अनन्त को बांधने वाली कषाय अनन्तानुबन्धी कषाय कहलाती है । (रा. वा. 5 – भग ६०४ क ।वचारा का छपाने को जो छ ०’ ‘ ० माया ० । (ध. 12)
प्रश्न- लोभ कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-परिग्रह के ग्रहण में अतीव लालायित मानसिक भावना, परिग्रह के लाभ से अतिप्रसन्नता, ग्रहण किये हुए परिग्रह के रक्षण से उत्पन्न आर्त्तध्यान लोभ है । चेतन स्त्री-पुत्रादि में और अचेतन धन- धान्यादिक पदार्थों में ये ” मेरे हैं’ ‘ इस प्रकार की चित्त में उत्पन्न हुई विशेष तृष्णा को लोभ कहते हैं । अथवा इन पदार्थों की वृद्धि होने पर जो विशेष संतोष होता है, इनके विनाश होने पर महान् असंतोष होता है वह लोभ है । ४. ति. च. 8) 467)
प्रश्न- कषायों का वासना काल कितना है?
उत्तर-कषायों का वासना काल – कषाय वासना काल संज्वलन चतुष्क का एष्क अन्तर्मुहूर्त्त प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का. एक पक्ष अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का 2 छह माह अनन्तानुबन्धी चतुष्क का? संख्यात भव, असंख्यात भव, अनन्त भव । ( गो. क. जी. 46)
प्रश्न- वासना काल किसे कहते हैं?
उत्तर-उदय का अभाव होते हुए भी कषाय का सस्कार जितने काल तक रहता है, उसे ५११४४४ काल कहते हैं । (गो. क. जी. 46 – 47) जैसे – किसी पुरुष ने क्रोध किया । फिर करा; छूट कर वह अपने काम में लग गया । वहाँ क्रोध का उदय तो नहीं है परन्तु वासना ० है इसलिए जिस पर क्रोध किया था, उस पर क्षमा रूप भाव उत्पन्न नहीं हुआ है । ०’ प्रकार सभी कषायों का वासना काल जानना चाहिए ।
प्रश्न- गति के प्रथम समय में कौनसी कषाय की प्रधानता है?
उत्तर-नरक गति में उत्पन्न जीवों के प्रथम समय में क्रोध का उदय, मनुष्यगति में मान का, ‘न् गति में माया का और देव गति में लोभ के उदय का नियम है । ऐसा आचार्य उपदेश है । ४.) विशेष : महाकर्मप्रकृति प्रामृत प्रथम सिद्धान्त के कर्त्ता भूतबली आचार्य के ०८० किसी भी कषाय का उदय हो सकता । मायाचार करने वाले की चित्तवृत्ति बाँस की जड़ों के समान हो जाती है । इसी कारण उसके चाल-चलन और स्वभाव अत्यन्त उलझे तथा कुटिल हो जाते हैं और उनमें कभी भी सीधापन नहीं आता है । (व. चा. 4)
प्रश्न-कृमिराग सदृश लोभ किसे कहते हैं?
उत्तर-कृमिराग एक कीट विशेष होता है । वह नियम से जिस वर्ण के आहार को ग्रहण करता है उसी वर्ण के अतिचिक्कण डोरे को अपने मल त्यागने के द्वार से निकालता है । क्योंकि उसका वैसा ही स्वभाव है । उस सूत्र (धागे) द्वारा जुलाहे अतिकमिती अनेक वर्ण वाले नाना वस्र बनाते हैं । उस के रग को यद्यपि हजार कलशों की सतत धारा द्वारा प्रक्षालित किया जाता है, नाना प्रकार के सारयुक्त जलों द्वारा धोया जाता है तो भी उस रग को थोड़ा भी दूर करना शक्य नहीं है क्योंकि वह अतिनिकाचित स्वरूप है, अग्रि में जलाये जाने पर भी भस्मपने को प्राप्त होते हुए उस कृमिराग से रंजित हुए वस का रग कभी छूटने योग्य न होने से वैसा ही बना रहता है । इसी प्रकार जीव के हृदय में स्थित अतितीव्र लोभ परिणाम, जिसे कृश नहीं किया जा सकता, वह कृमिराग के रग के सदृश कहा जाता है । (ज. य. 127156)
प्रश्न-जहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध होता है वहाँ चारों क्रोध होते हैं अत: यहाँ पर भी चारों क्रोधों को लेना चाहिए? ]
उत्तर-जहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध होता है वहाँ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन क्रोध होता ही है फिर भी यहाँ पर अनन्तानुबन्धी क्रोध की विवक्षा होने से अन्य क्रोधों को गौण करके मात्र अनन्तानुबन्धी क्रोध को ही आसव के कारणों में ग्रहण किया है । इसी प्रकार मान आदि में भी जानना चाहिए । अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से भी एक समय में एक का ही उदय आता है अर्थात् क्रोध के साथ मान, माया आदि का उदय नहीं हो सकता ।
प्रश्न-क्या अनन्तानुबन्धी को कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता है?
उत्तर-यद्यपि अनन्तानुबन्धी कषाय का वासना काल अनन्त काल है, अनन्तानुबन्धी कषाय पत्थर की रेखा के समान है फिर भी पुरुषार्थ के माध्यम से उसे नष्ट किया जा सकता है । जिस प्रकार पत्थर पर बनी हुई लकीर को भी घिसकर साफ किया जा सकता है, उसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय को भी करण (अध: करण आदि) रूप परिणामों के द्वारा एक अन्तर्मुहूर्त में नष्ट किया जा सकता है । क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके अनन्तानुबन्धी कषाय का कभी नाश नहीं होगा? ही, अभव्य जीवों के अनन्तानुबंधी कषाय का कभी नाश नहीं होगा तथा वे भव्य जीव जो सती विधवा के समान हैं अर्थात् अभव्य सम भव्य जीवों के भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय का नाश नहीं होगा, क्योंकि इनमें मोक्ष जाने की क्षमता होते हुए भी इन्हें कभी अनन्तानुबंन्थी चतुष्क को क्षय, उपशम करने के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे । जिस प्रकार सती विधवा को पुत्रप्राप्ति के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे इसलिए उसमें पुत्रप्राप्ति की क्षमता होने पर भी उसे कभी पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके अब कभी अनन्तानुबंधी सम्बन्धी आसव के प्रत्यय नहीं होंगे?
उत्तर-ही, वे जीव जिन्होंने क्षायिक-सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है तथा जो कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हैं उनको भी कभी अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी आसव नहीं होगा । तथा दूसरे-तीसरे नरक में जाने के सम्मुख मिथ्यादृष्टि (तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला) जीव जब तक नरक में पहुँचकर सम्यक प्राप्त नहीं कर लेते उन जीवों को छोड्कर शेष जिन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया है उनके भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय के निमित्त से आसव नहीं होगा, क्योंकि ये कभी सम्बक्म से क्षत (होकर पहले-दूसरे गुणस्थान को प्राप्त) नहीं होते हैं । ‘
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी का क्षय कौनसी गति में किया जा सकता है?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मात्र मनुष्यगति में ही किया जा सकता है । उसमें भी कम- से-कम आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त की आयु वाला कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में कर सकता है, अन्य कोई नहीं ।
नोट – ( 1) अनन्तानुबन्धी कषाय का कभी सीधा क्षय नहीं होता है । अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन अर्थात् अन्य कषाय में परिवर्तित करके ही उसका क्षय किया जाता है । (2) वह दुखमा-सुखमा काल में जन्मा जीव ही होना चाहिए ।
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषाय वाले के मति आदि ज्ञान क्यों नहीं होते हैं?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ मिथ्यात्व का उदय रहता है। उस मिथ्यात्व के कारण प्राणी जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझ सकता है, उसको इनका यथार्थ श्रद्धान नहीं हो सकता है इसलिए उसके मति, धुत तथा अवधिज्ञान विपरीत हो जाते हैं । कहा भी है- ‘ ‘सदसतोरविशेषाद्यइच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्’ ‘ तस. 1732) उन्मत्त पुरुष के समान मिथ्यादृष्टि जीव भी पदार्थों का सही स्वरूप नहीं समझ सकता है । उसका ज्ञान कड़वी ल्पी में रखे गये मीठे दूध के समान मिथ्या रूप हो जाता है । दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है, फिर भी वहाँ मिथ्याज्ञान ही कहे गये हैं 1 यद्यपि वे तीसरे गुणस्थान को भी प्राप्त नहीं करते हैं लेकिन यहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय की विवक्षा होने से उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया है ।
प्रश्न-अप्रत्याख्यानावरण कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से यह प्राणी ईषत् भी देशविरत (संयमासंयम) नामक व्रत को स्वीकार नहीं कर सकता है, स्वल्प मात्र भी व्रत धारण नहीं कर सकता है वह देशविरत प्रत्याख्यान का आवरण करने वाली अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय है । (रा. वा. 879) जो देशसंयम को अल्प मात्र भी न होने दे उसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय कहते हैं । (गो. क. जी. 133)
प्रश्न-अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि को किसकी उपमा दी गई है?
उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध – पृथ्वी रेखा सदृश । अप्रत्याख्यानावरण मान – हडी के समान, अस्थिस्तम्भ सदृश । अप्रत्याख्यानावरण माया – बकरी के सींग या मेंड़े के सींग सदृश । अप्रत्याख्यानावरण लोभ – नील रंग? अक्षमल या कज्जल सदृश । (ज. ध. 12 । 153 – 155 वैचा.)
प्रश्न-पृथ्वीरेखा सदृश क्रोध किसे कहते हैं?
उत्तर-यह क्रोध पूर्व क्रोध (नगराजि सदृश क्रोध) से मन्द अनुभाग वाला है, क्योंकि चिरकाल तक अवस्थित होने पर भी इसका पुन: दूसरे उपाय से सन्धान जुड़ना हो जाता है । यथा ग्रीष्म काल में पृथिवी का भेद हुआ गाड़ी गडारादरार बन गई) पुन: वर्षा काल में जल के प्रवाह से वह दरार भरकर उसी समय सधान को प्राप्त हो गई । इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम चिरकाल तक अवस्थित रहकर भी पुन: दूसरे कारण से तथा गुरु के उपदेश आदि से उपशम भाव को प्राप्त होता है वह इस प्रकार का तीव्र परिणाम भेद पृथिवी रेखा सदृश है । जि. ध. 12153 ये सस्कार काफी समय बीतने पर अथवा शास्त्र रूपी जल वृष्टि से चित्त स्नेहार्द्र हो जाने पर उपशम को प्राप्त हो जाता है । (वचा. 4)
प्रश्न-अस्थिस्तम्भ सदृश मान किसे कहते है?
उत्तर-पुराण पुरुष कहते हैं कि दूसरे मान का उदय आत्मा में हहुईा के समान कर्कशता ला देता है, परिणाम यह होता है कि जब जीव ज्ञान रूपी अत्ना में काफी तपाया जाता है तो उसमें कुछ-कुछ विनम्रता आ ही जाती है । (व. चा. 4? 71)
प्रश्न-मेढ़े के सींग सदृश माया किसे कहते हैं?
उत्तर-इस माया का आत्मा पर पड़ने वाला सस्कार मेढ़े के सींग के समान गुड़ीदार होता है उत्तर-जो सती विधवा के समान हैं अर्थात् अभव्य सम भव्य जीवों के भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय का नाश नहीं होगा, क्योंकि इनमें मोक्ष जाने की क्षमता होते हुए भी इन्हें कभी अनन्तानुबंन्थी चतुष्क को क्षय, उपशम करने के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे । जिस प्रकार सती विधवा को पुत्रप्राप्ति के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे इसलिए उसमें पुत्रप्राप्ति की क्षमता होने पर भी उसे कभी पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके अब कभी अनन्तानुबंधी सम्बन्धी आसव के प्रत्यय नहीं होंगे?
उत्तर-ही, वे जीव जिन्होंने क्षायिक-सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है तथा जो कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हैं उनको भी कभी अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी आसव नहीं होगा । तथा दूसरे-तीसरे नरक में जाने के सम्मुख मिथ्यादृष्टि (तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला) जीव जब तक नरक में पहुँचकर सम्यक प्राप्त नहीं कर लेते उन जीवों को छोड्कर शेष जिन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया है उनके भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय के निमित्त से आसव नहीं होगा, क्योंकि ये कभी सम्बक्म से क्षत (होकर पहले-दूसरे गुणस्थान को प्राप्त) नहीं होते हैं ।
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी का क्षय कौनसी गति में किया जा सकता है?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मात्र मनुष्यगति में ही किया जा सकता है । उसमें भी कम- से-कम आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त की आयु वाला कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में कर सकता है, अन्य कोई नहीं ।
नोट – ( 1) अनन्तानुबन्धी कषाय का कभी सीधा क्षय नहीं होता है । अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन अर्थात् अन्य कषाय में परिवर्तित करके ही उसका क्षय किया जाता है ।
(2) वह दुखमा-सुखमा काल में जन्मा जीव ही होना चाहिए ।
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषाय वाले के मति आदि ज्ञान क्यों नहीं होते हैं?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ मिथ्यात्व का उदय रहता है। उस मिथ्यात्व के कारण प्राणी जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझ सकता है, उसको इनका यथार्थ श्रद्धान नहीं हो सकता है इसलिए उसके मति, धुत तथा अवधिज्ञान विपरीत हो जाते हैं । कहा भी है- ‘ ‘सदसतोरविशेषाद्यइच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्’ ‘ तस. 1732) उन्मत्त पुरुष के समान मिथ्यादृष्टि जीव भी पदार्थों का सही स्वरूप नहीं समझ सकता है । उसका ज्ञान कड़वी ल्पी में रखे गये मीठे दूध के समान मिथ्या रूप हो जाता है । दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है, फिर भी वहाँ मिथ्याज्ञान ही कहे गये हैं 1 यद्यपि वे तीसरे गुणस्थान को भी प्राप्त नहीं करते हैं लेकिन यहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय की विवक्षा होने से उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया है । फलत: इस कषाय से आक्रान्त व्यक्ति मन में कुछ सोचता है और जो करता है वह इससे बिस्कूल भिन्न होता है । (वचा. 4775)
प्रश्न-अक्षमल सदृश लोभ किसे कहते हैं?
उत्तर-अक्ष (रथ का चक्का) का मल अक्षमल है । अक्षांजन के स्नेह से गीला हुआ मषीमल अति चिक्कण होने से उस अजमल को सुखपूर्वक दूर करना शक्य नहीं है । उसी प्रकार यह लोभ परिणाम भी निधत्त स्वरूप होने से जीव के हृदय में अवगाढ़ होता है इसलिए उसे दूर करना शक्य नहीं है । (ज. ध. 127156) जैसे ही जीव अपने आपको ज्ञान रूपी जल में धोता है वैसे ही आत्मा तुरन्त शुचि और स्वच्छ हो जाता है । (व. चा. 4779)
प्रश्न-अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टि के कितने उपयोग हो सकते हैं?
उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टि के 6 उपयोग हो सकते हैं” 3 ज्ञानो. – मतिज्ञानो., श्रुतज्ञानो., अवधिज्ञानो. । 3 दर्शनो. – चखुदर्शनो., अचखुदर्शनो., अवधिदर्शनो. । अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले कार्मण काययोगी के कितने आसव के प्रत्यय हो सकते हैं? उत्तर-कार्मण काययोग में स्थित अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले के 22 आसव के प्रत्यय होते हैं” 9 कषाय (8 नोकषाय स्त्रीवेद बिना), 1 स्वकीय अर्थात् क्रोधादि में से एक) 1 योग – कार्मण काययोग 12 अविरति – छहकाय के जीवों…… । अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले व्यंतर देव के कितने आसव के प्रत्यय होते हैं? अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले व्यंतरदेव के 29 आसव के प्रत्यय होते हैं – 12 अविरति 8 कषाय – 7 नोकषाय (देव है इसलिए सीवेद नहीं है) 1 स्वकीय कषाय है । 9 योग (4 मनोयोग, 4 वचनयोग, वैक्रियिक काययोग) 12 -४४ 8 -४४ 9 zZ 29 स्वकीय कषाय के साथ प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन क्रोधादि को भी ग्रहण करने पर आसव के दो प्रत्यय और हो जाते हैं । तालिका संख्या 26 स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्म संज्ञी आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 1० मैं 6 11 3० 18 ला 57 ?? लार्क. प्रत्याख्यानावरण चतुष्क तिर्यव्व, मनुष्य पंचेन्द्रिय त्रस 4 मन. 4 व. 1 का सीपुन. 1 स्वकीय 9 नोक मति, सुत, अवधि । सयमासयम चक्षु. अव. अव. पीपशु. भव्य क्षाक्षायोउप. सैनी आहारक पंचम सैनी पंचे. आशइश्वाभाम. 5 इ. 3 बल. श्वाआ. आभमैपरि. 3 ज्ञानो. 3 दर्शनो. मै आ. 4 री. 3 धर्म 11 अ. 1० क. 9 वो. 4 ला. तिर्य. 14 ला. मनुष्यों की 43 -? ला.क. तिर्यच्चों के 2 14 लाक. मनुओं.! फें विशेष औदारिक काययोग 3 कुशान, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं है । अशुभ लेश्याएँ नहीं हैं। संस्थानविचय धर्मध्यान नहीं है। एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जाति नहीं है । कषाय मार्गणा? 159
प्रश्न-प्रत्याख्यानावरण कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से सकल संयम विरति या सकल संयम को धारण नहीं कर सकता, वह समस्त प्रत्याख्यान का आवरण करने वाली प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय है । (रा. वा. 5) प्रत्याख्यान का अर्थ महाव्रत है । उनका आवरण करने वाला कर्म प्रत्याख्यानावरणीय कषाय है । (ध. 137360)
प्रश्न-प्रत्याख्यानावरणीय क्रोधादि को किसकी उपमा दी जा सकती है?
उत्तर-प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध – धूलिरेखा सदृश’ बालुकाराजि सदृश । प्रत्याख्यानावरणीय मान – दारुस्तम्भ सदृश । प्रत्याख्यानावरणीय माया – गोद्ब सदृश । प्रत्याख्यानावरणीय लोभ – शरीर के मल के सदृश? पांशु लेप सदृश जि, ध. 127 153 – 155 वै. चा.)
प्रश्न-धूलिरेखा सदृश क्रोध कैसा होता है?
उत्तर-यथा नदी के पुलिन आदि में बालुकाराजि के मध्य पुरुष के प्रयोग से या अन्य किसी कारण से उत्पन्न हुई रेखा जिस प्रकार हवा के अभिघात आदि दूसरे कारण द्वारा शीघ्र ही पुन: समान हो जाती है अर्थात् रेखा मिट जाती है । इसी प्रकार यह क्रोध परिणाम भी मन्द रूप से उत्पन्न होकर गुरु के उपदेश रूपी पवन से प्रेरित होता हुआ अति शीघ्र उपशम को प्राप्त हो जाता है । जि. य. 12)
प्रश्न-दारु स्तम्भ सदृश मान कैसा होता है?
उत्तर-इस मान में इतनी कठोरता आ जाती है जितनी गीली लकड़ी में आती है । फलत: जब ऐसा जीव रूपी काष्ठ ज्ञान रूपी तेल से सराबोर कर दिया जाता है, उसके उपरान्त ही वह सरलता से झुक सकता है । (व. चा. 4)
प्रश्न-गोमूत्र सदृश माया कैसी होती है?
उत्तर-इस माया की तुलना चलते हुए बैल के अ से बनी टेढ़ी-मेढ़ी रेखा से होती है । परिणाम यह होता है कि उसकी सभी चेष्टाएँ बैल के अ के समान आधी-सीधी और आधी कुटिल एव कपटपूर्ण होती है । (व. चा. 4)
प्रश्न-पांशु लेप सदृश लोभ कैसा होता है?
उत्तर-जिस प्रकार पैर में लगा धूलि का लेप पानी के द्वारा धोने आदि उपायों द्वारा सुखपूर्वक दूर कर दिया जाता है वह चिरकाल तक नहीं ठहरता । उसी के समान उत्तरोत्तर मन्द स्वभाव वाला वह लोभ का भेद भी चिरकाल तक नहीं ठहरता । यह अप्रत्याख्यानावरण लोभ से अनन्तगुणा हीन सामर्थ्य वाला होता हुआ थोड़े से प्रयत्न द्वारा दूर हो जाता है । (ज. ब. 127156) इस लोभ वाला प्राणी जैसे ही आत्मा को शास्त्राभ्यास रूपी जल से भली- भाँति धोता है तत्काल इस लोभ का नामोनिशान ही नष्ट हो जाता है । (व. चा. 4)
प्रश्न-क्या प्रत्याख्यानावरण कषाय वाले तिर्यल्व-मनुष्य दोनों के क्षायिक सम्बक्च होता है?
उत्तर-नहीं, प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले तिर्यच्चों के क्षायिक सम्बक्म नहीं हो सकता है । केवल मनुष्यों में ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि पचम गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि तिर्यच्चों में क्षायिक सम्यक भोगभूमि में ही होता है अर्थात् कर्मभूमिया तिर्यच्चों के क्षायिक सम्बक्म नहीं होता है । भोगभूमि में सयम नहीं है इसलिए प्रत्याख्यानावरण कषाय वाले तिर्यल्द के क्षायिक सम्बक्ल नहीं हो सकता है ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले तिर्यस्थ्य हैं जिनके उपशम सम्य? नहीं हो सकता है?
उत्तर-ही, सर्न्च्छन जन्म वाले पंचेन्द्रिय तिर्यल्द जो प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले हैं उनके उपशम सम्बक्ल नहीं हो सकता है (क्योंकि उपशम सम्बक्ल गर्भजो के ही होता हे) (य. 6? 429)
प्रश्न-प्रत्याख्यानावरण कषाय में कम- से- कम कितने प्राण हैं?
उत्तर-प्रत्याख्यानावरण कषाय में कम-से-कम भी 1० प्राण ही होते हैं क्योंकि इस कषाय का उदय पंचम गुणस्थान में कहा गया है । वह पंचम गुणस्थान पर्याप्त जीवों के ही होता है । तालिका संख्या 27 गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव संख्या 14 ला. 14 लाक कषाय मार्गणा? 161 संज्वलनत्रिक मनुष्य पंचेन्द्रिय त्रस 4 म. 4 व. 3 का. सी-पुनपुं. 1 स्वकीय 9 नोकषाय मसुअवमन:. साछेपरि. चअचअव. पीपशु. भव्य क्षाक्षायोउप. संज्ञी आहारक छठे से 9 वें तक सैनी पंचेन्द्रिय आशइश्वाभाम. 5 इ. 3 बल. श्वा. आ. आभमैपरि. 4 ज्ञानो. 3 दर्शनो. 3 आ. 4 धर्म 1 शुक्ल 1० क. 11 यो. मनुष्य सम्बन्धी १५४-१ सम्बन्धी विशेष औदारिक तथा आहारकद्विक होते हैं । संज्वलन क्रोध आदि 3 कुज्ञान तथा केवल ज्ञान नहीं है क्षायोपशमिक स. 6३, वें गुण. की अपेक्षा पृथक्लवितर्क वीचार शुक्ल ध्यान है । औदारिक मिश्र, वैक्रियिकद्विक तथा कार्मण काययोग नहीं है ।
प्रश्न-संज्यलन कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर- एकीभाव अर्थ में रहता है । संयम के साथ अवस्थान होने पर एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात् चमकते हैं अथवा जिनके सद्भाव में संयम चमकता रहता है उसे संज्वलन कषाय कहते हैं । (सर्वा. 8 ‘ 9) सज्वलन क्रोधादिक सकल कषाय के अभाव रूप यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं । (गो. जी. जी. 283) जो संयम के साथ-साथ प्रकाशमान रहे एव जिनके उदय से यथाख्यात चारित्र न हो वे संज्वलन कषायें हैं । (हरि. पु. 58) प्रश्न_संज्वल्न क्रोधादि को किसकी उपमा दी गई है? उत्तर- संज्वलन क्रोध – उदकराजि सदृश ।
सज्वलन मान – लता सदृश वा बेंत के सदृश । संज्वलन माया – अवलेखनी के सदृश या चामर के सदृश । जि, ध. 12? 152 – 55 वै. चा.) प्रश्न_उदकराजि सदृश क्रोध कैसा होता है? उत्तर-यह क्रोध पर्वतशिला भेद से मन्दतर अनुभाग वाला और स्तोकतर काल तक रहने वाला है क्योंकि पानी के भीतर उत्पन्न हुई रेखा का बिना दूसरे उपाय के तत्क्षण विनाश देखा जाता है । (ज. ध. 121 ‘ 4)
प्रश्न-लता सदृश मान कैसा होता है?
उत्तर-अन्तिम संज्वलन मान के संस्कार की तुलना बालों की घुंघराली लट से की है । आपातत: जैसे ही उसे शास्र ज्ञान रूपी हाथ से स्पर्श करते हैं वैसे ही वह क्षणभर में ही सीधा और सरल हो जाता है । (वचा. 4? 73) प्रश्न_अवलेखनी सदृश माया कैसी है? उत्तर-यह माया आत्मा को चमरी मृग के रोम के समान कर देती है । अतएव जैसे ही आत्मा रूपी रोम को आत्म-ज्ञान यत्र में रखकर दबाते हैं तो तत्काल वह बिना विलम्ब अपने शुद्ध स्वभाव को प्राप्त कर लेता है (व. चा. 4 ‘ 77)
प्रश्न-क्या ऐसे कोई संज्वलन मानी हैं जिनके वेद नहीं होते हैं?
उत्तर-ही, नवमें गुणस्थान के अवेद भाग में जहाँ तक मान कषाय का उदय रहता है वहाँ सज्वलन मान वालों के वेद नहीं होता है ।
प्रश्न-सज्वलन मान वाले के अवधिदर्शन कितने गुणस्थान में होता है?
उत्तर-सज्वलन मान वाले के अवधिदर्शन 4 गुणस्थानों में होता है- छठे, सातवें, आठवें तथा नौवें । इसी प्रकार क्रोध एवं माया में जानना चाहिए ।
प्रश्न-संज्वलन माया वाले के शुक्ललेश्या किस-किस गुणस्थान में होती है?
उत्तर-सज्वलन माया वाले के शुक्ललेश्या 4 गुणस्थानों में होती है – छठे से 9 वें गुणस्थान तक । इसी प्रकार क्रोध एवं मान में जानना चाहिए ।
प्रश्न-संज्वलन त्रिक में क्षायिक सभ्य? कहाँ-कहाँ होता है?
उत्तर-सज्वलन त्रिक में क्षायिक सम्यक छठे, सातवें, आठवें और नौवें – इन चार गुणस्थानों में होता है ।
प्रश्न-संज्वलन माया में कितनी संज्ञाओं का अभाव हो सकता है?
उत्तर-संज्वलन माया में तीन संज्ञाओं का अभाव हो सकता है- आहार संज्ञा, भयसज्ञा तथा मैथुन संज्ञा । परिग्रह संज्ञा का अभाव नहीं हो सकता है क्योंकि संज्वलन माया का उदय नौवें गुणस्थान तक होता है और चौथी संज्ञा दसवें गुणस्थान तक पायी जाती है । इसी प्रकार क्रोध एवं मान में जानना चाहिए । क्या ऐसे कोई संज्वलन क्रोध वाले जीव हैं जिनके धर्मध्यान नहीं होते हैं? ही, आठवें नवमें गुणस्थान में स्थित संज्वलन क्रोध वाले जीवों के धर्म-ध्यान नहीं होते हैं क्योंकि वहाँ पहला शुक्लध्यान होता है । अथवा – सज्वलन क्रोध में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ धर्म ध्यान नहीं है । क्योंकि कोई आचार्य दसवें गुणस्थान तक धर्म- ध्यान मानते हैं ।
प्रश्न-संज्वलन मान में कम-से- कम कितने उपयोग हो सकते हैं?
उत्तर-संज्वलन मान में कम-से-कम चार उपयोग हो सकते हैं- मतिज्ञानो., भुतज्ञानो., चखुदर्शनो. तथा अचखुदर्शनो. । इसी प्रकार कोध माया एव लोभ में भी जानना चाहिए । तालिका संख्या 28 स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सभ्यक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 14 ला. ० 14 ला.क संज्वलन लोभ विवरण मनुष्यगति पंचेन्द्रिय त्रस म. ४६, का. स्त्री-पुन, स्वकीय एव नोक मधुअमन: साढ़े-परिण चअचअव. पीपशु. भव्य ब्क्षाक्षायोउप. आहारक छठे से दसवें तक. पंचेन्द्रिय आशइश्वाभाम. ५५. ब. श्वाआ. आभमैपरि. 4 ज्ञानो. 3 दर्शनो. आ. ४४-. भू- 1० क. 11 यो. मनुष्य सम्बन्धी मनष्य सम्बन्धी विशेष औदारिक तथा आहारकद्विक काययोग है । संज्वलन लोभ केवलदर्शन नहीं है। सामिश्रमि. नहीं है निदान आर्त्तध्यान नहीं है। प्रश्न : संज्वलन लोभ को किसकी उपमा दी गई है? उत्तर- सज्वलनलोभको हारिद्र सदृशकहागया है अर्थात् हल्दी के सकी उपमादीहै । (जय. ‘ 155)
प्रश्न-हारिद्र सदृश लोभ कैसा होता है?
उत्तर-जिस प्रकार हल्दी से रंगे गये वस्न का वर्ण? रंग चिरकाल तक नहीं ठहरता, वायु और आतप आदि के निमित्त से ही उड़ जाता है; उसी प्रकार यह लोभ का भेद मन्दतम अनुभाग से परिणत होने के कारण चिरकाल तक आत्मा में नहीं ठहरता है, क्षणमात्र में ही दूर हो जाता है । जि, य. 12? 157) क्या संज्वलन लोभ वालों के हास्यादि कषाय का अभाव भी हो सकता है? ही, संचलन लोभ वालों के आठवें गुणस्थान के बाद अर्थात् नौवें, दसवें गुणस्थान में हास्यादि कषायों का अभाव हो जाता है ।
प्रश्न-क्या संक्वलन लोभ वाले के भी निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था हो सकती है?
उत्तर-ही, संज्वलन लोभ वाला भी जब छठे गुणस्थान में आहारक मिश्र योग वाला होता है तो उसके भी निर्वृत्यपर्यातक अवस्था बन जाती है ।
प्रश्न-सैज्वलन लोभ में कितने संयम होते हैं?
उत्तर-सज्वलन लोभ में चार सयम होते है – ( 1) सामायिक (2) छेदोपस्थापना ( 3) परिहार विशुद्धि (4) ख्तसाम्पराय । क्योंकि सज्वलन लोभ का उदय छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक होता है ।
प्रश्न-संज्यलन लोभ वाले के कौन- कौन से गुणस्थान में कौन-कौनसा सम्य? होता है?
उत्तर-सज्वलन लोभ वाले के सम्बक्म- छठे – सातवें गुणस्थान में – क्षायिक सम्बक्च, क्षायोपशमिक तथा उपशम । (उपशमश्रेणी के) आठवें, नवमें, दसवें गुणस्थान में – क्षायिक तथा उपशम । (क्षपक श्रेणी के) आठवें, नवमें, दसवें गुणस्थान में – क्षायिक सम्बक्ल ।
प्रश्न-संज्वलन लोभ वाले के कम-से- कम कितने प्राण हो सकते हैं?
उत्तर-संज्वलन लोभ वाले के कम-से-कम 7 प्राण हो सकते हैं – 5 इन्द्रिय, काय बल तथा आयु । ये 7 प्राण आहारकमिश्र की अपेक्षा जानने चाहिए क्योंकि सज्वलन लोभ का उदय छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है ।
प्रश्न-संज्वलन लोभ का उदय तो दसवें गुणस्थान में होता है फिर उसमें चारों संज्ञाएँ कैसे हो सकती हैं?
उत्तर- गुणस्थान में ही नहीं होता है अपितु दसवें गुणस्थान तक होता है । पहले से पचम गुणस्थान तक संज्वलन कषाय के साथ अनन्तानुबन्धी आदि का उदय भी पाया जाता है । छठे गुणस्थान से नौवें गुणस्थान तक सज्वलन क्रोध, मान, माया तथा लोभ चारों का उदय होता है इसलिए जो सज्वलन लोभ वाले छठे गुणस्थान में स्थित हैं उनके आहारादि चारों संज्ञाएँ पाई जाती हैं । इसी प्रकार शेष संज्ञाएँ भी जानना चाहिए ।
प्रश्न-संज्यलन लोभ में कौनसी संज्ञा का अभाव नहीं हो सकता है?
उत्तर-संज्वलन लोभ कषाय वालों के पीरग्रह सज्ञा का अभाव नहीं हो सकता है क्योंकि कषाय के रहते हुए इच्छा, वांछाओं का अभाव नहीं हो सकता है ।
प्रश्न-क्या धर्मध्यान से रहित सैज्वलन लोभ वाले भी होते हैं?
उत्तर-ही, धर्मध्यान से रहित संज्वलन लोभ वाले भी होते हैं – जिन छठे गुणस्थान वालों के आर्त्तध्यान होते हैं उनके धर्मध्यान नहीं होते तथा अष्टम गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक मुनिराज धर्मध्यान से रहित होते हैं अर्थात् प्रथम शुक्ल ध्यान वाले होते हैं । अथवा सप्तम गुणस्थान से दसवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज धर्मध्यानी ही होते हैं ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई संज्वलन लोभ कषायवाले हैं जिनके आर्चध्यान नहीं होते हों?
उत्तर-ही, सातवें गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक के सज्वलन लोभ कषायवालों के ०८ नहीं होते हैं ।
प्रश्न-संज्वलन लोभवालों के कम-से-कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?
उत्तर-संज्वलन लोभ वालों के कम-से-कम दस आसव के प्रत्यय होते हैं – 9 योग तथा 1 कषाय । 9 योग – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, 1 औदारिक काययोग तालिका संख्या स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्यक संज्ञी आहारक गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति कुल 7 5 3 6 2 6 2 2 8 19 6 1० मै 1० 13 55 84 ला 199 – हास्यादि चार नोकषाय विवरण विशेष नतिमदे. ए-द्वीत्रीचप. 5 स्थावर 1 त्रस 4 म.4 ब.7 का. सी-पुनपुं. 16 क. 3 वेद, हास्य, हास्य-रति में अरति-शोक नहीं रहते हैं रति, भय, जुगुप्सा 4 ज्ञा. 3 अज्ञा. केवलज्ञान नहीं है। सा. छे. पीर. संयमाअस. च. अच.अव. कवेलदर्शन नहीं है। कृ. नी. का. पी. प. शु. भव्य-अभव्य क्षाक्षायोउसामिश्रमि. सैनी-असैनी आहारक-अनाहारक पहले से आठवें तक 14 स्थावर, 5 त्रस. आशइश्वाभाम. इ.3 बल, श्वाआ. आभमैपरि. 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो. आ. बर., ४४-. शु. मि. १२८. क. 1 यो. हास्य-रति में अरति-शोक नहीं हैं। चारों गति सम्बन्धी चारों गति सम्बन्धी
प्रश्न-हास्य नाकषाय केसे कहते हैं?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से अनेक प्रकार का परिहास उत्पन्न होता है, वह हास्य कर्म है । (ध. 13? 361) जिसके उदय से हँसी आती है वह हास्य कर्म है (सर्वा. 8? 9)
प्रश्न-हास्य नोकषाय वाले के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-हास्य नोकषाय का उदय होने पर यह जीव प्रसन्नता के अवसर पर साकूत क्रोध में तथा कहीं पर अपमान होने के बाद अकेले ही या अन्य लोगों के सामने भी प्रकट कारण के बिना ही अर्थात् बिना कारण ही हँसता है अथवा अपने आप कुछ बड़बड़ाता जाता है । (वचा. 4783)
प्रश्न-रति नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिस कर्म-स्कन्ध के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों में राग उत्पन्न होता है उसकी रति संज्ञा है । ४.? 47) जिसके उदय से देशादि (क्षेत्रादि) में उत्सुकता होती है वह रति है । (सर्वा 8) मनोहर वस्तुओं में परम प्रीति को रति कहते हैं । (निसा. ता. 6)
प्रश्न- रति नोकषायवाले के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-जब किसी जीव के रति नोकवाय का उदय होता है तो उसे उन दुष्ट लोगों से ही प्रीति होती है जो पाप कर्मों के करने में ही सदा लगे रहते हैं, जिनके कर्मों का परिणाम कुफल प्राप्ति ही होती है तथा निष्कर्ष शुद्ध अहित ही होता है । (व. चा. 484)
प्रश्न-अरति नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से आत्मा की देश आदि में उत्सुकता उत्पन्न नहीं होती है वह अरति ०७२८ है (सर्वा. 8) नाती, पुत्र एव सी आदि में रमण करने का नाम रति है, इसकी उ० अरति कही जाती है । ४.)
प्रश्न-अरति नोकषायवाले के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-अरति नोकषाय के फल में जीव ज्ञानार्जन के साधन, व्रतपालन का शुभ अवसर, ० तपने की सुविधाएँ, ज्ञानाभावमार्जन की सामग्री, लौकिक और पारलौकिक सम्पत्ति (द्रव्य) तथा अन्य सुखों के कारणों की प्राप्ति हो जाने पर भी अपने आपको उनमें नहीं लगा ० है । (व. चा. 4)
प्रश्न-शोक नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-उपकार करने वाले से सम्बन्ध के टूट जाने पर जो विकलता होती है वह शोक है । (सर्वा. 8? 9) जिसके उदय से शोक होता है, वह शोक है (रा. वा. 8 ‘ 9)
प्रश्न- नोकषाय के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-जब प्राणी हर एक बात से उदासीन हो जाता है, लम्बी-लम्बी साँस छोड़ता है, मन को नियन्त्रित नहीं कर पाता है, फलत: मन सबसे अव्यवस्थित होकर चक्कर काटता है, इन्द्रियाँ इतनी दुर्बल हो जाती हैं कि अपना कार्य भी नहीं कर पाती हैं तथा बुद्धि विचार नहीं कर सकती है तब समझिये कि उसके शोक नोकषाय का उदय है । (व. चा. 4? 87)
प्रश्न-हास्यादि चार कषायों से किस- किस का ग्रहण करना चाहिए?
उत्तर-हास्यादि चार कषायों से हास्य, रति, अरति तथा शोक को ग्रहण करना चाहिए ।
प्रश्न- नोकषाय में कौनसी नोकषायें नहीं होती हैं?
उत्तर-हास्य-रति नोकवाय में अरति-शोक नोकषाय, अरति-शोक नोकषाय में हास्य-रति नोकवाय तथा एक वेद के साथ दूसरा वेद नहीं होता है ।
प्रश्न-क्या कोई ऐसे हास्य कषायवाले हैं जिनके वचन योग नहीं है?
उत्तर-ही, एकेन्द्रिय तथा लब्ध्यपर्यातक जीवों के वचनयोग नहीं होता है । द्वीन्द्रियादि सभी जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक तथा अनाहारक अवस्था में भी वचन योग नहीं होता है ।
प्रश्न-शोक कषायवाले पुरुषवेदी के कितनी गतियाँ होती हैं?
उत्तर-शोक कषायवाले पुरुषवेदी के तीन गतियाँ होती हैं – ( 1) तिर्यञ्चगति (2) मनुष्यगति (3) देवगति । नरक गति नहीं है क्योंकि वहाँ पुरुषवेद नहीं पाया जाता है ।
प्रश्न-नारकियों के हास्य- रति कषाय कैसे हो सकती हैं क्योंकि उनके तो कभी सुख होता ही नहीं है?
उत्तर-नारकियों के उदय योग्य प्रकृतियों में मोहनीय कर्म की स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद को छोड़ कर शेष 26 प्रकृतियाँ बतायी गई हैं । नारकी जीव भी दूसरे के मारने आदि की भावना पूरी होने पर खुश होते ही होंगे । अथवा, तीसरे नरक तक देवों के द्वारा धर्मोपदेश सुन कर प्रसन्नता की अनुभूति होती है, उसे भी हास्य-रति कहा जा सकता है । जब तीर्थंकर भगवान का जन्म होता है तब नरकों में कुछ समय के लिए सुख होता है तब भी हास्य- रति का उदय होता है क्योंकि सुख के समय अरति-शोक नहीं होते हैं ।
प्रश्न-देवों में अरति- शोक सम्बन्धी आसव के प्रत्यय कैसे होते हैं क्योंकि उनके तो दु: ख नहीं होता है?
उत्तर-देवों में भी अरति शोक का उदय पाया जाता है इसलिए उनके अरति-शोक सम्बन्धी आसव ही है । देव भी जब वाहन आदि बनने का आदेश सुनते हैं, उनकी देवांगना आदि ० जाती हैं तब उनके अरति, शोक का उदय होता है ।
प्रश्न-त्वट कषायवाले अवधिज्ञानी के कितने जीवसमास होते हैं?
उत्तर–२१ कषायवाले अवधिज्ञानी के एक ही जीवसमास होता है – सैनी पंचेन्द्रिय ।
प्रश्न- कषाय के साथ अचखुदर्शन कितने गुणस्थानों में पाया जाता है?
उत्तर- कषाय के साथ अचखुदर्शन में आठ गुणस्थान पाये जाते हैं – पहले से आठवें तक ।
प्रश्न- अम् कषाय में अवधिदर्शनी के कितनी जातियाँ होती हैं?
उत्तर-त्वद्व कषाय में अवधिदर्शनी के 26 लाख जातियाँ होती हैं-पंचेन्द्रिय सम्बन्धी ।
प्रश्न- जिनके हास्य कषाय का उदय है लेकिन आहार संज्ञा नहीं होती है?
उत्तर-ही, सातवें एवं आठवें गुणस्थान वालों के हास्य कषाय का उदय होने पर भी आहार संज्ञा नहीं होती है, क्योंकि आहारसंज्ञा छठे गुणस्थान से आगे नहीं होती है ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई हास्य-रति कषाय वाले जीव हैं: जिनके अनाहारक अवस्था नहीं होती है?
उत्तर-ही, ( 1) तीसरे, पाँचवें, छठे, सातवें तथा आठवें गुणस्थान में स्थित हास्य-रति कषाय वाले जीवों के अनाहारक अवस्था नहीं होती है । (2) ऋजुगति से जाने वाले पहले, दूसरे तथा ० गुणस्थान ०० -मैं हास्य- कषाय ० साथ अनाहारक अवस्था ‘ होती है ।
प्रश्न-अरति- शोक वालों के अनाहारक अवस्था में कितने गुणस्थान होते हैं?
उत्तर-अरति-शोक वालों के अनाहारक अवस्था में 3 गुणस्थान होते हैं – पहला, दूसरा, चौथा नोट – तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में अरति-शोक कषाय नहीं है इसलिए उनका यहाँ 0 नहीं किया है ।
प्रश्न-रति कषायवाले असैनी जीवों के कितने जीवसमास होते हैं?
उत्तर-रति कषाय वाले असैनी जीवों के 18 जीवसमास होते हैं – एकेन्द्रिय सम्बन्धी 14, विकलत्रय के 3 तथा असैनी पंचेन्द्रिय का 1 ८ 18 तालिका संख्या 3० स्थ?म्मान वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान बावसमास पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 84 ला. 1 कुल 1 99-‘ ला भय-जुगुप्सा विशेष नतिमदे. एद्वीत्रचितुपचे. 5 स्थावर 1 त्रस म व पका स्त्री-पुन- 16 क. नो. भय-जुगुप्सा से रहित जीव भी हैं । 3 कुज्ञान 4 ज्ञान केवलज्ञान नहीं है । साछेपसंयअस. ख्तसाम्पराय और यथाख्यात नहीं है । चअचअ. केवल दर्शन नहीं है कृनीकापीपशुक्ल भव्य-अभव्य क्षाक्षायोउपसासम्बमि. सैनी-असैनी आहारक-अनाहारक पहले से आठवें तक स्थावरों के 14 त्रसों के 5 आशइश्वाभामन. इन्द्रिय ब.श्वा.आ. आभमैपरि. आहार संज्ञा रहित भी हैं । 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो. आ. पर.. ४४. शु. मि. 1 अवि.25क. 1 यो. चारों गति सम्बन्धी चारों गति सम्बन्धी
प्रश्न-भय नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-परचक्र के आगमनादि का नाम भय है ४- १५४३६ जिसके उदय से उद्वेग होता है वह भय है । (सर्वा. 8 ??? जिस कर्म के उदय से जीव के सात प्रकार का भय उत्पन्न होता है वह भयकर्म है । (ध. १३३६)
प्रश्न-भयकषाय वाले के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-श्मसान, राजद्वार, अन्धकार आदि सात भय के स्थानों पर किसी साधारण से साधारण भय के कारण उपस्थित होते ही कोई प्राणी एकदम काँपने लगता है, उसकी बोली बन्द हो जाती है या वह हकला-हकला कर बोलने लगता है, यह सब भय नोकषाय का ही प्रभाव है । (व.चा.4ा86)
प्रश्न-जुगुप्सा नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से अपने दोषों का संवरण (ढकना) और पर के दोषों का आविष्करण होता है वह जुगुप्सा है। (सर्वा. ८१९ जिस कर्म के उदय से ग्लानि होती है उसकी जुगुप्सा यह संज्ञा है । (ध. ६१६
प्रश्न-जुगुप्सा नोकषायवाले के क्या चिह हैं?
उत्तर-जो पुण्यहीन व्यक्ति पाँचों इन्द्रियों के परम-प्रिय भोगों और उपभोगों को प्राप्त करके भी उनसे मृणा करता है या ग्लानि का अनुभव करता है समझिये उसे जुगुप्सा नोकषाय ने जोरों से दबा रखा है । (व.चा.4)
प्रश्न-क्या ऐसे कोई भय-जुगुप्सा वाले हैं जिनके सामायिक छेदोपस्थापना संयमनहो?
उत्तर- ही, पहले गुणस्थान से पाँचवें गुणस्थान तक के भय-जुगुप्सा वाले जीवों के सामायिक- छेदोपस्थापना संयम नहीं होता है । परिहारविशुद्धि संयमी भय-जुगुप्सा वालों के भी सामायिक-छेदोपस्थापना संयम नहीं होता है । क्योंकि एक समय में एक ही संयम ह भय- नोकषाय के उदय वाले चसुदर्शनी जीवों के कितने जीवसमाम होते हैं? भय-नोकषाय के उदय वाले चखुदर्शनी जीवों के तीन जीवसमास होते हैं – चतुरिन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय और सैनी पंचेन्द्रिय ।
प्रश्न-जुगुप्सा के उदय वालों के कितनी संज्ञाओं का अभाव हो सकता है?
उत्तर-जुगुप्सा के उदय वालों के एक संज्ञा का अभाव हो सकता है – आहारसंज्ञा का ।
प्रश्न-भय-जुगुप्सा वालों के कम-से- कम कितनी संज्ञा हो सकती है?
उत्तर-परिग्रह संज्ञा । ये तीन संज्ञाएँ 7 वें तथा 8 वें गुणस्थान वालों की अपेक्षा जानना चाहिए ।
प्रश्न-भय- जुगुप्सा के साथ अभव्य जीवों के कौनसे ध्यान नहीं हो सकते हैं?
उत्तर-भय-जुगुप्सा के साथ अभव्य जीवों के 5 ध्यान नहीं हो सकते हैं – 4 धर्मध्यान तथा 1 शुक्लध्यान (पृथक्लवितर्कविचार) शेष शुक्ल ध्यान कवायातीत जीवों के ही होते हैं । भय- जुगुप्सा वाले असैनी जीवों के कम-से- कम कितने आसव के प्रत्यय होते ई? भय-जुगुप्सा वाले असैनी जीवों के कम-से-कम आसव के 36 प्रत्यय हो सकते हैं – 5 मिथ्यात्व, 7 अविरति, 23 कषाय तथा 1 योग । अथवा 7 अविरति, 23 कषाय तथा 1 योग ८31 । जो आचार्य एकेन्द्रिय जीवों के दूसरा गुणस्थान मानते है उनकी अपेक्षा आसव के 31 प्रत्यय बन जाते हैं । ये आसव के प्रत्यय पर्यातक अवस्था में नहीं होंगे क्योंकि पर्याप्त होने के पहले ही दूसरा गुणस्थान छूट जायेगा । 24 स्थानों में से किन स्थानों के सभी उत्तर भेद भय- जुगुप्सा में पाये जाते हैं? 24 स्थानों में से 18 स्थानों के सभी उत्तर भेद भय-लुगुप्सा में पाये जाते हैं – ( 1) गति (2) इन्द्रिय (3) काय (4) योग ( 5) वेद (6) कषाय (7) लेश्या ( 8) भव्य (9) सन्युक्ल ( 1०) संज्ञी ( 11) आहार ( 12) जीवसमास ( 13) पर्याप्ति ( 14) प्राण 15 सज्ञा 16 आसव ० प्रत्यय 1718 कुल ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके भय- जुगुप्सा सम्बन्धी आसव के प्रत्यय नहीं ?
उत्तर-ही, आठवें गुणस्थान के आगे तो भय- जुगुप्सा सम्बन्धी आसव के प्रत्यय ही नहीं है ० जिन जीवों के भय-जुगुप्सा का उदय नहीं होता है उनके भी भय-जुगुप्सा नोकषाय एन के प्रत्यय नहीं बनते हैं अर्थात् भय-जुगुप्सा सम्बन्धी आसव नहीं है । तालिका संख्या 31 1 2 3 4 5 6- 7 8 9. 1 Z 11 12 13 14 15 16 1 ७.. 18. 19. 2०. ‘?. 22. 2? 4? : स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान तु लेश्या भव्य सुस्सम्बक्ल आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण संज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति संख्या 14 लाक कषायातान जाव- कि-……… मनुष्यगति पंचेन्द्रिय त्रस ४.. व. का. मधुअमकेव. यथाख्यात चअचअवकेवल शुस्ल भव्य क्षायि.उप. सैनी आहारक,अनाहारक प्यारहवें से चौदहवें न सैनी पंचेन्द्रिय आशइश्वाभाम. 5 इ. 3 ब. श्वाआ. 5 ज्ञानो. 4 दर्शनो. चारों शुक्लध्यान थम. व. का. मनुष्य सम्बन्धी धान्य- सम्बन्धी कषायात।ईत जीव किक्रे -त्रे ‘2 विशेष गति रहित जीव भी होते हैं । इन्द्रियातीत जीव भी होते हैं । कायातीत जीव भी होते हैं । योगातीत जीव भी होते हैं । कुशान नहीं होते हैं। लेश्यातीत जीव भी होते हैं । भव्याभव्य से रहित भी होते हैं । सैनी- असैनी से रहित जीव भी होते हैं । गुणस्थानहि।त जीव भी होते हैं। जीव समास रहित जीव भी होते हैं। पर्याप्ति रहित जीव भी होते हैं। प्राणातीत जीव भी होते हैं। ध्यानातीत जीव भी होते हैं । औदारिकद्विक तथा कार्मण काययोग जाति रहित जीव भी होते हैं । कुल रहित जीव भी होते हैं । 8 जिनके स्वय को, दूसरों को तथा दोनों को ही बाधा देने और बन्धन करने तथा असयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं हैं तथा जो बाह्य- अध्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय (ककयातीत) जीव कहते हैं । ग्यारहवें गुणस्थान वाले व इसके आगे सभी जीव अकषायी हैं । (गो. जी. 289 (ग्यारहवें आदि गुणस्थानवर्ती जीवों को)
प्रश्न-अकषायी जीवों को अमल किस अपेक्षा कहा गया है?
उत्तर-अकषायी जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म इन तीनों कर्ममलों से रहित हैं, यह सिद्धों की अपेक्षा कथन है । अथवा जो भावकर्म मल से रहित हैं वे अमल हैं, यह कथन ग्यारहवें आदि गुणस्थानों की अपेक्षा है । ( गो. जी. 289 मप्र.)
प्रश्न-ग्यारहवें गुणस्थान वाले अकषायी कैसे हो सकते हैं क्योंकि उनके द्रव्यकषाय का सद्भाव पाया जाता है?
उत्तर-ग्यारहवें गुणस्थान वालों को अकषायी कहने का कारण उनके कषाय के उदय का अभाव कहा गया है । सत्ता में तो उनके कषायें रहती ही हैं ।
प्रश्न-क्या अकषायी जीव पुन: कषायवान बन सकते हैं?
उत्तर-ही, उपशम श्रेणी वाले जीव जब ग्यारहवें गुणस्थान में अकषायी हो जाते हैं वे जब वहाँ से गिरकर दसवें आदि गुणस्थानों में आते हैं तब पुन: कषायवान हो जाते है ।
प्रश्न-अकषायी जीवों के उपशम तथा क्षायिक सम्य? किन गुणस्थानों में पाये जाते ई?
उत्तर-अकषायी जीवों के उपशम सम्बक्ल केवल ग्यारहवें गुणस्थान में होता है तथा क्षायिक सम्बक्ल उपशम श्रेणी की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान में तथा क्षपक श्रेणी की अपेक्षा बारहवें में और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान वालों के होता है । सिद्ध भगवान के भी क्षायिक सम्बक्ल होता है ।
प्रश्न-सैनी- असैनी से रहित अकषायी जीव कौन- कौन से हैं?
उत्तर-सैनी-असैनी से रहित अकषायी जीव – तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिनेन्द्र देव तथा सिद्ध भगवान हैं ।
प्रश्न-कौन-कौन से गुणस्थान वाले अकषायी होते हैं?
उत्तर-उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोग-केवली और अयोग केवली इन चार गुणस्थानों में कषायरहित जीव होते हैं ।
प्रश्न-अकषायी जीवों के कितने ज्ञान हो सकते हैं?
उत्तर-अकषायी जीवों के कम-से-कम एक ज्ञान हो सकता है – केवलज्ञान तथा अधिक से अधिक एक जीव के एक साथ चार ज्ञान हो सकते हैं – मति, खुल, अवधि तथा मनःपर्ययज्ञान नाना जीवों की अपेक्षा अकषायी जीवों के पाँचों ज्ञान भी हो सकते हैं ।
प्रश्न-लेश्यातीत अकषायी जीव कौन-कौन से हैं?
उत्तर-लेश्यातीत अकषायी जीव – चौदहवें गुणस्थान वाले तथा सिद्ध भगवान हैं । – समुच्चय प्रश्नोत्तर –
प्रश्न-कषायों में योगमार्गणा किस प्रकार लगानी चाहिए?
उत्तर-कषायों में योगों का विवेचन : . 1० कषायों में – अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यान चतुष्क, स्त्रीवेद एवं नपुंसक वेद में तेरह योग – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, औदारिकद्बिक, वैक्रियिकद्विक तथा कार्मण । . प्रत्याख्यानावरण चतुष्क में नौ योग – 4 मनो. 4 वच. तथा 1 औदारिक काययोग । . सज्वलन चतुष्क में 11 योग – 4 मनो. 4 वच. औदारिक काययोग एवं आहारकद्बिक काययोग । . हास्यादि छह तथा पुरुषवेद में 15 योग – 4 मनी. 4 वच. 7 काययोग ।
प्रश्न-कौनसी कषायों में सभी योग होते हैं?
उत्तर-सात नोकषायों में सभी योग होते हैं – हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा तथा पुरुषवेद ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने ज्ञान हो सकते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम दो ज्ञान होते हैं – मातज्ञान, श्रुतज्ञान अथवा कुमति, कुश्रुत तथा अधिक-से-अधिक 7 ज्ञान होते हैं- मतिज्ञान, हतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, कुमति, कुहत, विभंगावधि ।
प्रश्न-कषाय में संयम मार्गणा का एक ही भेद होता है?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी चौकड़ी तथा अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क में एक संयम – असंयम; प्रत्याख्यानावरण चौकड़ी में एक संयम – सयमासैयम ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने संयम होते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम एक सयम होता है – सूक्ष्मसाम्पराय – दसवें गुणस्थान की अपेक्षा । अथवा – संयमासंयम – पंचम गुणस्थान की अपेक्षा । असयम – प्रथम से चौथे गुणस्थान की अपेक्षा । कषायवान जीवों के अधिक-से- अधिक 6 संयम हो सकते हैं – सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, त्त्व साम्पराय, संयमासंयम तथा असंयम । यथाख्यातसयम कषायवान जीवों के नहीं होता है ।
प्रश्न-किस कषाय में सबसे ज्यादा संयम होते हैं?
उत्तर-संज्वलन लोभ में 4 सयम होते हैं – सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि तथा ख्तसाम्पराय संयम । अथवा हास्यादि 6 नोकषायों एव पुरुष वेद में 5 सयम होते हैं। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सयमासयम और असयम ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने दर्शन होते हैं?
उत्तर-कवायवान जीवों के कम से कम एक दर्शन होता है – अचक्षु दर्शन (एकेन्द्रिय से लेकर त्रीन्द्रिय जीवों तक होता है) । तथा अधिक- से- अधिक तीन दर्शन हो सकते हैं – चखुदर्शन, अचखुदर्शन, अवधिदर्शन ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने सभ्य? हो सकते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम 1 सम्बक्म होता है- क्षायिक सम्बक्ल – क्षपक श्रेणी की अपेक्षा । (आठवें से दसवें गुणस्थान तक) अथवा – कषायवान जीवों के दो सम्यक हो सकते हैं – उपशम और क्षायिक (आठ वें से दसवें गुणस्थान तक की अपेक्षा) अथवा – अनन्तानुबन्धी कषाय की अपेक्षा दो सम्बक्ल हैं – मिथ्यात्व और सासादन । कषायवान जीवों के अधिक-से-अधिक सभी (छह) सम्बक्ल हैं क्योंकि पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक कषायवान जीव पाये जाते है ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कम-से- कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम तीन प्राण होते हैं – 1 इन्द्रिय (स्पर्शन) 1 कायबल, 1 आयु । ये 3 प्राण एकेन्द्रिय जीवों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में या लब्ध्यपर्यातक की अपेक्षा कहे गये हैं ।
प्रश्न-अकषाया जावा क प्राण होते हैं?
उत्तर-अकषायी जीवों के ग्यारहवें व बारहवें गुणस्थान की अपेक्षा अधिक-से-अधिक दस प्राण होते हैं तथा चौदहवें गुणस्थान में कम-से-कम एक प्राण-आयु प्राण होता है ।
प्रश्न-ऐसे कौन-कौनसे ज्ञानोपयोग हैं जो अकषायी अथवा कषायवान जीवों के ही होते है?
उत्तर-दो उपयोग ऐसे हैं जो अकषायी जीवों के ही होते हैं – केवलज्ञानोपयोग तथा केवलदर्शनोपयोग । तीन उपयोग ऐसे हैं जो केवल कषायवान जीवों के ही होते हैं – कुमतिज्ञानोपयोग, कुसुतज्ञानोपयोग, विभगज्ञानोपयोग
प्रश्न-ऐसे कौन-कौन से उपयोग हैं जो अकषायी और कषायवान दोनों जीवों के होते ई?
उत्तर-7 उपयोग अकषायी एवं कषायवान दोनों के होते हैं -. 4 ज्ञानोपयोग – मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग तथा मनःपर्यय ज्ञानोपयोग । 3 दर्शनोपयोग – चक्षुदर्शनोपयोग, अचक्षुदर्शनोपयोग, अवधिदर्शनोपयोग ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने ध्यान पाये जाते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के तेरह ध्यान पाये जाते हैं – 4 आर्त्तध्यान – इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान । 4 रौद्रध्यान – हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द, परिग्रहानन्द । 4 धर्मध्यान – आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय । 1 शुक्लध्यान – पृथक्त्ववितर्कवीचार ।
प्रश्न:1ज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-जो जानता है वह ज्ञान है । जिसके द्वारा जाना’ जाता है वह ज्ञान है, जानना मात्र ज्ञान है । जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक भूत- भविष्यत् वर्तमान काल सम्बन्धी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते है । (ग
प्रश्न:2ज्ञान कितने प्रकार का होता है?
उत्तर-ज्ञान दो प्रकार का होता है –
( 1) सम्यग्ज्ञान ( 2) मिथ्याज्ञान
( 1) ज्ञान ( 2) अज्ञान
( 1) ज्ञान ( 2) कुज्ञान
( 1) प्रत्यक्षज्ञान ( 2) परोक्ष ज्ञान
प्रश्न:3सम्यग्ज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर--जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं उस-उस प्रकार से उनको जानना सम्यग्ज्ञान है । (सर्वा.) नय और प्रमाण के विकल्प पूर्वक जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान हे । (रा. वा.) जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित तथा अधिकता रहित, विपरीतता रहित, जैसा का तैसा, सन्देह रहित जानता है उसको आगम के ज्ञाता पुरुष
प्रश्न:4सम्यग्ज्ञान कहते ??
उत्तर-– अन्नमनतिरिक्त याथातर्थ्य विना च विपरीतात् ।
निःसंदेहं वेदयदाहुस्तज्जानमागमिन: । ।
प्रश्न:5मिथ्याज्ञान? कुज्ञान? अज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर--जो वस्तु के स्वभाव को नहीं पहचानता है अथवा उल्टा पहिचानता है या निरपेक्ष पहिचानता है वह मिथ्याज्ञान है ।
प्रश्न:6प्रत्यक्षज्ञान किसे कहते हैं?
इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना सिर्फ आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं ” विशदं प्रत्यक्षं’ ‘ विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हें |
प्रश्न:7कौन-कौन से ज्ञान प्रत्यक्ष हैं?
उत्तर--प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार के हैं – ( 1) देशप्रत्यक्ष – अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा विभंगावधि ( 2) सकलप्रत्यक्ष – केवलज्ञान
तालिका संख्या
स्थान गति
इन्द्रिय काय
योग
वेद
कषाय ज्ञान
सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल संज्ञी
आहार गुणस्थान
पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति
कुमति कुश्रुत ज्ञान
1. प्रश्न : मति अज्ञान (कुमति
विवरण
नतिमदे.
ए-द्वीत्रीचतुप.
5 स्थावर 1 त्रस यम. व. का. सीपुनपुं.
16 कषा. 9 नोक. स्वकीय
असयम
चक्षुअच.
कृनीकापीपशु. भव्य, अभव्य
सासादन, मिथ्यात्व सैनी, असैनी
आहारक, अनाहारक प्रथम, द्वितीय
14 स्थावर ‘5 त्रस आशइश्वाभाम. ५.. ब. श्वाआ. आभमैपरि.
1 ज्ञानों. 2 दर्शनो. वैआ. बरही.
मि. अवि.25क. 1 यो चारों गति सम्बन्धी
चारों गति सम्बन्धी
ज्ञान) किसे कहते है?
विशेष
आहारकद्विक नहीं है ।
कुमति ज्ञान में कुमतिशान
अवधि तथा केवलदर्शन नहीं है
धर्म तथा शुक्ल ध्यान नहीं होते हैं ।
उत्तर : परोपदेश के बिना जो विष, यंत्र, कूट, पंजर तथा बन्ध आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको ज्ञानी जीव मत्यज्ञान कहते हैं । (गोजी. 303)
जिसको खाने से जीव मर जाये, उस द्रव्य को विष कहते हैं ।
भीतर पैर रखते ही जिसके किवाड़ बन्द हो जायें और जिसके भीतर बकरी आदि को बाँध कर पकड़ा जाता है उसको यत्र कहते हैं ।
जिससे चूहे आदि पकड़े जाते हैं उसे कूट कहते हैं ।
रस्सी में गाँठ लगाकर जो जाल बनाया जाता है, उसे पंजर कहते हैं ।
हाथी आदि को पकड़ने के लिए जो गड्ढे आदि बनाये जाते हैं, उनको बन्ध कहते हैं । (गो. जी. 3०3)
कुश्रुत ज्ञान किसे कहते हैं?
चौर शास्त्र तथा हिंसा शास्त्र आदि के परमार्थ शून्य अतएव अनादरणीय उपदेशों को कुश्रुतज्ञान कहते हैं । आदि शब्द से हिंसादि पाप कर्मों के विधायक तथा असमीचीन तत्व के प्रतिपादक ग्रन्थों को कुश्रुत और उनके ज्ञान को कुश्रुतज्ञान समझना चाहिए । (गो. जी. 3०4) कुमति आदि ज्ञानों को अज्ञान क्यों कहा है?
मति, सुत और अवधिज्ञान, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी का उदय होने पर अज्ञान हो जाते हैं । (गो. जी. 3०1)
तत्वार्थ में रुचि, निश्चय, श्रद्धा और चारित्र का धारण करना ज्ञान का कार्य है, यह कार्य मिथ्यादृष्टि जीव में नहीं पाया जाता है, इसलिए उसके ज्ञान को अज्ञान कहा है ।
रुचि – इच्छा प्रकट करना ।
निश्चय – स्वरूप का निर्णय करना ।
श्रद्धा – निर्णय से चलायमान न होना ।
क्या कोई ऐसा कुश्रुतज्ञानी है जिसके चसुदर्शन नहीं होता है?
ही, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय जीवों के ल्श्तज्ञान होता है लेकिन चखुदर्शन नहीं होता है । यद्यपि तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में भी चखुदर्शन नहीं होता है परन्तु उनके कुश्रुतज्ञान नहीं होता है ।
कुश्रुतलानी त्रम जीवों के कितने प्राण होते हैं?
कुश्रुतशानी त्रस जीवों के कम से कम चार प्राण होते हैं ।
2 इन्द्रिय, 1 बल, 1 आयु
ये चार प्राण द्वीन्द्रिय जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक अथवा लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में होते
ज्ञान मार्गणा. 185
हैं । तथा अधिक-से-अधिक 1० प्राण होते हैं –
5 इन्द्रिय, 3 बल, श्वासो, आयु
ये दस प्राण सैनी पंचेन्द्रिय जीवों के होते हैं ।
कुमतिज्ञानी पुरुषवेदी के कितनी पर्याप्तियों होती हैं?
कुमतिज्ञानी पुरुषवेदी के कम-से-कम 5 पर्याप्तियाँ होती हैं –
आ., श., इ., श्वासो. तथा भाषा ।
ये पाँच पर्याप्तियाँ असैनी पंचेन्द्रिय (गर्भज) के होती हैं तथा अधिक से अधिक 6 पर्याप्तियाँ होती हैं । 6 पर्याप्तियाँ सैनी पंचेन्द्रिय जीवों के होती हैं ।
क्या कुमतिज्ञानी मुनि के भी अविरति सम्बन्धी आसव के प्रत्यय होते है? ही, कुमतिशानी मुनि के भी अविरति सम्बन्धी आसव के प्रत्यय होते ही हैं क्योंकि बाह्य में अहिंसा आदि का पालन करने से अविरति सम्बन्धी आसव नहीं रुकता है । अविरति सम्बन्धी आसव को रोकने के लिए तीन चौकड़ी कषाय के उदय का अभाव होना आवश्यक है । त्रस सम्बन्धी अविरति से बचने के लिए भी दो चौकड़ी कषाय का उदयाभाव होना ही चाहिए । कुमतिज्ञानी मुनि के दोनों ही अविरतियों का अभाव नहीं होता इसलिए अविरति सम्बन्धी आस्रवों का भी अभाव नहीं हो सकता है ।
कुमतिज्ञानी जीव के 24 स्थानों में से किस- किस स्थान के सभी भेद हो सकते हैं?
कुमतिज्ञानी जीवों के 24 स्थानों में से 15 स्थानों के सभी भेद हो सकते हैं –
( 1) गति (2) इन्द्रिय ( 3) काय ( 4) वेद ( 5) कषाय (6) लेश्या (7) भव्य ( 8) संज्ञी (9) आहारक ( 1०) जीवसमास ( 11) पर्याप्ति ( 12) प्राण ( 13) संज्ञा ( 14) जाति ( 15) कुल ।
तालिका संख्या 33
स्थान गति इन्द्रिय काय योग
वेद
कषाय
ज्ञान
‘ सयम
दर्शन
लेश्या भव्यत्व
सम्बक्ल संज्ञी
आहार ‘ गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति
प्राण
संज्ञा
उपयोग
ध्यान
आसव
1. प्रश्न : उत्तर :
2 -ला 1
कुअवधि ज्ञान
नतिमदे.
पंचेन्द्रिय
त्रस
म. व. 2 का
सी. पु. नई.
16 क. 9 नोकवाय स्वकीय
असंयम
चक्षु. अचक्षु.
कृ. नी. का. पी. प. शु. भव्य, अभव्य
. सासादन, मिथ्यात्व सैनी
आहारक
मिथ्यात्व, सासादन सैनी पंचानय
आ. श. इ. श्व!. भा. म. 5 इन्द्रिय 3 ब. श्वा. आयु. आ. भ. मै. पीर.
1 ज्ञानो. 2 दर्शनो.
4 आ. 4 री.
मि. अवि. क. 1 ०यो पंचेन्द्रिय सम्बन्धी
1 ०ट्ट -लाक. पंचेन्द्रिय सम्बन्धी
विशेष
औदारिक व वैक्रियिक काय योग होता है ।
कुअवधिज्ञान
असैनी जीव नहीं है
कुअवधिज्ञान किसे कहते हैं?
मिथ्यादृष्टि जीव के अवधि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा को लिये हुए रूपी द्रव्य को विषय करने वाला किन्तु देव-शास्र और
ज्ञान मार्गणा. 187
पदार्थों में विपरीत रूप से ग्रहण करने वाला अवधिज्ञान केवलज्ञानियों के द्वारा प्रतिपादित आगम में विभंग कहा जाता है । ‘ वि’ अर्थात् विशिष्ट अवधिज्ञान का शो अर्थात् विपर्यय विभंग है, यह निरुक्ति सिद्ध अर्थ भी है । (गो. जी. जी. 3०5) अवधिज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मों के क्षयोपशम से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादायुक्त मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान को विभंगावधि ज्ञान कहते हैं । यही कुअवधिज्ञान है ।
अवधिज्ञान उल्टा क्यों होता है?
अवधिज्ञान विभंग या उल्टा इसलिए होता है कि इसके द्वारा जाना गया रूपी पदार्थों का स्वरूप सच्चे देव, गुरु और आगम के विपरीत होता है । तीव्र कायक्लेश के निमित्त से उत्पन्न होने से तिर्यब्ज और मनुष्यों में गुणप्रत्यय व देवनारकियों में भवप्रत्यय होता है । जीव को पहले विभंगावधि ज्ञान होता है या अवधिज्ञान?
यदि सम्यग्दृष्टि को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो पहले अवधिज्ञान होता है और यदि उसके मिथ्यात्व का उदय आ जावे तो वही अवधिज्ञान विभंगावधि में परिवर्तित हो जाता है । यदि मिथ्यादृष्टि को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो विभंगावधि ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जावे तो वही विभंगावधि अवधिज्ञान में बदल जाता है । विभगज्ञानियों के सम्बक्ल आदि के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिट कर नाभि के ऊपर शख आदि शुभ आकार हो जाते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार अवधिज्ञान से लौट कर प्राप्त हुए विभगज्ञानियों के भी शुभ सस्थान मिट कर अशुभ संस्थान हो जाते हैं, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । (ध. 137 मे 98)
मिथ्यादृष्टि के दोनों (कुमति- कुश्रुत) भले ही अज्ञान होवें, क्योंकि वहाँ मिथ्यात्व का उदय पाया जाता है लेकिन सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है इसलिए वहाँ ये अज्ञान नहीं होने चाहिए?
नहीं, क्योंकि विपरीताभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं और वह मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है । सासादन गुणस्थान में वह पाया ही जाता है इसलिए सासादन गुणस्थान में भी वे दोनों अज्ञान सम्भव हैं । (इसी प्रकार विभंगावधि को भी जानना चाहिए) मिथ्यात्व का उदय नहीं होने पर भी अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होने से तीनों ज्ञान अज्ञान रूप ही होते हैं । (रा. वा. 971)
विपरीताभिनिवेश (विपर्यय) किसे कहते हैं?
विपर्यय शब्द का अर्थ मिथ्या है । वह विपर्यय तीन प्रकार का है –
चउबीस ठाणा -मैं? 188
( 1) संशय (2) विपर्यय ( 3) अनव्यवसाय ।
संशय – विपरीत अनेक पक्षों के अवगाहन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं, जैसे- स्थाणु है या पुरुष ।
विपर्यय – विपरीत एक पक्ष का निश्चय करने वाला ज्ञान विपर्यय है जैसे-सीप में यह चाँदी है । इस प्रकार का ज्ञान होना ।
अनष्यवसाय – ” यह क्या है’ ‘ इस प्रकार जो आलोचन मात्र होता है उसको अनध्यवसाय कहते हैं । (न्यादी. 1 ‘ 9)
कुअवधिज्ञान में कौन-कौन से योग नहीं होते हैं?
कुअवधिज्ञान में 5 योग नहीं होते हैं –
औदारिक मिश्र, बैक्रियिक मिश्र, आहारकद्विक तथा कार्मण काययोग ।
अनाहारक अवस्था में कुअवधिज्ञान क्यों नहीं होता है?
कुअवधिज्ञान पर्याप्तकों के ही होता है, अपर्याप्तकों के नहीं होता है । ४. ‘ 363) असंज्ञी और अपर्याप्तकों के यह सामर्थ्य नहीं है । (सर्वा. 1? 22) इसलिए अनाहारक अवस्था में कुअवधिज्ञान नहीं होता है ।
क्या विभंगावधि ज्ञान में भी छहों लेश्याएँ होती हैं?
ही, विभंगावधि ज्ञानी के भी छहों लेश्याएँ होती हैं –
. नारकियों की अपेक्षा – तीन अशुभ लेश्याएँ ।
. देवों की अपेक्षा – तीन शुभ लेश्याएँ ।
. भोगभूमिया जीवों की अपेक्षा – तीन शुभ लेश्याएँ ।
. कर्मभूमिया मनुष्य तिर्यंच की अपेक्षा – छहों लेश्याएँ ।
कुअवधिज्ञानी जीव के 24 स्थानों में से किस- किस स्थान के सभी भेद नहीं हो सकते हैं?
कुअवधिज्ञानी जीव के 24 स्थानों में से 16 स्थान के सभी भेद नहीं पाये जाते हैं – ( 1) इन्द्रिय (2) काय ( 3) योग (4) ज्ञान (5) संयम (6) दर्शन (7) सभ्यक्ल (8) संज्ञी (9) आहारक ( 1०) गुणस्थान ( 11) जीवसमास ( 12) उपयोग ( 13) ध्यान ( 14) आसव के प्रत्यय ( 15) जाति ( 16) कुल ।
९ज्ञान मार्गणा? 189
तालका सख्या 34
स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद
कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल
संज्ञी
आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति
प्राण
संज्ञा
उपयोग
ध्यान
मति सुत अवधिज्ञान
विशेष
नतिमदे.
पंचेन्द्रिय एकेन्द्रिय आदि चार इन्द्रिय नहीं हैं। त्रस
4 म. 4 व. 7 का.
सीपुनपु.
12 क. 9 नोक.
? स्वकीय मतिज्ञान में मतिज्ञान………
साछेपसूयसंयअस.
चअचअव. केवलदर्शन नहीं है
कृनीकापीपशु.
भव्य
क्षाक्षयोउप. मिथ्यात्व, सासादन और
सभ्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं।
सैनी
आहारक, अनाहारक
चौथे से बारहवें तक
सैनी पंचेन्द्रिय
आशइश्वाभाम.
5 इन्द्रिय, 3 बल. श्वाआ.
आभमैप.
. 1 ज्ञानो. 3 दर्शनो.
आ. बर., ४४. .शुक्ल ख्तक्रियाप्रतिपाती तथा स्युपरतक्रिया निवृत्ति ध्यान नहीं हैं।
48 १२३. 2 क. 1 यो
जाति 26 लाख पंचेन्द्रिय सम्बन्धी
कुल 1०8 – ला.क. पंचेन्द्रिय सम्बन्धी
: मातेंज्ञान किसे कहते हैं?
: इन्द्रिय और मन के निमित्त से शब्द, रस, स्पर्श, रूप और गन्ध आदि विषयों में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । ( ज. ध. 1 ?? 42)
मतिज्ञानावरण एव वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से तथा बहिरंग पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से मूर्त-अमूर्त वस्तुओं का जो एकदेश से, विकल्पाकार परोक्ष रूप से अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । ३- द्रसै. टी. 5)
मतिज्ञान कितने प्रकार का होता है?
मतिज्ञान 4 प्रकार का होता है – अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अथवा
मतिज्ञान 336 प्रकार का होता है –
अवग्रह के 12० ( 72 अर्थावग्रह. 48 व्यञ्जनावग्रह)
ईहा 72, अवाय 72, धारणा 72 यानी
12०. 72. 72. 72८336 ।
अवग्रह – पाँच इन्द्रिय तथा मन की सहायता से दर्शन के पश्चात् जो सामान्य अवलोकन होता है, वह अवग्रह है ।
ईहा – अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं । अवाय – पदार्थों का निर्णय करना अवाय है ।
धारणा – निर्णीत पदार्थ को भविष्य में नहीं भूलना धारणा है । लि. सू 1? 15 – 19) नोट – विशेष तत्वार्थफ्ट की टीकाओं में देखें ।
श्रुतज्ञान किसे कहते हैं?
जो परोक्ष रूप से सम्पूर्ण वस्तुओं को अनेकान्त रूप दर्शाता है, सशय, विपर्यय आदि से रहित है, उस ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । (का. अ. 262)
श्रुतशानावरण कर्म के क्षयोपशम से नोइन्द्रिय के अवलम्बन से तथा प्रकाश, उपाध्याय आदि बहिरंग सहकारी कारण से जो मूर्त्तिक-अमूर्त्तिक वस्तु को, लोक तथा अलोक को व्याप्ति ज्ञान रूप से अस्पष्ट जानता है, उसको श्रुतज्ञान कहते हैं । ३- द्रर्स. टी. 5) श्रुतज्ञान कितने प्रकार का होता है?
श्रुतज्ञान दो प्रकार का होता है- 1. अंगबाह्य 2. अंगप्रविष्ट । अंगबाह्य श्रुतज्ञान अनेक प्रकार का है तथा अंगप्रविष्ट आचारोग आदि के भेद से 12 प्रकार का होता है । (त. सु 1 ‘ 2०)
ज्ञान मलण’. 191
३
5. प्रश्न
अवधिज्ञान किसे कहते हैं?
अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो मूर्त पदार्थों को एकदेशप्रत्यक्ष जानता है वह अवधिज्ञान है । २- द्रसै. टी. 5)
जो प्रत्यक्ष ज्ञान अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त परमाणु आदि पूर्घ द्रव्यों को जानता है उसको अवधिज्ञान जानना चाहिए । (ति. प. 4 ‘ 981) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके विकल्प से अनेक प्रकार के पुद्गल द्रव्य को जो प्रत्यक्ष जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं । (य. 17 93)
अवधिज्ञान कितने प्रकार का होता है?
अवधिज्ञान दो प्रकार का है – ( 1) भवप्रत्यय अवधिज्ञान ( 2) गुणप्रत्यय 7 क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान ।
अथवा अवधिज्ञान के तीन भेद हैं – ( 1) देशावधि ( 2) परमावधि ( 3) सर्वावधि भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव-नारकियों के होता है । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य – तिर्यच्चों के होता है ।
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेद हैं –
( 1) अनुगामी (2) अननुगामी (3) वर्धमान ( 4) हीयमान ( 5) अवस्थित (6) अनवस्थित । त्, भू 1? 21 – 22)
मतिश्रुत ज्ञान में योगमार्गणा किस प्रकार लगानी चाहिए?
मतिश्रुत ज्ञान में योगमार्गणा : मति सुत ज्ञानियों के सामान्य से पन्द्रह योग होते हैं । चतुर्थ गुणस्थानवतीं मतिभुतज्ञानी के 13 योग होते हैं । पचम गुणस्थानवर्ती मतिश्रुतज्ञानी के 9 योग होते हैं । छठे गुणस्थानवर्ती मतिश्रुतज्ञानी के 11 योग होते हैं और सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थानवर्ती मतिसुतज्ञानी के 9 योग होते हैं ।
क्या सभी त्रम जीवों के मति आदि ज्ञान होते हैं?
नहीं, केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि त्रस जीवों के ही मति सुतादि ज्ञान होते है अन्य द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों के नहीं, क्योंकि उनको सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है । विशिष्ट सम्बक्ल ही अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण है । इसलिए सभी सम्यग्दृष्टि तिर्यब्ज और मनुष्यों में अवधिज्ञान नहीं होता है । ७. सत् प्र. 12० लू)
मति- भुत ज्ञानी जीवों के सामायिक संयम कहाँ-कहाँ नहीं पाया जाता है?
मति- सुत ज्ञानी जीवों के 5 गुणस्थानों में सामायिक सयम नहीं पाया जाता है – चौथा, पाँचवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं ।
13. प्रश्न उत्तर
क्या ऐसे कोई मति- भुत ज्ञानी हैं जिनके कापोत लेश्या ही पाई जाती है?
ही, ऐसे मति- सुत ज्ञानी जीव भी हैं जिनके कापोत लेश्या ही पाई जाती है –
( 1) प्रथम एवं दूसरे नरक के मति- सुलतानी नारकियों के तथा तीसरे नरक में जहाँ तक कापोत लेश्या पाई जाती है ।
(2) तीसरे नरक में स्थित तीर्थंकर प्रकृति वाले मति-भूत ज्ञानी जीवों के ।
(3) मतिश्रुत ज्ञानी (कृतकृत्यवेदक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि) मनुष्य जब भोगभूमि में जाते हैं तब उनकी निर्वृत्यपर्यासक अवस्था में ।
क्या ऐसे कोई अवधिज्ञानी जीव हैं जिनके कृष्ण लेश्या भी पाई जाती है? ही, ऐसे अवधिज्ञानी जीव भी हैं जिनके कृष्ण लेश्या भी पाई जाती है –
( 1) पाँचवें नरक के अवधिज्ञानी जीव ।
(2) कर्म-भूमिया तिर्यज्व-मनुष्य ।
(3) जो आचार्य छठे गुणस्थान तक छहों लेश्याएँ मानते हैं उनकी अपेक्षा चौथे, पाँचवें गुणस्थानवर्ती अवधिज्ञानी तिर्यब्ज-मनुष्य तथा छठे गुणस्थानवर्ती अवधिज्ञानी मनुष्यों के भी कृष्ण लेश्या हो सकती है ।
अवधिज्ञानी जीवों के कौन- कौन सा सम्य? कहाँ- कहाँ पाया जाता है?
अवधिज्ञानी जीवों के – 1. क्षायिक सम्बक्ल – चौथे से बारहवें तक
2. क्षायोपशमिक सम्बक्ल – चौथे से सातवें तक
3. उपशम सम्बक्ल – चौथे गुणस्थान से 11 वें तक ।
सम्बक्ल – मार्गणा के शेष मिथ्यात्वादि भेद अवधिज्ञानी जीवों के नहीं होते हैं ।
क्या कोई ऐसे अवधिज्ञानी जीव हैं जिनके अनाहारक अवस्था नहीं होती?
ही, ऐसे अवधिज्ञानी जीव भी हैं जिनके अनाहारक अवस्था नहीं होती है –
( 1) तद्भव मोक्षगामी जीवों के ।
(2) सर्वावधि ज्ञानी एश्वं परमावधि ज्ञानी मुनिराज के ।
( 3) क्षपक श्रेणी में स्थित अवधिज्ञानी जीवों के ।
(4) प्रथमोपशम सम्बक्च वाले अवधिज्ञानी जीवों के ।
नोट – यद्यपि तद्भव मोक्षगामी जीवों के अनाहारक अवस्था होती है लेकिन अवधिज्ञान के साथ नहीं होती, केवलज्ञान के साथ होती है ।
ज्ञान मार्गणा? 193
ं
.प्रश्न उत्तर
15. प्रश्न उत्तर
16. प्रश्न
क्या मति- धुत ज्ञानी जीवों के परिग्रह संज्ञा का भी अभाव हो सकता है?
ही, मति-मृत ज्ञानी जीव भी जब दसवें गुणस्थान को पार करके ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है, तब उसके परिग्रह सज्ञा का भी अभाव हो जाता है ।
मति- भुत ज्ञानी जीव के कौन-कौन सी जातियाँ नहीं होती हैं –
मति सुतज्ञानी जीव के अट्ठावन लाख जातियाँ नहीं होती हैं –
नित्य निगोद की 7 लाख वायुकायिक की 7 लाख
इतर निगोद की 7 लाख वनस्पतिकायिक की 1० लाख
पृथ्वीकायिक की 7 लाख द्वीन्द्रिय की 2 लाख
जलकायिक की 7 लाख त्रीन्द्रिय की 2 लाख
अग्रिकायिक की 7 लाख चतुरिन्द्रिय की 2 लाख ८58 लाख
विभंगावधि ज्ञान के समान निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में अवधिज्ञान का निषेध क्यों नहीं किया है?
नहीं, क्योंकि उत्पत्ति की अपेक्षा तो अपर्याप्तावस्था में अवधिज्ञान का भी विभंगज्ञान के समान ही निषेध देखा जाता है । सम्यग्दृष्टियों के उत्पन्न होते ही प्रथम समय से ही अवधिज्ञान होता है, ऐसा नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने पर विभंगज्ञान के भी उसी प्रकार की उत्पत्ति का प्रसंग आता है; पर इसका अर्थ यह भी नहीं है कि देव और नारकियों के अपर्याप्तावस्था में अवधिज्ञान का अत्यन्त अभाव है; क्योंकि तिर्यव्यों और मनुष्यों में सम्बक्ल गुण के निमित्त से उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान देवों और नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में भी पाया जाता है । विभंगज्ञान में भी यह क्रम लागू हो जायेगा, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि अवधिज्ञान के कारणभूत अनुकम्पा आदि का अभाव होने से अपर्याप्त अवस्था में वहाँ उसका अवस्थान नहीं रहता है । ( ध. 13 ‘ 291)
—इ-?ँ?;?
चउबीस ठाणा? 194
तालिका संख्या 35
स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद
कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्य सम्बक्म
सज्ञी
आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण
सज्ञा
उपयोग ध्यान
आसव
जाति 14 ला. ल 14 लाक
मनःपर्यय ज्ञान
? विशेष
मनुष्यगति
। पंचेन्द्रिय
त्रस
म. व. -का. औदारिक काययोग है।
पुरुष वेद
4 कषाय 7 नोक.
स्वकीय मन: पर्ययज्ञान
स[छेसूय. परिहारविशुद्धिसंयमा. तथाअसंयमनहींहैं। चअचअव.
पीपशु.
भव्य
क्षाक्षायोउप. द्वितीयोपशम सम्य. की अपेक्षा उपशम सम्य. होता है ।
सैनी
आहारक अनाहारक नहीं है
छठे से बारहवें तक
सैनी पंचेन्द्रिय
आ.श,इ.श्ंवा.भा.म.
5 इन्द्रिय 3 बलश्वाभा.
आभपैपरि.
1 ज्ञानो. 3 दर्श. मनःपर्ययज्ञानोपयोग है।
3 आ. 4 ध. 2 शुका. निदान आर्त्तध्यान नहीं है ।
11 क. प्रयोग
मनुष्यगति सम्बन्धी
लच७ सम्बन्धी
1. प्रश्न : मन: पर्ययज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर : मनःपर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से दूसरों के मनोगत पदार्थ को एकदेश प्रत्यक्ष जानता है वह मनःपर्यय ज्ञान है । (रा. वा. 4)
ज्ञान मलण’. 195
३
3. प्रश्न उत्तर
4. प्रश्न उत्तर
चिन्ता, अचिन्ता और अर्धचिन्ता के विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थ को जो ज्ञान नरलोक के भीतर जानता है, वह मनःपर्यय ज्ञान है । (ति. प. 4? 973)
मन: पर्यय ज्ञान कितने प्रकार का होता है?
मनःपर्यय ज्ञान दो प्रकार का होता है –
( 1) ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान (2) विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान
ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान : ऋजु का अर्थ निर्वर्तित (निष्पन्न) और प्रगुण (सीधा) है । दूसरे के मन को प्राप्त वचन, काय और मनस्कृत अर्थ के विज्ञान से निर्वर्तित या ऋजु जिसकी मति है वह ऋजुमति कहलाता है । (सर्वा. 1723)
विपुलमति मनःपर्ययज्ञान : अपने और पर के व्यक्त मन से या अव्यक्त मनसे चिन्तित या अचिन्तित (या अर्धचिन्तित) सभी प्रकार के चिन्ता, जीवन-मरण, सुख-दु: ख, लाभ- अलाभ आदि को जानता है, वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञान कहलाता है । (रा. वा. 1? 23)
ऋजुमति एवं विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान में क्या विशेषता है?
ऋजुमति एवं विपुलमति मनःपर्ययज्ञान में विशुद्धि एव अप्रतिपात की अपेक्षा विशेषता है- विशुद्धि : अनुमति से विपुलमति मनःपर्ययज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा विशुद्धतर है ।
अप्रतिपात : अप्रतिपात की अपेक्षा भी विपुलमति मनःपर्ययज्ञान विशिष्ट है, क्योंकि इसके स्वामियों के प्रवर्धमान चारित्र पाया जाता है परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है, क्योंकि इसके स्वामियों के कषाय के उदय से घटता हुआ चारित्र पाया जाता हे । (त. सू 1 ‘ 24) मनःपर्ययज्ञान किसको होता है?
मनःपर्ययज्ञान मनुष्यों में ही होता है देव, नारक व तिर्यब्ज योनि में नहीं । मनुष्यों में भी गर्भजों में ही होता है, सम्हर्च्छिमों में नहीं । गर्भजों में भी कर्मभूमिजों के ही होता है, अकर्मभूमिजों में नहीं । कर्मभूमिजों में भी पर्याप्तकों के ही होता है अपर्याप्तकों के नहीं । उनमें भी सम्यग्दृष्टियों के होता है मिथ्यात्व-सासादन व सम्बग्मिथ्यादृष्टियों के नहीं । उनमें भी संयतों के ही होता है असंयतों तथा संयतासंयतों के नहीं । संयतों में भी प्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक ही होता है उससे ऊपर नहीं । उनमें भी प्रवर्तमान चारित्रवालों को ही होता है हीयमान चारित्रवालों को नहीं । उनमें भी सात ऋद्धियों में से अन्यतम ऋद्धि को प्राप्त होने वाले के ही होता है अन्य के नहीं । ऋद्धिप्राप्तों में भी किन्हीं के ही होता है, सबको नहीं । ( रा. वा. 1723)
म न : पययज्ञान प्रमाद से राहत अप्रमत्त मुनि के ही उत्पन्न होता है । यहाँ अप्रमत्तपने का नियम उत्पत्ति काल में ही है, पीछे प्रमत्त अवस्था में भी सम्भव है । काता 3-4) मन: पर्ययज्ञानी के अवेद अवस्था में कितने संयम होते हैं?
मनःपर्ययज्ञानी की अवेद अवस्था में भी चार संयम होते हैं –
नवम गुणस्थान की अपेक्षा – सामायिक-छेदोपस्थापना ।
दशम गुणस्थान की अपेक्षा – न्ल्यू साम्पराय ।
ग्यारहवें-बारहवें की अपेक्षा – यथाख्यात ।
मन: पर्ययज्ञानी के अरति-शोक कषाय के साथ कितने गुणस्थान होते हैं?
मनःपर्यय ज्ञानी के अरति-शोक कषाय के साथ तीन गुणस्थान होते हैं –
छठा, सातवीं, आठवीं ।
मनःपर्यय ज्ञान में कषायों की विवेचना कैसे करनी चाहिए?
मनःपर्यय ज्ञान में कषायों की विवेचना –
11 कषाय-छठे से आठवें गुणस्थान तक-संज्वलन चतुष्क तथा स्त्रीवेद-नपुंसक ० बिना सात नोकषाय ।
5 कषाय – नौवें गुणस्थान में – सज्वलन चतुष्क एव पुरुषवेद ।
4 कषाय – नौवें गुणस्थान में – संज्वलन चतुष्क ।
3 कषाय – नौवें गुणस्थान में – सज्वलन मान, माया, लोभ ।
2 कषाय – नौवें गुणस्थान में – सैज्जवन माया और लोभ ।
1 कषाय – नौवें तथा दसवें गुणस्थान में – सज्वलन लोभ, नौवें में जब केवल ?? लोभ शेष रहता है ।
० कषाय – ग्यारहवें-बारहवें गणस्थान में ।
मनःपययज्ञानी के कौन से सम्बक्ल में सबसे कम गुणस्थान होते हैं?
मनःपर्यय ज्ञानी के क्षायोपशमिक सम्यक में केवल दो गुणस्थान होते हैं –
छठा, सातवीं ।
मन: पर्ययज्ञानी के छठा गुणस्थान है तो उसके कम-से-कम 7 प्राण क्यों नहीं हो सकते?
मनःपर्यय ज्ञानी को छठा गुणस्थान होने पर भी आहारकऋद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है क्योंकि मनःपर्यय ज्ञान के साथ आहारक योग का निषेध है इसलिए उनके कम-से-कम 7 प्राण नहीं हो सकते हैं । छठे गुणस्थान में 7 प्राण मात्र आहारकमिश्र काययोग की अपेक्षा ही होते हैं ।
ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी के कितनी संज्ञा का अभाव हो सकता है?
अनुमति मनःपर्ययज्ञानी जीवों के चारों संज्ञाओं का अभाव हो सकता है ।
7 वें गुणस्थान से आहार सज्ञा का ।
9 वें गुणस्थान से भय सज्ञा का ।
9 वें गुणस्थान के अवेद भाग से मैथुन सज्ञा का तथा
ग्यारहवें – बारहवें गुणस्थान में पीणह सज्ञा का भी अभाव हो जाता है ।
क्या विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी के भी आर्चध्यान हो सकते हैं?
ही, विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी जीवों के भी आर्त्तध्यान हो सकते है क्योंकि छठे गुणस्थान में भी विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान पाया जाता है । जैसे – भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष जाने पर गौतमस्वामी को इष्ट वियोगज आर्सध्यान होना सम्भव है । लेकिन मनःपर्ययज्ञानी के निदान नाम का आर्त्तध्यान नहीं हो सकता है ।
नोट – मुनिराज के आर्त्तध्यान कदाचित् ही होते हैं और क्षण मात्र के लिए ही हो सकते ??
मन: पर्ययज्ञानी जीव के सामायिक संयम के साथ कम- से- कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?
मनःपर्ययज्ञानी सामायिक संयम वाले के कम-से-कम दस आसव के प्रत्यय होते हैं – 1 कषाय (संज्वलन लोभ) 9 योग ( 4 म. 4 व- 1 औदारिक काययत्नो)
नवमें गुणस्थान में जब सज्वलन क्रोध, मान, माया का उपशम या क्षय हो जाता है उस समय सामायिक संयम के साथ आसव के दस प्रत्यय होते हैं ।
चउबीस ठाणा? 198
तालिका संख्या 36
स्थान
गति
इन्द्रिय
काय
योग
वेद
कषाय
ज्ञान
संयम
– दर्शन
लेश्या
भव्यत्व
सम्बक्म
संज्ञी
आहारक
गुणस्थान
जीवसमास
पर्याप्ति
प्राण
सज्ञा
उपयोग
ध्यान
आसव
जाति 14 कुल 14
केवलज्ञान विवरण
मनुष्य गति
पंचेन्द्रिय
त्रस
म. व. का.
केवलज्ञान
यथाख्यात
केवलदर्शन
शुक्ल लेश्या भव्य
क्षायिक सम्बक्ल
आहारक, अनाहारक
तेरहवीं, चौदहवाँ
पंचेन्द्रिय
आ. श. इ. श्वा. भा. म.
वचन बल, कायबल, श्वा. आ
केवलज्ञानो; केवलदर्शनो शुख ध्यान
योग
मनुष्यगति सम्बन्धी
.क. बार सम्बन्धी
गति से रहित जीव भी होते हैं । इन्द्रिय से रहित जीव भी होते हैं । कायातीत जीव भी होते हैं ।
औदारिकद्विक एवं कार्मण काययोग
संयम से रहित जीव भी होते हैं।
लेश्यातीत जीव भी होते हैं। भव्याभव्य से रहित भी होते हैं।
सैनी- असैनी से रहित ही होते हैं ।
गुणस्थानातीत भी होते हैं। समासातीत जीव भी होते हैं । पर्याप्ति से रहित भी होते हैं। प्राणातीत जीव भी होते हैं। संज्ञातीत जीव ही होते हैं।
ख्तक्रियाप्रतिपाक, व्रपरतक्रियानिवृति। म व का. ।
ज्ञान मार्गणा? 199
1. प्रश्न उत्तर
1. प्रश्न उत्तर
3. प्रश्न उत्तर
: केवलज्ञान किसे कहते है?
: ज्ञानावरणीय कर्म के अत्यन्त क्षय होने से जो तीन लोक, तीन काल की सम्पूर्ण द्रव्य-
गुण पर्यायों को एक साथ प्रत्यक्ष रूप से जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं ।
केवल असहाय को कहते हैं । जो ज्ञान असहाय है, इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित है, त्रिकाल गोचर अनन्त पर्याय समवाय सम्बन्ध को प्राप्त अनन्त वस्तुओं को जानने वाला है, असंकुटित (सर्व व्यापक) है और असपल (प्रतिपक्ष रहित) है उसे केवलज्ञान कहते हैं । (थ. 6)
केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा रहित है इसलिए भी वह केवल असहाय है । इस प्रकार केवल, असहाय जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान कहते हें । जि. ध. 1 ‘, से 3)
भावेन्द्रिय के अभाव में केवलज्ञानी पंचेन्द्रिय कैसे हो सकते हैं?
आगम में सयोगी और अयोगी केवली के पंचेन्द्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येन्द्रियों की विवक्षा है, ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप भावेन्द्रिय की नहीं । यदि भावेन्द्रिय की विवक्षा होती तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती हे । (रा. वा. 1०) केवलियों के यद्यपि भावेन्द्रिय समूल नष्ट हो गयी है और बाह्य इन्द्रियों का व्यापार भी बन्द हो गया है तो भी भावेन्द्रिय के निमित्त से उत्पन्न हुई द्रव्येन्द्रियों के सद्भाव की अपेक्षा उन्हें पंचेन्द्रिय कहा गया है । (य. 17265)
केवली को भूतपूर्व का ज्ञान कराने वाले न्याय के आश्रय से पंचेन्द्रिय कहा है । (ध. 1 266)
आवरण के क्षीण हो जाने से पंचेन्द्रियों के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने पर भी क्षयोपशम से उत्पन्न और उपचार से क्षायोपशमिक सज्ञा को प्राप्त पाँचों बाह्येन्द्रिय का अस्तित्व पाये जाने से सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेन्द्रियत्व सिद्ध कर लेना चाहिए । ७.) नोट – केवली भगवान के क्षायोपशमिक ज्ञान रूप भावेन्द्रिय का अभाव हुआ है न कि पंचेन्द्रिय जाति नाम कर्म के उदय का । अत’ औदयिक भाव रूप पंचेन्द्रियत्व का सद्भाव होने में कोई बाधा नहीं है ।
केवली भगवान पंचेन्द्रिय हैं तो उनके चार प्राण ही क्यों कहे हैं, दस क्यों नहीं? यदि प्राणों में द्रव्येन्द्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो प्राण ही कहे जावेंगे, क्योंकि उनके द्रव्येन्द्रियों का अभाव होता है । अत:! यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिन के भावेन्द्रिय नहीं होने से चार अथवा दो ही प्राण होते हैं । (र्धे. 2 ‘ मै मै मैं)
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चउबीस ठाणा? 2००
केवलज्ञान के साथ शुक्ल लेश्या केवल रच्छ गुणस्थान में होती है- तेरहवें में ।
केवलज्ञान में अनाहारक अवस्था में कम- से- कम कितने प्राण हो सकते हैं? केवलज्ञान में अनाहारक अवस्था में कम-से-कम एक प्राण होता है – आयु प्राण । यह एक प्राण चौदहवें गुणस्थान की अपेक्षा कहा गया है ।
केवलज्ञान के साथ औदारिक मिश्र अवस्था में कितने आसव के प्रत्यय होते हैं? केवलज्ञान के साथ औदारिकमिश्र अवस्था में आसव का केवल एक ही प्रत्यय होता है – औदारिक मिश्र योग सम्बन्धी । क्योंकि उस समय नाना जीवों की अपेक्षा भी शेष योग नहीं हो सकते हैं ।
चौबीस स्थानों में ऐसे कौन से स्थान हैं जिनके सभी उत्तर भेद केवलज्ञान में पाये जाते हैं?
चौबीस स्थानों में ऐसे केवल दो स्थान हैं जिनके सभी उत्तर भेद केवलज्ञान में पाये जाते हैं- ( 1) आहार (2) पर्याप्ति ।
ऐसे कौन से स्थान हैं जिनका एक भी भेद केवलज्ञान में नहीं पाया जाता है? चार स्थान ऐसे हैं जिनका एक भी भेद केवलज्ञान में नहीं पाया जाता है –
( 1) वेद (2) कषाय (3) संज्ञी (4) संज्ञा
सिद्ध भगवान की अपेक्षा (क्योंकि वे भी केवलज्ञानी हैं) 19 स्थान ऐसे हैं जिनका एक भी भेद उनके नहीं पाया जाता है –
( 1) गति (2) इन्द्रिय ( 3) काय (4) योग (5) वेद (6) कषाय (7) संयम (8) लेश्या (9) भव्य ( 1०) संज्ञी ( 11) गुणस्थान ( 12) जीवसमास ( 13) पर्याप्ति ( 14) प्राण
उत्तर : . प्रश्न :
. प्रश्न :
8. प्रश्न
15 सज्ञा 16 ध्यान 17 आसव ० प्रत्यय 1819 कुल ।
यथार्थ में तो सिद्ध भगवान के चौबीस स्थानों में से एक भी भेद नहीं पाया जाता है ०८’ वे कर्मों के बन्ध, उदय एव सत्व से रहित हैं, उनके सभी गुण शुद्ध ही होते हैं । ० उनके ज्ञान, दर्शन, सम्यक, आदि गुण पाये जाते हैं केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि ‘ फिर भी उन्हें केवलज्ञानी कहा जाता है क्योंकि वह ज्ञान गुण की शुद्ध पर्याय है ।
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प्रश्न1-गति मार्गणा किसे कहते हैंं
उत्तर-गति नाम कर्म के उदय से उस-उस गाति विषयक भाव के कारणभूत जीव की अवस्था विशेष को गति कहते हैंं “
प्रश्न2–गति मार्गणा कितने प्रकार की हैंं
उत्तर-गति मार्गणा चार प्रकार की होती है- (1) नरकगति (2) तिर्यव्यगति (3) मनुष्यगति (4) देवगति । ६३- द्रसै. 13 टी.) नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति ० सिद्धगति में भी जीव होते हैं । (य.7ा522)
प्रश्न3-नरकगति किसे कहते हैं?
उत्तर-जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में स्वय तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते हैं उनको नारक कहते हैं । नारक की गति को नरकगति कहते हैं । (गो. जी. 147) नीचे अधोलोक में घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा तथा माघवी नामकी सात पृथिवियाँ हैं । उनमें नारकी जीव रहते हैं । वे नारकी क्षेत्रजनित, मानसिक और शारीरिक आदि अनेक प्रकार के दुःखों को दीर्घ काल तक भोगते हैं, उनकी गति को नरकगति कहते हैं ।
प्रश्न4-तिर्यज्जगति किसे कहते हैं?
उत्तर- देव, नारकी तथा मनुष्यों को छोड्कर शेष सभी तिर्यव्व कहलाते हैं। तियब्बों की गति को तिर्यव्यगति कहते हैं । (त. सू ’27) (1) जो मन-वचन-काय की कुटिलता से युक्त हो। (2) जिनकी आहारादि संज्ञा व्यक्त (स्पष्ट) हो । (3) जो निकृष्ट अज्ञानी हो । (4) जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय वे तिर्यब्ज है । इन तिर्यञ्च की गति को तिर्यज्जगति कहते हैं । (गो. जी. 148)
प्रश्न5-_ मनुष्यगति किसे कहते हैं?
उत्तर-जिनके मनुष्यगति नामकर्म का उदय पाया जाता है उन्हें मनुष्य कहते हैं ( उनकी गति को मनुष्य गति कहते है । जो नित्य हेय-उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त- अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करे जो मन से गुण-दोषादि का विचार, स्मरण आदि कर सके, जो मन के विषय में उत्कृष्ट हो, जो शिल्प-कला आदि में कुशल हो तथा जो युग की आदि में मनुओं से उत्पन्न हों, वे मनुष्य हैं उनकी गति को मनुष्यगति कहते हैं । (गो. जी. 149)
प्रश्न:6-देवगति किसे कहते हैं?
उत्तर-भवनवासी आदि चार प्रकार के देवों की गति को देवगति कहते हैं । ( 1) जो देवगति में पाये जाने वाले परिणाम से सदा सुखी हों, (2) जो अणिमादि गुणों से सदा अप्रतिहत (बिना रोक-टोक) विहार करते हौं, ( 3) जिनका रूप-लावण्य-यौवन सदा प्रकाशमान हो, वे देव हैं । उन देवों की गति को देवगति कहते हैं । (गो. जी. 151 मै.)
प्रश्न:7-सिद्धगति किसे कहते हैं?
उत्तर-यद्यपि सिद्ध भगवान के किसी गति नामकर्म का उदय नहीं है फिर भी आठ कर्मों का नाश करके सिद्ध भगवान लोक के अग्र भाग में गमन करते हैं । ( 1) जो एकेन्द्रिय आदि जाति, बुढ़ापा, मरण तथा भय से रहित हों, ( 2) जो इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग से रहित हों, (3) जो आहारादि संज्ञाओं से रहित हों, (4) जो रोग, आधि-व्याधि से रहित हों, वे सिद्ध भगवान हैं, उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं । (गो. जी. 152) जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूप अमृत के अनुभव करने वाले शान्तिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भाव कर्म रूपी अञ्जन से रहित हैं, नित्य हैं, जिनके सम्बल्लादि भाव रूप मुख्य गुण प्रकट हो चुके हैं, जो कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं, उनको सिद्ध कहते हैं और उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं । ( गो. जी. 68)
== तालिका संख्या 1 { class=wikitable width=100% – ! क्रम!! स्थान !! संख्या !!विवरण !!विशेष – 1 गति 1 नरकगति – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय – 3 काय 1 त्रस – 4 योग 11 4 मनो. 4 वच.3 काय.औदारिकद्विक तथा आहारकद्विक नहीं हैं । – 5 वेद 1 नपुसक – 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय स्त्रीवेद तथा पुरुषवेद नहीं हैं – 7 ज्ञान 6 3 कुज्ञान, 3 ज्ञान मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं है। – 8संयम 1 असंयम – 9 दर्शन 3 चक्षु, अचक्षु, अवधि केवलदर्शन नहीं है । – 10 लेश्या 3 कृ. नी. का. शुभ लेश्याएँ नहीं है । – 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्षा. क्षयो. उप. सा सा. मिश्र. मि. – 13 संज्ञी 1 सैनी – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 4 मि. सा. मिश्र अविरत – 16 जीवसमाास 1 सैनी पंचेन्द्रिय – 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. मन. – 18 प्राण10 5 इन्दि., 3 बल, श्वा. आयु. – 19 संज्ञा 4 आ. भ. मै. पीर. – 20 उपयोग 9 6 ज्ञानो. 3 दर्शनोपयोग – 21 ध्यान 9 4 आ. 4 री. 1 धर्म.आज्ञाविचय धर्मध्यान होता है । – 22 आस्रव 51 5मि. 12 अ. 23 क. 11 यो. – 23 जाति 4 लाख नरक सम्बन्धी तिर्य., मनुष्य तथा देवों की जातियाँ नहीं हैं । – 24कुल 25 लाख क. नरक सम्बन्धी तिर्य., मनुष्य तथा देवों की कुल नहीं हैं । }
प्रश्न:8- नरक कितने हैं?
उत्तर-नरक सातहैं – (1) रत्नप्रभा (2) शर्कराप्रभा (3) बालुकाप्रभा (4) पंकप्रभा (5) कूप्रभा (6) तमःप्रभा (7) महातमःप्रभा । ये सात पृथिवियाँ हें । इनमें सात नरक हैं- (1) घम्मा (2) वंशा (3) मेघा (4) अंजना (5) अरिष्टा (6) मघवा (7) माघवी । (ति प. 1/153)
प्रश्न:9-नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं तो वहाँ कीड़ों से भरी नदी कैसे बताई गई है?
उत्तर- यह सत्य है कि नरकों में सभी पंचेन्द्रिय ही होते हैं । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव तिर्यञ्चगति में ही पाये जाते हैं । नरकों में जो वैतरणी नदी को कीड़ों से भरी हुई बतलाया है वे कीड़े स्वय नारकी अपनी विक्रिया के बल से बन जाते है । उनका कीड़ों का आकार आदि होने पर भी वे नारकी ही होते हैं क्योंकि उनके नरकगति, नरकायु आदि प्रकृतियों का उदय होता है । जैसे- नारकी हांडी, वसूला, करीत, भाला आदि रूप विक्रिया कर लेने से अजीव नहीं हो जाते, गाय आदि की विक्रिया कर लेने से गाय आदि के समान दूध देने में समर्थ नहीं हो जाते हैं वैसे ही कीड़ों के बारे में भी समझना चाहिए । (ति. प. 2? 318 – 322 के आधार से)
प्रश्न:10-क्या नरक में स्थावर जीव नहीं पाये जाते हैं?
उत्तर-सूूूूक्ष्म स्थावर जीव सर्व लोक में ठसाठस भरे हुए हैं । (गो. जी. 184) अत: यदि नरकों में स्थावर जीव होवे तो कोई आश्चर्य नहीं है, लेकिन वे स्थावर जीव नरक की भूमि में रहने मात्र से नारकी नहीं हो जाते और न वे नरकगति के जीव ही कहला सकते हैं, क्योंकि नारकी तो वही होता है जिसके नरकायु आदि का उदय होता है । इन स्थावरों के इन प्रकृतियों का उदय नहीं होता है । अत: वे नरक भूमि में रहकर भी नारकी नहीं कहलाते हैं । जैसे- असुरकुमार आदि देव भी नरक में जाते हैं । कुछ समय तक वहाँ रुकते भी हैं । इसका अर्थ यह नहीं कि वे नारकी हो जाते हैं क्योंकि उनके देवगति नामकर्म का उदय है ।
प्रश्न:11-नारकियों के कार्मण- काययोग में कौन- कौनसा गुणस्थान हो सकता है?
उत्तर-नारकियों के कार्मण काययोग में दो गुणस्थान हो सकते हैं- ( 1) मिथ्यात्व (2) अविरत सम्यग्दृष्टि । नोट- ( 1) कोई भी जीव दूसरे गुणस्थान को लेकर नरक गति में नहीं जाता तथा तीसरे गुणस्थान में मरण नहीं होता (ध. 1) अत: ये दोनों गुणस्थान नारकियों की कार्मण काययोग अवस्था में नहीं होते हैं । (2) चौथा गुणस्थान मात्र प्रथम नरक की कार्मण अवस्था में ही होता है, अन्य नरकों में नहीं ।
प्रश्न:12-नारकियों के निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में सासादन गुणस्थान क्यों नहीं होता?
उत्तर-सासादन गुणस्थान वाला नरक में उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि सासादन गुणस्थान वाले के नरकायु का बन्ध नहीं होता है । जिसने पहले नरकायु का बन्ध कर लिया है, ऐसे जीव भी सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर नारकियों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि नरकायु का बन्ध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण नहीं होता है । (ध.1/325-26)
प्रश्न:13-नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कितने योग होते हैं?
उत्तर-नारकियों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में एक योग ही होता है- वैकियिकमिश्रकाय योग । क्योंकि कार्मण-काययोग विग्रहगति में तथा शेष योग पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं ।
प्रश्न:14- नारकियों के आहारक अवस्था में कितने योग होते हैं?
उत्तर-नारकियों के आहारक अवस्था में दस योग होते हैं – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, 2 काययोग (वैक्रियिक द्विक)
प्रश्न:15-नारकियों के नपुंसक वेद ही क्यों होता है?
उत्तर-नरक गति पाप के उदय से प्राप्त होती है । वहाँ जीवों को दुःख ही दुःख होते है । लीवेद वाला पुरुष के साथ तथा पुरुषवेद वाला स्त्री के साथ रमण करके सुख प्राप्त कर लेता है । नपुंसकवेद वाले की वासनाएँ सी-पुरुष वेद वालों की अपेक्षा कई गुणी होती है, लेकिन वह न पुरुष के साथ रम सकता है और न स्त्री के साथ इसलिए वह वासनाओं से संतप्त रहता है । नरकों में यदि खी-पुरुष वेद होगा तो उन्हें सुख मिल जायेगा । परन्तु वहाँ पंचेन्द्रियजनित विषयों से उत्पन्न. कोई सुख नहीं होता है, शायद इसीलिए उनके नर्गुसक वेद ही होता है । निरन्तर दुःखी होने के कारण उनके दो (स्त्री-पुरुष) वेद नहीं होते हैं । (ध. 1 ‘ 347)
प्रश्न16- चतुर्थ नरक के नारकियों के कितनी कषायें होती हैं?
उत्तर-चतुर्थ नरक के नारकियों के अधिक से अधिक 23 कषायें होती है – अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, संज्वलन चतुष्क तथा स्वीवेद- पुरुषवेद के बिना हास्यादि 7 नोकषाय । कम-से-कम 19 कषायें होती हैं । अनन्तानुबन्धी चतुष्क का अभाव होने पर सम्यग्दृष्टि जीव के 19 कषायें होती हैं ।
नोट : इसी प्रकार सभी नरकों में जानना चाहिए ।
प्रश्न:17-क्या कोई ऐसा सम्यग्दृष्टि नारकी है जिसके अवधिज्ञान नहीं होता है?
उत्तर-हाँ, जो सम्यग्दृष्टि जीव (मनुष्य) अवधिज्ञान लेकर नरक में नहीं जाता है, उस सम्यग्दृष्टि नारकी के विग्रहगति में निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तथा पर्याप्त अवस्था में जब तक अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं होता तब तक उस सम्यग्दृष्टि नारकी के अवधिज्ञान नहीं होता है ।
प्रश्न:18-क्या सभी नारकियों के छहों ज्ञान होते हैं?
उत्तर-नहीं, सभी नारकियों के छहों ज्ञान नहीं होते हैं- सम्यग्दृष्टि नारकी के तीन ज्ञान होते हैं – मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान । मिथ्यादृष्टि तथा सासादन सम्यग्दृष्टि के तीन – कुशान (अज्ञान) होते है कुमतिशान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिशान मिश्र गुणस्थानवर्ती नारकी के तीनों ही ज्ञान मिश्र रूप होते हैं ।
प्रश्न:19-क्या सभी नारकियों के समान रूप से तीनों अशुभ लेश्याएँ होती हैं?
उत्तर-नहीं, सभी नरकों में अलग- अलग लेश्याएँ होती हैं –
{” class=”wikitable” “- ! क्रम !! नरक !! लेश्या “- ” 1″”प्रथम नरक में “” जघन्य कापोत “- ” 2 “”दूसरे नरक में “” मध्यम कापोत “- ” 3 “”तीसरे नरक में “” उत्कृष्ट कापोत तथा जघन्य नील “- ” 4 “”चतुर्थ नरक में “” मध्यम नील “- “5 “”पंचम नरक में “” उत्कृष्ट नील तथा जघन्य कृष्ण “- ” 6 “” छठे नरक में “” मध्यम कृष्ण “- ” 7 “” सातवें नरक में “” उत्कृष्ट कृष्ण । (त. सा.. 2० टी. “}
प्रश्न:20-नारकियों के अशुभ लेश्या ही क्यों होती है?
उत्तर-नारकियों के नित्य संफ्लेश परिणाम ही होते हैं, इसलिए उनके अशुभ लेश्याएँ ही होती हैैँ”
प्रश्न:21-क्या नारकियों के द्रव्य और भाव से अशुभ लेश्या ही होती है?
उत्तर-हाँ, नारकियों के शरीर नियम से हुण्डक संस्थान वाले ही होते हैं, इसलिए उनके द्रव्य से अशुभ लेश्या ही होती है । सभी नारकियों के पर्याप्तावस्था में द्रव्य से कृष्ण लेश्या ही होती है । (ध. 2745०) नारकानित्याशुभ. (त. सू 3) के अनुसार उनके भाव भी हमेशा अशुभतर ही रहते हैं इसलिए उनके भाव से भी अशुभ लेश्या ही होती है ।
प्रश्न:22-नारकियों की अपर्याप्त- अवस्था में कितने सम्य? होते हैं?
उत्तर-नारकियों की अपर्याप्त-अवस्था में तीन सम्यक्त्व होते हैं- ( 1) मिथ्यात्व (2) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ( 3) क्षायिक सम्यक्त्व। (1) घम्मा नरक की अपर्याप्त अवस्था में तीनों सम्यक्त्व होते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा समझना चाहिए । वैशा आदि माघवी पर्यन्त नरकों की अपर्याप्त अवस्था में केवल म्स्क मिथ्यात्व ही होता नोट – बद्धायुष्क तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला भी क्षायोपशमिक सभ्यक्ल को लेकर प्रथम नरक में नहीं जा सकता है । क्योंकि बद्धायुष्क कृतकृत्य वेदक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि को छोड्कर शेष कोई भी जीव सम्यग्दर्शन को लेकर नरक में नहीं जा सकता है । ( 2) प्रथमोपशम सम्यक्त्व तथा मिश्र सम्यक्त्व में मरण नहीं होता और सासादन को लेकर जीव नरक में नहीं जाता इसलिए नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में ये तीनों सम्यक्त्व नहीं होते हैं । प्रश्न:23-नारकी कौन-कौनसा सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकते हैं? उत्तर-नारकी दो सम्यग्दर्शन उत्पन्न कर सकते हैं- ( 1) प्रथमोपशम-सम्यग्दर्शन (2) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन । नारकी क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं कर सकते; क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही करते हैं । कृतकृत्य वेदक वहाँ जाकर सम्यक् प्रकृति का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दर्शन का निष्ठापन कर सकता है । नोट – सम्यक्त्व मार्गणा में से नारकी मिथ्यात्व, सासादन तथा मिश्र सम्यक्त्व को भी उत्पन्न कर सकते है । प्रश्न:24-नारकियों की पर्याप्त अवस्था में कितने सम्यक्त्व होते हैं? उत्तर-प्रथम नरक के नारकियों की पर्याप्त अवस्था में सभी सम्यक्त्व होते है । दूसरे से सातवें नरक तक क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नरक से आगे नहीं जाता है । अर्थात् प्रथम नरक में सभी सम्मल्ल होते हैं और शेष नरकों में क्षायिक सम्यक्त्व के बिना पाँच ही सम्यक्त्व होते हैं । प्रश्न:25-नारकियों में पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते? उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से सहित हिंसा में आनन्द मानने वाले और नाना प्रकार के प्रचुर दुःखों से संयुक्त उन सब नारकी जीवों के देशविरत आदिक उपरितन दश गुणस्थानों के हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदाचित् भी नहीं होते हैं । (नि. प. 2 – 76) प्रथमादि चार गुणस्थानों के अतिरिक्त ऊपर के गुणस्थानों का नरक में सद्भाव नहीं है; क्योंकि संयमासंयम और संयम पर्याय के साथ नरकगति में उत्पत्ति होने का विरोध है । ४- 172०8) प्रश्न:26-नारकियों के आर्तध्यान कैसे घटित होते हैं? उत्तर-नारकियों मेंआर्तध्यान – इष्ट वियोगज : नारकी जब अपनी विक्रिया से शस्रादि बनाते हैं, उसको यदि दूसरे नारकी छीन ले, ध्वस्त (नष्ट) कर दे तो इष्ट वियोग हो सकता है, हो जाता है । तीसरे नरक तक कोई देव किसी को सम्बोधन करने गया । वह जब संबोधन करके चला जाता है तो उसके वियोग में नारकी को इष्ट वियोग आर्त्तध्यान हो सकता है । अनिष्ट संयोगज : एक नारकी को जब दूसरे नारकी मारते हैं, दुःख देते हैं तो उन्हें दूर करने के लिए बार-बार विचार उत्पन्न होते हैं तब उस नारकी के अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान हो सकता है । वेदना- आर्तध्यान : नारकियों के शीत-उष्ण आदि वेदनाओं को दूर करने की भावनाओं से वेदना आर्त्तध्यान सभव है । निदान- आर्तध्यान : नारकी जातिस्मरण से भोगों को जानकर भावी भोगों की आकांक्षा कर सकते हैं । तीसरे नरक तक आये हुए देवों के वैभव को देखकर निदान कर सकते हैं । नारकियों में ऐसे ही और भी आर्त्तध्यान हो सकते हैं । प्रश्न27-नारकी जीव भगवान के दर्शन, पूजा, स्वाध्याय, गुरुओं की भक्ति, आहारदान आदि कुछ नहीं कर सकता है, तो उसके धर्मध्यान कैसे हो सकता है? उत्तर-भगवान की पूजा, दर्शनादि कार्य एकान्त से धर्मध्यान नहीं हैं । पूजा आदि कार्य धर्मध्यान प्राप्त करने की पूर्व भूमिका है । इन सब कार्यों को करते हुए भी मिथ्यादृष्टि जीव के धर्मध्यान नहीं होता है । सम्यग्दृष्टि नारकी के ” जो जिनेन्द्र भगवान ने सच्चे देव-शास्त्र -गुरु, तत्त्व द्रव्य, मोक्षमार्ग आदि का स्वरूप बताया है वही सच्चा है, उसी से मेरा कल्याण अर्थात् मुझे शाश्वत सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है’ ‘ इस प्रकार की श्रद्धा (आज्ञा सम्यक्त्व) होती है और इसी रूप में नारकी के द्ग्ल आज्ञाविचय धर्मध्यान होता है । प्रश्न:28-सम्यग्दृष्टि नारकी के आसव के कितने प्रत्यय होते हैं? उत्तर-प्रथम नरक में सम्यग्दृष्टि नारकी के आसव के 42 प्रत्यय होते हैं- 12 अविरति, 19 कषाय (अनन्तानुबन्धी चतुष्क तथा दो वेद रहित) तथा 11 योग (औदारिकद्बिक तथा आहारकल्कि बिना) । दूसरे आदि नरकों में वैक्रियिक मिश्र तथा कार्मण काय योग सम्बन्धी आसव के प्रत्यय भी निकल जाने से 4० प्रत्यय ही होते हैं ” ==
तिर्यंचगति
== तालिका संख्या 2 {” class=”wikitable” width=”100%” “- ! क्रम !!स्थान !!संख्या !! विवरण !!विशेष “- “1 “”गति “”1″”तिर्यंचगति “” “- “2 “”इन्द्रिय “”5″”ए,द्वी,,त्री,चतु,पंचे.”” “- ” 3 “” काय “”6″”1. त्रस. 5 स्थावर “” “- “4 “”योग “”11″”4 मन. 4 वचन 3 काय. “”वैक्रियिकद्विक तथा आहारकद्विक नहीं हैं । “- “5 “”वेद “”3″”स्त्री., पू., नपु. “” “- ” 6 “”कषाय “”25″”16 कषाय 9 नोकषाय “” “- “7 “”ज्ञान “”6″”3 कुज्ञान, 3 ज्ञान “”मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं है । “- “8 “”संयम “”2″”सयमासयम, असंयम “”सामायिकादि संयम नहीं हैं । “- ” 9 “”दर्शन लेश्य “”3″”चक्षु, अचक्षु, अवधि “” केवलदर्शन नहीं है “- “10 “”लेश्या “” 6 “”द्रव्य और भावरूप से सभी लेश्याएँ “” “- ” 11 “”भव्यत्व “”2 “”भव्यत्व, अभव्यत्व “” “- ” 12 “”सम्यक्त्व “”6 “”क्षा. क्षयो. उप. सासा.मिश्र. मि. “”क्षायिक सम्यक भोगभूमि की अपेक्षा होता है । “- ” 13 “”संज्ञी “”2 “”सैनी, असैनी “” “- ” 14 “”आहार “”2 “”आहारक, अनाहारक “” “- ” 15 “”गुणस्थान “”5 “”मि. सा. मिश्र.अवि. सयमा. “” “- ” 16 “”जीवसमास “”19 “” 14 स्थावर तथा 5 त्रस सम्बन्धी “” “- “17 “” पर्याप्ति “”6 “”छहों पर्यातियाँ “” “- “18 “” प्राण “”10 “”5 इन्दिय., 3 बल,श्वा. आयु.””1० प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय के ही होते हैं । “- “19 “” संज्ञा “”4 “”चारों संज्ञाएँ “” “- ” 20 “”उपयोग “”9 “”6 ज्ञानो. 3 दर्शनोपयोग “” “- “21 “” ध्यान “”11 “”4 आ. 4 रौ. 3 धर्म. “”संस्थान विचय धर्मध्यान नहीं है। “- ” 22 “”आसव “”53 “”5 मि. 12 अ. 25 क. 11 यो.”” “- ” 23 “”जाति “”62 लाख””एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक “”नरक, मनुष्य तथा देव सम्बन्धी जातियाँ नहीं हैैं । “- ” 24 “”कुल “”134 1/2 ला.क.””एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तक “”नरक, मनुष्य तथा देव सम्बन्धी कुल नहीं हैं । “} प्रश्न:29-तिर्यंंच कितने प्रकार के होते ईं? उत्तर-तिर्यञ्चगति के जीव पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय के भेद से, शम्बूक, दू मच्छर आदि विकलेन्द्रिय के भेद से, जलचर-थलचर, नभचर, द्विपद, चतुष्पदादि पंचेन्द्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं । (पं. का. ता. 118) जन्म की अपेक्षा तिर्यञ्च दो प्रकार के होते हैं- ( 1) गर्भज ( 2) सम्मूछन जन्म वाले (का. अ. 13०) प्रश्न:30-तिर्यञ्च जीव कहाँ- कहाँ रहते ई? उत्तर-पन्द्रह कर्म-भूमियों में भी तिर्यब्ज रहते हैं । ढाईद्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में स्थित सभी भोगभूमियों तथा आधे स्वयँमूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र में तिर्यच्च ही रहते हैं । भोग-भूमियों में भी तिर्यच्च रहते हैं । विशेष रूप से एकेन्द्रिय तिर्यव्व सर्वलोक में ठसाठस भरे हुए हैं । प्रश्न:31-किन-किन तिर्यञ्च के नपुंसक वेद ही होता है? उत्तर-एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव और समर्चन पर्याप्त पंचेन्द्रिय तथा लस्थ्यपर्यातक पंचेन्द्रिय तिर्यब्ज भी नपुंसकवेद वाले ही होते हैं । (त. सू 275०) प्रश्न:32-तिर्यंंच की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कितनी लेश्याएँ होती हैं? उत्तर-तिर्यञ्च की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं क्योंकि तेजोलेश्या और पसलेश्या वाले देव यदि तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं तो नियम से उनकी शुभ लेश्याएँ नष्ट हो जाती हैं इसलिए तिर्यब्जों के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं । (ध. 27473) प्रश्न:33-तिर्यञ्चोंं में क्षायिकसम्यग्दर्शन किस अपेक्षा से होता है? उत्तर-जिस मनुष्य ने तिर्यब्ज आयु का बन्ध कर लिया है फिर क्षायिकसम्यक्त्व का प्रतिष्ठापक हुआ है या क्षायिक सम्बक्म प्राप्त किया है तो वह मरकर भोगभूमि में तिर्यब्ज बनता है । कर्मभूमिया तिर्यञ्च के किसी भी अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है । प्रश्न:34-क्या बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि मनुष्य के समान बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि तिर्यस्थ्य भी भोगभूमि में जा सकता है? उत्तर-नहीं, तिर्यञ्च क्षायिक सम्यग्दर्शन का प्रतिष्ठापक नहीं होता और न कर्मभूमिया तिर्यञ्च को क्षायिकसम्यग्दर्शन ही होता है, क्योंकि, क्षायिक-सम्यग्दर्शन का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में करते हैं । तथा जिसने तिर्यब्ज, मनुष्य और नरकायु को बाँध लिया है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरणकर तिर्यव्यादि गतियों में जाताहै, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य (बद्धायुष्क मनुष्य को छोड्कर) और तिर्यब्ज नियम से स्वर्ग में ही जाते हैं । प्रश्न:35-बद्धायुष्क किसे कहते हैं? उत्तर-जिसने अगले भव की आयु बाँध ली है वह बद्धायुष्क कहलाता है । बद्धायुष्क का कथन क्षायिक एवं कृतकृत्यवेदक की मुख्यता से ही किया गया है । प्रश्न:36-क्या इसी प्रकार बद्धायुष्क मुनि भी भोगभूमिया तिर्यञ्च बन सकता है? उत्तर-नहीं, जिस मनुष्य ने देवायु को छोड्कर शेष किसी भी आयु का बनय कर लिया है, वह अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता है, ऐसा नियम है । इसलिए बद्धायुष्क मुनि भी भोगभूमि में उत्पन्न नहीं हो सकता है । (गो. क. 334) इसी प्रकार देवायु को छोड़कर शेष आयु बाँधने वाला तिर्यञ्च भी अणुव्रत धारण नहीं कर सकता है । प्रश्न:37-क्या मत्स्य भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो सकता है? उत्तर-नहीं, मत्स्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है क्योंकि तिर्यञ्च में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भोग-भूमियों में ही होते हैं । भोग- भूमि में जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं (ति. प. 47328) इसलिए मत्स्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है । मख्स नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं । नोट – इसी प्रकार समर्थन मक्य के प्रथमोपशम सम्यक्त्व भी नहीं होता है क्योंकि प्रथमोपशमसम्यक्त्व गर्भज जीवों के ही होता है । (ध. पु.) प्रश्न:१-सम्मूर्च्छन तिर्यञ्च के कौन- कौनसे सम्यक्त्व हो सकते हैं? समर्चन तिर्यञ्च के चार सम्यक्त्व हो सकते हैं- ( 1) मिथ्यात्व (2) सासादन (3) सम्यग्मिथ्यात्व (4) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व । भोगभूमि में सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं, इसलिए सम्मूर्च्छन तिर्यञ्च में क्षायिक-सम्यक्त्व नहीं कहा है । प्रश्न:38-यदि सम्मूर्च्छन जीवों के उपशम-सम्य? नहीं होता है, तो उनके सासादन- सम्यक्त्व कैसे हो सकता है, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व के बिना सासादन सभ्य? नहीं हो सकता है? उत्तर-यद्यपि सब्रुर्च्छन जीवों के प्रथमोपशम सम्बक्च नहीं होता है फिर भी पूर्व भव से अर्थात् कोई मनुष्य-तिर्यब्ज सासादन-सम्यकव को लेकर सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होता है तो उसके सासादन-सम्यक्त्व का अस्तित्व बन जाता है । प्रश्न:39-क्या तिर्यञ्च की निर्वृत्यपर्याप्तक- अवस्था में भी सभी सम्यक्त्व होते हैं? उत्तर-नहीं, तिर्यञ्च की निर्वृत्यपर्याप्तक-अवस्था में चार सम्बक्च होते हैं- ( 1) मिथ्यात्व ( 2) सासादन ( 3) क्षयोपशम और (4) क्षायिक सम्यक्त्व । उपशम और मिश्र नहीं होते हैं । नोट – क्षयोपशम सम्यक्त्व भोगभूमि में जाते समय कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा कहा गया हे । क्षायिक- सम्यक्त्व भोगभूमि की अपेक्षा है । प्रश्न:40-किन-किन तिर्यञ्च के पंचमगुणस्थान नहीं होता है? उत्तर-( 1) एकेन्द्रियादि असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों के । (2) संज्ञी पंचेन्द्रिय में भी लब्ध्यपर्यातक जीवों के । (3) समस्त भोगभूमिज तथा कुभोगभूमिज जीवों के हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से भगवान आदिनाथ स्वामी के समय में भोगभूमि में ही तीर्थंकर, संयमी, संयमासंयमी आदि हुए थे” । तथा (4) म्लेच्छखण्ड में तिर्यञ्च में पचम गुणस्थान प्राप्त करने की योग्यता नहीं है । नोट – म्लेच्छखण्ड से यहाँ आकर हाथी-घोड़ा आदि कोई पंचमगुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं । (मनुष्यों के समान तिर्यञ्च का कथन आगम में नहीं आता है) क्या भोगभूमि में किसी भी अपेक्षा पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यल्थ नहीं हो सकते हैं? भोगभूमि में भी पंचमगुणस्थानवर्ती तिर्यव्व हो सकते हैं । वैर के सम्बन्ध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यञ्च का सब जगह सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता है, इसलिए वहाँ पर अर्थात् भोग-भूमि में भी पंचम गुणस्थानवर्ती तिर्यल्द का अस्तित्व बन जाता है । ४- 1 ‘ 4०4) नोट : इसी प्रकार संयतासंयत मनुष्य व संयत मुनि भी पाये जा सकते हैं । प्रश्न:41-क्या क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च के संयतासंयत गुणस्थान हो सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि तिर्यञ्च में यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो वे भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं, दूसरी जगह नहीं । परन्तु भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों की उत्पत्ति नहीं होती है, वहाँ पर अणुव्रत होने में आगम से विरोध है । (ध.1/4०5) प्रश्न 42: किन- किन तिर्यञ्च के कितने-कितने प्राण होते हैं? उत्तर-: तिर्यञ्च के प्राण – {” class=”wikitable” width=”100%” “- ! निर्वृत्य-पर्याप्तावस्था !! पर्याप्तावस्था !!निर्वृत्य- पर्याप्तावस्था!! “- ” एकेन्द्रियों के “” 3 “” 4 “”(स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल,श्वासोच्छवास, आयु) “- ” द्वीन्द्रियों के “”4 “” 6″” (2 इन्द्रिय, वचन-कायबल,श्वासोच्छवास, आयु) “- “त्रीन्द्रियों के “”5 “”7″”(3 इन्द्रिय, 2 बल श्वासो. आयु) “- “चतुरिन्द्रियों के “”6 “” 8″”(4 इन्द्रिय, 2 बल श्वासो. आयु) “- ” असैनी पचेन्द्रियों के “” 7 “” 9″” (5 इन्द्रिय, 2 बल श्वासो. आयु) “- “सैनी पंचेन्द्रियों के “”7 “”10 “” 5 इन्द्रिय, 3 बल,श्वासो. आयु) “} नोट-:सभी जीवों के निर्वृत्यपर्यासक अवस्था में श्वासोच्चवास, वचनबल तथा मनोबल नही होते हैं ।. असैनी पर्यन्त जीवों के मनोबल नहीं होता है । प्रश्न 42: सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च के आसव के कितने प्रत्यय हो सकते हैं? उत्तर-चतुर्थगुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च के आसव के 44 प्रत्यय हो सकते हैं- 12 अविरति 21 कषाय (अनन्तानुबन्धी बिना) तथा11 योग (4 मनो. 4 वचन. 3 काय.) प्रश्न:44-औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययोग भोगभूमि की अपेक्षा बन जायेंगे । तिर्यञ्च की बासठ लाख जातियों कौन-कौन सी हैं? उत्तर-तिर्यञ्चों की जातियाँ – (1) नित्यनिगोद की – 7 लाख (2) इतर निगोद की – 7 लाख (3) पृथ्वीकायिक की – 7 लाख (4) जलकायिक की – 7 लाख (5) अग्रिकायिक की – 7 लाख (6) वायुकायिक की – 7 लाख (7) वनस्पतिकायिक की -10 लाख (8) द्वीन्द्रिय की – 2 लाख (9) त्रीन्द्रिय की – 2 लाख (1०) चतुरिन्द्रिय की – 2 लाख (1) पंचेन्द्रिय की -4 लाख कुल =62 लाख प्रश्न45 :तिर्यञ्चों के 134 1/2 लाख करोड़ कुल कौन-कौन से हैं? उत्तर : तिर्यञ्चों के कुल- (1) पृथ्वीकायिक के -22 लाख करोड़ (2) जलकायिक के – 7 लाख करोड़ (3) अग्रिकायिक के – 3 लाख करोड़ (4) वायु कायिकक- 7 लाख करोड़ (5) वनस्पतिकायिक के – 28 लाख करोड़ (6) द्वीन्द्रिय के – 7 लाख करोड़ (7) त्रीन्द्रिय के -8 लाख करोड़ (8) चतुरिन्द्रिय के -9 लाख करोड़ (9) जलचर के – 12 1/2 लाख करोड़ (1०) थलचर के – 19 लाख करोड ( 11) नभचर के – 12 लाख करोड़ योग=134 1/2 लाख करोड़ कुल प्रश्न:46-भोगभूमिया तिर्यंंच के कितने कुल होते हैं? उत्तरभोगभूमिया तिर्यञ्चों के 31 लाख करोड़ कुल होते हैं- थलचर के – 19 लाख करोड़ तथा नभचर के 12 लाख करोड़ । भोगभूमि में एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा जलचर जीव नहीं पाये जाते हैं । इसलिए उनके कुल ग्रहण नहीं किये है । नोट – यद्यपि वहाँ एकेन्द्रिय जीव होते हैं, लेकिन वे भोगभूमिया नहीं होते हैं, सामान्य एकेन्द्रिय हैं, इसलिए यहाँ उनके कुलों का ग्रहण नहीं किया है । ==
मनुष्य-गति
== तालिका संख्या 3 {” class=”wikitable” width=”100%” “- ! क्रम !!स्थान !! संख्या !! विवरण !! विशेष “- ” 1 “” गति “” 1 “” मनुष्य-गति “” “- “2 “”इन्द्रिय “”1 “”पंचेन्द्रिय “” “- “3 “”काय “”1 “” त्रस “” “- ” 4 “”योग “”13 “” 4 मन. 4 बच, 5 काय. “”आहारकद्विक 6 ठे गुणस्थान में ही होते हैं “- “5 “”वेद “”3 “”स्त्री. पु. नपुँ. “” “- “6 “”कषाय “”25 “”16 कषाय 9 नोकवाय “” “- “7 “”ज्ञान “”8 “”3 कुज्ञान, 5 ज्ञान “”5 ज्ञान सम्यग्दृष्टि के ही होते है “- “8 “”सयम “”7 “”सा.छे.पीर.सू.यथा.संय.अस.”” “- “9 “”दर्शन “”4 “”चक्षु, अचक्षु, अव. केव.”” “- “10 “”लेश्या “”6 “”कृ-नी.का.पी.प. शुक्ल “” “- “11 “”भव्यत्व “” 2 “”भव्य, अभव्य “” “- “12 “” सम्यक “”6 “”क्षा. क्षयो. उप. सा. मिश्र.मि.”” “- “13 “”संज्ञी “”1 “” संज्ञी “” “- “14 “” आहार “”2 “” “” “- “15 “”गुणस्थान “”14 “”पहले से चौदहवें तक”” “- “16 “”जीवसमास “”1 “” संज्ञी पंचेन्द्रिय”” “- “17 “”पर्याप्ति “”6 “”आ.श.इ.श्वा.भा. मन.”” “- “18 “” प्राण””10 “”5 इन्दि., 3 बल, श्वा.आयु.”” “- “19 “”संज्ञा “”4 “”आ .भ.मै.परि.”” “- “20 “”उपयोग “”12″” 8 ज्ञान,4 दर्शन “” “- “21 “”ध्यान “”16 “”4 आ. 4 री. 4 ध.4 शुक्ल”” “- “22 “”आस्रव “”55 “”5 मि. 12 अवि. 25 क.13.यो.””वैक्रियिकद्विक नहीं होते हैं । “- ” 23 “”जाति “”14 लाख “”मनुष्य सम्बन्धी “” “- “24 “”कुल “”14 ला.क. “”मनुष्य सम्बन्धी”” “} प्रश्न:47-मनुष्य कितने प्रकार के होते हैं? उत्तर-मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- ( 1) आर्य मनुष्य ( 2) म्लेच्छ मनुष्य ( त. सू. 3/36) ( 1) कर्मभूमिज मनुष्य (2) भोग भूमिज मनुष्य (नि. सा. 16) मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं- ( 1) पर्यातक मनुष्य (2) निर्वृत्यपर्यातक मनुष्य ( 3) लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य । (ति. प. 4) मनुष्य चार प्रकार के होते हैं- ( 1) कर्मभूमिज (2) भोगभूमिज (3) अन्तरद्बीपज ( 4) सम्पूर्च्छनज । (भ. आ. 7807 क्षेपक) प्रश्न:48-आर्य आदि मनुष्य किसे कहते हैं।? उत्तर-आर्य मनुष्य – गुण और गुणवानों से जो सेवित हैं वे आर्य कहलाते हैं । (रा. वा. 3736) म्लेच्छ मनुष्य – पाप क्षेत्र में जन्म लेने वाले म्लेच्छ कहलाते हैं । उनका आचार खान- पान आदि असभ्य होता है । (निसा. 16) कर्म भूमिज – जहाँ शुभ और अशुभ कर्मों का आसव हो उसे कर्मभूमि कहते हैं । वहाँ उत्पन्न होने वाले कर्मभूमिज कहलाते हैं । (स. सि. 3) भोगभूमिज ए भोगभूमि में रहने वाले मनुष्यों को भोगभूमिज कहते हैं । (भ. आ.) लब्ध्यपर्याप्तक – जो जीव श्वास के अठारहवें भाग में मर जाते है वे लस्थ्यपर्याप्तक जीव हैं । (गो. जी. 122) अंतर्द्वीपज – जो अंतर्द्वीपों में उत्पन्न होते हैं वे अंतर्द्वीपज मनुष्य कहलाते हैं । (सर्वा. 3? 39) सम्मूर्च्छनज – लब्ध्यपर्याप्तक ही होते हैं । (का. अ. 132 – 33) प्रश्न:49-क्या मनुष्य के पेट में जो कीड़े पाये जाते हैं वे भी मनुष्य हैं? उत्तर-नहीं, मनुष्य के पेट, घाव आदि में पड़ने वाले कीड़े मनुष्य नहीं हैं यद्यपि मनुष्य के पेट में पड़ने वाले कीड़े, पटार आदि औदारिक शरीर तथा मल-मूत्र, भोजन आदि में उत्पन्न होते हैं लेकिन वे दो इन्द्रिय ही होते हैं इसलिए वे तिर्यञ्चगति के जीव ही हैं, मनुष्य नहीं । प्रश्न:50-किन- किन मनुष्यों को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है? उत्तर-जिनको केवलज्ञान नहीं हो सकता है वे मनुष्य हैं- ( 1) लब्ध्यपर्यातक (2) आठ वर्ष से कम उम्र वाले ( 3) 126 भोगभूमियों में उत्पन्न ( 4) पाँचवें-छठे नरक से आये हुए ( 5) न्ल्यू निगोद से आये हुए ( 6) अभव्य तथा अभव्यसम भव्य (7) वब्रवृषभनाराचसंहनन को छोड्कर शेष सहनन वाले (8) बद्धायुष्क मनुष्य (9) द्रव्य सी एवं द्रव्य नपुंसक वेद वाले आदि । प्रश्न:51-एक सौ छब्बीस भोगभूमियों कौन-कौन सी हैं? उत्तर-एक सौ छब्बीस भोगभूमियाँ- 1० जघन्य भोगभूमियाँ – 5 हैमवत, 5 हैरण्यवत क्षेत्र की । 1० मध्यम भोगभूमियाँ – 5 हरिवर्ष, 5 रम्यक क्षेत्र की । 1० उत्तम भोगभूमियाँ – 5 देवकुरु, 5 उत्तरकुरु की । 96 अन्तरद्वीपों में पाई जाने वाली कुभोगभूमियाँ । कुल 126 भोगभूमियाँ । इनमें मनुष्य भी रहते हैं । शेष ढाईद्वीप के बाहर असंख्यात द्वीप-समुद्रों में जघन्य भोगभूमियाँ हैं, जहाँ केवल तिर्यस्थ ही रहते हैं । (तिप.) नोट- 48 लवण समुद्र सम्बन्धी तथा 48 कालोदधिसमुद्र सम्बन्धी इस प्रकार 96 अन्तरद्वीप प्रश्न:52-क्या कुभोगभूमियों में तिर्यथ्य भी पाये जाते हैं? उत्तर-ही, कुभोगभूमियों में तिर्यव्व भी पाये जाते है । यद्यपि इन भोगभूमियों में किस-किस आकृति वाले तिर्यव्व रहते हैं, क्या खाते हैं आदि वर्णन जिस प्रकार मनुष्यों के बारे में आता है, वैसा तिर्यञ्चों के बारे में नहीं मिलता है, फिर भी वहाँ तिर्यब्ज पाये जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है क्योंकि आचार्य यतिवृषभमहाराज तिलोयपण्णत्ति ग्रन्य के चौथे अध्याय की 2515 वीं गाथा में कहते हैं कि इन द्वीपों में जिन मनुष्य-तिर्यञ्च ने सम्यग्दर्शन रूप रत्न को ग्रहण किया है वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । इससे सिद्ध है कि वहाँ तिर्यब्ज भी पाये जाते हैं । प्रश्न:53-क्या अंधे, काणे, लूले-लँगड़े मनुष्य को भी केवलज्ञान हो सकता है? उत्तर-ही, अंधे, काले, ज्जे, लँगड़े आदि मनुष्यों को भी केवलज्ञान हो सकता है । यद्यपि अंधा, काणा, ख्ता, लँगड़ा व्यक्ति दीक्षा की पात्रता नहीं रखता और दीक्षा लिये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता, लेकिन यदि कोई मनुष्य दीक्षा लेने के बाद अर्थात् मुनि बनने के बाद अखि फूटने के कारण काणा, मोतियाबिन्द आदि के कारण अंधा हो जावे, लकवा आदि के कारण ख्ता-लँगड़) हो जावे तो केवलज्ञान होने में कोई बाधा नहीं है । कभी- कभी उपसर्गादि के कारण भी ऐसा हो सकता है । केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए तो वब्रवृषभनाराचसंहनन, द्वितीयशुक्ल ध्यान, चार घातिया कर्मों का क्षय होना आवश्यक है । केवलज्ञान होने पर शरीर सांगोपांग हो जायेगा प्रश्न:54-क्या कुबड़े-बने आदि को भी केवलज्ञान हो सकता है? उत्तर-ही, कुबड़े-बौने आदि बेडौल शरीर वाले को भी केवलज्ञान हो सकता है, क्योंकि तेरहवें गुणस्थान तक छहों संस्थानों का उदय पाया जाता है (गो. क.) फिर भी मुनि बनने के योग्य संस्थान होना आवश्यक है । ==
मनुष्यों में लेश्याएँ
== प्रश्न:55-किन-किन मनुष्यों के कौन-कौन सी लेश्याएँ होती हैं? उत्तर-मनुष्यों में लेश्याएँ- {” class=”wikitable” WIDTH=”100%” “- ! क्रम !! मनुष्य !! पर्याप्तापर्याप्त !! लेश्या “- ” 1 “” कर्मभूमिया “” पर्याप्तक “” 6 लेश्या “- “2 “”कर्मभूमिया “”निर्वृत्यपर्यातक “”6 लेश्या “- “3 “”लब्ध्यपर्याप्तक “”3 अशुभलेश्या “” “- “4 “”भोगभूमिया सम्यग्दृष्टि””निर्वृत्यपर्यातक “”1 कापोत लेश्या (ति.प.4/424) “- “5 “” भोगभूमिया मिथ्यादृष्टि “”निर्वृत्यपर्यातक””3 अशुभलेश्या (ति.प.4/424) “- “6 “”भोगभूमिया सासादन सम्यग्दृष्टि “”निर्वृत्यपर्यातक “”3 अशुभलेश्या (ति.प.4/426) “- “7 “”भोगभूमिया “” पर्यातक “” 3 शुभलेश्या “- “8 “”कुभोग भूमि “” निर्वृत्यपर्यातक “”3 अशुभलेश्या “- “9 “”कुभोग भूमि “” पर्यातक “”1 पीतलेश्या “- “10 “”अन्तरद्वीपज म्लेच्छ “”- “”4 पीतलेश्या “- “11 “” कर्मभूमिया म्लेच्छ “”- “”6 पीतलेश्या “- ” 12 “”विद्याधर “”पर्याप्तापर्याप्त “”6 पीतलेश्या “} प्रश्न:56-क्या म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों को सम्यग्दर्शन हो सकता है? उत्तर-हाँ, म्लेच्छ खण्ड के मनुष्यों को भी सम्यग्दर्शन हो सकता है । दिग्विजय के लिए गये हुए चक्रवर्ती के स्कन्धावार (कटक सेना) के साथ जो म्लेच्छ राजा आदिक आर्यखण्ड में आ जाते हैं, और उनका यहाँ वालों के साथ विवाहादि सम्बन्ध हो जाता है, तो उनकेसंयम धारण करने में कोई विरोध नहीं है । अथवा दूसरा समाधान यह भी किया है कि चक्रवर्ती आदि को विवाही गई म्लेच्छ कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न हुई सन्तान की मातृपक्ष की अपेक्षा यहाँ ‘ अकर्मभूमिथ’ पद से विवक्षा की गई है, क्योंकि अकर्मभूमिज सन्तान को दीक्षा लेने की योग्यता का निषेध नहीं पाया जाता है । (य. पु.) अन्तर्द्वीपों में रहने वाले म्लेच्छों को भी सम्यग्दर्शन होता है, वे मरकर सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं । (ति. प. 4? 2515) प्रश्न:57-पाँच वर्ष के बच्चे को सभ्यक्ल मार्गणा क्त कौन-कौनसा स्थान हो सक्ता है? उत्तर-पाँच वर्ष का बच्चा यदि पुरुष है तो उसके मिथ्यात्व, क्षायोपशमिकएवं क्षायिक सम्यक्त्व हो सकता है और यदि वह खी या नपुसक है तो मात्र मिथ्यात्व ही होगा; क्योंकि सम्यग्दृष्टि सी तथा नपुंसक नहीं बनता है । यदि वह बच्चा सादि मिथ्यादृष्टि है, तो उसके सम्बइत्मथ्यात्व प्रकृति का उदय आ
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष 1 गति 1 तिर्यञ्चगति 2 इन्द्रिय 1 स्वकीय द्वीन्द्रिय के द्वीन्द्रिय 3 काय 1 त्रस 4 योग 4 1 वचनयोग 3 काययोग अनुभय वचनयोग होता है । 5 वेद 1 नंपुसक 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय स्त्री तथा पुरुषवेद नहीं होते हैं 7 ज्ञान 2कुमति-कुश्रुतज्ञान 8 संयम 1 असंयम 9 दर्शन 1,2 चखुदर्शन, अचक्षु.चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रिय के ही होता है । 10 लेश्या 3 कृ. नी. का. 11 भव्य 2 भव्य, अभव्य 12 सम्बक्ल 2 सासा. मिथ्यात्व 13 संज्ञी 1 असैनी 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक 15 गुणस्थान 2 मिथ्यात्व, सासादन 16 जीवसमास स्वकीय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय में से 17 पर्याप्ति 5 आ. श. इ. श्वा. भा.मनःपर्याप्ति नहीं होती है । 18 प्राण 6,7,8 द्वीन्द्रिय के 6, त्रीन्द्रिय के 7, चतुरिन्द्रिय के 8 प्राण 19 संज्ञा 4 आ. भ. मैं. पीर. 20 उपयोग 3,4 2 ज्ञानो. 1 दर्शनो,; 2 दर्शनो चतुरिन्द्रिय जीव के 4 उपयोग हैं । 21 ध्यान 8 4 आ. 4 रौ. 22 आस्रव स्वकीय 40,41,42 द्वीन्द्रिय के 4०, त्रीन्द्रिय के 41 चतुरिन्द्रिय के 42 । 23जाति स्वकीय 2 ला.2 ला.2 ला. 24 कुल स्वकीय 7 ला.क,8 ला.क.,29 ला.क.
प्रश्न:1-काय मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर-जाति नामकर्म के उदय से अविनाभावी त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न आत्मा कीं त्रस तथा स्थावर रूप पर्याय को काय कहते हैं ।
व्यवहारी पुरुषों के द्वारा ‘त्रस-स्थावर’ इस प्रकार से कहा जाता है, वह काय है । पुद्गल स्कन्धों के द्वारा जो पुष्टि को प्राप्त हो वह काय है ।
काय’ में जीवों की खोज करना काय मार्गणा है । (गो.जी. 181)
प्रश्न:-2काय मार्गणा कितने प्रकार की है?
उत्तर-काय मार्गणा छह प्रकार की है- ( 1) पृथ्वीकाय ( 2) जलकाय ( 3) अग्निकाय (4) वायुकाय (5) वनस्पतिकाय (6) त्रसकाय । ३- द्र.. 13 टी.) पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक तथा कायातीत जीव क होते हैं । (गो. जी. 18 ‘)
प्रश्न:-3 स्थावर जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-स्थावर जीव एष्क स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ही जानता है, देखता है, खाता है, सेवन करता है, उसका स्वामीपना करता है इसलिए उसे एकेन्द्रिय स्थावर जीव कहा है । (ध. 1? 241) स्थावर नामकर्म के उदय से जीव स्थावर कहलाते हैं ।
स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण ये पाँचों ही स्थावर कहलाते हैं । (ध. 1? 267)
प्रश्न:-4 त्रसकायिक जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न वृत्तिविशेष वाले जीव त्रस कहे जाते हैं । रखा, 1) लोक में जो दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रिय से सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हें वीर भगवान के उपदेश से त्रसकायिक जानना चाहिए (पस.)
प्रश्न:-5 अकाय जीव किसे कहते हैं?
उत्तर-जिस प्रकार सोलह ताव के द्वारा तपाये हुए सुवर्ण में बाह्य किट्टिका और अध्यन्तर कालिमा इन दोनों ही प्रकार के मल का बिस्कुल अभाव हो जाने पर फिर किसी दूसरे मल का सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार महाव्रत और धर्मध्यानादि से सुसस्कृत रख सुतप्त आत्मा में से एष्क बार शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा बाह्य मल काय और अंतरंग मल कर्म के सम्बन्ध के सर्वथा छूट जाने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता और वे सदा के लिए काय तथा कर्म से रहित होकर सिद्ध हो जाते हैं । (गो. जी. 2०3)
तालिका संख्या 8
प्रथ्वीकायिकादि चार
! क्रम !! स्थान !! संख्या !! विवरण !! विशेष
1 गति 1 तिर्यञ्चगति
2 इन्द्रिय 1 एकेन्द्रिय
3 काय स्वकीय पृथ्वीकायिकादि पृध्वीकायिक में पृथ्वीकायिक
4 योग 3 औदारिकद्बिक और कार्मण
5 वेद 1 नपुसक
6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय
7 ज्ञान 2 कुमति, कुश्रुत
8 संयम 1 असंयम
9 दर्शन 1 अचखुदर्शन
10 लेश्या 3 कृ. नी. का.शुभ लेश्या नहीं है ।
11 भव्यत्व2 भव्य, अभव्य
12 सम्यक्त्व 2मिथ्यात्व, सासादनअग्निकायिक, वायुकायिक में सासादन सम्बक्ल नहीं है।
13 संज्ञी 1 असैनी
14 आहार 2 आहारक, अनाहारक
15 गुणस्थान 2 पहला, दूसरा
16 जीवसमास स्वकीय अपने-अपने सूक्ष्म बादर की अपेक्षा दो-दो ।
17 पर्याप्ति 4 आ. श. इ. श्वासो.
18 प्राण 4 1 इ. 1 बल, श्वा. आ.कायबल होता है।
19 संज्ञा 4 आ. भ. मै. पीर.
20 उपयोग 3 2 कुज्ञानो. 1 दर्शनो.अचखुदर्शनो. होता है।
21 ध्यान 8 4 आ. 4 रौ.
22 आसव 38 5 मि. 7 अ. 23 क. 3 यो.
23 जाति स्वकीय अपनी-अपनी 7-7 लाख
24 कुल स्वकीयपू. 22 लाक., ज. 7 ला.क.अग्नि 3 लाक., ११२१ ला.क
प्रश्न:-6पृथ्वी कितने प्रकार की है?
उत्तर-पृथ्वी चार प्रकार की है – 1. पृथ्वी 2. पृथ्वीकाय 3. पृथ्वीकायिक 4. पृथ्वी जीव ।
पृथिवी (पृथ्वी) जो अचेतन है, प्राकृतिक परिणमनों से बनी है और कठिन गुणवाली है वह पृथिवी या पृथ्वी है यह पृथिवी आगे के तीनों भेदों में पायी जाती है ।
पृथिवीकाय – काय का अर्थ शरीर है, अत: पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह पृथिवीकाय कहलाता है । यथा-मरे हुए मनुष्य का शरीर-शव ।
पृथिवी कायिक – जिस जीव के पृथ्वी रूप काय विद्यमान है, उसे पृथिवी कायिक कहते
पृथ्वी जीव – कार्मण काययोग में स्थित जिस जीव ने जब तक पृथिवी को काय रूप में ग्रहण नहीं किया है तब तक वह पृथ्वी जीव कहलाता है । (सर्वा. 286)
प्रश्न:-7 पृथिवीकायिक जीव कौन-कौन से हैं?
उत्तर-मिट्टी, बालू शर्करा, स्फटिकमणि, चन्द्रकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, गेरू, चन्दन (एक पत्थर होता है, कारंजा में इस पत्थर की प्रतिमा है) हरिताल, हिंगुल, हीरा, सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा आदि छत्तीस प्रकार के पृथिवीकायिक जीव हैं । (बू 206 – 9)
प्रश्न:-8 जल कितने प्रकार का है?
उत्तर-जल चार प्रकार का है- 1. जल 2. जलकाय 3. जलकायिक 4 जलजीव ।
जल – जो जल आलोड़ित हुआ है, उसे एवं कीचड़ सहित जल को जल कहते हैं ।
जलकाय – जिस जलकायिक में से जीव नष्ट हो चुके हैं अथवा गर्म पानी जलकाय है ।
जलकायिक – जल जीव ने जिस जल को शरीर रूप में ग्रहण किया है, वह जलकायिक
जलजीव – विमगति में स्थित जीव जो एष्क दो या तीन समय में जल को शरीर रूप में ग्रहण करेगा, वह जल जीव है । (मिसादी. 11? 14 – 15)
प्रश्न:-9 जलकायिक जीव कौन-कौन से हैं?
उत्तर-ओस, हिम (बर्फ), कुहरा, मोटी बूँदें, शुद्ध जल, नदी, सागर, सरोवर, कुआ, झरना, मेघ से बरसने वाला जल, चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न जल, घनवात आदि का पानी जलकायिक जीव है । (भू 21० आ.)
प्रश्न:-10-अग्नि कितने प्रकार की होती है?
उत्तर- अग्नि चार प्रकार की होती है-
1अग्नि 2. अग्निकाय 3. अग्निकायिक 4. अग्निजीव ।
अग्नि – प्रचुर भस्म से आच्छादित अग्नि अर्थात् जिसमें थोड़ी उष्णता है वह अग्नि है ।
अग्निकाय – भस्म आदि से अथवा जिस अग्निकायिक को अमि जीव ने छोड़ दिया है वह अग्निकाय है ।
अग्निकायिक – जिस अग्नि रूपी शरीर को अग्नि जीव ने धारण कर लिया है वह अग्निकायिक
अग्निजीव – जो जीव अग्नि रूप शरीर को धारण करने के लिए जा रहा है, विग्रहगति में स्थित है, ऐसा जीव अग्नि जीव है । (सि. सा. दी. 11 ‘ 17 – 18)
प्रश्न:-11 अग्निकायिक जीव कौन- कौन से हैं?
उत्तर-अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धाग्रि और अग्नि ये सब अग्निकायिक जीव हैं ।
अंगारे, ज्वाला, लौ, मुर्मुर, शुद्धअग्नि, धुआँ सहित अग्नि, बढ़वाग्रि, नन्दीश्वर के मंदिरों में रखे हुए धूप घटों की अग्नि, अग्निकुमार देवों के मुकुटों से उत्पन्न अग्नि आदि सभी अग्निकायिक जीव हैं । १- 211 आ.)
प्रश्न:-12 वायु कितने प्रकार की है?
उत्तर-वायु चार प्रकार की है – 1? वायु 2. वायुकाय 3. वायुकायिक 4. वायुजीव ।
वायु – धूलि का समुदाय जिसमें है ऐसी भ्रमण करनेवाली वायु, वायु है ।
वायुकाय – जिस वायुकायिक में से जीव निकल चुका है, ऐसी वायु का पौद्गलिक वायुदेह वायुकाय है ।
वायुकायिक – प्राण युक्त वायु को वायुकायिक कहते हैं ।
वायुजीव – वायु रूपी शरीर को धारण करने के लिए जाने वाला ऐसा विग्रहगति में स्थित जीव वायु जीव है । (मिसा. दी. 11० – 21)
प्रश्न:-13 वायुकायिक जीव कौन-कौनसे हैं?
उत्तर-घूमती हुई वायु, उत्कलि रूप वायु, मण्डलाकार वायु, गुजावायु, महावायु, घनोदधि वातवलय की वायु और तनु-वातवलय की वायु से सब वायुकायिक जीव हैं । ( पू 212 आ.)
प्रश्न:-14 पृथ्वी आदि वनस्पति पर्यन्त कौनसी गति के जीव हैं? ।
उत्तर-पूजा आ।दे वनस्पति पर्यन्त सभी तिर्यञ्चगति के जीव हैं । ये पाँचों स्थावर कहलाते हैं’ । लेकिन स्थावर कोईगति नहीं है । कहा भी है- ” औपपादिकमनुष्येथ्य: शेषास्तिर्यग्योनय: ” (न. लू: 4? 27) अर्थात् उपपाद जन्म वाले देव, नारकी और मनुष्यों को छोड्कर शेष सभी तिर्यव्व हैं ।
प्रश्न:-15 स्थावर जीवों के कृष्णलेश्या कैसे सिद्ध होती है?
उत्तर-तीव्रक्रोध, वैरभाव, क्लेश संताप, हिंसा से युक्त तामसी भाव कृष्णलेश्या के प्रतीक हैं । तस्मानिया के जंगलों में ‘ होरिजन्टिल-स्कन’ नामक वृक्षों की डालियाँ व जटायें जानवरों या मनुष्यों के निकट आते ही उनके शरीर से लिपट जाती हैं । तीव्र कसाव से (कस जाने के कारण) जीव उससे छुटकारा पाने की कोशिश करते हुए अन्तत: वहीं मरण को प्राप्त हो जाता है, इस क्रिया से उनकी हिंसात्मक प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से समझ में आती है, यह कृष्ण लेश्या की प्रतीक है ।
प्रश्न:-16 स्थावरों में नीललेश्या कैसे समझ में आती है?
उत्तर-आलस्य, मूर्खता, भीरुता, अतिलोलुपता आदि नीललेश्या के प्रतीक हैं । कई वनस्पतियाँ आलसी एन्यै हठी होती हैं । उनके बीज सुपुप्तावस्था में पड़े रहते हैं । शंख पुष्पी, बथुआ, बैंगन आदि के बीजों को अंकुरित कराने के लिए उपचारित करना पड़ता है उन्हें उच्चताप, निम्नताप, प्रकाश, अन्त, पानी या रासायनिक पदार्थों से सक्रिय किया जाता है तभी वे अंकुरित होते हैं । इसी प्रकार तम्बाखू गोखरू, सिंघाड़ा आदि की भी स्थिति है । कलश, पादप, सनद? आदि पौधे गध, रंग, रूप आदि से कीड़ों को आकर्षित करते है । उन्हें खाने की लोलुपता इनमें विशेष रहती है । युटीकुलेरियड का पौधा स्थिर पानी में उगता है । इसकी पत्तियाँ सुई के आकार की होती हैं और पानी में तैरती हैं । पत्तियों के बीच में छोटे-छोटे हरे रग के गुब्बारे के आकार के फूले अंग रहते हैं । पौधा इन्हीं गुब्बारों से कीड़ों को पकड़ता है । गुब्बारे की भीतरी दीवारों से पौधा एक रस छोड़ता है कीड़ों को नष्ट कर देता है इसे इसकी अतिलोलुपता अर्थात् नील लेश्या का प्रतीक माना जा सकता
प्रश्न:-17 स्थावरों में कापोतलेश्या को कैसे समझा जा सकता है?
उत्तर-निन्दा, ईर्षा, रोष, शोक, अविश्वास आदि कापोत लेश्या के लक्षण हैं । इस लेश्या वाले दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले होते हैं । नागफनी, काकतुरई, क्रौंच, चमचमी आदि वनस्पतियाँ काँटे, दुर्गन्ध या खुजली पहुँचाने वाले होते हैं । इनको छूने से या इनके निकट जाने से कुछ कष्ट अवश्य होता है । इसे कापोतलेश्या के रूपमें स्वीकार किया जा सकता है । अशुभलेश्या के उदाहरण वनस्पति में स्पष्ट रूपसे समझ में आते हैं । पृथ्वी आदिमें इनका स्पष्टीकरण नहीं होता है फिर भी पानी में भँवर आना, वायु में चक्रवात, अग्नि में बड़वानल, दावानल, ज्वालामुखी आदि प्रवृत्तियों से अशुभलेश्याओं का अनुमान लगाया जा सकता
प्रश्न:-18 क्या पृथ्वीकायिकादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान होता है?
उत्तर-पृथ्वीकायादि पाँचों स्थावरों में सासादन गुणस्थान सम्बन्धी दो विचार हैं –
( 1) इन्द्रिय मार्गणा की अपेक्षा एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं । यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि उक्त जीवों में सासादन गुणस्थान निर्वृत्यपर्याप्त दशा में ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं; क्योंकि पर्याप्त दशा में तो वहाँ एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । (पं. सं. प्रा.)
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा असैनी में तो अपर्याप्त तथा सैनी के पर्याप्त- अपर्याप्त अवस्था में सासादन गुणस्थान होता है । (गो. जी. जी. 695)
एकेन्द्रियों में जाने वाले वे जीव बादर पृथिवीकायिक, बादरजलकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्यासको में ही जाते हैं, अपर्यातकों में नहीं । ४.०)
(2)कौन कहता है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियों में होते है? किन्तु वे उस एकेन्द्रिय में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं ऐसा हमारा निश्चय है, न कि वे अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं; क्योंकि उनमें आयु के छिन्न होने के समय सासादन गुणस्थान नहीं पाया जाता है । ९.) सासादन सम्यग्दृष्टियों की एकेन्द्रियों में उत्पत्ति नहीं है । (य. 7)
प्रश्न:-19 पृथ्वीकायिकादि में कितनी व कौन-कौन सी अविरतियों होती हैं?
उत्तर-पृथ्वीकायिकादि में सात अविरतियाँ होती हैं – षट्कायिक जीवों की हिंसा के अत्यागरूप छह तथा स्पर्शन इन्द्रिय को वश में नहीं करने रूप एक = कुल सात ।
तालिका संख्या 9
वनस्पति कायिक
! क्रम !! संख्या !! स्थान !! विवरण !! विशेष
1 गति 1 तिर्यव्यगति
2 इन्द्रिय 1 एकेन्द्रिय
3 काय 1 स्वकीय वनस्पति कायिक
4 योग 3 औदारिकद्विक, कार्मण
5 वेद 1 नपुंसक
6 कषाय 23 16 क. 7 नो.क. स्त्री तथा पुरुषवेद नहीं हैं
7 ज्ञान 2 कुमति, कुश्रुत
8 संयम 1 असंयम
9 दर्शन 1 अचखुदर्शन
10 लेश्या 3 कृ. नी. का. शुभ लेश्या नहीं होती है
11 भव्य 2 भव्य, अभव्य
12 सम्यक्त्व 2 मिथ्यात्व, सासादन
13 संज्ञी 1 असैनी
14 आहार 2 आहारक, अनाहारक
15 गुणस्थान 2 मिथ्यात्व, सासादन
16 जीवसमास 6 वनस्पति सम्बन्धी
17 पर्याप्ति 4 आ. श. इ. श्वा.
18 प्राण 4 1 इ. 1 ब. श्वा. आ. स्पर्शन इन्द्रिय होती है ।
19 संज्ञा 4 आ. भ. मै. पीर.
20 उपयोग 3 2 ज्ञानो. 1 दर्शनो.
21 ध्यान 8 4 आ. 4 रौ.
22 आसव 385 मि. 7 अ. 23 क. 3 यो.
23 जाति 24 लाख वनस्पति सम्बन्धीनित्यनिगोद तथा इतरनिगोद सम्बन्धी जाति भी ग्रहण करना चाहिए ।
24 कुल 28 ला.क.वनस्पति सम्बन्धी
प्रश्न:-20 वनस्पति जीव कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर-वनस्पति जीव चार प्रकार के हैं- 1. वनस्पति, 2 ए वनस्पति काय, 3३ वनस्पतिकायिक 4. वनस्पति जीव ।
वनस्पति – जिसका अध्यन्तर भाग जीवयुक्त है, और बाह्य भाग जीव रहित है, ऐसे वृक्ष आदि को वनस्पति कहते है ।
वनस्पतिकाय – छिन्न- भिन्न किये गये तृण आदि को वनस्पतिकाय कहते हैं ।
वनस्पतिकायिक – जिसमें वनस्पतिकायिक जीव पाये जाते हैं उन्हें वनस्पतिकायिक जीव कहते हैं ।
वनस्पतिजीव – आयु के अन्त में पूर्व शरीर को त्याग कर जो जीव वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न होने के लिए विग्रहगति में जा रहा है, उसे वनस्पति जीव कहते हैं । (सिसादी. 11 ‘ 22 – 25)
प्रश्न:-21वनस्पति जीव कौन- कौनसे होते हैं?
उत्तर-पर्व, बीज, कन्द, स्कन्ध तथा बीजबीज, इनसे उत्पन्न होने वाली और सम्पूर्छिम वनस्पति कही गयी है । जो प्रत्येक और अनन्तकाय ऐसे दो भेद रूप है । ग्ल में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ अ बीज हैं, जैसे-हल्दी आदि । (गो. जी. 186)
प्रश्न:-22 वनस्पति कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-वनस्पति दो प्रकार की होती है- 16 साधारण वनस्पति 2. प्रत्येक वनस्पति ।
प्रश्न:-23 साधारण वनस्पति किसे कहते हैं?
उत्तर-बहुत आत्माओं के उपभोग के हेतु रूप से साधारण शरीर जिसके निमित्त से होता है, वह साधारण शरीर नामकर्म है ।
जिस कर्म के उदय से जीव साधारण शरीर होता है उस कर्म की साधारण शरीर यह संज्ञा हे । (य. 6)
जिस कर्म के उदय से एक ही शरीर वाले होकर अनन्त जीव रहते हैं, वह साधारण शरीर नामकर्म है । (य. 13? 365)
प्रश्न:-24 प्रत्येक वनस्पति किसे कहते हैं?
उत्तर-जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथकृ-पृथक् शरीर होता है उन्हें प्रत्येक शरीर कहते हैं । जैसे-खैर आदि वनस्पति । ७.०)
जिस जीव ने एक शरीर में स्थित होकर अकेले ही सुख-दुःख के अनुभव रूप कर्म उपार्जित किया है वह जीव प्रत्येक शरीर है । (य. 3 ‘ 333)
प्रश्न:-25 स्थावर और एकेन्द्रिय में क्या अन्तर है?
उत्तर-एकेन्द्रिय नामकर्म में इन्द्रिय की मुख्यता है और स्थावर नामकर्म में काय की मुख्यता है । एकेन्द्रिय जीवों के एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है और स्थावर जीवों के पृथ्वीकायिक आदि नामकर्म का उदय होता है ।
प्रश्न:-26 वनस्पति-कायिक सम्बन्धी कितने जीवसमास हैं?
उत्तर-वनस्पतिकायिक सम्बन्धी छह जीवसमास हैं-
1. नित्यनिगोद
‘
2. नित्यनिगोद बादर ।
3. इतरनिगोद सूक्ष्म
4. इतरनिगोद बादर ।
5. सप्रतिष्ठित प्रत्येक
6. अप्रतिष्ठित प्रत्येक ।
प्रश्न:-27 वनस्पति सम्बन्धी 24 लाख जातियाँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर-वनस्पति सम्बन्धी 24 लाख जातियाँ-
नित्यनिगोद की – 7 लाख, इतरनिगोद की 7 लाख, तथा वनस्पति कायिक की 1० लाख .मर
नोट – नित्यनिगोद एवं इतर निगोद को वनस्पतिकायिक में ग्रहण नहीं करने पर 1० लाख जातियाँ ही होती हैं ।
प्रश्न:-28 क्या ऐसे कोई वनस्पतिकायिक जीव हैं, जिनके कार्मण काययोग होता ही नहीं ३ है ?
उत्तर-ही, जो वनस्पतिकायिक जीव अनुगति से जाते हैं, उनके कार्मण काययोग नहीं होता है । नोट : इसी प्रकार ऋजुगति से जाने वाले सभी जीवों के जानना चाहिए ।
तालिका संख्या 10
त्रसकायिक
! क्रम !! स्थान !! संख्या !! विवरण !! विशेष
1 गति 4 न.ति.म.दे.
2 इन्द्रिय 4 द्वी. त्री. चतु. पंचे.
3 काय 1 त्रस
4 योग 15 4 मनो. 4 व. 7 काय.मनोयोग सैनी जीवों के ही होते हैं ।
5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.
6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय
7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान 5 ज्ञान सम्यग्दृष्टि के ही होते हैं ।
8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं.
9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव. केव.केवलदर्शन मनुष्यों में ही होता है।
10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.
11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य
12 सभ्यक्ल 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.
13 संज्ञी 2 सैनी, असैनीअसैनी जीव तिर्यच्चों में ही होते हैं।
14 आहार 2 आहारक, अनाहारक
15 गुणस्थान 14 पहले से 14 वें तक
16 जीवसमास 5 द्वी.त्री.चतु.सै.असैनी पंचे.
17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.मनःपर्याप्ति सैनी जीवों के ही होती है।
18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.
19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.
20 उपयोग 12 8 ज्ञानो. 4 दर्शनो.
21 ध्यान 16 4 ओ. 4 रौ. 4 ध. 4 शु.
22 आस्रव 57 5 मि.12 अवि.25 क.15 यो.
23 जाति 32 ला. द्वी. 2 ला., त्री. 2 ला., चतु.2 ला. पंचे. 26 लाख पंचेन्द्रिय में नारकी, देव, मनु तिर्य सबको ग्रहण करना चाहिए ।
24 कुल 132 1/2ला.क.द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीवों के कुल
प्रश्न28 : त्रस जीव कितने प्रकार के हैं?
उत्तर : त्रस जीव दो प्रकार के हैं- 1 विकलेन्द्रिय 2, सकलेन्द्रिय ।
विकलेन्द्रिय – द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों को विकलेन्द्रिय जानना चाहिए ।
सकलेन्द्रिय – सिंह आदि थलचर, मच्छ आदि जलचर, हँस आदि आकाशचर तिर्यब्ज और देव, नारकी, मनुष्य ये सब पंचेन्द्रिय हैं १- 218 – 1 आ.)
अथवा – त्रस जीव 1, पर्याप्त तथा 2 ‘ अपर्याप्त के भेद से भी दो प्रकार के हैं । ४.? 272) त्रस जीव चार प्रकार के हैं- 1? द्वीन्द्रिय 2 श् त्रीन्द्रिय 3 चतुरिन्द्रिय 4. पंचेन्द्रिय । (न. च. 122)
प्रश्न29- ऐसे कौनसे त्रस जीव हैं, जिनके औदारिक काययोग नहीं होता है?
उत्तर :वे त्रस जीव जिनके औदारिक काययोग नहीं होता है-
1 विग्रहगति, निर्वृत्यपर्याप्त तथा लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में स्थित त्रस जीव ।
2. चौदहवें गुणस्थान वाले अयोग केवली भगवान (इनके योग ही नहीं होता है) 3 देव-नारकी ।
4. एक समय में एक जीव के एक ही योग होता है इसलिए किसी भी योग के साथ कोई भी योग नहीं होता है ।
प्रश्न३०- क्या ऐसे कोई त्रस जीव हैं जिनके वेद का अभाव हो गया हो?
उत्तर :ही, नवम गुणस्थान की अवेद अवस्था से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक स्थित त्रस जीवों के वेद का अभाव हो जाता है ।
प्रश्न31-त्रम जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में कम-से-कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर :त्रस जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तावस्था में कम-से-कम 2 प्राण होते हैं । 1? कायबल, 2 व आयु ये दो प्राण तेरहवें गुणस्थान वाले केवली
प्रश्न 32- भगवान की समुद्घात अवस्था में होते हैं । क्या ऐसे कोई त्रस्र जीव हैं जिनके संज्ञाएँ नहीं होती हैं?
उत्तर : ही, ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के त्रस जीवों के आहारादि कोई संज्ञाएँ नहीं होती हैं । (गो.जीजी. 702)
प्रश्न३३- क्या ऐसा कोई त्रस जीव है, जिसके जीवन में सभी उपयोग हो जावें?
उत्तर :ही, किसी एक तद्भव मोक्षगामी मनुष्य के अपने जीवनकाल में सभी उपयोग हो सकते हैं, अन्य किसी जीव के नहीं हो सकते ।
जैसे-किसी मिथ्यादृष्टि मनुष्ये ने सम्यग्दर्शन प्राप्त करके अवधिज्ञानो. प्राप्त कर लिया तो उसके मति, भुल, अवधिज्ञानो. होगा । फिर वही सम्बक्ल से क्षत हुआ तो उसके कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधिज्ञान होगा ।
वही पुन: सम्यग्दर्शन प्राप्त कर मुनि बनकर मनःपर्ययज्ञानो. प्राप्त कर ले तो उसके चार ज्ञानो. हो जायेंगे ।
वही जब चार घातिया कर्मों को नष्ट कर देता है तो उसके केवलज्ञानने, हो जायेगा । चक्षु तथा अचखुदर्शनी. सभी मनुष्यों के होते हैं जिसने अवधिज्ञानो. प्राप्त किया उसके अवधि दर्शनो. होगा तथा घातिया कर्म क्षय करने पर केवलदर्शनो. हो जायेगा । इस प्रकार एष्क मनुष्य अपने जीवनकाल में सभी उपयोग प्राप्त कर सकता है, लेकिन छद्मस्थ’ जीवों के एक समय में एक ही उपयोग होता है और केवली भगवान के दर्शन तथा ज्ञान दोनों उपयोग एक साथ होते हैं ।
नोट – कुमति, कुसुत, कुअवधिज्ञानो. सम्बक्ल प्राप्त होने के पहले भी होते हैं ।
त्रम जीवों के कम- से-कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं ।
त्रस जीवों के कम-से-कम 7 आसव के प्रत्यय होते हैं ।
तेरहवें गुणस्थान में मात्र 7 योग ही आसव के कारण है । सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो मनोयोग और वचनयले का निरोध हो जाने पर (उस अवस्था में स्थित सभी जीवों के) मात्र एक औदारिक काययोग ही आसव का कारण बचता है । इस अपेक्षा त्रस जीवों के कम-से- कम एक आसव भी कहा जा सकता है ।
अयोगी भगवान भी त्रस हैं, उनके एष्क भी आसव का प्रत्यय शेष नहीं है ।
प्रश्न३४- क्या सभी त्रस जीवों के 57 आसव के प्रत्यय हो सकते हैं?
उत्तर : नहीं, नाना जीवों की अपेक्षा त्रस जीवों के कुल मिलाकर सत्तावन आसव के प्रत्यय हो जाते हैं-
सत्यमनो. सत्य वचनयोग तथा – संज्ञीपंचेन्द्रिय से 1 वें गुणस्थान तक । अनुभय मनोयोगअसत्य उभय मन तथा वचन योग – संज्ञीपचेन्द्रिय से १-, गुणस्थान तक । अनुभयवचनयोग – द्वीन्द्रिय से 1 वें गुणस्थान तक ।
औदारिकद्विक – मनुष्य-तिर्यच्चों के ।
वैक्रियिकद्विक – देव-नारकियों के ।
आहारकद्बिक – छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के ।
1 छ जो ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण कर्म के उदय में स्थित होते हैं उन्हें छद्यस्थ कहते हैं । ये 1 वें गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।
कार्मणकाययोग …. – चारों गति की अपेक्षा कहा गया है । 5 मिथ्यात्व और 23 कवायें – मिथ्यादृष्टि नारकी एवं समर्चन पंचे. एं तथा विकलत्रय की अपेक्षा ।
स्त्रीवेद पुरुषवेद – देव, मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तिर्यच्चों की अपेक्षा ।
12 ‘अविरति – मात्र संज्ञी पंचेन्द्रिय के ही हो सकती
नोट – द्वीन्द्रिय आदि जीवों के बारह में से कुछ-कुछ अविरतियाँ होती हैं ।
प्रश्न35-त्रम जीवों की 32 लाख जातियों कौन-कौन सी हैं?
उत्तर :त्रस जीवों की 32 लाख जातियाँ –
( 1) द्वीन्द्रिय की – 2 लाख (2) त्रीन्द्रिय की – 2 लाख
(3) चतुरिन्द्रिय की – 2 लाख (4) पंचेन्द्रिय तिर्यंच की – 4 लाख
(5) नारकियों की – 4 लाख (6) देवों की – 4 लाख
(7) मनुष्य की – 14 लाख
प्रश्न 36-त्रस जीवों के 132 -ा? लाखकरोड़ कुल कौन- कौनसे हैं?
उत्तर : त्रस जीवों के 132 -2 लाखकरोडू कुल-
द्वीन्द्रियों के – 7 लाखकरोड़ नारकियों के – 25 लाखकरोड़ एए?
त्रीन्द्रियोंके – 8 लाखकरोडू देवों के – 26 लाखकरोडू चतुरिन्द्रिय के – 9 लाखकरोड़ मनुष्यों के – 14 लाखकरोड़
पंचेन्द्रिय तिर्यच्चों में-जलचरों के 12 -ा? लाखकरोड़, थलचरों के 19 लाखकरोड़, नभचरों के 12 लाखकरोड़ zZ 132 -ा? लाखकरोड़ ।
प्रश्न37- ऐसी कौनसी कषायें हैं जो त्रस्र जीवों के तो होती हैं लेकिन स्थावर जीवों के नहीं होती हैं?
उत्तर :मात्र दो कवायें ऐसी हैं जो त्रस जीवों के होती हैं लेकिन स्थावर जीवों के नहीं होती- स्त्रीवेद और पुरुषवेद नोकषाय ।
प्रश्न38-ऐसी कौनसी अविरति हैं जो त्रस तथा स्थावर दोनों के होती हैं?
उत्तर :7 अविरतियाँ त्रस तथा स्थावर दोनों जीवों के होती हैं-
षट्काय की हिंसासम्बन्धी तथा स्पर्शन इन्द्रिय सम्बन्धी ।
प्रश्न39- चौबीस स्थानों में से ऐसे कौन से स्थान हैं जिनके सभी उत्तरभेद त्रसों में पाये जाते ई?
उत्तर :चौबीस स्थानों में से 19 स्थान ऐसे हैं जिनके सभी उत्तर भेद त्रसों में पाये जाते हैं- 1. गति 2. योग 3. वेद 4. कषाय5. ज्ञान 6. संयम 7. दर्शन 8. लेश्या 9 भव्य 1०. सम्बक्ल 11 संज्ञी 12. आहारक13. गुणस्थान 14. पर्याप्ति 15. प्राण 16. सज्ञा17 उपयोग 18. ध्यान 19 आसव के प्रत्यय
प्रश्न40- स्थावर जीवों में किस- किस स्थान के सभी उत्तरभेद नहीं पाये जाते हैं?
उत्तर :स्थावर जीवों में 21 स्थानों के सभी उत्तर भेद नहीं पाये जाते हैं-
1. भव्य 2. आहारक 3. संज्ञा, इन तीन स्थानों को छोड्कर शेष सभी स्थानों के सभी उत्तर भेद स्थावर जीवों में नहीं पाये जाते हैं । अर्थात् गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, सम्बक्च, संज्ञी, गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, उपयोग, ध्यान, आसव के प्रत्यय, जाति तथा कुल इन 21 स्थानों के सभी उत्तर भेद नहीं होते हैं ।
प्रश्न41-ऐसे कौन- कौनसे उत्तर भेद हैं जो त्रसों में होते हैं लेकिन स्थावरों में नहीं होते हैं?
उत्तर :वे उत्तर भेद जो त्रसों में होते हैं लेकिन स्थावरों में नहीं होते हैं-
! क्रम !! संख्या स्थान !! विवरण
1 3 गतियाँ देवगति, नरकगति, मनुष्यगति
2 4 इंद्रियाँ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय,पंचेन्द्रिय
3 1 काय त्रस
4 12 योग 4 म. 4 व 4 काययोग ।
5 2 वेद स्त्रीवेद , पुरुषवेद
6 2 कषाय स्त्रीवेद , पुरुषवेद
7 6 ज्ञान 5 ज्ञान 1 कुअवधिज्ञान
8 6 संयम असंयम को छोडकर शेष संयम
9 3 दर्शन चक्षु, अवधि, केवलदर्शन
10 3 लेश्या पीत, पद्म, शुक्ल
11 सम्यक्त्व मिथ्यात्व और सासादन को छोड्कर ।
12 1 संज्ञी सैनी
13 12 गुणस्थान तीसरा आदि 12 गुणस्थान
14 5 जीवसमास 5 जीवसमास
15 2 पर्याप्ति भाषा तथा मन
16 6 प्राण 4 इन्द्रिय, वचनबल, मनोबल
17 9 उपयोग 6 ज्ञानो. 3 दर्शनो.
18 8 ध्यान 4 ध. 4 शु.
19 19 आसव के प्रत्यय 5 अविरति. 2 वेद, 12 योग
2० जाति 32 लाख
21 कुल132 1/२ लाख करोड़
प्रश्न42- ब्रस्र काय की जाति एवं पंचेन्द्रिय की जाति में क्या अन्तर है?
उत्तर-त्रस काय की जातियों से पंचेन्द्रिय जीवों में 6 लाख जातियों का अन्तर है । अर्थात् त्रसकाय में 32 लाख जातियाँ हैं तथा पंचेन्द्रिय जीवों की मात्र 26 लाख जातियाँ हैं । त्रस जीवों में विकलत्रय की जातियाँ भी होती हैं, पंचेन्द्रियों में नहीं ।
प्रश्न43- किस काय वाले के सबसे ज्यादा कुल होते हैं?
उत्तर :त्रसकायिक जीवों के कुल सबसे ज्यादा हैं क्योंकि उनमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, देव-नारकी-मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच सबके कुलों का ग्रहण हो जाता है । स्थावरकाय में केवल एकेन्द्रिय जीवों के. कुलों का ही ग्रहण होता है । त्रसों के 132 र? लाख करोड़ तथा पृथ्वीकायिकादि पाँच कायिक में केवल 67 लाख करोड़ कुल होते हैं ।
प्रश्न44- जलकायिक के कुल के बराबर कुल कौनसी कायवालों के होते हैं?
उत्तर : जलकायिक के कुल के बराबर कुल वायुकायिक जीवों के होते है । दोनों में प्रत्येक के 7 लाख करोड़ कुल होते हैं ।
प्रश्न 1-योग मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर : कर्म वर्गणा रूप पुद्गल स्कन्धों को ज्ञानावरण आदि कर्म रूप से और नोकर्म वर्गणा रूप पुद्गल स्कन्ध को औदारिक आदि नोकर्म रूप से परिणमन में हेतु जो सामर्थ्य है तथा आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द को योग कहते हैं ।
जैसे- अग्रि के संयोग से लोहे में दहन शक्ति होती है, उसी तरह अंगोपांग और शरीर नामकर्म के उदय से जीव के प्रदेशों में कर्म और नोकर्म को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न होती है । (गो. जी. 216) जीवों के प्रदेशों का जो संकोच-विकोच और परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है, वह योग कहलाता है । (ध. 1०7437) मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तक आत्मप्रदेश का परिस्पन्द योग है । (ध. 10437) उपर्युक्त योगों में जीवों की खोज करने को योग मार्गणा कहते हैं ।
प्रश्न 2-योग कितने होते हैं?
उत्तर : योग दो प्रकार के हैं- 1. द्रव्य योग 2. भाव योग । योग के तीन भेद हैं- 1 मनोयोग. 2 वचनयोग. 3 काययोग । (त. सू 6) योग के पन्द्रह भेद होते हैं – 4 मनोयोग – सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्यमृषामनोयोग असत्यमृषामनोयोग । (सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग) 4 वचनयोग – सत्यवचनयोग, मृषावचनयोग, सत्यमृषावचनयोग, असत्यमृषा- वचन योग । (सत्यवचनयघो, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग) 7 काययोग – औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययणे, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग तथा कार्मणकाययोग ।
प्रश्न 3- द्रव्ययोग किसे कहते हैं?
उत्तर : भावयोग रूप शक्ति से विशिष्ट आत्मप्रदेशों में जो कुछ हलन-चलन रूप परिस्पन्द होता है वह द्रव्य योग है । ( गो.जी. 216)
प्रश्न4- भावयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : पुद्गल विपाकी अंगोपांग नामकर्म और शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय रूप से परिणत तथा कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा का अवलम्बन करने वालेसंसारी जीव के लोकमात्र प्रदेशों में रहने वाली जो शक्ति कर्मों को ग्रहण करने में कारण है वह भावयोग है । (मै।. म्बूँ।. मै 16)
प्रश्न 5-मनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : अध्यन्तर में वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम रूप मनोलब्धि के सन्निकट होने पर और बाह्य निमित्त रूप मनोवर्गणा का अवलम्बन होने पर मनःपरिणाम के प्रति अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है उसे मनोयोग कहते हैं । (रा. वा. 671०) मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्य के आलम्बन से जो संकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है । (ध. 7776)
प्रश्न 6-वचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : भाषा वर्गणा सम्बन्धी पुद्गल स्कन्धों के अवलम्बन से जीव प्रदेशों का जो संकोच-विकोच होता है वह वचनयोग है । ४. ‘ 76) शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचन वर्गणाओं का अवलम्बन लेने पर तथा वीर्यान्तराय का क्षयोपशम और मति अकरादि ज्ञानावरण के क्षयोपशम आदि से अध्यन्तर में वचनलब्धि का सान्निध्य होने पर वचन परिणाम के अभिमुख हुए आत्मा के प्रदेशों का जो परिस्पन्दन होता है वह वचनयोग कहलाता है । (सर्वा. 610)
प्रश्न 7-काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर : वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर औदारिक आदि सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक के अवलम्बन की अपेक्षा करके जो आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है, वह काययोग है (सर्वा. मि. 671) जो चतुर्विध शरीरों’ के अवलम्बन से जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच होता है, वह काययोग है । (य. 7 ‘ 76) वात, पित्त व कफ आदि के द्वारा उत्पन्न परिश्रम से जीव प्रदेशों का जो परिस्पन्द होता है वह काययोग कहा जाता है । (ध. 1०7437)
प्रश्न 8- योग मार्गणा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर : योग मार्गणा के अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी तथा काययलेईा तथा अयोगी जीव होते हैं । (व. खै. 17278 – 8०) अत: योग मर्प्ताया तीन प्रकार की होती है – मनोयोग, वचनयोग, काययोग । 1. औदारिक, वैक्रियिक, आहारक एव कार्मण शरीर । तैजस शरीर के निमित्त से योग नहीं बनता है, इसलिए उसे ग्रहण नहीं किया है ।
प्रश्न 9- योगमार्गणा में द्रव्य योग को ग्रहण करना चाहिए या भावयोग को?
उत्तर : योगमार्गणा में भावयोग को ही ग्रहण करना चाहिए । सूत्र में आये हुए ‘ इमानि’ पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणा स्थानों का ग्रहण करना चाहिए । द्रव्य मार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि द्रव्य मार्गणाएँ देश, काल और स्वभाव की अपेक्षा दूरवर्ती हैं, अतएव अल्पज्ञानियों को उनका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । ( ध. 17131)
प्रश्न 10- योग क्षायोपशमिक है तो केवली भगवान के योग कैसे हो सकता है?
उत्तर : वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयलेकेवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्मप्रदेश-पीरस्पन्दन होता है वह भी योग है, ऐसा जानना चाहिए । (सर्वा. 61०) सयोग केवली में योग के अभाव का प्रसग नहीं आता, योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से हैं । असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योग का सयोग केवली में अभाव मानने में विरोध आता है । ४.) शरीर नामकमोदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है । इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है । ७.) नोट – शरीर नाम कर्म कीं उदीरणा व उदय से योग उत्पन्न होता है इसलिए योग मार्गणा औदयिक है । ९.? 316)
प्रश्न 11- अयोग केवली (योग रहित जीव) कैसे होते हैं?
उत्तर : जिन आत्माओं के पुण्य-पाप रूप प्रशस्त और अप्रशस्त कर्मबन्ध के कारण मन, वचन, काय की क्रिया रूप शुभ और अशुभ योग नहीं हैं वे आत्माएँ चरम गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली और उसके अनन्तर गुणस्थानों से रहित सिद्ध पर्याय रूप परिणत मुक्त जीव होते हैं । (गो. जी. 243) जो मन, वचन, काय वर्गणा के अवलम्बन से कर्मोंके ग्रहण करने में कारण आत्मा के प्रदेशों का पीरस्पन्दन रूप जो योग है, उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन होते हैं । ( वृद्रसं. टी. 13)
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 4 न.ति.म.दे. – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय एकेन्द्रियादि के ये योग नहीं हैं। – 3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय सत्यमनोयोगी के सत्य मनोयोग -5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय-7 ज्ञान 83 कुज्ञान. 5 ज्ञान -8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं.- 9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव. केव.- 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 1 सैनी, सैनी-असैनी से रहित के भी होते हैं । – 14 आहार 1 आहारक, अनाहारक अवस्था में पर्याप्ति पूर्ण नहीं होने से ये तीनों योग नहीं होते । – 15 गुणस्थान 13 पहले से 13 वें तक- 16 जीवसमास 1 सैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा.भा . म.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 12 8 ज्ञानो. 4 दर्शनो.- 21 ध्यान 14 4 आ . 4 रौ. 4 ध. 2 शु. आदि के दो शुक्ल ध्यान हैं – 22 आस्रव 43 5 मि. 12 अवि.25 क.1यो.स्वकीय योग – 23 जाति 26 ला. ना.म.देव तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच की – 24 कुल 108 1/2ला.क. ना.म.देव तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच की
प्रश्न12- : सत्य मनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : सम्यग्ज्ञान के विषयभूत अर्थ को सत्य कहते हैं । जैसे-जल ज्ञान का विषय जल सत्य है, क्योंकि स्नान-पान आदि अर्थक्रिया उसमें पाई जाती हैं । सत्य अर्थ का ज्ञान उत्पन्न करने की शक्ति रूप भाव मन सत्य मन है । उस सत्य मन से उत्पन्न हुआ योग अर्थात् प्रयत्न विशेष सत्य मनोयोग है । (गो. जीजी. 217 – 18)
प्रश्न 13-सत्य वचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : सत्य अर्थ का वाचक वचन सत्य वचन है । स्वर नामकर्म के उदय से प्राप्त भाषा पर्याप्ति से उत्पन्न भाषा वर्गणा के आलम्बन से आत्मप्रदेशों में शक्ति रूप जो भाव वचन से उत्पन्न योग अर्थात् प्रयत्न विशेष है, वह सत्यवचन योग है । (गो. जी. 22० सं. प्र.) दस प्रकार के सत्यवचन में वचन वर्गणा के निमित्त से जो योग होता है वह सत्य वचन योग है । (पस. प्रा.)
प्रश्न 14- अनुभय मनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : जो मन सत्य और असत्य से युक्त नहीं होता, वह असत्यमृषामन है अर्थात् अनुभय अर्थ के ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति रूप भावमन से उत्पन्न प्रयत्न विशेष अनुभय मनोयोग है । ( गो.जी. 219) अनुभय ज्ञान का विषय अर्थ अनुभय है, उसे न सत्य ही कहा जा सकता है और न असत्य ही कहा जा सकता है । जैसे-कुछ प्रतिभासित होता है । यहाँ सामान्य रूप से प्रतिभासमान अर्थ अपनी अर्थक्रिया करने वाले विशेष के निर्णय के अभाव में सत्य नहीं कहा जा सकता और सामान्य का प्रतिभास होने से असत्य भी नहीं कहा जा सकता । इसलिए जात्यन्तर होने से अनुभय अर्थ स्पष्ट चतुर्थ अनुभय मनोयोग है । जैसे-किसी को बुलाने पर ‘ हे देवदत्त’ यह विकल्प अनुभय है । ( गो. जी. 217)
प्रश्न 15- सत्य तथा अनुभय मन- वचनयोग का कारण क्या है?
उत्तर : सत्य तथा अनुभय मन-वचनयोग का मूल कारण (निमित्त) प्रधानकारण पर्याप्त नामकर्म और शरीर नामकर्म का उदय है । (गो. जी. 227)
प्रश्न 16- सत्य मनोयोगी के क्षायिकसम्य? में कितने गुणस्थान होते हैं?
उत्तर : सत्य मनोयोगी के क्षायिक सम्बक्ल में चौथे से तेरहवें गुणस्थान तक के 1० गुणस्थान होते हैं ।
प्रश्न 17- सत्य वचनयोगी के केवलदर्शन में कितने गुणस्थान हो सकते हैं?
उत्तर : सत्य वचनयोगी के केवलदर्शन में एक ही गुणस्थान होता है-तेरहवीं ।
प्रश्न 18- सत्य मनोयोगी जीव के कम-से-कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर : सत्य मनोयोगी जीव के कम-से-कम चार प्राण होते हैं- 1. वचन बल 2. कायबल 3. श्वासोच्चवास 4 भू.- आयु । ये चार प्राण सयोगकेवली की अपेक्षा कहे गये हैं ।
प्रश्न 19- केवली भगवान के मनोयोग है तो मनोबल क्यों नहीं कहा गया है?
उत्तर : अंगोपांग नामकर्म के उदय से हृदयस्थान में जीवों के द्रव्य मन की विकसित खिले हुए अष्टदल पद्म के आकार रचना हुआ करती है । यह रचना जिन मनोवर्गणाओं के द्वारा होती है उनका श्रीजिनेन्द्र भगवान सयोगिकेवली के भी आगमन होता है इसलिए उनके उपचार से मनोयोग कहा गया है । लेकिन ज्ञानावरण तथा अन्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय हो जाने से उनके मनोबल नहीं होता है । क्योंकि मनोबल की उत्पत्ति ज्ञानावरण तथा अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है । (गो. जी. 229)
प्रश्न20 – क्या ऐसे कोई सत्य मनोयोगी हैं जिनके मात्र दो संज्ञाएँ हों?
उत्तर : ही, नवम गुणस्थान के सवेदी मनोयोगी मुनिराज के मात्र दो संज्ञाएँ पाई जाती हैं- 1. मैथुन सज्ञा 2. परिग्रह सज्ञा ।
प्रश्न 21- सत्यादि तीन योगों में चौदह ध्यान ही क्यों होते हैं?
उत्तर : इन सत्यादि तीन योगों में चार आर्त्तध्यान, चार रौद्रध्यान, चार धर्मध्यान तथा दो शुक्लध्यान होते हैं । जब केवली भगवान मनोयोग तथा वचनयोग को नष्ट कर देते हैं एवं जब सूक्ष्म काययोग रह जाता है तब तीसरा श्लक्रियाप्रतिपाती ध्यान होता है । अर्थात् तीसरा शुक्लध्यान औदारिक काययोग से ही होता है । जैसा कि तत्त्वार्थख्य महाग्रन्थ में भी कहा है- ” त्येकयोगकाययोगायोगानाम्’ ‘ (9) शुक्लध्यान……….. तीसरा शुक्लध्यान काययोग से होता है मनोयोग तथा वचनयोग से नहीं । इसीलिए इन तीनों योगों में 14 ध्यान ही कहे हैं, पन्द्रह नहीं । प्रश्न 22- अनुभय मनोयोगी के आसव के कम-से-कम कितने प्रत्यय होते हैं?
उत्तर : अनुभय मनोयोगी के आसव का कम-से-कम एक प्रत्यय हो सकता है । ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान में केवल एक स्वकीय अर्थात् अनुभयमनोयोग सम्बन्धी आसव का प्रत्यय होगा, क्योंकि एक समय में एक ही योग हो सकता है तालिका संख्या 12
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष- 1 गति 4 न.ति.म.दे. – 2 इन्द्रिय 4 द्वी. त्री. चतु. पंचे.- 3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय अनुभय वचनयोग -5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.-6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान – 8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं.- 9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव. केव. केवलदर्शन मनुष्यों में ही होता है। -10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 2 सैनी, असैनी- 14 आहार 1 आहारक, – 15 गुणस्थान 13 पहले से 13 वें तक- 16 जीवसमास 5 द्वी.त्री.चतु.सै.असैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 12 8 ज्ञानो. 4 दर्शनो.- 21 ध्यान 14 4 आ. 4 रौ. 4 ध. 2 शु. तीसरा चौथा शुक्लध्यान 22 आस्रव 43 14 योग बिना अनुभय वचन योग ही होता है। – 23 जाति 32 ला. द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त -24 कुल 132 1/2ला.क.द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त एकेन्द्रिय सम्बन्धी कुल नहीं है।
प्रश्न23-अनुभयवचन योग किसे कहते हैं?
उत्तर : जो सत्य और असत्य अर्थ को विषय नहीं करता वह असत्यमृषा अर्थ को विषय करने वाला वचन व्यापार रूप प्रयत्न विशेष अनुभय वचन योग है । दो इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की जो अनकरात्मक भाषा है तथा संज्ञी पंचेन्द्रियों की जो आमन्त्रण आदि रूप अक्षरात्मक भाषा है
जैसे- ‘ ‘देवदत्त! आओ’ ‘, ” यह मुझे दो’ ‘ ” क्या करूँ’ ‘ आदि सब अनुभयवचनयोग कहे जाते हैं । (गोजी. 221) उपर्युक्त ” देवदत्त आओ’ ‘ आदि को अनुभव वचन योग क्यों कहा गया है? ‘देवदत्त आओ’ ‘ आदि वचन श्रोताजनों को सामान्य से व्यक्त और विशेष रूप से अव्यक्त अर्थ के अवयवों को बताने वाले हैं । इनसे सामान्य से व्यक्त अर्थ का बोध होता है इसलिए इन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता और विशेष रूप से व्यक्त अर्थ को न कहने से इन्हें सत्य भी नहीं कहा जा सकता है । (गो. जी. 223)
प्रश्न24-अनक्षरात्मक भाषा में सुव्यक्त अर्थ का अंश नहीं होता है, तब वह अनुभय रूप कैसे हो सकती है?
उत्तर : अनक्षरात्मक भाषा को बोलने वाले दो इन्द्रिय आदि जीवों के सुख-दुःख के प्रकरण आदि के अवलम्बन से हर्ष आदि का अभिप्राय जाना जा सकता है । इसलिए व्यक्तपना सम्भव है । अत: अनक्षरात्मक भाषा भी अनुभय रूप ही है । (गो. जी. 226)
प्रश्न 25- सयोग केवली के अनुभय एवं सत्यवचनयोग की सिद्धि कैसे होती है?
उत्तर : भगवान की दिव्य ध्वनि के सुनने वालों के श्रोत्र प्रदेश को प्राप्त होने के समय तक अनुभव भाषा रूप होना सिद्ध है । उसके अनन्तर श्रोताजनों के इष्ट पदार्थों में संशय आदि को दूर करके सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न करने से सयोग केवली भगवान के सत्यवचनयोगपना सिद्ध है । (गो. जी.)
प्रश्न 26- तीर्थकर तो वीतराग हैं अर्थात् उनके बोलने की इच्छा का तो अभाव है फिर उनके मात्र सत्य वाणी ही क्यों नहीं खिरी, अनुभय वाणी भी क्यों खिरी?
उत्तर : तीर्थंकरों के जीव ने पूर्व में ऐसी भावना भायी थी कि संसार के सभी जीवों का कल्याण कैसे हो । उसी भावना से उनके सहज तीर्थंकर गोत्र (प्रकृति) का बन्ध पड़ गया था । इसी के उदय में वाणी खिरती है । अनादि काल से जीव अज्ञान के कारण पौद्गलिक कर्मों से बँधा हुआ है । ऐसे जीवों को मोक्षमार्ग दिखाने के लिए जीव का तादात्म्य सम्बन्ध अपनी गुण-पर्याय के साथ किस प्रकार का है, उसी का ज्ञान कराने के लिए सत्यवाणी खिरी है और जीव की पौद्गलिक कर्मों के संयोग से कैसी अवस्था हो रही है । इसका ज्ञान कराने के लिए अनुभय वाणी खिरी है । यह दोनों प्रकार की वाणी एक साथ सहज खिर रही है । इस वाणी को सुनकर ही गणधर देवों ने सूत्रों की रचना की है । (चा. चक्र)
प्रश्न 27- क्या, कोई ऐसे अनुभयवचनयोगी है, जिनके वेद नहीं हो?
उत्तर : ही, नवम गुणस्थान के अवेद भाग से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक के अनुभयवचनयोगी वेद रहित होते हैं । इसी प्रकार सत्यादियोगों में भी जानना चाहिए ।
प्रश्न 28- अनुभयवचनयोगी के कम- से- कम कितनी कषायें होती हैं?
उत्तर : दसवें गुणस्थान की अपेक्षा अनुभयवचनयोगी के कम-से-कम एक कषाय होती है तथा ग्यारहवें से 13 वें गुणस्थान तक अनुभयवचनयोगी कषाय रहित भी होते हैं ।
प्रश्न 29- अनुभयवचनयोगी जीव संज्ञी होते हैं या असंज्ञी?
उत्तर : अनुभयवचनयोगी जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं तथा इन दोनों से अतीत अर्थात् संज्ञी- असंज्ञीपने से रहित सयोग केवली भगवान के भी अनुभयवचनयोग पाया जाता
प्रश्न 30- अनुभयवचनयोगी के अवधिज्ञान में कितने गुणस्थान हो सकते हैं?
उत्तर : अनुभयवचनयोगी के अवधिज्ञान में चौथे गुणस्थान से 12 वें गुणस्थान तक के 9 गुणस्थान होते हैं ।
प्रश्न 31- अनुभयवचनयोगी के कौनसे संयम में सबसे ज्यादा गुणस्थान होते हैं?
उत्तर : सामायिक-छेदोपस्थापना संयम में अनुभयवचनयोगी के छठे से नवमे गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते हैं । असंयम में पहले से चौथे तक चार गुणस्थान होते हैं ।
प्रश्न 32- क्या ऐसे कोई अनुभयवचनयोगी हैं जिनके मात्र एक ही सभ्य? होता है?
उत्तर : ही, तेरहवें गुणस्थान में तथा क्षपक श्रेणी के 8 वें, 9 वें, 1० वें 12 वें गुणस्थान में केवल एक क्षायिक सम्बकव ही होता है । द्वीन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तक के जीवों में भी सम्बक्च मर्लणा में से केवल एक मिथ्यात्व ही होता है ।
प्रश्न 33- अनुभयवचनयोगी अनाहारक क्यों नहीं होते?
उत्तर : अनुभयवचनयोग में अनाहारकपना नहीं होने के दो कारण हैं- पहली बात : मात्र कार्मण काययोग में ही जीव अनाहारक होता है । दूसरी बात : भाषा पर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचनयोग नहीं होता, अनाहारक अवस्था में भाषा पर्याप्ति पूर्ण होना तो बहुत दूर, प्रारम्भ भी नहीं होती है ।
प्रश्न ३४- अनुभय मनोयोग में जातियों ज्यादा हैं या अनुभय वचन योग में?
उत्तर : अनुभयवचनयोग में जातियाँ ज्यादा हैं क्योंकि वह द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है तथा अनुभयमनोयोग पंचेन्द्रिय से तेरहवें गुणस्थान तक होता है । अर्थात् अनुभय मनोयोग में 26 लाख जातियाँ है और अनुभय वचनयोग में 32 लाख जातियाँ
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 4 न.ति.म.दे.-2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय- 3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय असत्यमनोयोग में असत्य-मनोयोग – 5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 7 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान केवलज्ञान नहीं हैं – 8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं.- 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. – 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 1 सैनी, – 14 आहार 1 आहारक, – 15 गुणस्थान 12 पहले से 12 वें तक-16 जीवसमास 1 सैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 10 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो.-21 ध्यान 14 4 आ. 4 रौ. 4 ध. 2 शु.- 22 आस्रव 43 14 योग बिना-23 जाति 26 ला. ना.ला.ति.4 ला.मनु.14 ला.तथा देवों की 4 ला. – 24 कुल 108 1/2ला.क. ना.25 ला.क.,ति.43 1/2 ला.क.,मनु.14ला.क.,देव 26 ला.क. “}
प्रश्न 35- असत्यमनोयोग किसे कहते हें?
उत्तर : असत्य अर्थ को विषय करने वाले ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति रूप भाव मन से उत्पन्न प्रयत्न विशेष मृषा अर्थात् असत्यमनोयोग है । जैसे-मरीचिका में जलज्ञान का विषय जल असत्य है । क्योंकि उसमें स्नान-पान आदि अर्थक्रिया का अभाव है । (गो.जी.)
प्रश्न 36- असत्य वचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : असत्य अर्थ का वाचक वचन असत्यवचन व्यापार रूप प्रयत्न असत्यवचन योग है । (गो. जी. 220)
प्रश्न 37- उभय मनोयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : सत्य और असत्य दोनों के विषयभूत पदार्थ को उभय कहते हैं; जैसे-कमण्डलु को यह घट है, क्योंकि कमण्डलु घट का काम देता है इसलिए कथंचित् सत्य है और घटाकार नहीं है इसलिए कथंचित् असत्य भी है । सत्य और मृषा रूप योग को असत्यमृषा मनोयोग कहते हैं । (गोजी. 219)
प्रश्न 38- उभयवचनयोग किसे कहते हैं?
उत्तर : कमण्डलु में घट व्यवहार की तरह सत्य और असत्य अर्थ विधायक वचन व्यापार रूप प्रयत्न उभय वचनयोग है । (गो. जी. 22०)
प्रश्न 39- प्रमाद के अभाव में श्रेणिगत जीवों के असत्य और उभयमनोयोग एवं वचन योग कैसे हो सकता है?
उत्तर : नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञान के कारणभूत मन का सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । परन्तु इसके सम्बन्ध से क्षपक या उपशमक जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है । (ध. 1) ऐसी शंका व्यर्थ है क्योंकि असत्यवचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्यवचन के सद्भाव का प्रतिपादन किया है और इसीलिए उभयसंयोगज सत्यमृषावचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है । (ध. 1)
प्रश्न40-ध्यानस्थ अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में वचनयोग या काययोग का सद्भाव कैसे हो सकता है?
उत्तर : नहीं, क्योंकि ध्यान अवस्था में भी अन्तर्जल्प के लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत न्ल्यू प्रयत्नरूप काययोग का सत्व अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवर्ती जीवों के पाया ही जाता है इसलिए वहाँ वचनयोग एवं काययोग भी सम्भव ही हैं । (ध. 2 ‘ 434)
प्रश्न 41- संसार में ऐसे कौन-कौन से जीव हैं जिनके मनोयोग नहीं होता है? उत्तर : ससार के जीव जिनके मनोयोग नहीं होता है,
उत्तर : एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीव । लब्ध्यपर्याप्त तथा जब तक मन: पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तब तक । तेरहवें गुणस्थान में केवली समुद्घात तथा छठे गुणस्थान में आहारक समुद्घात में जब तक मन: पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती । चौदहवें गुणस्थान में अयोगी । मनोयोग का निरोध होने के बाद तेरहवें गुणस्थान में ।
प्रश्न 42- क्या लब्ध्यपर्याप्तक सैनी जीवों के भी असत्यवचनयोग होता है?
उत्तर : नहीं, किसी भी लब्ध्यपर्यातक जीव के औदारिकमिश्र तथा कार्मण काययले को छोड्कर अन्य कोई योग नहीं होता है क्योंकि भाषा तथा मनःपर्याप्ति पूर्ण हुए बिना वचन तथा मनोयोग नहीं बन सकता है ।
प्रश्न 43-असत्य तथा उभय मन- वचन योग का कारण क्या है?
उत्तर : आवरण का मन्द उदय होते हुए असत्य की उत्पत्ति नहीं होती अत: असत्यमनोयोग, असत्यवचनयप्तो, उभय मनोयोग, उभय वचनयोग का मूल कारण आवरण के तीव्र अनुभाग का उदय ही है, यह स्पष्ट है । इतना विशेष है कि तीव्रतर अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवम्ण असत्यमनोयोग और असत्य वचनयोग का कारण है । और तीव्र अनुभाग के उदय से विशिष्ट आवरण उभयमनोयघो और उभयवचनयप्तो का कारण हे । (गो. जी. 227) यदि सत्य तथा अनुभय मन- वचन योग का कारण आवरणकर्म का तीव्र मन्द अनुभाग होता है
प्रश्न 44- तो केवली भगवान के योग कैसे बनेंगे?
उत्तर : यद्यपि योग का निमित्त आवरणकर्म का मन्द-तीव्र अनुभाग का उदय है किन्तु केवली के सत्य और अनुभययोग का व्यवहार समस्त आवरण के क्षय से होता है । (गो. जी. 227) असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान कितने गुणस्थानों में होता है? असत्य वचनयोगी के मनःपर्ययज्ञान छठे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक के सात गुणस्थानों में होता है ।
प्रश्न 45- असत्य और उभय मनोयोगी के कितने कुल नहीं होते हैं?
उत्तर : असत्य और उभय मनोयोगी के 91 लाखकरोड़ कुल नहीं होते हैं- पृथ्वीकायिक के 22 लाखकरोड़ वनस्पतिकायिक के 28 लाखकरोड़ जलकायिक के 7 लाखकरोड़ द्वीन्द्रिय के 7 लाखकरोड़ अग्रिकायिक के 3 लाखकरोड़ त्रीन्द्रिय के 8 लाखकरोड़ वायुकायिक के 7 लाखकरोड़ चतुरिन्द्रिय के 9 लाखकरोड़
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 2 तिर्यञ्च, मनुष्य – 2 इन्द्रिय 5 ए. द्वी. त्री. चतु. पंचे.- 3 काय 6 पृथ्वी आदि 5 स्थावर 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय औदारिक काययोग 5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान – 8 संयम 7 सा.छे.प.सू.यथा.संय.असं. अस. तथा संयमातिर्यच्च के भी होते हैं । – 9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव.केव. – 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सभ्यक्व 6 क्ष.क्षायो..उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी, – 14 आहार 1 आहारक, अनाहारक नहीं होते – 15 गुणस्थान 13 पहले से 13 वें तक- 16 जीवसमास 19 14 एकेन्द्रियसम्बन्धी, 5 त्रस के- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.-19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 12 8 ज्ञानो. 4 दर्शनो.- 21 ध्यान 15 4 आ. 4 रौ. 4 ध. 3 शु. अन्तिम शुक्लध्यान नहीं है । – 22 आस्रव43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो.- 23 जाति 76 ला. ति.62 ला.मनु.14 ला.देव नारकियों की जाति नहीं है। – 24 कुल 148 1/2ला.क. ति.134 1/2 ला.क.,मनु.14ला.क.””देव नारकियों के कुल नहीं हैं।
प्रश्न 46- औदारिक काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर : औदारिक शरीर के लिए आत्मप्रदशों की जो कर्म और नोकर्म को आकर्षण करने की शक्तिहै उसेहीऔदारिक काययोग कहते हैं । ऐसी अवस्थामें औदारिक वर्गणा केस्कन्धों का औदारिककाय रूप परिणमन में कारण जो आत्मप्रदेशों का पीरस्पन्द है वह औदारिककाययोग है । (गोजी. 230) उदार या स्कूल में जो उत्पन्न हो उसे औदारिक जानना चाहिए । उदार में होने वाला जो काययोग है वह औदारिककाययोग है । (पसंप्रा.) औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों में परिस्पन्द का कारणभूत जो प्रयत्न होता है उसे औदारिककाययोग कहते हैं । ७.)
प्रश्न 47- औदारिक काययोग किस-किस के होता है?
उत्तर : औदारिक काययोग पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि के, वृक्ष, लता, गुल्म, आम्र, जामफल, लौकी, परवल आदि सब्जियों के, गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, कबूतर, चिड़िया, मयूर आदि के, चींटी, कीड़े, भ्रमर, लट, केंचुआ आदि के, भोगभूमिया, कर्मभूमिया, कुभोगभूमिया मनुष्य-तिर्यंचों के, तीर्थंकर भगवान, अरिहन्त केवली, ऋद्धिधारक मुनिराज आदि के, 85० प्लेच्छ खण्डों में, आर्यखण्डों में तथा समस्त पर्याप्त तिर्यंच-मनुष्यों के औदारिक काययोग होता है ।
प्रश्न 48- क्या ऐसे कोई औदारिक काययोगी हैं जिनके कषायें नहीं होती हैं?
उत्तर : ही, ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान वाले औदारिक काययोगी के कषायें नहीं होती हैं । यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी कवायें नहीं होती हैं लेकिन वहाँ औदारिक काययोग नहीं होता है ।
प्रश्न 49- क्या ऐसा कोई औदारिक काययोगी है जिसके मतिज्ञान नहीं होता?
उत्तर : ही, प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थान में तथा तेरहवें गुणस्थान वाले जीवों के मतिज्ञान नहीं होता है । यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी मतिज्ञान नहीं है लेकिन वहाँ योग का अभाव
प्रश्न-50- :औदारिक काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर :- औदारिक शरीर के लिए आत्मप्रदशों की जो कर्म और नोकर्म को आकर्षण करने की शक्तिहै उसे हीऔदारिक काययोगकहते हैं । ऐसी अवस्थामें औदारिक वर्गणा के स्कन्धों का औदारिककाय रूप परिणमन में कारण जो आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द है वह औदारिककाययोग है । (गोजी. 23०) उदार या स्कूल में जो उत्पन्न हो उसे औदारिक जानना चाहिए । उदार में होने वाला जो काययोग है वह औदारिककाययोग है । (पसंप्रा.) औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों में परिस्पन्द का कारणभूत जो प्रयत्न होता है उसे औदारिककाययोग कहते हैं । ४२९)
प्रश्न 51-औदारिक काययोग किस-किस के होता है?
उत्तर : औदारिक काययोग – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि के, वृक्ष, लता, गुल्म, आम्र, जामफल, लौकी, परवल आदि सब्जियों के, गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, कबूतर, चिड़िया, मयूर आदि के, चींटी, कीड़े, भ्रमर, लट, केंचुआ आदि के, भोगभूमिया, कर्मभूमिया, कुभोगभूमिया मनुष्य- तिर्यंचों के, तीर्थंकर भगवान, अरिहन्त केवली, ऋद्धिधारक मुनिराज आदि के, 85० प्लेच्छ खण्डों में, आर्यखण्डों में तथा समस्त पर्याप्त तिर्यंच-मनुष्यों के औदारिक काययप्तो होता है ।
प्रश्न 52- ऐसे कोई औदारिक काययोगी हैं जिनके कवायें नहीं होती हैं?
उत्तर : ही, ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान वाले औदारिक काययोगी के कषायें नहीं होती हैं । यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी कवायें नहीं होती हैं लेकिन वहाँ औदारिक काययोग नहीं होता है ।
प्रश्न 53-क्या ऐसा कोई औदारिक काययोगी है जिसके मतिज्ञान नहीं होता?
उत्तर : ही, प्रथम, द्वितीय, तृतीय गुणस्थान में तथा तेरहवें गुणस्थान वाले जीवों के मतिज्ञान नहीं होता है । यद्यपि चौदहवें गुणस्थान में भी मतिज्ञान नहीं है लेकिन वहाँ योग का अभाव
प्रश्न 54–औदारिक काययोग में केवलदर्शन किस अपेक्षा से पाया जाता है?
उत्तर : औदारिक काययोग में केवलदर्शन सयोगकेवली भगवान की अपेक्षा होता है । यद्यपि केवलदर्शन अयोगी केवली और सिद्ध भगवान के भी होता है लेकिन उनके कोई योग नहीं होता है इसलिए औदारिक काययोग में केवल तेरहवें गुणस्थान में ही केवलदर्शन कहा है ।
प्रश्न 55- औदारिक काययोग में कम-से- कम कितनी पर्याप्तियों होती हैं?
उत्तर : औदारिक काययोग में कम-से- कम चार पर्यातियाँ होती हैं- आहार पर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति तथा श्वासोच्चवास पर्याप्ति । ये चार पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय की अपेक्षा जाननी चाहिए ।
प्रश्न 56- औदारिक काययोग में कितने प्राण होते हैं?
उत्तर : औदारिक काययोग में कम-से-कम 2 प्राण होते हैं- . तेरहवें गुणस्थान में श्वासोच्चवास तथा वचनयोग का निरोध होने पर उनके काय बल एव आयु प्राण । . औदारिक काययोग में अधिक-से- अधिक 1० प्राण होते हैं- 5 इन्द्रिय, 3 बल, श्वासोच्चवास तथा आयु 1० प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यातक जीवों के होते हैं ।
प्रश्न 57-क्या औदारिक काययोगी के आठों ज्ञानोपयोग एक साथ हो सकते हैं?
उत्तर : यद्यपि नाना जीवों की अपेक्षा औदारिक काययोगी के आठों ज्ञानोपयोग एक साथ हो जाते हैं लेकिन एक जीव की अपेक्षा आठों ज्ञानोपयोग एक साथ नहीं हो सकते हैं । क्योंकि अभिव्यक्ति की अपेक्षा एक जीव के एक समय में एक ही ज्ञानोपयोग हो सकता है । फिर भी एक जीव के नाना समयों की अपेक्षा आठों ज्ञानोपयोग एक जीवन में हो सकते हैं । औदारिक काययोगी मिथ्यादृष्टि एवं सासादन सम्यग्दृष्टि के तीन कुज्ञानो. होते हैं- कुमति, कुसुत, कुअवधि ज्ञानो. । चौथे, पाँचवें गुणस्थान में तीन ज्ञानो. होते हैं- मति, सुत तथा अवधिज्ञानो. । छठे से 12 वें गुणस्थान तक 4 ज्ञानो. होते हैं- मतिज्ञानो., हतशानो., अवधिज्ञानो. और मन: पर्ययशानो. । तेरहवें गुणस्थानवर्ती औदारिक काययोगी के 1 ज्ञानो. है- केवलज्ञानो. ।
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष- 1 गति 2 तिर्यञ्च, मनुष्य -2 इन्द्रिय 5 ए. द्वी. त्री. चतु. पंचे.-3 काय 6 पृथ्वी आदि 5 स्थावर 1 त्रस -4 योग 1 स्वकीय औदारिकमिश्र -5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 2516 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान कुअवधि तथा मनःपर्ययज्ञान नहीं हैं।- 8 संयम 2 यथा.असं.-9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव.केव.- 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यत्क्व 4 क्षा.क्षायो.सा.मि.मिश्र और उपशम नहीं होते।- 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी, – 14 आहार 1 आहारक, – 15 गुणस्थान 41 ला.2 रा.4 था .13 वाँ – 16 जीवसमास 19 14 एकेन्द्रियसम्बन्धी, 5 त्रस के- 17 पर्याप्ति 2 आ. श.इन्द्रिय श्वासोच्चवासादि पर्यातियाँ पर्याप्तक के ही होती हैं ।-18 प्राण 10 4 इन्द्रिय 1 बल श्वा.आ.कायबल होता है। – 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 10 6 ज्ञानो. 4 दर्शनो.- 21 ध्यान 10 4 आ. 4 रौ. 2 ध.- 22 आस्रव 43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो.14 योग नहीं हैं। – 23 जाति 76 ला. ति.62 ला.मनु.14 ला.देव नारकियों की जाति नहीं है। 24 कुल 148 1/2ला.क. ति.134 1/2 ला.क.,मनु.14ला.क. देव नारकियों के कुल नहीं हैं। “}
प्रश्न 58- : औदारिकमिश्र काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर : मिश्रकाययोग कहते हैं । क्योंकि यह योग औदारिक वर्गणाओं और कार्मणवर्गणाओं इन दोनों के निमित्त से होता है । अतएव इसको औदारिक मिश्र काययोग कहते हैं । (गो. जी. 231) औदारिकमिश्र वर्गणाओं के अवलम्बन से जो योग होता है वह औदारिकमिश्र काययोग हे । (सर्वा. 61)
प्रश्न 59- यदि कार्मण काययोग की सहायता से मिश्रयोग होता है तो ऋजुगति से जाने वाले के मिश्रयोग कैसे बनेगा?
उत्तर : सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में सात प्रकार की काय वर्गणाएँ बताई गई हैं । उनमें से जो औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र तथा आहारकमिश्र वर्गणाएँ हैं उनको औदारिक मिश्रादि अवस्थाओं में ग्रहण करने से औदारिक मिश्र आदि योग बन जाते हैं । इसमें कोई बाधा नहीं है ।
नोट – इसी प्रकार केवलीसमुद्घात में औदारिक मिश्र काययोग बन जाता है ।
प्रश्न 60-किन-किन जीवों के औदारिक मिथकाययोग ही होता है?
उत्तर :जो जीव ऋजुगति से लब्ध्यपर्यातक तिर्यच्च-मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं उनके औदारिकमिश्रकाययोग ही होता है क्योंकि वे औदारिककाययप्तो होने के पहले ही मरण को प्राप्त हो जाते हैं तथा ऋजुगति से आने के कारण कार्मणकाययोग नहीं है ।
प्रश्न61-क्या कोई ऐसे जीव भी हैं जिनके औदारिकमिश्र काययोग के समान वैकियिकमिश्र का्ययोग ही हों?
उत्तर : नहीं, संसार में ऐसे कोई जीव नहीं हैं जिनके औदारिकमिश्र काययोग के अल वैक्रियिकमिश्रकाययोग ही हो, क्योंकि मनुष्य-तिर्यच्चों के समान देव-नारकियों में ० भी जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले मरण को प्राप्त नहीं होते हैं । ‘ ब्रह्मों वैक्रियिकमिश्रकाययोगवाले जीव नियम से वैक्रियिक काययोगी बनते ही हैं । इसलिए ०- वैक्रियिकमिश्र काययोगी जीव नहीं हो सकते हैं ।
प्रश्न 62-औदारिकमिश्र काययोग में कम-से- कम कितनी कषायें हो सकती हैं?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में कम- से- कम 19 कषायें हो सकती हैं – 4 अप्रत्याख्यानावरण 4 प्रत्याख्यानावरण, 4 संज्वलन 6 हास्यादि नोकषायें तथा पुरुष वेद । ये 19 कषायें चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव की अपेक्षा कही गई हैं । अर्थात् औदारिकमिश्र ‘ वाले सम्यग्दृष्टि जीवों के अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सीवेद तथा नपुंसक वेद नहीं होते हैं तेरहवें गुणस्थान में भी औदारिकमिश्र काययोग है लेकिन वहाँ कवायें नहीं होती हैं ।
प्रश्न63-क्या ऐसे कोई औदारिकमिश्र काययोग वाले जीव हैं जो भव्य ही हों?
उत्तर : ही, दूसरे तथा चौथे गुणस्थान वाले और तेरहवें गुणस्थान वाले औदारिकमिश्र काययोगी जीव भव्य ही होते हैं तथा औदारिकमिश्रकाययोगी सादि मिथ्यादृष्टि जीव भी भव्य ही होते “
प्रश्न64-औदारिकमिथकाययोग में कौन-कौनसे सम्यक्त्व नहीं होते हैं?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में दो सम्बक्ल नहीं होते हैं- 1० सम्बग्मिथ्यात्व2 उपशम सभ्यक्ल । क्योंकि इन दोनों सम्यकों में मरण नहीं होता है । यद्यपि द्वितीयोपशम सम्बक्ल में मरण होता है लेकिन वे मरकर मनुष्य-तिर्यच्चों में उत्पन्न नहीं होते हैं जिससे उनके औदारिकमिश्रकाययोग बन जावे ।
प्रश्न 65-औदारिकमिथकाययोग में क्षायिक सम्यग्दर्शन किस-किस अपेक्षा पाया जाता है?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में क्षायिक सम्यग्दर्शन की अपेक्षाएँ- 1. बद्धायुष्क मनुष्य जब क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करके अथवा कृतकृत्य वेदक बनकर भोगभूमि में जाता है । 2 क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव-नारकी मरकर जब मनुष्य बनते हैं । 3 तेरहवें गुणस्थान की समुद्घात अवस्था में जब औदारिकमिश्रकाययोग होता है ।
प्रश्न 66-औदारिक मिअकाययोगी सम्यग्दृष्टि के छहों लेश्याएँ कैसे सम्भव हैं?
उत्तर : छठी पृथ्वी से निकलकर जो अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य पर्याय में आते हैं उनके अपर्याप्तकाल में वेदक सम्यक के साथ कृष्णलेश्या पाई जाती है । ४. ‘ 752) पहली से छठी पृथ्वी तक के असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव अपने-अपने योग्य कृष्ण, नील, कापोत लेश्या के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । उसी प्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि देव भी अपने-अपने योग्य पीत, पथ और शुक्ल लेश्याओं के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्यों के अपर्याप्त काल में अर्थात्-औदारिकमिश्रकाययोग में छहों लेश्याएँ बन जाती हैं ।
प्रश्न 67-औदारिक मिश्र काययोग में कम-से-कम आसव के कितने प्रत्यय हैं?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में कम-से-कम आसव का एक प्रत्यय होता है- तेरहवें गुणस्थान में समुद्घात की अपेक्षा केवल औदारिकमिश्र काययथे सम्बन्धी आसव का प्रत्यय पाया जाता है ।
प्रश्न68-औदारिक मिश्र काययोग में कौन- कौनसी जातियों नहीं होती हैं?
उत्तर : औदारिकमिश्रकाययोग में 8 लाख जातियाँ नहीं होती हैं- 4 लाख देवों की, 4 लाख नारकियों की । तालिका संख्या 16 ==
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 2 नरक,देव – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रीय-3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय””वैक्रियिक काययोग -5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.- 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- 7 ज्ञान 8 3 कुज्ञान. 5 ज्ञान कुअवधि तथा मनःपर्ययज्ञान नहीं हैं। – 8 संयम 1 असंयम- 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. -10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यत्क्व 6 क्षा.क्षायो. उ.सा.मिश्र .मि.- 13 संज्ञी सैनी, – 14 आहार 1 आहारक, -15 गुणस्थान 4 पहला,दूसरा,तीसरा,चौथा- 16 जीवसमास 1 सैनी पंचेन्द्रिय- 17 पर्याप्ति 6 आ. श.इ.श्वा.भा.मन.- 18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल .श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 9 6 ज्ञानो. 3 दर्शनो.-21 ध्यान 10 4 आ. 4 रौ. 2 ध.-22आस्रव 43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो.14 योग नहीं हैं। – 23 जाति 8 ला. 4 ला.नार. 4 ला.देव मनुष्य तिर्यञ्चों की जातियाँ नहीं हैं । 24 कुल 51ला.क. 25 ला.क.,नरक के .126ला.क.देवों के मनुष्य तिर्यञ्चों के कुल नहीं हैं “}
प्रश्न 69- वाकोयककाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर- नाना प्रकार के गुण और ऋद्धियों से युक्त देव तथा नारकियों के शरीर को वैक्रियिक अथवा विगुर्व कहते हैं और इसके द्वारा होने वाले योग को कैर्णीक अथवा वैक्रियिक काययोग कहते हैं । (गो. जी. 222)
प्रश्न 70-वैकियिक शरीर एवं वैकियिक काययोग में क्या विशेषता है?
उत्तर-वैक्रियिक शरीर एव वैक्रियिक काययोग में विशेषता –
1. तेजकायिक तथा वायुकायिक और पंचेन्द्रिय तिर्यज्व तथा मनुष्यों के भी वैक्रियिक शरीर होता है लेकिन वैक्रियिक काययोग नहीं होता है । देव-नारकियों के वैक्रियिक शरीर भी होता है और वैक्रियिक काययोग भी होता है ।
2. मनुष्य-तिर्यव्यों के वैक्रियिक शरीर में नाना गुणों और ऋद्धियों का अभाव है लेकिन देवों के वैक्रियिक शरीर में नाना गुण और अणिमादि ऋद्धियाँ होती हैं ।
3. अष्टाह्निका में नन्दीश्वर द्वीप में पूजा के लिए, पंचकल्याणक आदि के समय देवों का मूल वैक्रियिक शरीर नहीं जाता है फिर भी यदि उस समय काययोग होता है तो वैक्रियिक काययोग ही होता है ।
4. नारकियों के वैक्रियिक शरीर की अपृथक् विक्रिया होती है, देवों के वैक्रियिक शरीर की पृथक् तथा अपृथक् दोनों विक्रिया होती हैं लेकिन दोनों के वैक्रियिक काययोग
प्रश्न 71-वैक्रियिक काययोग वालों के .उपशम सभ्य? कितनी बार हो सकता है?
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वालों के अपने जीवन में अनेक बार उपशम सम्बक्म हो सकता है क्योंकि एक बार प्रथमोपशम सम्बक्ल प्राप्त करने के बाद पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल व्यतीत होने पर जीव पुन: प्रथमोपशम सम्बक्ल प्राप्त करने के योग्य हो जाता है । वैक्रियिक काययोग वालों की उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागरोपम प्रमाण होती है इसलिए उनके अनेक बार उपशम सम्बक्म होने में कोई बाधा नहीं है । ७. के आधार से)
प्रश्न72- वैकियिक काययोग वालों के पंचमादि गुणस्थान क्यों नहीं होते है?
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वालों के पंचमादि गुणस्थान नहीं होने के कारण-
( 1) वैक्रियिक काय वालों के अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय का तीव्र उदय पाया जाता है इसलिए उनके संयमासंयम तथा संयम नहीं हो सकता है अर्थात् पंचमादि गुणस्थान नहीं हो सकते ।
(2) भोगभूमि में पंचमादि गुणस्थान न होने का कारण भोग की प्रधानता कही गई है फिर देवों में तो भोगभूमि से भी ज्यादा भोग पाये जाते हैं फिर वहाँ सयम कैसे हो सकता है और नारकियों में कषायों की सहज रूप से तीव्रता रहती है, उनके संयम कैसे हो सकता हे?
(3) जिनके नियत भोजन है अर्थात् इतने समय के बाद नियम से उनको भोजन करना ही होगा । ऐसी स्थिति में त्याग रूप प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? संभवत: वैक्रियिक काययोग वालों के सयम नहीं होने का एक कारण यह भी माना जा सकता है ।
प्रश्न 73- वैक्रियिक काययोग वाले देव महीनों? वर्षों? पक्षों तक भोजन नहीं करते हैं, इसी प्रकार नारकी भी बहुत काल के बाद थोड़ी सी मिट्टी खाते हैं उनके नित्य आहार संज्ञा कैसे कही जा सकती है?
उत्तर-वैक्रियिक काययोग वाले भले ही पक्षों? महीनों तक भोजन नहीं करें फिर भी उनके आहार सज्ञा का अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि आहार सज्ञा जिनागम में छठे गुणस्थान तक बताई गई है और उसका अंतरंग कारण असातावेदनीय कर्म का उदय? उदीरणा कहा गया है । ये दोनों ही कारण वैक्रियिक काययोग वालों के पाये जाते हैं इसलिए उनके भी नित्य आहार सज्ञा कहने में कोई विरोध नहीं है । (गो. जी. 135 के आधार से)
प्रश्न 74-वैकियिक काययोग में छहों लेश्याएँ किस अपेक्षा पायी जाती हैं?
उत्तर-वैक्रियिक काययोग में तीन अशुभ लेश्याएँ नारकियों की अपेक्षा होती हैं तथा तीन शुभ लेश्याएँ देवों की अपेक्षा होती हैं ।
प्रश्न75-वैकियिक काययोगी के तीसरे गुणस्थान में कितने उपयोग होते हैं?
उत्तर-तीसरे गुणस्थान वाले वैक्रियिक काययोगी के 6 उपयोग होते हैं- – मिश्रमतिज्ञानो., मश्रश्रुतज्ञानो. तथा मिश्र अवधिज्ञानो. । – चखुदर्शनी., अचखुदर्शनो., अवधि दर्शनों. ।
प्रश्न 76-वैकियिक काययोगी सम्यग्दृष्टि के कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?
उत्तर-वैक्रियिक काययोगी सम्यग्दृष्टि के आसव के 34 प्रत्यय होते हैं- 12 अविरति, 21 कषाय, 1 योग (वैक्रियिक काययोग) ८34 प्रत्यय तालिका सख्या 17 ==
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 2 नरक,देवगति मनुष्य-तिर्यंच गति नहीं हैं -2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रीय-3 काय 1 त्रस -4 योग 1 स्वकीय””वैक्रियिक मिश्र – 5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु.-6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय- ज्ञान 8 2 कुज्ञान. 3 ज्ञान कुअवधि तथा मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञान नहीं हैं। – 8 संयम 1 असंयम- 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. केवलदर्शन नहीं हैं। – 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य- 12 सम्यत्क्व 6 क्षा.क्षायो. उ.सा.मि.सासादन तथा उपशम सम्यक्त्व देवों की अपेक्षा- 13 संज्ञी 1सैनी, – 14 आहार 1 आहारक, -15 गुणस्थान 3 पहला,दूसरा,चौथा- 16 जीवसमास 1 सैनी पंचेन्द्रिय-17 पर्याप्ति 2 आ. श. इ.श्वा. भा. मनःपर्याप्ति नहीं हैं ।-18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 1 बल . आ.श्वासो. वचन तथा मनोबल प्राण नहीं हैं । – 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर. 20 उपयोग 8 5 ज्ञानो. 3 दर्शनो.-21 ध्यान 10 4 आ. 4 रौ. 2 ध. विपाकविचय तथा संस्थानविचय धर्म ध्यान नहीं हैं। -22 आस्रव 43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो.वैक्रियिक मिश्र काययोग -23 जाति 8 ला. 4 ला.नार. 4 ला.देव””मनुष्य तिर्यञ्चों की जातियाँ नहीं हैं । -24 कुल 51ला.क. 25 ला.क.,नरक के .26ला.क.देवों के””मनुष्य तिर्यञ्चों के कुल नहीं हैं
प्रश्न 77 :वैक्रियिक मिथकाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर जब तक वैक्रियिक शरीर पूर्ण नहीं होता तब तक उसको वैक्रियिकमिश्र कहते हैं और उसके द्वारा होने वाले योग को, आत्मप्रदेश परिस्पन्दन को वैक्रियिक मिश्रकाययोग कहते हैं । (गो. जी. 234)
प्रश्न78-वैकियिक मिथकाययोग में कम-से- कम कितनी कषायें होती हैं?
उत्तर वैक्रियिक मिश्रकाययोग में कम- से-कम 2० कषायें होती हैं- अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन तीनों के क्रोध मान, माया, लोभ । 8 नोकषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, नपुंसक वेद । उपर्युक्त कषायें चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा कही गयी हैं । यहाँ नपुसक वेद सम्यग्दर्शन को लेकर प्रथम नरक में जाने वाले की अपेक्षा कहा गया है अन्यथा सम्यग्दृष्टि मरकर नपुंसक वेद वाला नहीं बनता है ।
प्रश्न79-किन- किन जीवों के वैकियिकमिश्र काययोग में अवधिज्ञान होता है?
उत्तर जो जीव मनुष्य पर्याय में गुणप्रत्यय अवधिज्ञान प्राप्त करते हैं, वे अनुगामी अवधिज्ञान को लेकर जब नरकगति (बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि वा कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा) में जाते हैं तथा मनुष्य-तिर्यज्व अनुगामी अवधिज्ञान को लेकर देवगति में जाते हैं तब उनके वैक्रियिक मिश्रकाययोग में अवधिज्ञान का अस्तित्व बन जाता है । अर्थात् वैक्रियिक मिश्र काययोग में स्थित सम्यग्दृष्टि जीव के अवधिज्ञान हो सकता है ।
प्रश्न 80-वैकियिक मिथकाययोगी अभव्य जीवों के कितनी लेश्याएँ होती हैं?
उत्तर वैक्रियिक मिश्र काययोगी अभव्य जीवों के छहों लेश्याएँ होती हैं – तीन अशुभ लेश्याएँ नारकियों तथा भवनत्रिक की अपेक्षा तथा तीन शुभ लेश्याएँ देवों की अपेक्षा होती हैं । शुक्ल लेश्या भी बन जाती है क्योंकि अभव्य जीव का उत्पाद नवें ग्रैवेयक तक माना गया
प्रश्न 81- वैकियिक मिश्र काययोगी क्षायिक सम्यग्दृष्टि के कितने वेद होते हैं?
उत्तर वैक्रियिक मिश्र काययोगी क्षायिक सम्यग्दृष्टि के दो वेद होते हैं – पुरुषवेद – वैमानिक देवों की अपेक्षा । नपुंसक वेद – प्रथम नरक की अपेक्षा ।
प्रश्न 82- ऐसा कौनसा सम्य? है जो वैक्रियिक मिथकाययोग में तो होता है लेकिन औदारिकमिथकाययोग में नहीं होता है?
उत्तर द्वितीयोपशम सम्बक्च श्रेणी में अथवा द्वितीयोपशम सम्यक के साथ मरण की अपेक्षा वैक्रियिकमिश्रकाययोग में हो सकता है, लेकिन औदारिक मिम्रकाययोग में नहीं हो सकता है, क्योंकि कोई भी देव-नारकी द्वितीयोपशम सम्पक्क प्राप्त नहीं कर सकता । इसका भी कारण यह है कि द्वितीयोपशम सम्बक्ल उपशम श्रेणी के सम्मुख मुनिराज के ही होता है । उतरते समय अन्य गुणस्थानों में भी हो सकता है ।
प्रश्न 83- वैकियिक मिथकाययोग में कितने सभ्य? नहीं होते हैं?
उत्तर वैक्रियिकमिअकाययोग में एक सम्यक नहीं होता है- मिश्र । क्योंकि इसमें मरण नहीं होता है । सासादन सम्बक्ल एव द्वितीयोपशम सम्बक्च देवों की अपेक्षा वैक्रियिकमिश्रकाययोग में बन जायेंगे । प्रश्न84-किन जीवों के वैकियिक मिथकाययोग में क्षयोपशम सभ्य? पाया जाता है? उत्तर वैमानिक देवों में उत्पन्न होने वाले सम्यग्दृष्टि जीव अथवा कृतकृत्य वेदक जीवों के वैक्रियिकमिश्रकाययोग में क्षायोपशमिक सम्बक्ल पाया जाता है । बद्धायुष्क (जिसने नरकायु को बाँध लिया है) कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि जब प्रथम नरक में जाता है उसके भी वेदक (क्षायोपशमिक) सम्बक्ल पाया जाता है । प्रश्न85-वैकियिक मिथकाययोग में दो धर्मध्यान किस अपेक्षा कहे जाते हैं? उत्तरवैक्रियिक मिश्र काययले में दो धर्मध्यान – आज्ञाविचय और अपायविचय देवों की अपेक्षा कहे गये हैं, क्योंकि नारकियों के तो एक आज्ञाविचय धर्मध्यान ही होता है । वैक्रियिक मिथकाययोग में कम-से- कम कितने आसव के प्रत्यय हो सकते हैं? वैक्रियिकमिश्रकाययोग में (सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा) कम-से-कम आसव के 33 प्रत्यय हो सकते हैं- 12 अविरति, 2० कषाय तथा 1 योग (वैक्रियिक मिश्र) । 5 मिथ्यात्व, 4 अनन्तानुबन्धी, सीवेद तथा 14 योग नहीं होते हैं । वैक्रियिक मिथकाययोगी के दूसरे गुणस्थान में कितनी जातियों होती हैं? दूसरे गुणस्थान वाले वैक्रियिकमिश्रकाययोगी के 4 लाख जातियाँ होती हैं क्योंकि सासादन गुणस्थान को लेकर जीव नरक में नहीं जाता है और वैक्रियिक मिश्रकाययोग में सासादनगुणस्थान उत्पन्न नहीं होता है; इसलिए वहाँ नरकगति सम्बन्धी जातियाँ नहीं पाई जाती हैं । इसी प्रकार कुल भी 26 लाखकरोड़ ही जानना चाहिए । तालिका संख्या 18 ==
क्रम स्थान संख्या विवरण !! विशेष – 1 गति 1 मनुष्यगति – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय- 3 काय 1 त्रस – 4 योग 1 स्वकीय आहारक में आहारक – 5 वेद 1 पुरुषवेद – 6 कषाय 11 16 कषाय 9 नोकषाय स्त्री नपुंसक वेद नहीं हैं। – 7 ज्ञान 3 मति.श्रुत.अवधि. मनःपर्यय और केवलज्ञान नहीं हैं। – 8 संयम 2 सा.छे. – 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. केवलदर्शन नहीं है । – 10 लेश्या 3 पी.प.शु.अशुभ लेश्या नहीं है। – 11 भव्यत्व 1 भव्य, – 12 सम्यक्त्व 2 क्ष.क्षायो.उपशम के साथ आहारक ॠद्धि नहीं होती। – 13 संज्ञी 1 सैनी, – 14 आहार 1 आहारक, – 15 गुणस्थान 1 पहले से 12 वें तक- 16 जीवसमास 1 सैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6/2 आ. श. इ. श्वा. भा. म.आहारक मिश्र काययोग में दो पर्याप्तियाँ होती है । – 18 प्राण 10/7 “5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.आहारकमिश्र में श्वासो. तथा दो बल नहीं हैं । – 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.- 20 उपयोग 6 3 ज्ञानो. 3 दर्शनो.- 21 ध्यान 7 3 आ. 4 ध. निदान आर्त्तध्यान नहीं है। – 22 आस्रव 12 11क.1 योग संज्वलन की चार तथा 7 नोकषाय – 23 जाति 14 ला. मनुष्य सम्बन्धी – 24 कुल 14 ला.क. मनुष्य सम्बन्धी
प्रश्न86- : आहारक काययोग किसे कहते हैं
उत्तर-असंयम का परिहार, संदेह को दूर करना आदि के लिए आहारकऋद्धि के धारक छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से आहारक शरीर होता है, इसके निमित्त से जो योग होता है वह आहारक काययोग है । (गो. जी. 235)
प्रश्न87-आहारक मिश्र काययोग किसे कहते हैं?
उत्तर-जब तक आहारक शरीर पर्याप्त नहीं होता है तब तक उसको आहार मिश्र कहते हैं और उसके द्वारा होने वाले योग को आहारकमिश्र काययोग कहते हैं । (ध. 1 ‘ 297)
प्रश्न89-आहारक काययोग में कितने संयम होते हैं?
उत्तर-आहारक काययोग में दो संयम होते हैं – 1. सामायिक 2. छेदोपस्थापना । पीरहारविशुद्धि संयम के साथ आहारकऋद्धि नहीं होती तथा शेष संयम छठे गुणस्थान में नहीं हो सकते हैं इसलिए यहाँ दो संयम कहे गये हैं ।
प्रश्न90-आहारकमिश्र काययोग में कौन-कौनसे सभ्य? नहीं हो सकते हैं?
उत्तर-आहारकमिश्र काययोग में चार सम्बक्ल नहीं हो सकते हैं- 1. मिथ्यात्व 2. सासादन 3. मिश्र 4. उपशम सम्यक । उपशम सम्यक के साथ आहारकऋद्धि नहीं होती है इसलिए यहाँ उसका ग्रहण नहीं किया है ।
प्रश्न91-आहारकमिश्र काययोग में कितने ध्यान हो सकते हैं?
उत्तर-आहारकमिश्र काययोग में सात ध्यान पाये जाते हैं- निदान के बिना 3 आर्त्तध्यान तथा चार धर्मध्यान होते हैं ।
प्रश्न92-आहारक शरीर की कौन-कौनसी विशेषताएँ हैं?
उत्तर-आहारक शरीर की विशेषताएँ- ( 1) रस आदि सात धातुओं से रहित होता है । (2) समचतुरस संस्थान वाला होता है । (3) अस्थिबन्धन से रहित अर्थात् संहनन से रहित होता है । (4) चन्द्रकान्तमणि से निर्मित की तरह अत्यन्त स्वच्छ होता है । (5) एक हस्त प्रमाण अर्थात् चौबीस व्यवहारीगुल परिमाण वाला होता है । (6) उत्तमांग मस्तक से उत्पन्न होता है । (7) पर से अपनी और अपने से पर की बाधा से रहित होता है । (8) आहारक शरीर छठे गुणस्थान वाले मुनिराज के ही होता है । (गो. जी. 237) तालिका संख्या 19
कार्मण काययोग –
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष 1 गति 44 न. ति. म. देव 2 इन्द्रिय 5 ए. द्वी. त्री. चतु. पंचे. 3 काय 6 5 स्थावर 1 त्रस 4 योग 1 स्वकीयकार्मण काययोग 5 वेद 3 स्त्री. पुरु. नपु. 6 कषाय 25 16 कषाय 9 नोकषाय 7 ज्ञान 6 2 कुज्ञान. 4 ज्ञान कुअवधि तथा मनःपर्ययज्ञान नहीं हैं। 8 संयम 2 यथा.असं. 9 दर्शन 4 चक्षु. अच. अव.केव. 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु. 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य 12 सम्यत्क्व 5 क्षा.क्षायो.उ. सा.मि.मिश्र सम्यक्त्व नहीं हैं” 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी, 14 आहार 1 आहारक, 15 गुणस्थान 41 .2 .4 .13 वाँ 16 जीवसमास 19 14 एकेन्द्रियसम्बन्धी, 5 त्रस के 17 पर्याप्ति 0 एक भी पर्याप्ती नहीं हैं । 18 प्राण 7 5 इन्द्रिय 1 बल .आ.कायबल होता है। 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर. 20 उपयोग 10 6 ज्ञानो. 4 दर्शनो. 21 ध्यान 10 4 आ. 4 रौ. 2 ध. 22 आस्रव 43 5 मि.12 अ.25 क.1 यो. 23 जाति 84 ला. चारों गति सम्बन्धी 24 कुल 199 1/2ला.क. चारों गति सम्बन्धी
प्रश्न93-कार्मणकाययोग किसे कहते हैं?
उत्तर-ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्मों के समूह को अथवा कार्मण नामकर्म के उदय से होने वाली काय को कार्मणकाय कहते हैं और उसके द्वारा होने वाले योग कर्मापकर्षण शक्ति युक्त आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दन को कार्मण काययोग कहते हैं । (गो. जी. 241) कार्मण शरीर के निमित्त से जो योग होता है उसे कार्मण काययोग कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि अन्य औदारिकादि शरीर वर्गणाओं के बिना केवल एक कर्म से उत्पन्न हुए वीर्य के निमित्त से आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप जो प्रयत्न होता है उसे कार्मण काययोग कहते हैं । (ध. 1? 297)
प्रश्न94-क्या कार्मण काययोग मात्र विग्रहगति में ही होता है?
उत्तर-नहीं, विग्रहगति में तो कार्मणकाययोग ही होता है लेकिन 13 वें गुणस्थान की समुद्घात अवस्था में भी तीन समय तक बिना विग्रहगति के भी कार्मण काययोग होता है ।
प्रश्न95-कार्मण काययोग में कुअवधिज्ञान क्यों नहीं होता?
उत्तर-कुअवधिज्ञान अनुगामी नहीं होता, जिसको साथ ले जाने से कार्मण काययोग में कुअवधिज्ञान बन जावे और कार्मण काययोग के अल्पकाल में कुअवधिज्ञान उत्पन्न भी नहीं हो सकता इसलिए कार्मण काययोग में कुअवधिज्ञान नहीं होता है ।
प्रश्न96-कार्मण काययोग में अवधिज्ञान किस- किस अपेक्षा होता है?
उत्तर-कार्मण काययोग में अवधिज्ञान की अपेक्षाएँ- 1. अनुगामी अवधिज्ञान को लेकर जाने वाले चारों गति के जीवों के । 2. सर्वार्थसिद्धि से आने वाले जीवों के 3. तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाले देव और नरकगीत से आने वाले जीवों के, आदि ।
प्रश्न97- कार्मणकाययोग में चसुदर्शन किन-किन जीवों में पाया जाता है?
उत्तर-कार्मण काययोग में स्थित चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव प्रथम, द्वितीय गुणस्थानवर्ती तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के चतुर्थगुणस्थान में भी चखुदर्शन पाया जाता है ।
प्रश्न98-कार्मणकाययोग में कौनसा सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकता है?
उत्तर-कार्मणकाययोग में कोई भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि सम्यग्दर्शन की पूर्व भूमिका में जिस विशुद्धि की आवश्यकता होती है वह विशुद्धि इतने अल्पकाल में नहीं हो पाती है इसलिए वहाँ कोई भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता है ।
प्रश्न99- किन-किन योगों में सैनी जीव ही होते हैं ”
उत्तर-11 योगों में सैनी जीव ही होते हैं- 4 मनोयोग, 3 वचनयोग (अनुभयवचनयोग बिना) आहारककाययले, आहारकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग तथा वैक्रियिकमिश्र काययोग ।
विशेष – दो मनोयोग तथा दो वचन योग सैनी-असैनी से रहित जीवों के भी होते हैं । ऐसे कौन से योग हैं जो असैनी जीवों के भी होते हैं? चार योग असैनी जीवों के भी होते हैं- 1० औदारिककाययोग 2. औदारिकमिश्रकाययोग 3. कार्मणकाययोग 4. अनुभयवचनयोग ।
प्रश्न100-किस- किस योग में चार गुणस्थान ही होते हैं?
उत्तर-तीन योगों में 4 ही गुणस्थान होते हैं – औदारिकमिश्र काययोग – पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवां कार्मण काययोग – पहला, दूसरा, चौथा, तेरहवां वैकियिक काययोग – पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा
प्रश्न101-किस- किस योग में 13 गुणस्थान होते हैं?
उत्तर-पाँच योगों में 13 गुणस्थान होते हैं- 2 मनोयोग – सत्यमनोयोग, अनुभयमनोयोग । 2 वचनयोग – सत्यवचनयले, अनुभयवचनयोग । 1 काययोग – औदारिककाययले ।
प्रश्न102-कितने योगों में सभी जीवसमास होते हैं?
उत्तर-तीन योगों में सभी जीवसमास होते हैं । 1. औदारिक 2. औदारिकमिश्र तथा 3? कार्मणकाययोग ।
प्रश्न103-ऐसे कौनसे योग हैं जिनमें श्वासोच्छास प्राण नहीं पाया जाता है?
उत्तर-चार योगों में श्वासोच्चवास प्राण नहीं पाया जाता है- 1. औदारिकमिश्र 2. वैक्रियिकमिश्र 3. आहारकमिश्र 4? कार्मणकाययोग ।
प्रश्न104-ऐसे कौन- कौनसे योग हैं जिनमें संज्ञाओं का अभाव भी हो सकता है?
उत्तर-4 मनोयोग, 4 वचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग तथा कार्मण काययोग; इन 11 योगों में संज्ञाओं का अभाव भी हो सकता है ।
प्रश्न105-किस-किस योग में संज्ञातीत जीव नहीं होते हैं?
उत्तर-चार योगों में संज्ञातीत जीव नहीं होते हैं – . वैक्रियिक द्विक – क्योंकि देव-नारकी चतुर्थ गुणस्थान से आगे नहीं जा सकते हैं । . आहारक द्विक – छठे गुणस्थान में ही होता है ।
प्रश्न106-कौन-कौनसे योग में आसव के 43 प्रत्यय होते हैं?
उत्तर-आहारककाययोग तथा आहारकमिश्रकाययोग को छोड्कर शेष 13 योगों में अर्थात् 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, औदारिकद्बिक, वैक्रियिकद्रिक तथा कार्मण काययघो में आसव के 43 प्रत्यय होते हैं ।
प्रश्न107-सबसे कम आसव के प्रत्यय किस काययोग में होते हैं?
उत्तर-सबसे कम आसव के प्रत्यय आहारकद्बिक काययोग में होते हैं- इन में आसव के 12 प्रत्यय हैं 4 संज्वलन कषाय, 6 नोकषाय, 1 पुरुषवेद तथा 1 योग । आहारक काययोग मेंआहारकतथा आहारकमिश्रमें आहारकमिश्रकाययोगहोताहै । जहाँकेवल औदारिक्काययले ही शेष रहता है ऐसे अरहन्त केवली भगवान के आसव का मात्र एक (औदारिककाययोग रूप) प्रत्यय शेष रहता है । इसी प्रकार औदारिक मिश्र तथा कार्मण काययोग में भी केवली भगवान के एक ही स्वकीय योग रूप आसव का प्रत्यय होता है ।
प्रश्न108-अयोगी केवली के 24 स्थानों में से कौन- कौनसे स्थान होते हैं?
उत्तर-अयोगी केवली के 24 स्थानों में से 17 स्थान होते हैं- (1) गति मनुष्यगति (2) इन्द्रिय पंचेन्द्रिय (3) काय त्रस (4) ज्ञान केवलज्ञान (5) संयम यथाख्यात (6) दर्शन केवलदर्शन (7) भव्यत्व – भव्य (8) सम्बक्च – क्षायिक सम्बक्ल (9) आहारक -अनाहारक (1०) गुणस्थान – चौदहवाँ (11) जीवसमास -पंचेन्द्रिय (12) पर्याप्ति -छह (13) प्राण -1 आयु (14) उपयोग -केवलज्ञान केवलदर्शन (15) ध्यान -1 ब्पयुरतक्रियानिवृति (16) जाति -14 लाख । (17) कुल -14 लाख करोड़ ।
प्रश्न109- : किस-किस योग में किस अपेक्षा से नपुंसक वेद होता है?
उत्तर-योगों में नपुंसक वेद की अपेक्षाएँ – चार मनोयोगों एव तीन वचनयोगों में – पर्याप्त नारकी, पर्याप्त तिर्यंच तथा पर्याप्त मनुष्यों में । अनुभय वचन योग में – पर्याप्त द्वीन्द्रिय से लेकर पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पर्याप्त मनुष्य तथा पर्याप्त नारकियों के । औदारिक काययोग – पर्याप्त एकेन्द्रिय से लेकर नवम गुणस्थान के सवेद भाग तक । औदारिक मिश्र काययोग – निर्वृत्यपर्यातक तथा लब्ध्यपर्यातक मनुष्य-तिर्यंचों में । वैक्रियिक काययोग – पर्याप्त नारकियों के । वैक्रियिक मिश्रकाययोग – निर्वृत्यपर्यातक नारकियों के । कार्मण काययोग – अनाहारक नारकी, मनुष्य तथा तिर्यंचों के ।
विशेष : 1. आहारकद्विक काययोग में नपुंसक वेद नहीं होता है । 2. औदारिक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग तथा सत्य अनुभय मन वचन योग में केवली भगवान को ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे वेदातीत होते हैं ।
प्रश्न 1-वेद मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर-वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं । (य. 1) आत्मा की चैतन्य रूप पर्याय में मैथुनरूप चित्त विक्षेप के उत्पन्न होने को वेद कहते है । (गो. जी. 272) वेदों में जीवों की खोज करने को वेदमार्गणा कहते हैं ।
प्रश्न2-वेदमार्गणा कितने प्रकार की है?
उत्तर-वेद मार्गणा तीन प्रकार की है- 1. स्त्रीवेद 2 व पुरुषवेद 3? नपुंसकवेद । ३- द्र. सं. 1 टी.) वेद मर्थणा के अनुवाद से स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद तथा अपगतवेद वाले जीव होते (ध.1/340) अथवा – वेद दो प्रकार के हैं- 1८३ द्रव्य वेद 2? भाव वेद ।
प्रश्न3-स्वीवेद किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से जीव पुरुष में अभिलाषा रूप मैथुन सज्ञा से आक्रान्त होता है वह स्त्रीवेद है । जिसके उदय से पुरुष के साथ रमने के भाव हों वह स्त्रीवेद हे । (गो. जी. 271)
प्रश्न4-पुरुषवेद किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से जीव सी में अभिलाषा रूप मैथुन सज्ञा से आक्रान्त होता है वह पुरुषवेद हे । जिसके उदय से स्त्री के साथ रमने के भाव हों वह पुरुषवेद है । (गो. जी. 271)
प्रश्न5- नपुंसकवेद किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से जीव के स्त्री और पुरुष की अभिलाषा रूप तीव्र कामवेदना उत्पन्न होती है वह नपुंसकवेद है । जिसके उदय से स्त्री तथा पुरुष दोनों के साथ रमने के भाव हों वह नपुसक वेद है । (गो. जी. 271)
प्रश्न6-द्रव्यवेद किसे कहते हैं?
उत्तर-जो योनि, मेहन आदि नामकर्म के उदय से रचा जाता है वह द्रव्यवेद है । (सवी. 2)
प्रश्न7- भाववेद किसे कहते ई?
उत्तर-भाव लित्र आत्मपरिणाम स्वरूप है । वह सी, पुरुष व नपुंसक इन तीनों में एक-दूसरे की अभिलाषा लक्षण वाला है और वह चारित्रमोह के विकल्परूप स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक वेद नामके नोकषाय के उदय से होता है । (रा. वा. 2? 6)
प्रश्न8-वेद मार्गणा में किस वेद को ग्रहण करना चाहिए?
उत्तर-वेद मार्गणा में भाववेद को ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यदि यहाँ द्रव्यवेद से प्रयोजन होता तो मनुष्य स्त्रियों के अपगतवेद स्थान नहीं बन सकता, क्योंकि द्रव्यवेद चौदहवें गुणस्थान् के अन्त तक पाया जाता है । परन्तु अपगतवेद भी होता है । इस प्रकार वचन निर्देश नौवें गुणस्थान के अवेद भाग से किया गया है । (जिससे प्रतीत होता है कि यहाँ भाववेद से प्रयोजन है, द्रव्यवेद से नहीं ।) (य. 2? 513)
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष -1 गति 3 ति.म.दे. नहीं होता है । – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय- 3 काय 1 त्रस विकलत्रय के नहीं होता है । – 4 योग 134 म.4 व.5 का. आहारकद्विक नहीं होता है । – 5 वेद 1 स्वकीय स्त्रीवेद – 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय””पुरुष एवं नपुंसकवेद नहीं हैं। – 7 ज्ञान 6 3 कुज्ञान. 3 ज्ञान मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं हैं। – 8 संयम 4 सा.छे.संय.असं.- 9 दर्शन3 चक्षु. अच. अव. केवलदर्शन अवेदी के होता है। -10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.-11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य – 12 सम्यक्त्व 6 क्ष.क्षायो.उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 1 सैनी,असैनी – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 9 पहले से नौवें तक नौवें गुणस्थान के सवेद भाग तक होता है। – 16 जीवसमास 2 सैनी तथा असैनी पंचे.- 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा.भा . म.-18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ.- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. पीर.आहार और भय संज्ञा से रहित भी है । – 20 उपयोग 9 6 ज्ञानो. 3 दर्शनो.- 21 ध्यान 13 4 आ . 4 रौ. 4 ध. 1 शु.- 22 आस्रव 53 5 मि. 12 अवि.23 क.13यो.- 23 जाति 22 ला. 4 ला.ति.14 मनु.4 देव की नरक सम्बन्धी जाति नहीं है। -24 कुल 83 1/2ला.क. तीन गति संबंधि नरक सम्बन्धी कुल नहीं हैं ।
प्रश्न9-स्त्रीवेद किसके समान होता है?
उत्तर-सीवेद के उदय में जीव पुरुष को देखते ही उसी प्रकार द्रवित हो उठता है जिस प्रकार आग को छूते ही लाख पिघल जाती है । विधा, 4789) स्त्रीवेद कण्डे की अग्रि के समान माना गया है ।
प्रश्न10-स्त्रीवेदी जीव कहाँ-कहाँ पाये जाते हैं?
उत्तर-मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति में तथा देवों में सोलहवें स्वर्ग तक सीवेदी जीव पाये जाते हैं । लेकिन समर्चन लस्थ्यपर्यातक मनुष्य-तिर्यच्चों में स्त्रियाँ नहीं होती हैं क्योंकि समर्चन जीव नपुसक वेद वाले ही होते हैं ।
प्रश्न11-स्त्रीवेदी के आहारकद्विक काययोग क्यों नहीं होते हैं?
उत्तर-अप्रशस्त वेदों के साथ आहारक ऋद्धि उत्पन्न नहीं होती है । ( ध. 2 ‘ 667)
प्रश्न12-क्या स्त्रीवेदी की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में भी अवधिदर्शन हो सकता है?
उत्तर- नहीं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रीवेदी में उत्पन्न नहीं होता । अवधिदर्शन सम्यग्दृष्टि तथा सम्बग्मिथ्यादृष्टि के होता है, तीसरे गुणस्थान वाले का मरण नहीं होता, इसलिए स्त्रीवेदी के निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में अवधिदर्शन नहीं हो सकता । इसी प्रकार नपुंसक वेद में जानना चाहिए लेकिन नरक की अपेक्षा नपुंसकवेदी की निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में भी अवधिदर्शन होता है ।
प्रश्न13-स्त्रीवेद वाले के कौन-कौन से संयम नहीं हो सकते हैं?
उत्तर-स्त्रीवेद वाले के 3 सयम नहीं हो सकते हैं- 1. परिहारविशुद्धि 2. सूक्ष्म साम्पराय 3. यथाख्यात सयम । परिहारविशुद्धि संयम पुरुषवेद वाले के ही होता है । सूक्ष्म साम्पराय तथा यथाख्यात संयम अवेदी जीवों के होते हैं इसलिए स्त्रीवेद में ये तीनों सयम नहीं होते हैं । इसी प्रकार नपुंसक वेद में भी ये संयम नहीं हो सकते हैं ।
प्रश्न14-स्त्रीवेदी के निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में कितने सभ्य? हो सकते हैं?
उत्तर-स्त्रीवेदी के निर्वृत्यपर्यातक अवस्था में दो सम्बक्ल हो सकते हैं- 1. मिथ्यात्व, 2. सासादन । पर्याप्त अवस्था में सभी सम्बक्ल हों सकते हैं क्योंकि भावस्त्रीवेदी मोक्ष जा सकते हैं ।
प्रश्न15-खीवेदियों में कौन-कौनसी संज्ञाओं का अभाव हो सकता है?
उत्तर-सीवेदियों में दो संज्ञाओं का अभाव हो सकता है- 1. आहार संज्ञा, 2 भयसज्ञा । सातवें गुणस्थान से आहार संज्ञा का तथा आठवें गुणस्थान के आगे भय संज्ञा भी नहीं होती तालिका संख्या 21
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 3 ति. म. देव नरकगति नहीं होता है । -2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय-3 काय 1 त्रस – 4 योग 154 म. 4 व. 7 का.-5 वेद 1 पुरुषवेद – 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय स्री एवं नपुंसकवेद नहीं हैं। -7 ज्ञान 7 3 कुज्ञान 4 ज्ञान केवलज्ञान अपगतवेदी के होते हैं। – 8 संयम 5 सा. छे. प. सय. असं.- 9 दर्शन 3 चक्षु. अच. अव. केवलदर्शन नहीं है । – 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य- 12 सम्यक्त्व 6 क्षा.क्षायो.उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 9 पहले से नौवें तक- 16 जीवसमास 2 सैनी तथा असैनी पंचेन्द्रिय -17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा.भा . म.-18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल श्वा.आ. १० प्राण सैनी के ही होते है । -19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. परि.-20 उपयोग 10 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो.- 21 ध्यान 13 4 आ . 4 रौ. 4 धर्म. 1 शु.-22 आस्रव 55 5 मि. 12 अवि. 23 क. 15यो.-23 जाति २२ ला. 4 ला.तिर्य.14ला.मनु.4ला.देव. नारकियों की जातियाँ नहीं है । – 24 कुल 83 1/2ला.क. 43 1/2 ला.क. तिर्य. 14ला.क. मनु. 26 ला.क.देव }
प्रश्न16-पुरुषवेद में जीव की स्थिति कैसी होती है?
उत्तर-पुरुषवेद युक्त प्राणी स्त्री को देखते ही वैसे ही पिघल जाता है जैसे-जमे हुए घी का घड़ा अग्नि के स्पर्श होते ही क्षणभर में पानी-पानी हो जाता है । (व. चा. 4 / 90) पुरुषवेद तृण की अग्रि के समान कहा गया है ।
प्रश्न17-क्या ऐसे कोई पंचेन्द्रिय जीव हैं जिनके पुरुषवेद नहीं होता है?
उत्तर-हाँ, ऐसे भी पंचेन्द्रिय जीव हैं जिनके पुरुषवेद नहीं होता है । वे हैं- 1. सभी नारकी 2. नौवें गुणस्थान के अवेद भाग से आगे विराजमान सभी जीव 3. सर्न्च्छन जन्म वाले पंचेन्द्रिय जीव 4. स्त्री तथा नपुंसक वेद वाले जीवों के भी पुरुष वेद नहीं होता है ।
प्रश्न18- ऐसे कौनसे असैनी पंचेन्द्रिय जीव हैं जिनके पुरुषवेद भी होता है?
उत्तर-जो जीव गर्भ से उत्पन्न होने पर भी मन से रहित हैं उन तोता मैना आदि तिर्यच्चगति के पंचेन्द्रिय जीवों के पुरुषवेद भी हो सकता है अर्थात् उनके तीनों वेद होते हैं ।
प्रश्न 19-पुरुषवेदी के कौन-कौनसे संयम नहीं हो सकते है?
उत्तर-पुरुषवेदी के दो संयम नहीं हो सकते हैं- 1. सूक्ष्म साम्पराय और 2. यथाख्यात । क्योंकि ये दोनों संयम अवेदी जीवों के होते हैं ।
प्रश्न 20- पुरुषवेद तो भगवान के भी दिखता है तो उनके चारों शुख्म ध्यान क्यों नहीं कहे?
उत्तर- यद्यपि द्रव्य पुरुषवेद भगवान के भी दिखता है लेकिन उनके भाववेद नहीं होता है क्योंकि भाववेद का कारण मोहनीय कर्म (वेद कषाय) का उदय कहा है । भगवान के वेद कषाय का उदय नहीं पाया जाता है । यहाँ सभी कथन भाववेद की अपेक्षा किया गया है इसलिए पुरुषवेद वालों के चारों शुक्लध्यान नहीं होते हैं । नवमें गुणस्थान तक वेद है वहाँ एक ही शक्ल ध्यान होता है।
प्रश्न21-पुरुषवेद वालों के कम- से-कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-पुरुषवेद वालों के कम-से-कम 7 प्राण होते हैं । सैनी या असैनी पंचेन्द्रिय जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में 5 इन्द्रिय, 1 कायबल तथा आयु प्राण । आहारकमिश्र अवस्था में भी ये ही सात प्राण होते हैं ।
प्रश्न22-पुरुषवेदी के कम-से- कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?
उत्तर-पुरुषवेदी के कम-से-कम आसव के चौदह प्रत्यय होते हैं-
4 कषाय – (संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ)
9 योग – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, 1 औदारिककाययोग ।
1 वेद – पुरुषवेद । ये आसव के प्रत्यय 9 वें गुणस्थान में सवेद भाग तक होते हैं ।
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 3 न. ति. म. देवगति नहीं है। -2 इन्द्रिय 5 ए. द्वी. त्री. चतु. पंचे.- 3 काय 6 5 स्थावर 1 त्रस -4 योग 134 म. 4 व. 5 का. आहारकद्विक नहीं होता है ।- 5 वेद 1 स्वकीय नपुंसकवेद- 6 कषाय 23 16 कषाय 7 नोकषाय – 7 ज्ञान 6 3 कुज्ञान 3 ज्ञान मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं हैं ।- 8 संयम4 सा. छे. संय. असं.-9 दर्शन 3 च. अच. अव. केवलदर्शन नहीं है ।- 10 लेश्या 6 कृ.नी.का.पी.प.शु.- 11 भव्यत्व 2 भव्य, अभव्य- 12 सम्यक्त्व 6 क्षा.क्षायो.उ.सा.मिश्र.मि.- 13 संज्ञी 2 सैनी,असैनी – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 9 पहले से नौवें तक- 16 जीवसमास 19 14 स्थावर के 5 त्रस के – 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा.भा . म.-18 प्राण 10 5 इन्द्रिय, 3 बल श्वा.आयु .- 19 संज्ञा 4 आ.भ.मै. परि.- 20 उपयोग 9 6 ज्ञानो. 3 दर्शनो.- 21 ध्यान 13 4 आ . 4 रौ. 4 धर्म. 1 शु. पृथक्ववितर्कदीचार शुक्लध्यान है । -22आस्रव 53 5 मि. 12 अ. 23 क. 13यो.2 योग और 2 नोकषाय नहीं है । -23 जाति 80 ला.4ला.न. 62ला.तिर्य. 14ला.मनु. देवसम्बन्न्धी जाति नहीं है । -24 कुल 173 1/2ला.क. ना.ति.मनु. सम्बन्धी देव सम्बन्धी कुल नहीं है।
प्रश्न 1- नपुंसकवेद किसके सामान है ?
उत्तर- नपुंसकवेद के उदय से जीव ईंट पकाने के आवे की अग्रि के समान तीव्र कामवेदना से पीड़ित होने से कलुषित चित्तवाला होता है । (गो. जी. 275)
ईटों के आवे के समान जब किसी प्राणी में काम उपभोग सम्बन्धी भयंकर विकलता होती तथा अत्यन्त निन्दनीय कुरूपपना होता है वही नपुंसक वेद का परिपाक है । (व. चा. 4 / 91)
प्रश्न 2 किन-किन जीवों के नपुंसक वेद ही होता है-
उत्तर- वे जीव जिनके नपुंसक वेद ही होता है, वे हैं – 1. सातों पृथिवियों के नारकी 2. एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय । 3. समर्चन संज्ञी पंचेन्द्रिय 4. सम्पूर्च्छन असंज्ञी पंचेन्द्रिय ।
प्रश्न 3 – कहाँ – कहाँ पर नपुंसक वेद नहीं होता है?
उत्तर-वे स्थान जहाँ नपुंसक वेद नहीं होता- 1. देवगति में सभी देव-देवांगनाओं के । 2. भोग भूमि तथा कुभोग भूमि में । 3. परिहारविशुद्धि संयमी के । 4. आहारक तथा आहारकमिश्र काययोग में । 5. मन: पर्ययज्ञानी जीवों के । 6. किसी भी ऋद्धिधारी मुनिराज के तथा । 7. उसी भव में तीर्थंकर होने वाले जीवों के तथा सभी प्लेच्छों के नपुंसक वेद नहीं होता है । 63 शलाका पुरुषों के भी नपुंसक वेद नहीं होता है । भवनवासी, वान- व्यतर, ज्योतिषी, कल्पवासी देव, तीस भोगभूमियों में उत्पन्न तिर्यब्ज- मनुष्य, भोगभूमि के प्रतिभाग में उत्पन्न असख्यात वर्ष की आयु वाले (कुभोग भूमिया) तथा सर्व प्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य-तिर्यव्व नपुंसकवेद वाले नहीं होते हें । (आ. समु. 34)
प्रश्न 4 – विग्रहगति में शरीर नहीं होता अत: वहाँ खी, पुरुष तथा नपुंसक वेद कैसे हो सकता
उत्तर-यद्यपि अनाहारक अवस्था में शरीर नहीं होता है फिर भी वहाँ उनके भाववेद का अभाव नहीं होता है क्योंकि भाववेद वेदकषाय के उदय से होता है । विग्रहगति में भी वेद का उदय रहता है इसलिए वहाँ भी तीनों वेदों का सद्भाव कहा गया है ।
प्रश्न 5- नपुंसक वेद वाले के कम-से- कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-नपुंसकवेद वाले के कम-से-कम 3 प्राण हो सकते हैं – एकेन्द्रिय जीवों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में या लब्ध्यपर्यातक एकेन्द्रिय जीवों के 3 प्राण होते हैं । .
प्रश्न 6- नपुंसक वेद में कितने शुक्लध्यान हो सकते हैं?
उत्तर-नपुंसक वेद में पहला ‘ ‘पृथक्लवितर्क वीचार’ ‘ शुक्लध्यान हो सकता है । यह ध्यान आठवें नवमें गुणस्थान की अपेक्षा कहा गया है । जो आचार्य दसवें गुणस्थान तक धर्मध्यान मानते हैं उनकी अपेक्षा नपुंसकवेद में एक भी शुक्लध्यान नहीं हो सकता है । इसी प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेद में भी जानना चाहिए ।
प्रश्न 7- तीनों वेदों में मनुष्य-तिर्यथ्य आदि की पूरी-पूरी जातियाँ ग्रहण की गई हैं तो क्या सभी तिर्यथ्य, मनुष्य स्वीवेद, पुरुषवेद या नपुंसक वेद वाले होते हैं अथवा हो सकते हैं?
उत्तर-नहीं, सभी मनुष्य-तिर्यच्च स्त्री, पुरुष, नपुसक वेद वाले नहीं होते तथा न हो ही सकते हैं लेकिन प्रत्येक जाति में तीनों वेद वाले जीव उत्पन्न होते हैं, हो सकते हैं । जैसे-पर्याप्त मनुष्य उनतीस अक प्रमाण होते हैं और मनुष्यों की जातियाँ मात्र चौदह लाख बताई गई हैं । एक-एक जाति में करोड़ों, करोड़ों मनुष्य उत्पन्न हो सकते हैं, उन करोड़ों मनुष्यों में कोई सी वेद वाला, कोई पुरुष वेद वाला तो कोई नपुंसक वेद वाला हो सकता है । सम्भवत: इसीलिए तीनों वेदों में पूरी-पूरी जातियों का ग्रहण किया गया है । नोट : इसी प्रकार कुलों में भी जानना चाहिए । तालिका संख्या 23 ==
क्रम स्थान संख्या विवरण विशेष – 1 गति 1 मनुष्यगति – 2 इन्द्रिय 1 पंचेन्द्रिय- 3 काय 1 त्रस -4 योग 114 म. 4 व. 3 का. औदारिकद्विक और कार्मण – 5 वेद 0-6 कषाय4 संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ कषायातीतभी होते हैं । – 7 ज्ञान 5 मति. श्रु. अव. मन.केवल.- 8 संयम 4 सा. छे. सू. य. – 9 दर्शन 4 च. अच. अ. केव. – 10 लेश्या 1 शुक्ल लेश्यातीत भी होते हैं। -11 भव्यत्व 1 भव्य भव्याभव्य से रहित भी होते हैं। – 12 सम्यक्त्व 2 क्षायिक, उपशम- 13 संज्ञी 1 सैनी सैनी असैनी से रहित भी होते हैं। – 14 आहार 2 आहारक, अनाहारक – 15 गुणस्थान 6 नवें से चौदहवें तक नवें के अवेदभाग से ग्रहण करना चाहिए ।-16 जीवसमास 1 सैनी पंचेन्द्रिय समासातीत भी होते हैं । – 17 पर्याप्ति 6 आ. श. इ. श्वा. भा. म.पर्याप्ति से रहित भी होते हैं । -18 प्राण 10 5 इन्द्रिय 3 बल, श्वाआ. प्राणातीत भी होते हैं। – 19 संज्ञा 1 परिग्रह सज्ञातीत भी होते हैं। – 20 उपयोग 9 5 ज्ञा. 4 दर्शन.- 21 ध्यान 4 चारों शुक्लध्यान ध्यानातीत भी होते हैं। – 22 आस्रव 154 क. 11 योग आस्रवरहित भी होते हैं। -23 जाति 14 ला.””मनुष्य सम्बन्धी जाति से रहित भी होते हैं। – 24 कुल 14 ला.क.मनुष्य सम्बन्धी कुलातीत भी होते हैं।
प्रश्न 1 – अपगतवेदी किसे कहते हैं?
उत्तर- जो स्री, पुरुष तथा स्री-पुरुष दोनों की अभिलाषा रूप परिणामों की तीव्र वेदना से होने वाले संक्लेश से रहित हैं, वे अपगतवेदी हैं । जो कारीष, तृण तथा इष्टपाक की अग्रि के समान परिणामों के वेदन से उन्मुक्त हैं और अपनी आत्मा में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अनन्तसुख के धारक भोक्ता हैं वे अपगतवेदी हैं । (पं. सं. प्रा. 1 / 108) जिनके तीनों प्रकार के वेदों से उत्पन्न होने वाला संताप दूर हो गया है वे वेदरहित जीव हैं । (ध. १ / ३४२)
प्रश्न 2 – अपगतवेदी जीवों के कितनी कषायें होती हैं?
उत्तर-अपगतवेदी जीवों के 4 कवायें होती हैं संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । नवमें गुणस्थान में पहले वेद का अभाव होता है । उसके बाद संज्वलन कषायों का नाश होता है । इसलिए नवमें गुणस्थान में संज्वलन क्रोधादि चारों पाये जाते हैं तथा दसवें गुणस्थान में केवल सैज्वलन लोभ पाया जाता है । (ध. 2) ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक तथा सिद्ध भगवान भी अपगतवेदी होते हैं लेकिन उनके कषाय भी नहीं होती है ।
प्रश्न 3 – अपगतवेद में पाँचों ज्ञान किस अपेक्षा से पाये जाते हैं?
उत्तर-अपगतवेदी के 9 वें, 1० वें, 11 वें तथा 12 वें गुणस्थान में मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान होता है । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में केवलज्ञान पाया जाता है । (ध. 2) सिद्ध भगवान के ज्ञान को भी केवलज्ञान कहते हैं ।
नोट – इसी प्रकार चार दर्शनों में भी जानना चाहिए ।
प्रश्न 4 – अपगतवेद में संयम की विवेचना किस प्रकार करनी चाहिए?
उत्तर-अपगतवेद में – सामायिक-छेदोपस्थापना सयम नवमें गुणस्थान की अवेद अवस्था में होते है । सूक्ष्म साम्पराय संयम – दसवें गुणस्थान में होता है । यथाख्यात संयम – 11 वें, 12 वें, 13 वें तथा 14 वें गुणस्थान में पाया जाता है । (ध. 2)
प्रश्न 5 – अपगतवेद में दो सम्यकत्व किस अपेक्षा से कहे गये हैं?
उत्तर – अपगतवेदी के उपशम सम्यकत्व – उपशम श्रेणी में स्थित नवमें (अवेद भाग में) दसवें तथा ग्यारहवें गुणस्थान में पाया जाता है।
क्षायिक सम्यकत्व – उपशम श्रेणी में स्थित नवमें से ग्यारहवें गुणस्थान तक तथा क्षपक श्रेणी में स्थित नवमें, दसवें, बारहवें गुणस्थान में और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान तथा सिद्ध भगवान के भी पाया जाता है । (ध. 2)
प्रश्न 6 – अपगतवेदी के वेद का अभाव भाव की अपेक्षा होता है या द्रव्य की अपेक्षा ?
उत्तर- (यद्यपि पाँचवें गुणस्थान से आगे भी द्रव्यवेद का सद्भाव पाया जाता है, परन्तु केवल द्रव्य वेद से ही विकार उत्पन्न नहीं होता है ।) यहाँ पर तो भाववेद का अधिकार है । इसलिए भाववेद के अभाव से ही उन जीवों को अपगतवेदी जानना चाहिए, द्रव्यवेद के अभाव से नहीं । (ध. 1 / 345)
प्रश्न 1 – किन-किन जीवों के तीनों वेद होते हैं?
उत्तर-तिर्यंच असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेद से युक्त होते हैं । ‘ (ध. 1 /सु 1०7 – 8) मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेद वाले होते है । आगम में नवें गुणस्थान के सवेद भाग पर्यन्त द्रव्य से एक पुरुषवेद और भाव से तीनों वेद हैं ऐसा कथन किया है । (गो. जीजी. 271)
प्रश्न 2- कौन सी गति के जीवों में एक, दो, तीन वेद तथा वेद रहित अवस्था भी होती है?
उत्तर- मनुष्यगति के जीवों में एक वेद, दो वेद, तीन वेद तथा वेद रहित अवस्था भी होती है- एक पुरुष वेद – आहारक ऋद्धि, मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम तथा सभी शलाका पुरुषों के आदि…. ।
एक नपुंसक वेद – सभी समर्चन मनुष्यों के ।
दो वेद – भोगभूमि, कुभोगभूमि तथा सर्व प्लेच्छ खण्डों में
तीन वेद – कर्मभूमिया मनुष्य ।
अपगतवेदी – नवमें गुणस्थान के अवेद भाग से आगे 14 वें गुणस्थान तक के मनुष्य ।
प्रश्न 3- ऐसे कौन-कौन से योग हैं जो तीनों वेद वालों के भी होते हैं और अपगतवेदी के भी होते हैं?
उत्तर- 11 योग तीनों वेदों में भी होते हैं तथा अपगतवेदी के भी होते हैं –
4 मनोयोग, 4 वचनयोग तथा 3 (औदारिकद्विक तथा कार्मण) काययोग (ध. 2)
प्रश्न 4 – ऐसा कौन- कौनसा वेद है जिसकी अनाहारक अवस्था में तीन ही गतियाँ होती है?
उत्तर-तीनों ही वेदों की अनाहारक अवस्था में तीन गतियाँ ही होती हैं –
स्रीवेद में -२: – तिर्यगति, मनुष्यगति, देवगति ।
पुरुषवेद में – तिर्यशाति, मनुष्यगति, देवगति ।
नपुंसक वेद में – ‘ नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति ।
प्रश्न ५ -नरकगति में जाते समय द्रव्य स्री और पुरुष वेदी के कम-से-कम कितने आस्रव के प्रत्यय हो सकते हैं?
उत्तर-द्रव्य सीवेदी जो यहाँ से नरकगति में जा रहा है उसके विग्रहगति में कम-से-कम आसव के 41 प्रत्यय हो सकते हैं – 5 मिथ्यात्व, 12 अविरति, 23 कषाय तथा 1 योग । द्रव्य पुरुषवेदी के नरक में जाते समय कम-से-कम – 32 आसव हैं – 12 अविरति, 19 कषाय तथा 1 योग । नोट: द्रव्य पुरुषवेदी ही सम्यग्दर्शन को लेकर नरकगति में जा सकता है क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा कृतकृत्य वेदक सम्यक द्रव्य पुरुष-वेदी के ही होते हैं । इसलिए उसके 5 मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी आस्रव के प्रत्यय निकल जावेंगे ।
प्रश्न 6 – क्या अपगतवेदी आसव रहित भी होते हैं?
उत्तर- हाँ, चौदहवें गुणस्थानवर्ती अपगतवेदी आस्रवरहित ही होते हैं । सिद्ध भगवान भी आस्रवरहित ही होते हैं ।
प्रश्न 7- किस-किस स्थान के सभी उत्तर भेदों में तीनों वेद पाये जाते हैं?
उत्तर- 8 स्थानों के सभी उत्तर भेदों में तीनों वेद पाये जाते हैं- ( 1) लेश्या (2) भव्यत्व ( 3) सम्बक्च (4) संज्ञी (5) आहार (6) पर्याप्ति (7) प्राण ( 8) संज्ञा ।
प्रश्न – कषाय और कषाय मार्गणा किसे कहते हैं?
उत्तर- जो तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्बक्ल, अणुव्रत रूप देशचारित्र, महाव्रत रूप सकल चारित्र और यथाख्यात चारित्र रूप आत्मा के विशुद्ध परिणामों को कषती अर्थात् घातती है उसे कषाय कहते हैं । (गो. जी. 282 – 83) जो संसारी जीव के ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति के भेद से भिन्न शुभ- अशुभ कर्म रूप क्षेत्र को कवति अर्थात् जोतती हैं वे कषायें हैं । क्रोधादि कषायों में अथवा कषाय और अकषाय में जीवों की खोज करने को कषाय मार्गणा कहते हैं ।
प्रश्न- मार्गणा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर-खास मार्गणा चार प्रकार की होती है – ( 1) क्रोध (2) मान (3) माया (4) लोभ । चूके- सं. 13 टी.) कषायें पच्चीस होती हैं – अनन्तानुबन्धी – क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानावरण – क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण – क्रोध, मान, माया, लोभ । संज्वलन – क्रोध, मान, माया, लोभ । ८ कुल 16 नौ नोकषाय – हास्य, रति, अरति, शोक, भय-जुगुप्सा, खीवेद, पुरुषवेद और नपुसक वेद । 16 स् 9८25 (त. सू- 8? 9) कषाय मार्गणा के अनुवाद से क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी तथा कवायरहित जीव होते हैं । ( थ. 17348)
प्रश्न-क्या कषायरहित जीव भी होते हैं?
उत्तर-ही, कषायरहित जीव भी होते हैं । 11 वें, 1 दवे, 13 वें, 1 वें गुणस्थान वाले तथा सिद्ध भगवान कषाय से रहित होते हैं ।
प्रश्न-नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-ईषत् कषाय को नोकषाय कहते हैं । यहाँ ईषत् अर्थात् किंचित् अर्थ में नम का प्रयोग होने से किंचित् कषाय को नोकषाय कहा है । (सर्वा. 879) जिस प्रकार कुत्ता स्वामी का इशारा पाकर बलवन्त हो जाता है और जीवों को मारने के लिए प्रवृत्ति करता है तथा स्वामी के इशारों से वापिस आ जाता है; उसी प्रकार क्रोधादि कषायों के बलपर ही ईषत् प्रतिषेध होने पर हास्यादि नोकषायों की प्रवृत्ति होती है । क्रोधादि कषायों के अभाव में निर्बल रहती हैं इसलिए हास्यादि को ईषत्- कषाय, अकषाय या नोकषाय कहते हैं । (रा. वा. 8? 9)
प्रश्न-ये चारों चौकड़ी किसका घात करती हैं?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषायें – सभ्यक्च एव चारित्र का घात करती हैं । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषायें देशसंयम – अणुव्रतों का घात करती हैं । प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कवायें सकल संयम – महाव्रतों का घात करती हैं । संज्वलन क्रोधादि कषायें यथाख्यात सयम का घात करती हैं ।
प्रश्न-क्रोध कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-युक्तायुक्त विचार से रहित दूसरे के घात की वृत्ति, शरीर में कम्पन, दाह, नेत्रों में लालिमा तथा मुख की विवर्णता लक्षण वाला क्रोध है । अपने या पर के अपराध से अपना या दूसरों का नाश होना या नाश करना क्रोध है । ४, ति. च. 87467) जिसके उदय से अपने और पर के घात करने के परिणाम हों तथा पर ० उपकार ०० अभाव रूप भाव ० पर का उपकार ० छ भाव न वा कूर भाव हो सो क्रोध कषाय है ।
प्रश्न-मान कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-मन में कठोरता, ईर्षा, दया का अभाव, दूसरों के मर्दन का भाव, अपने से बड़ों को नमस्कार नहीं करना, अहंकार, दूसरों की उन्नति को सहन नहीं करना मान है । जाति आदि के मद से दूसरे के तिरस्कार रूप भाव को मान कषाय कहते हैं । युक्ति दिखा छ पर भी दुराग्रह नहीं छोड़ना मान है । (रावा. 8) 9) रोष से या विद्या आदि के मद से दूसरे के तिरस्कार रूप भाव को मान कषाय कहते हैं । ( ध. 1? 349)
प्रश्न-माया कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-नाना प्रकार के प्रतारण के उपायों द्वारा ठगने के लिए आकुलित मति और विनय, विश्वासाभास से चित्त को हरण करने के लिए बनी आकृति माया है । दूसरों को ठगने के लिए जो छल-कपट और कुटिल भाव होता है वह माया है । (रा. वा. – भग ६०४ क ।वचारा का छपाने को जो छ ०’ ‘ ० माया ० । (ध. 12)
प्रश्न -लोभ कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर- परिग्रह के ग्रहण में अतीव लालायित मानसिक भावना, परिग्रह के लाभ से अतिप्रसन्नता, ग्रहण किये हुए परिग्रह के रक्षण से उत्पन्न आर्त्तध्यान लोभ है । चेतन स्त्री-पुत्रादि में और अचेतन धन- धान्यादिक पदार्थों में ये ” मेरे हैं’ ‘ इस प्रकार की चित्त में उत्पन्न हुई विशेष तृष्णा को लोभ कहते हैं । अथवा इन पदार्थों की वृद्धि होने पर जो विशेष संतोष होता है, इनके विनाश होने पर महान् असंतोष होता है वह लोभ है । ४. ति. च. 8) 467)
प्रश्न-कषायों का वासना काल कितना है?
उत्तर-कषायों का वासना काल – कषाय वासना काल संज्वलन चतुष्क का एष्क अन्तर्मुहूर्त्त प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का. एक पक्ष अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का 2 छह माह अनन्तानुबन्धी चतुष्क का? संख्यात भव, असंख्यात भव, अनन्त भव । ( गो. क. जी. 46 – 47)
प्रश्न-वासना काल किसे कहते हैं?
उत्तर-उदय का अभाव होते हुए भी कषाय का सस्कार जितने काल तक रहता है, उसे ५११४४४ काल कहते हैं । (गो. क. जी. 46 – 47) जैसे – किसी पुरुष ने क्रोध किया । फिर करा; छूट कर वह अपने काम में लग गया । वहाँ क्रोध का उदय तो नहीं है परन्तु वासना ० है इसलिए जिस पर क्रोध किया था, उस पर क्षमा रूप भाव उत्पन्न नहीं हुआ है । ०’ प्रकार सभी कषायों का वासना काल जानना चाहिए ।
प्रश्न-किस गति के प्रथम समय में कौनसी कषाय की प्रधानता है?
उत्तर-नरक गति में उत्पन्न जीवों के प्रथम समय में क्रोध का उदय, मनुष्यगति में मान का, ‘न् गति में माया का और देव गति में लोभ के उदय का नियम है । ऐसा आचार्य उपदेश है । ४.) विशेष : महाकर्मप्रकृति प्रामृत प्रथम सिद्धान्त के कर्त्ता भूतबली आचार्य के ०८० किसी भी कषाय का उदय हो सकता । तालिका संख्या 24
क्र. | स्थान | संख्या | विवरण | विशेष |
1 | गति | 4 | न,ति.म.दे. |
स्थान?….? गति इन्द्रिय काय का…? वेद कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सभ्यक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 84 ला. 1 कुल 199 – ला., 2 अनन्तानुबन्धी चतुष्क विवरण नतिमदे. ए,द्वीत्रीचप. 5 स्थावर 1 श्स 4 म. 4 व. 5 का. सी. पुरु. नपुं. स्वकीय तथा 9 नोक. कुमति, कुश्रुत, कुअव. असयम चक्षु. अचक्षु. कृ. नी. का. पी. प. शु. भव्य, अभव्य मिथ्या. सा. सैनी, असैनी आहारक, अनाहारक पहला, दूसरा 14 एके. विक.2 पंचे. आ. श. इ. श्वा. भा. म. 5 इन्द्रिय उबल. श्वा. आ. आ. भ. मै. पीर. 3 ज्ञानो. 2 दर्शनो. मै आ. 4 रौ. 5 मि. 1 अ. ०क. 13 यो चारों गति सम्बन्धी चारों गति सम्बन्धी विशेष आहारकद्विक नहा है। क्रोध में क्रोध अवधि तथा केवलदर्शन नहीं हैं। 5 ज्ञानो. नहीं हैं । 15 कषाय तथा 2 योग रूप प्रत्यय नहीं हैं ।
प्रश्न- अनन्तानुबन्धी कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर- अनन्त ससार का कारण होने से मिथ्यादर्शन को अनन्त कहते हैं । उस अनन्त को बांधने वाली कषाय अनन्तानुबन्धी कषाय कहलाती है । (रा. वा. 5 – भग ६०४ क ।वचारा का छपाने को जो छ ०’ ‘ ० माया ० । (ध. 12)
प्रश्न- लोभ कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-परिग्रह के ग्रहण में अतीव लालायित मानसिक भावना, परिग्रह के लाभ से अतिप्रसन्नता, ग्रहण किये हुए परिग्रह के रक्षण से उत्पन्न आर्त्तध्यान लोभ है । चेतन स्त्री-पुत्रादि में और अचेतन धन- धान्यादिक पदार्थों में ये ” मेरे हैं’ ‘ इस प्रकार की चित्त में उत्पन्न हुई विशेष तृष्णा को लोभ कहते हैं । अथवा इन पदार्थों की वृद्धि होने पर जो विशेष संतोष होता है, इनके विनाश होने पर महान् असंतोष होता है वह लोभ है । ४. ति. च. 8) 467)
प्रश्न- कषायों का वासना काल कितना है?
उत्तर-कषायों का वासना काल – कषाय वासना काल संज्वलन चतुष्क का एष्क अन्तर्मुहूर्त्त प्रत्याख्यानावरण चतुष्क का. एक पक्ष अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का 2 छह माह अनन्तानुबन्धी चतुष्क का? संख्यात भव, असंख्यात भव, अनन्त भव । ( गो. क. जी. 46)
प्रश्न- वासना काल किसे कहते हैं?
उत्तर-उदय का अभाव होते हुए भी कषाय का सस्कार जितने काल तक रहता है, उसे ५११४४४ काल कहते हैं । (गो. क. जी. 46 – 47) जैसे – किसी पुरुष ने क्रोध किया । फिर करा; छूट कर वह अपने काम में लग गया । वहाँ क्रोध का उदय तो नहीं है परन्तु वासना ० है इसलिए जिस पर क्रोध किया था, उस पर क्षमा रूप भाव उत्पन्न नहीं हुआ है । ०’ प्रकार सभी कषायों का वासना काल जानना चाहिए ।
प्रश्न- गति के प्रथम समय में कौनसी कषाय की प्रधानता है?
उत्तर-नरक गति में उत्पन्न जीवों के प्रथम समय में क्रोध का उदय, मनुष्यगति में मान का, ‘न् गति में माया का और देव गति में लोभ के उदय का नियम है । ऐसा आचार्य उपदेश है । ४.) विशेष : महाकर्मप्रकृति प्रामृत प्रथम सिद्धान्त के कर्त्ता भूतबली आचार्य के ०८० किसी भी कषाय का उदय हो सकता । मायाचार करने वाले की चित्तवृत्ति बाँस की जड़ों के समान हो जाती है । इसी कारण उसके चाल-चलन और स्वभाव अत्यन्त उलझे तथा कुटिल हो जाते हैं और उनमें कभी भी सीधापन नहीं आता है । (व. चा. 4)
प्रश्न-कृमिराग सदृश लोभ किसे कहते हैं?
उत्तर-कृमिराग एक कीट विशेष होता है । वह नियम से जिस वर्ण के आहार को ग्रहण करता है उसी वर्ण के अतिचिक्कण डोरे को अपने मल त्यागने के द्वार से निकालता है । क्योंकि उसका वैसा ही स्वभाव है । उस सूत्र (धागे) द्वारा जुलाहे अतिकमिती अनेक वर्ण वाले नाना वस्र बनाते हैं । उस के रग को यद्यपि हजार कलशों की सतत धारा द्वारा प्रक्षालित किया जाता है, नाना प्रकार के सारयुक्त जलों द्वारा धोया जाता है तो भी उस रग को थोड़ा भी दूर करना शक्य नहीं है क्योंकि वह अतिनिकाचित स्वरूप है, अग्रि में जलाये जाने पर भी भस्मपने को प्राप्त होते हुए उस कृमिराग से रंजित हुए वस का रग कभी छूटने योग्य न होने से वैसा ही बना रहता है । इसी प्रकार जीव के हृदय में स्थित अतितीव्र लोभ परिणाम, जिसे कृश नहीं किया जा सकता, वह कृमिराग के रग के सदृश कहा जाता है । (ज. य. 127156)
प्रश्न-जहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध होता है वहाँ चारों क्रोध होते हैं अत: यहाँ पर भी चारों क्रोधों को लेना चाहिए? ]
उत्तर-जहाँ अनन्तानुबन्धी क्रोध होता है वहाँ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन क्रोध होता ही है फिर भी यहाँ पर अनन्तानुबन्धी क्रोध की विवक्षा होने से अन्य क्रोधों को गौण करके मात्र अनन्तानुबन्धी क्रोध को ही आसव के कारणों में ग्रहण किया है । इसी प्रकार मान आदि में भी जानना चाहिए । अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से भी एक समय में एक का ही उदय आता है अर्थात् क्रोध के साथ मान, माया आदि का उदय नहीं हो सकता ।
प्रश्न-क्या अनन्तानुबन्धी को कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता है?
उत्तर-यद्यपि अनन्तानुबन्धी कषाय का वासना काल अनन्त काल है, अनन्तानुबन्धी कषाय पत्थर की रेखा के समान है फिर भी पुरुषार्थ के माध्यम से उसे नष्ट किया जा सकता है । जिस प्रकार पत्थर पर बनी हुई लकीर को भी घिसकर साफ किया जा सकता है, उसी प्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय को भी करण (अध: करण आदि) रूप परिणामों के द्वारा एक अन्तर्मुहूर्त में नष्ट किया जा सकता है । क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके अनन्तानुबन्धी कषाय का कभी नाश नहीं होगा? ही, अभव्य जीवों के अनन्तानुबंधी कषाय का कभी नाश नहीं होगा तथा वे भव्य जीव जो सती विधवा के समान हैं अर्थात् अभव्य सम भव्य जीवों के भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय का नाश नहीं होगा, क्योंकि इनमें मोक्ष जाने की क्षमता होते हुए भी इन्हें कभी अनन्तानुबंन्थी चतुष्क को क्षय, उपशम करने के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे । जिस प्रकार सती विधवा को पुत्रप्राप्ति के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे इसलिए उसमें पुत्रप्राप्ति की क्षमता होने पर भी उसे कभी पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके अब कभी अनन्तानुबंधी सम्बन्धी आसव के प्रत्यय नहीं होंगे?
उत्तर-ही, वे जीव जिन्होंने क्षायिक-सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है तथा जो कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हैं उनको भी कभी अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी आसव नहीं होगा । तथा दूसरे-तीसरे नरक में जाने के सम्मुख मिथ्यादृष्टि (तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला) जीव जब तक नरक में पहुँचकर सम्यक प्राप्त नहीं कर लेते उन जीवों को छोड्कर शेष जिन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया है उनके भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय के निमित्त से आसव नहीं होगा, क्योंकि ये कभी सम्बक्म से क्षत (होकर पहले-दूसरे गुणस्थान को प्राप्त) नहीं होते हैं । ‘
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी का क्षय कौनसी गति में किया जा सकता है?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मात्र मनुष्यगति में ही किया जा सकता है । उसमें भी कम- से-कम आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त की आयु वाला कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में कर सकता है, अन्य कोई नहीं ।
नोट – ( 1) अनन्तानुबन्धी कषाय का कभी सीधा क्षय नहीं होता है । अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन अर्थात् अन्य कषाय में परिवर्तित करके ही उसका क्षय किया जाता है । (2) वह दुखमा-सुखमा काल में जन्मा जीव ही होना चाहिए ।
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषाय वाले के मति आदि ज्ञान क्यों नहीं होते हैं?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ मिथ्यात्व का उदय रहता है। उस मिथ्यात्व के कारण प्राणी जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझ सकता है, उसको इनका यथार्थ श्रद्धान नहीं हो सकता है इसलिए उसके मति, धुत तथा अवधिज्ञान विपरीत हो जाते हैं । कहा भी है- ‘ ‘सदसतोरविशेषाद्यइच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्’ ‘ तस. 1732) उन्मत्त पुरुष के समान मिथ्यादृष्टि जीव भी पदार्थों का सही स्वरूप नहीं समझ सकता है । उसका ज्ञान कड़वी ल्पी में रखे गये मीठे दूध के समान मिथ्या रूप हो जाता है । दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है, फिर भी वहाँ मिथ्याज्ञान ही कहे गये हैं 1 यद्यपि वे तीसरे गुणस्थान को भी प्राप्त नहीं करते हैं लेकिन यहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय की विवक्षा होने से उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया है ।
प्रश्न-अप्रत्याख्यानावरण कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से यह प्राणी ईषत् भी देशविरत (संयमासंयम) नामक व्रत को स्वीकार नहीं कर सकता है, स्वल्प मात्र भी व्रत धारण नहीं कर सकता है वह देशविरत प्रत्याख्यान का आवरण करने वाली अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय है । (रा. वा. 879) जो देशसंयम को अल्प मात्र भी न होने दे उसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय कहते हैं । (गो. क. जी. 133)
प्रश्न-अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि को किसकी उपमा दी गई है?
उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध – पृथ्वी रेखा सदृश । अप्रत्याख्यानावरण मान – हडी के समान, अस्थिस्तम्भ सदृश । अप्रत्याख्यानावरण माया – बकरी के सींग या मेंड़े के सींग सदृश । अप्रत्याख्यानावरण लोभ – नील रंग? अक्षमल या कज्जल सदृश । (ज. ध. 12 । 153 – 155 वैचा.)
प्रश्न-पृथ्वीरेखा सदृश क्रोध किसे कहते हैं?
उत्तर-यह क्रोध पूर्व क्रोध (नगराजि सदृश क्रोध) से मन्द अनुभाग वाला है, क्योंकि चिरकाल तक अवस्थित होने पर भी इसका पुन: दूसरे उपाय से सन्धान जुड़ना हो जाता है । यथा ग्रीष्म काल में पृथिवी का भेद हुआ गाड़ी गडारादरार बन गई) पुन: वर्षा काल में जल के प्रवाह से वह दरार भरकर उसी समय सधान को प्राप्त हो गई । इसी प्रकार जो क्रोध परिणाम चिरकाल तक अवस्थित रहकर भी पुन: दूसरे कारण से तथा गुरु के उपदेश आदि से उपशम भाव को प्राप्त होता है वह इस प्रकार का तीव्र परिणाम भेद पृथिवी रेखा सदृश है । जि. ध. 12153 ये सस्कार काफी समय बीतने पर अथवा शास्त्र रूपी जल वृष्टि से चित्त स्नेहार्द्र हो जाने पर उपशम को प्राप्त हो जाता है । (वचा. 4)
प्रश्न-अस्थिस्तम्भ सदृश मान किसे कहते है?
उत्तर-पुराण पुरुष कहते हैं कि दूसरे मान का उदय आत्मा में हहुईा के समान कर्कशता ला देता है, परिणाम यह होता है कि जब जीव ज्ञान रूपी अत्ना में काफी तपाया जाता है तो उसमें कुछ-कुछ विनम्रता आ ही जाती है । (व. चा. 4? 71)
प्रश्न-मेढ़े के सींग सदृश माया किसे कहते हैं?
उत्तर-इस माया का आत्मा पर पड़ने वाला सस्कार मेढ़े के सींग के समान गुड़ीदार होता है उत्तर-जो सती विधवा के समान हैं अर्थात् अभव्य सम भव्य जीवों के भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय का नाश नहीं होगा, क्योंकि इनमें मोक्ष जाने की क्षमता होते हुए भी इन्हें कभी अनन्तानुबंन्थी चतुष्क को क्षय, उपशम करने के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे । जिस प्रकार सती विधवा को पुत्रप्राप्ति के योग्य निमित्त नहीं मिलेंगे इसलिए उसमें पुत्रप्राप्ति की क्षमता होने पर भी उसे कभी पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके अब कभी अनन्तानुबंधी सम्बन्धी आसव के प्रत्यय नहीं होंगे?
उत्तर-ही, वे जीव जिन्होंने क्षायिक-सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है तथा जो कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि हैं उनको भी कभी अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी आसव नहीं होगा । तथा दूसरे-तीसरे नरक में जाने के सम्मुख मिथ्यादृष्टि (तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला) जीव जब तक नरक में पहुँचकर सम्यक प्राप्त नहीं कर लेते उन जीवों को छोड्कर शेष जिन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया है उनके भी कभी अनन्तानुबन्धी कषाय के निमित्त से आसव नहीं होगा, क्योंकि ये कभी सम्बक्म से क्षत (होकर पहले-दूसरे गुणस्थान को प्राप्त) नहीं होते हैं ।
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी का क्षय कौनसी गति में किया जा सकता है?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय मात्र मनुष्यगति में ही किया जा सकता है । उसमें भी कम- से-कम आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त की आयु वाला कर्मभूमिया मनुष्य ही केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में कर सकता है, अन्य कोई नहीं ।
नोट – ( 1) अनन्तानुबन्धी कषाय का कभी सीधा क्षय नहीं होता है । अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन अर्थात् अन्य कषाय में परिवर्तित करके ही उसका क्षय किया जाता है ।
(2) वह दुखमा-सुखमा काल में जन्मा जीव ही होना चाहिए ।
प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषाय वाले के मति आदि ज्ञान क्यों नहीं होते हैं?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी कषाय के साथ मिथ्यात्व का उदय रहता है। उस मिथ्यात्व के कारण प्राणी जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझ सकता है, उसको इनका यथार्थ श्रद्धान नहीं हो सकता है इसलिए उसके मति, धुत तथा अवधिज्ञान विपरीत हो जाते हैं । कहा भी है- ‘ ‘सदसतोरविशेषाद्यइच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्’ ‘ तस. 1732) उन्मत्त पुरुष के समान मिथ्यादृष्टि जीव भी पदार्थों का सही स्वरूप नहीं समझ सकता है । उसका ज्ञान कड़वी ल्पी में रखे गये मीठे दूध के समान मिथ्या रूप हो जाता है । दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है, फिर भी वहाँ मिथ्याज्ञान ही कहे गये हैं 1 यद्यपि वे तीसरे गुणस्थान को भी प्राप्त नहीं करते हैं लेकिन यहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय की विवक्षा होने से उसे यहाँ ग्रहण नहीं किया है । फलत: इस कषाय से आक्रान्त व्यक्ति मन में कुछ सोचता है और जो करता है वह इससे बिस्कूल भिन्न होता है । (वचा. 4775)
प्रश्न-अक्षमल सदृश लोभ किसे कहते हैं?
उत्तर-अक्ष (रथ का चक्का) का मल अक्षमल है । अक्षांजन के स्नेह से गीला हुआ मषीमल अति चिक्कण होने से उस अजमल को सुखपूर्वक दूर करना शक्य नहीं है । उसी प्रकार यह लोभ परिणाम भी निधत्त स्वरूप होने से जीव के हृदय में अवगाढ़ होता है इसलिए उसे दूर करना शक्य नहीं है । (ज. ध. 127156) जैसे ही जीव अपने आपको ज्ञान रूपी जल में धोता है वैसे ही आत्मा तुरन्त शुचि और स्वच्छ हो जाता है । (व. चा. 4779)
प्रश्न-अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टि के कितने उपयोग हो सकते हैं?
उत्तर-अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टि के 6 उपयोग हो सकते हैं” 3 ज्ञानो. – मतिज्ञानो., श्रुतज्ञानो., अवधिज्ञानो. । 3 दर्शनो. – चखुदर्शनो., अचखुदर्शनो., अवधिदर्शनो. । अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले कार्मण काययोगी के कितने आसव के प्रत्यय हो सकते हैं? उत्तर-कार्मण काययोग में स्थित अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले के 22 आसव के प्रत्यय होते हैं” 9 कषाय (8 नोकषाय स्त्रीवेद बिना), 1 स्वकीय अर्थात् क्रोधादि में से एक) 1 योग – कार्मण काययोग 12 अविरति – छहकाय के जीवों…… । अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले व्यंतर देव के कितने आसव के प्रत्यय होते हैं? अप्रत्याख्यानावरण कषाय वाले व्यंतरदेव के 29 आसव के प्रत्यय होते हैं – 12 अविरति 8 कषाय – 7 नोकषाय (देव है इसलिए सीवेद नहीं है) 1 स्वकीय कषाय है । 9 योग (4 मनोयोग, 4 वचनयोग, वैक्रियिक काययोग) 12 -४४ 8 -४४ 9 zZ 29 स्वकीय कषाय के साथ प्रत्याख्यानावरण तथा संज्वलन क्रोधादि को भी ग्रहण करने पर आसव के दो प्रत्यय और हो जाते हैं । तालिका संख्या 26 स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्म संज्ञी आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 1० मैं 6 11 3० 18 ला 57 ?? लार्क. प्रत्याख्यानावरण चतुष्क तिर्यव्व, मनुष्य पंचेन्द्रिय त्रस 4 मन. 4 व. 1 का सीपुन. 1 स्वकीय 9 नोक मति, सुत, अवधि । सयमासयम चक्षु. अव. अव. पीपशु. भव्य क्षाक्षायोउप. सैनी आहारक पंचम सैनी पंचे. आशइश्वाभाम. 5 इ. 3 बल. श्वाआ. आभमैपरि. 3 ज्ञानो. 3 दर्शनो. मै आ. 4 री. 3 धर्म 11 अ. 1० क. 9 वो. 4 ला. तिर्य. 14 ला. मनुष्यों की 43 -? ला.क. तिर्यच्चों के 2 14 लाक. मनुओं.! फें विशेष औदारिक काययोग 3 कुशान, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान नहीं है । अशुभ लेश्याएँ नहीं हैं। संस्थानविचय धर्मध्यान नहीं है। एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जाति नहीं है । कषाय मार्गणा? 159
प्रश्न-प्रत्याख्यानावरण कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से सकल संयम विरति या सकल संयम को धारण नहीं कर सकता, वह समस्त प्रत्याख्यान का आवरण करने वाली प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय है । (रा. वा. 5) प्रत्याख्यान का अर्थ महाव्रत है । उनका आवरण करने वाला कर्म प्रत्याख्यानावरणीय कषाय है । (ध. 137360)
प्रश्न-प्रत्याख्यानावरणीय क्रोधादि को किसकी उपमा दी जा सकती है?
उत्तर-प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध – धूलिरेखा सदृश’ बालुकाराजि सदृश । प्रत्याख्यानावरणीय मान – दारुस्तम्भ सदृश । प्रत्याख्यानावरणीय माया – गोद्ब सदृश । प्रत्याख्यानावरणीय लोभ – शरीर के मल के सदृश? पांशु लेप सदृश जि, ध. 127 153 – 155 वै. चा.)
प्रश्न-धूलिरेखा सदृश क्रोध कैसा होता है?
उत्तर-यथा नदी के पुलिन आदि में बालुकाराजि के मध्य पुरुष के प्रयोग से या अन्य किसी कारण से उत्पन्न हुई रेखा जिस प्रकार हवा के अभिघात आदि दूसरे कारण द्वारा शीघ्र ही पुन: समान हो जाती है अर्थात् रेखा मिट जाती है । इसी प्रकार यह क्रोध परिणाम भी मन्द रूप से उत्पन्न होकर गुरु के उपदेश रूपी पवन से प्रेरित होता हुआ अति शीघ्र उपशम को प्राप्त हो जाता है । जि. य. 12)
प्रश्न-दारु स्तम्भ सदृश मान कैसा होता है?
उत्तर-इस मान में इतनी कठोरता आ जाती है जितनी गीली लकड़ी में आती है । फलत: जब ऐसा जीव रूपी काष्ठ ज्ञान रूपी तेल से सराबोर कर दिया जाता है, उसके उपरान्त ही वह सरलता से झुक सकता है । (व. चा. 4)
प्रश्न-गोमूत्र सदृश माया कैसी होती है?
उत्तर-इस माया की तुलना चलते हुए बैल के अ से बनी टेढ़ी-मेढ़ी रेखा से होती है । परिणाम यह होता है कि उसकी सभी चेष्टाएँ बैल के अ के समान आधी-सीधी और आधी कुटिल एव कपटपूर्ण होती है । (व. चा. 4)
प्रश्न-पांशु लेप सदृश लोभ कैसा होता है?
उत्तर-जिस प्रकार पैर में लगा धूलि का लेप पानी के द्वारा धोने आदि उपायों द्वारा सुखपूर्वक दूर कर दिया जाता है वह चिरकाल तक नहीं ठहरता । उसी के समान उत्तरोत्तर मन्द स्वभाव वाला वह लोभ का भेद भी चिरकाल तक नहीं ठहरता । यह अप्रत्याख्यानावरण लोभ से अनन्तगुणा हीन सामर्थ्य वाला होता हुआ थोड़े से प्रयत्न द्वारा दूर हो जाता है । (ज. ब. 127156) इस लोभ वाला प्राणी जैसे ही आत्मा को शास्त्राभ्यास रूपी जल से भली- भाँति धोता है तत्काल इस लोभ का नामोनिशान ही नष्ट हो जाता है । (व. चा. 4)
प्रश्न-क्या प्रत्याख्यानावरण कषाय वाले तिर्यल्व-मनुष्य दोनों के क्षायिक सम्बक्च होता है?
उत्तर-नहीं, प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले तिर्यच्चों के क्षायिक सम्बक्म नहीं हो सकता है । केवल मनुष्यों में ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि पचम गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि तिर्यच्चों में क्षायिक सम्यक भोगभूमि में ही होता है अर्थात् कर्मभूमिया तिर्यच्चों के क्षायिक सम्बक्म नहीं होता है । भोगभूमि में सयम नहीं है इसलिए प्रत्याख्यानावरण कषाय वाले तिर्यल्द के क्षायिक सम्बक्ल नहीं हो सकता है ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले तिर्यस्थ्य हैं जिनके उपशम सम्य? नहीं हो सकता है?
उत्तर-ही, सर्न्च्छन जन्म वाले पंचेन्द्रिय तिर्यल्द जो प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय वाले हैं उनके उपशम सम्बक्ल नहीं हो सकता है (क्योंकि उपशम सम्बक्ल गर्भजो के ही होता हे) (य. 6? 429)
प्रश्न-प्रत्याख्यानावरण कषाय में कम- से- कम कितने प्राण हैं?
उत्तर-प्रत्याख्यानावरण कषाय में कम-से-कम भी 1० प्राण ही होते हैं क्योंकि इस कषाय का उदय पंचम गुणस्थान में कहा गया है । वह पंचम गुणस्थान पर्याप्त जीवों के ही होता है । तालिका संख्या 27 गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव संख्या 14 ला. 14 लाक कषाय मार्गणा? 161 संज्वलनत्रिक मनुष्य पंचेन्द्रिय त्रस 4 म. 4 व. 3 का. सी-पुनपुं. 1 स्वकीय 9 नोकषाय मसुअवमन:. साछेपरि. चअचअव. पीपशु. भव्य क्षाक्षायोउप. संज्ञी आहारक छठे से 9 वें तक सैनी पंचेन्द्रिय आशइश्वाभाम. 5 इ. 3 बल. श्वा. आ. आभमैपरि. 4 ज्ञानो. 3 दर्शनो. 3 आ. 4 धर्म 1 शुक्ल 1० क. 11 यो. मनुष्य सम्बन्धी १५४-१ सम्बन्धी विशेष औदारिक तथा आहारकद्विक होते हैं । संज्वलन क्रोध आदि 3 कुज्ञान तथा केवल ज्ञान नहीं है क्षायोपशमिक स. 6३, वें गुण. की अपेक्षा पृथक्लवितर्क वीचार शुक्ल ध्यान है । औदारिक मिश्र, वैक्रियिकद्विक तथा कार्मण काययोग नहीं है ।
प्रश्न-संज्यलन कषाय किसे कहते हैं?
उत्तर- एकीभाव अर्थ में रहता है । संयम के साथ अवस्थान होने पर एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात् चमकते हैं अथवा जिनके सद्भाव में संयम चमकता रहता है उसे संज्वलन कषाय कहते हैं । (सर्वा. 8 ‘ 9) सज्वलन क्रोधादिक सकल कषाय के अभाव रूप यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं । (गो. जी. जी. 283) जो संयम के साथ-साथ प्रकाशमान रहे एव जिनके उदय से यथाख्यात चारित्र न हो वे संज्वलन कषायें हैं । (हरि. पु. 58) प्रश्न_संज्वल्न क्रोधादि को किसकी उपमा दी गई है? उत्तर- संज्वलन क्रोध – उदकराजि सदृश ।
सज्वलन मान – लता सदृश वा बेंत के सदृश । संज्वलन माया – अवलेखनी के सदृश या चामर के सदृश । जि, ध. 12? 152 – 55 वै. चा.) प्रश्न_उदकराजि सदृश क्रोध कैसा होता है? उत्तर-यह क्रोध पर्वतशिला भेद से मन्दतर अनुभाग वाला और स्तोकतर काल तक रहने वाला है क्योंकि पानी के भीतर उत्पन्न हुई रेखा का बिना दूसरे उपाय के तत्क्षण विनाश देखा जाता है । (ज. ध. 121 ‘ 4)
प्रश्न-लता सदृश मान कैसा होता है?
उत्तर-अन्तिम संज्वलन मान के संस्कार की तुलना बालों की घुंघराली लट से की है । आपातत: जैसे ही उसे शास्र ज्ञान रूपी हाथ से स्पर्श करते हैं वैसे ही वह क्षणभर में ही सीधा और सरल हो जाता है । (वचा. 4? 73) प्रश्न_अवलेखनी सदृश माया कैसी है? उत्तर-यह माया आत्मा को चमरी मृग के रोम के समान कर देती है । अतएव जैसे ही आत्मा रूपी रोम को आत्म-ज्ञान यत्र में रखकर दबाते हैं तो तत्काल वह बिना विलम्ब अपने शुद्ध स्वभाव को प्राप्त कर लेता है (व. चा. 4 ‘ 77)
प्रश्न-क्या ऐसे कोई संज्वलन मानी हैं जिनके वेद नहीं होते हैं?
उत्तर-ही, नवमें गुणस्थान के अवेद भाग में जहाँ तक मान कषाय का उदय रहता है वहाँ सज्वलन मान वालों के वेद नहीं होता है ।
प्रश्न-सज्वलन मान वाले के अवधिदर्शन कितने गुणस्थान में होता है?
उत्तर-सज्वलन मान वाले के अवधिदर्शन 4 गुणस्थानों में होता है- छठे, सातवें, आठवें तथा नौवें । इसी प्रकार क्रोध एवं माया में जानना चाहिए ।
प्रश्न-संज्वलन माया वाले के शुक्ललेश्या किस-किस गुणस्थान में होती है?
उत्तर-सज्वलन माया वाले के शुक्ललेश्या 4 गुणस्थानों में होती है – छठे से 9 वें गुणस्थान तक । इसी प्रकार क्रोध एवं मान में जानना चाहिए ।
प्रश्न-संज्वलन त्रिक में क्षायिक सभ्य? कहाँ-कहाँ होता है?
उत्तर-सज्वलन त्रिक में क्षायिक सम्यक छठे, सातवें, आठवें और नौवें – इन चार गुणस्थानों में होता है ।
प्रश्न-संज्वलन माया में कितनी संज्ञाओं का अभाव हो सकता है?
उत्तर-संज्वलन माया में तीन संज्ञाओं का अभाव हो सकता है- आहार संज्ञा, भयसज्ञा तथा मैथुन संज्ञा । परिग्रह संज्ञा का अभाव नहीं हो सकता है क्योंकि संज्वलन माया का उदय नौवें गुणस्थान तक होता है और चौथी संज्ञा दसवें गुणस्थान तक पायी जाती है । इसी प्रकार क्रोध एवं मान में जानना चाहिए । क्या ऐसे कोई संज्वलन क्रोध वाले जीव हैं जिनके धर्मध्यान नहीं होते हैं? ही, आठवें नवमें गुणस्थान में स्थित संज्वलन क्रोध वाले जीवों के धर्म-ध्यान नहीं होते हैं क्योंकि वहाँ पहला शुक्लध्यान होता है । अथवा – सज्वलन क्रोध में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ धर्म ध्यान नहीं है । क्योंकि कोई आचार्य दसवें गुणस्थान तक धर्म- ध्यान मानते हैं ।
प्रश्न-संज्वलन मान में कम-से- कम कितने उपयोग हो सकते हैं?
उत्तर-संज्वलन मान में कम-से-कम चार उपयोग हो सकते हैं- मतिज्ञानो., भुतज्ञानो., चखुदर्शनो. तथा अचखुदर्शनो. । इसी प्रकार कोध माया एव लोभ में भी जानना चाहिए । तालिका संख्या 28 स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सभ्यक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 14 ला. ० 14 ला.क संज्वलन लोभ विवरण मनुष्यगति पंचेन्द्रिय त्रस म. ४६, का. स्त्री-पुन, स्वकीय एव नोक मधुअमन: साढ़े-परिण चअचअव. पीपशु. भव्य ब्क्षाक्षायोउप. आहारक छठे से दसवें तक. पंचेन्द्रिय आशइश्वाभाम. ५५. ब. श्वाआ. आभमैपरि. 4 ज्ञानो. 3 दर्शनो. आ. ४४-. भू- 1० क. 11 यो. मनुष्य सम्बन्धी मनष्य सम्बन्धी विशेष औदारिक तथा आहारकद्विक काययोग है । संज्वलन लोभ केवलदर्शन नहीं है। सामिश्रमि. नहीं है निदान आर्त्तध्यान नहीं है। प्रश्न : संज्वलन लोभ को किसकी उपमा दी गई है? उत्तर- सज्वलनलोभको हारिद्र सदृशकहागया है अर्थात् हल्दी के सकी उपमादीहै । (जय. ‘ 155)
प्रश्न-हारिद्र सदृश लोभ कैसा होता है?
उत्तर-जिस प्रकार हल्दी से रंगे गये वस्न का वर्ण? रंग चिरकाल तक नहीं ठहरता, वायु और आतप आदि के निमित्त से ही उड़ जाता है; उसी प्रकार यह लोभ का भेद मन्दतम अनुभाग से परिणत होने के कारण चिरकाल तक आत्मा में नहीं ठहरता है, क्षणमात्र में ही दूर हो जाता है । जि, य. 12? 157) क्या संज्वलन लोभ वालों के हास्यादि कषाय का अभाव भी हो सकता है? ही, संचलन लोभ वालों के आठवें गुणस्थान के बाद अर्थात् नौवें, दसवें गुणस्थान में हास्यादि कषायों का अभाव हो जाता है ।
प्रश्न-क्या संक्वलन लोभ वाले के भी निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था हो सकती है?
उत्तर-ही, संज्वलन लोभ वाला भी जब छठे गुणस्थान में आहारक मिश्र योग वाला होता है तो उसके भी निर्वृत्यपर्यातक अवस्था बन जाती है ।
प्रश्न-सैज्वलन लोभ में कितने संयम होते हैं?
उत्तर-सज्वलन लोभ में चार सयम होते है – ( 1) सामायिक (2) छेदोपस्थापना ( 3) परिहार विशुद्धि (4) ख्तसाम्पराय । क्योंकि सज्वलन लोभ का उदय छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक होता है ।
प्रश्न-संज्यलन लोभ वाले के कौन- कौन से गुणस्थान में कौन-कौनसा सम्य? होता है?
उत्तर-सज्वलन लोभ वाले के सम्बक्म- छठे – सातवें गुणस्थान में – क्षायिक सम्बक्च, क्षायोपशमिक तथा उपशम । (उपशमश्रेणी के) आठवें, नवमें, दसवें गुणस्थान में – क्षायिक तथा उपशम । (क्षपक श्रेणी के) आठवें, नवमें, दसवें गुणस्थान में – क्षायिक सम्बक्ल ।
प्रश्न-संज्वलन लोभ वाले के कम-से- कम कितने प्राण हो सकते हैं?
उत्तर-संज्वलन लोभ वाले के कम-से-कम 7 प्राण हो सकते हैं – 5 इन्द्रिय, काय बल तथा आयु । ये 7 प्राण आहारकमिश्र की अपेक्षा जानने चाहिए क्योंकि सज्वलन लोभ का उदय छठे गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है ।
प्रश्न-संज्वलन लोभ का उदय तो दसवें गुणस्थान में होता है फिर उसमें चारों संज्ञाएँ कैसे हो सकती हैं?
उत्तर- गुणस्थान में ही नहीं होता है अपितु दसवें गुणस्थान तक होता है । पहले से पचम गुणस्थान तक संज्वलन कषाय के साथ अनन्तानुबन्धी आदि का उदय भी पाया जाता है । छठे गुणस्थान से नौवें गुणस्थान तक सज्वलन क्रोध, मान, माया तथा लोभ चारों का उदय होता है इसलिए जो सज्वलन लोभ वाले छठे गुणस्थान में स्थित हैं उनके आहारादि चारों संज्ञाएँ पाई जाती हैं । इसी प्रकार शेष संज्ञाएँ भी जानना चाहिए ।
प्रश्न-संज्यलन लोभ में कौनसी संज्ञा का अभाव नहीं हो सकता है?
उत्तर-संज्वलन लोभ कषाय वालों के पीरग्रह सज्ञा का अभाव नहीं हो सकता है क्योंकि कषाय के रहते हुए इच्छा, वांछाओं का अभाव नहीं हो सकता है ।
प्रश्न-क्या धर्मध्यान से रहित सैज्वलन लोभ वाले भी होते हैं?
उत्तर-ही, धर्मध्यान से रहित संज्वलन लोभ वाले भी होते हैं – जिन छठे गुणस्थान वालों के आर्त्तध्यान होते हैं उनके धर्मध्यान नहीं होते तथा अष्टम गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक मुनिराज धर्मध्यान से रहित होते हैं अर्थात् प्रथम शुक्ल ध्यान वाले होते हैं । अथवा सप्तम गुणस्थान से दसवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज धर्मध्यानी ही होते हैं ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई संज्वलन लोभ कषायवाले हैं जिनके आर्चध्यान नहीं होते हों?
उत्तर-ही, सातवें गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक के सज्वलन लोभ कषायवालों के ०८ नहीं होते हैं ।
प्रश्न-संज्वलन लोभवालों के कम-से-कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?
उत्तर-संज्वलन लोभ वालों के कम-से-कम दस आसव के प्रत्यय होते हैं – 9 योग तथा 1 कषाय । 9 योग – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, 1 औदारिक काययोग तालिका संख्या स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्यक संज्ञी आहारक गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति कुल 7 5 3 6 2 6 2 2 8 19 6 1० मै 1० 13 55 84 ला 199 – हास्यादि चार नोकषाय विवरण विशेष नतिमदे. ए-द्वीत्रीचप. 5 स्थावर 1 त्रस 4 म.4 ब.7 का. सी-पुनपुं. 16 क. 3 वेद, हास्य, हास्य-रति में अरति-शोक नहीं रहते हैं रति, भय, जुगुप्सा 4 ज्ञा. 3 अज्ञा. केवलज्ञान नहीं है। सा. छे. पीर. संयमाअस. च. अच.अव. कवेलदर्शन नहीं है। कृ. नी. का. पी. प. शु. भव्य-अभव्य क्षाक्षायोउसामिश्रमि. सैनी-असैनी आहारक-अनाहारक पहले से आठवें तक 14 स्थावर, 5 त्रस. आशइश्वाभाम. इ.3 बल, श्वाआ. आभमैपरि. 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो. आ. बर., ४४-. शु. मि. १२८. क. 1 यो. हास्य-रति में अरति-शोक नहीं हैं। चारों गति सम्बन्धी चारों गति सम्बन्धी
प्रश्न-हास्य नाकषाय केसे कहते हैं?
उत्तर-जिस कर्म के उदय से अनेक प्रकार का परिहास उत्पन्न होता है, वह हास्य कर्म है । (ध. 13? 361) जिसके उदय से हँसी आती है वह हास्य कर्म है (सर्वा. 8? 9)
प्रश्न-हास्य नोकषाय वाले के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-हास्य नोकषाय का उदय होने पर यह जीव प्रसन्नता के अवसर पर साकूत क्रोध में तथा कहीं पर अपमान होने के बाद अकेले ही या अन्य लोगों के सामने भी प्रकट कारण के बिना ही अर्थात् बिना कारण ही हँसता है अथवा अपने आप कुछ बड़बड़ाता जाता है । (वचा. 4783)
प्रश्न-रति नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिस कर्म-स्कन्ध के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों में राग उत्पन्न होता है उसकी रति संज्ञा है । ४.? 47) जिसके उदय से देशादि (क्षेत्रादि) में उत्सुकता होती है वह रति है । (सर्वा 8) मनोहर वस्तुओं में परम प्रीति को रति कहते हैं । (निसा. ता. 6)
प्रश्न- रति नोकषायवाले के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-जब किसी जीव के रति नोकवाय का उदय होता है तो उसे उन दुष्ट लोगों से ही प्रीति होती है जो पाप कर्मों के करने में ही सदा लगे रहते हैं, जिनके कर्मों का परिणाम कुफल प्राप्ति ही होती है तथा निष्कर्ष शुद्ध अहित ही होता है । (व. चा. 484)
प्रश्न-अरति नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से आत्मा की देश आदि में उत्सुकता उत्पन्न नहीं होती है वह अरति ०७२८ है (सर्वा. 8) नाती, पुत्र एव सी आदि में रमण करने का नाम रति है, इसकी उ० अरति कही जाती है । ४.)
प्रश्न-अरति नोकषायवाले के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-अरति नोकषाय के फल में जीव ज्ञानार्जन के साधन, व्रतपालन का शुभ अवसर, ० तपने की सुविधाएँ, ज्ञानाभावमार्जन की सामग्री, लौकिक और पारलौकिक सम्पत्ति (द्रव्य) तथा अन्य सुखों के कारणों की प्राप्ति हो जाने पर भी अपने आपको उनमें नहीं लगा ० है । (व. चा. 4)
प्रश्न-शोक नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-उपकार करने वाले से सम्बन्ध के टूट जाने पर जो विकलता होती है वह शोक है । (सर्वा. 8? 9) जिसके उदय से शोक होता है, वह शोक है (रा. वा. 8 ‘ 9)
प्रश्न- नोकषाय के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-जब प्राणी हर एक बात से उदासीन हो जाता है, लम्बी-लम्बी साँस छोड़ता है, मन को नियन्त्रित नहीं कर पाता है, फलत: मन सबसे अव्यवस्थित होकर चक्कर काटता है, इन्द्रियाँ इतनी दुर्बल हो जाती हैं कि अपना कार्य भी नहीं कर पाती हैं तथा बुद्धि विचार नहीं कर सकती है तब समझिये कि उसके शोक नोकषाय का उदय है । (व. चा. 4? 87)
प्रश्न-हास्यादि चार कषायों से किस- किस का ग्रहण करना चाहिए?
उत्तर-हास्यादि चार कषायों से हास्य, रति, अरति तथा शोक को ग्रहण करना चाहिए ।
प्रश्न- नोकषाय में कौनसी नोकषायें नहीं होती हैं?
उत्तर-हास्य-रति नोकवाय में अरति-शोक नोकषाय, अरति-शोक नोकषाय में हास्य-रति नोकवाय तथा एक वेद के साथ दूसरा वेद नहीं होता है ।
प्रश्न-क्या कोई ऐसे हास्य कषायवाले हैं जिनके वचन योग नहीं है?
उत्तर-ही, एकेन्द्रिय तथा लब्ध्यपर्यातक जीवों के वचनयोग नहीं होता है । द्वीन्द्रियादि सभी जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक तथा अनाहारक अवस्था में भी वचन योग नहीं होता है ।
प्रश्न-शोक कषायवाले पुरुषवेदी के कितनी गतियाँ होती हैं?
उत्तर-शोक कषायवाले पुरुषवेदी के तीन गतियाँ होती हैं – ( 1) तिर्यञ्चगति (2) मनुष्यगति (3) देवगति । नरक गति नहीं है क्योंकि वहाँ पुरुषवेद नहीं पाया जाता है ।
प्रश्न-नारकियों के हास्य- रति कषाय कैसे हो सकती हैं क्योंकि उनके तो कभी सुख होता ही नहीं है?
उत्तर-नारकियों के उदय योग्य प्रकृतियों में मोहनीय कर्म की स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद को छोड़ कर शेष 26 प्रकृतियाँ बतायी गई हैं । नारकी जीव भी दूसरे के मारने आदि की भावना पूरी होने पर खुश होते ही होंगे । अथवा, तीसरे नरक तक देवों के द्वारा धर्मोपदेश सुन कर प्रसन्नता की अनुभूति होती है, उसे भी हास्य-रति कहा जा सकता है । जब तीर्थंकर भगवान का जन्म होता है तब नरकों में कुछ समय के लिए सुख होता है तब भी हास्य- रति का उदय होता है क्योंकि सुख के समय अरति-शोक नहीं होते हैं ।
प्रश्न-देवों में अरति- शोक सम्बन्धी आसव के प्रत्यय कैसे होते हैं क्योंकि उनके तो दु: ख नहीं होता है?
उत्तर-देवों में भी अरति शोक का उदय पाया जाता है इसलिए उनके अरति-शोक सम्बन्धी आसव ही है । देव भी जब वाहन आदि बनने का आदेश सुनते हैं, उनकी देवांगना आदि ० जाती हैं तब उनके अरति, शोक का उदय होता है ।
प्रश्न-त्वट कषायवाले अवधिज्ञानी के कितने जीवसमास होते हैं?
उत्तर–२१ कषायवाले अवधिज्ञानी के एक ही जीवसमास होता है – सैनी पंचेन्द्रिय ।
प्रश्न- कषाय के साथ अचखुदर्शन कितने गुणस्थानों में पाया जाता है?
उत्तर- कषाय के साथ अचखुदर्शन में आठ गुणस्थान पाये जाते हैं – पहले से आठवें तक ।
प्रश्न- अम् कषाय में अवधिदर्शनी के कितनी जातियाँ होती हैं?
उत्तर-त्वद्व कषाय में अवधिदर्शनी के 26 लाख जातियाँ होती हैं-पंचेन्द्रिय सम्बन्धी ।
प्रश्न- जिनके हास्य कषाय का उदय है लेकिन आहार संज्ञा नहीं होती है?
उत्तर-ही, सातवें एवं आठवें गुणस्थान वालों के हास्य कषाय का उदय होने पर भी आहार संज्ञा नहीं होती है, क्योंकि आहारसंज्ञा छठे गुणस्थान से आगे नहीं होती है ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई हास्य-रति कषाय वाले जीव हैं: जिनके अनाहारक अवस्था नहीं होती है?
उत्तर-ही, ( 1) तीसरे, पाँचवें, छठे, सातवें तथा आठवें गुणस्थान में स्थित हास्य-रति कषाय वाले जीवों के अनाहारक अवस्था नहीं होती है । (2) ऋजुगति से जाने वाले पहले, दूसरे तथा ० गुणस्थान ०० -मैं हास्य- कषाय ० साथ अनाहारक अवस्था ‘ होती है ।
प्रश्न-अरति- शोक वालों के अनाहारक अवस्था में कितने गुणस्थान होते हैं?
उत्तर-अरति-शोक वालों के अनाहारक अवस्था में 3 गुणस्थान होते हैं – पहला, दूसरा, चौथा नोट – तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में अरति-शोक कषाय नहीं है इसलिए उनका यहाँ 0 नहीं किया है ।
प्रश्न-रति कषायवाले असैनी जीवों के कितने जीवसमास होते हैं?
उत्तर-रति कषाय वाले असैनी जीवों के 18 जीवसमास होते हैं – एकेन्द्रिय सम्बन्धी 14, विकलत्रय के 3 तथा असैनी पंचेन्द्रिय का 1 ८ 18 तालिका संख्या 3० स्थ?म्मान वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल संज्ञी आहार गुणस्थान बावसमास पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति 84 ला. 1 कुल 1 99-‘ ला भय-जुगुप्सा विशेष नतिमदे. एद्वीत्रचितुपचे. 5 स्थावर 1 त्रस म व पका स्त्री-पुन- 16 क. नो. भय-जुगुप्सा से रहित जीव भी हैं । 3 कुज्ञान 4 ज्ञान केवलज्ञान नहीं है । साछेपसंयअस. ख्तसाम्पराय और यथाख्यात नहीं है । चअचअ. केवल दर्शन नहीं है कृनीकापीपशुक्ल भव्य-अभव्य क्षाक्षायोउपसासम्बमि. सैनी-असैनी आहारक-अनाहारक पहले से आठवें तक स्थावरों के 14 त्रसों के 5 आशइश्वाभामन. इन्द्रिय ब.श्वा.आ. आभमैपरि. आहार संज्ञा रहित भी हैं । 7 ज्ञानो. 3 दर्शनो. आ. पर.. ४४. शु. मि. 1 अवि.25क. 1 यो. चारों गति सम्बन्धी चारों गति सम्बन्धी
प्रश्न-भय नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-परचक्र के आगमनादि का नाम भय है ४- १५४३६ जिसके उदय से उद्वेग होता है वह भय है । (सर्वा. 8 ??? जिस कर्म के उदय से जीव के सात प्रकार का भय उत्पन्न होता है वह भयकर्म है । (ध. १३३६)
प्रश्न-भयकषाय वाले के क्या लक्षण हैं?
उत्तर-श्मसान, राजद्वार, अन्धकार आदि सात भय के स्थानों पर किसी साधारण से साधारण भय के कारण उपस्थित होते ही कोई प्राणी एकदम काँपने लगता है, उसकी बोली बन्द हो जाती है या वह हकला-हकला कर बोलने लगता है, यह सब भय नोकषाय का ही प्रभाव है । (व.चा.4ा86)
प्रश्न-जुगुप्सा नोकषाय किसे कहते हैं?
उत्तर-जिसके उदय से अपने दोषों का संवरण (ढकना) और पर के दोषों का आविष्करण होता है वह जुगुप्सा है। (सर्वा. ८१९ जिस कर्म के उदय से ग्लानि होती है उसकी जुगुप्सा यह संज्ञा है । (ध. ६१६
प्रश्न-जुगुप्सा नोकषायवाले के क्या चिह हैं?
उत्तर-जो पुण्यहीन व्यक्ति पाँचों इन्द्रियों के परम-प्रिय भोगों और उपभोगों को प्राप्त करके भी उनसे मृणा करता है या ग्लानि का अनुभव करता है समझिये उसे जुगुप्सा नोकषाय ने जोरों से दबा रखा है । (व.चा.4)
प्रश्न-क्या ऐसे कोई भय-जुगुप्सा वाले हैं जिनके सामायिक छेदोपस्थापना संयमनहो?
उत्तर- ही, पहले गुणस्थान से पाँचवें गुणस्थान तक के भय-जुगुप्सा वाले जीवों के सामायिक- छेदोपस्थापना संयम नहीं होता है । परिहारविशुद्धि संयमी भय-जुगुप्सा वालों के भी सामायिक-छेदोपस्थापना संयम नहीं होता है । क्योंकि एक समय में एक ही संयम ह भय- नोकषाय के उदय वाले चसुदर्शनी जीवों के कितने जीवसमाम होते हैं? भय-नोकषाय के उदय वाले चखुदर्शनी जीवों के तीन जीवसमास होते हैं – चतुरिन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय और सैनी पंचेन्द्रिय ।
प्रश्न-जुगुप्सा के उदय वालों के कितनी संज्ञाओं का अभाव हो सकता है?
उत्तर-जुगुप्सा के उदय वालों के एक संज्ञा का अभाव हो सकता है – आहारसंज्ञा का ।
प्रश्न-भय-जुगुप्सा वालों के कम-से- कम कितनी संज्ञा हो सकती है?
उत्तर-परिग्रह संज्ञा । ये तीन संज्ञाएँ 7 वें तथा 8 वें गुणस्थान वालों की अपेक्षा जानना चाहिए ।
प्रश्न-भय- जुगुप्सा के साथ अभव्य जीवों के कौनसे ध्यान नहीं हो सकते हैं?
उत्तर-भय-जुगुप्सा के साथ अभव्य जीवों के 5 ध्यान नहीं हो सकते हैं – 4 धर्मध्यान तथा 1 शुक्लध्यान (पृथक्लवितर्कविचार) शेष शुक्ल ध्यान कवायातीत जीवों के ही होते हैं । भय- जुगुप्सा वाले असैनी जीवों के कम-से- कम कितने आसव के प्रत्यय होते ई? भय-जुगुप्सा वाले असैनी जीवों के कम-से-कम आसव के 36 प्रत्यय हो सकते हैं – 5 मिथ्यात्व, 7 अविरति, 23 कषाय तथा 1 योग । अथवा 7 अविरति, 23 कषाय तथा 1 योग ८31 । जो आचार्य एकेन्द्रिय जीवों के दूसरा गुणस्थान मानते है उनकी अपेक्षा आसव के 31 प्रत्यय बन जाते हैं । ये आसव के प्रत्यय पर्यातक अवस्था में नहीं होंगे क्योंकि पर्याप्त होने के पहले ही दूसरा गुणस्थान छूट जायेगा । 24 स्थानों में से किन स्थानों के सभी उत्तर भेद भय- जुगुप्सा में पाये जाते हैं? 24 स्थानों में से 18 स्थानों के सभी उत्तर भेद भय-लुगुप्सा में पाये जाते हैं – ( 1) गति (2) इन्द्रिय (3) काय (4) योग ( 5) वेद (6) कषाय (7) लेश्या ( 8) भव्य (9) सन्युक्ल ( 1०) संज्ञी ( 11) आहार ( 12) जीवसमास ( 13) पर्याप्ति ( 14) प्राण 15 सज्ञा 16 आसव ० प्रत्यय 1718 कुल ।
प्रश्न-क्या ऐसे कोई जीव हैं जिनके भय- जुगुप्सा सम्बन्धी आसव के प्रत्यय नहीं ?
उत्तर-ही, आठवें गुणस्थान के आगे तो भय- जुगुप्सा सम्बन्धी आसव के प्रत्यय ही नहीं है ० जिन जीवों के भय-जुगुप्सा का उदय नहीं होता है उनके भी भय-जुगुप्सा नोकषाय एन के प्रत्यय नहीं बनते हैं अर्थात् भय-जुगुप्सा सम्बन्धी आसव नहीं है । तालिका संख्या 31 1 2 3 4 5 6- 7 8 9. 1 Z 11 12 13 14 15 16 1 ७.. 18. 19. 2०. ‘?. 22. 2? 4? : स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान तु लेश्या भव्य सुस्सम्बक्ल आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण संज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति संख्या 14 लाक कषायातान जाव- कि-……… मनुष्यगति पंचेन्द्रिय त्रस ४.. व. का. मधुअमकेव. यथाख्यात चअचअवकेवल शुस्ल भव्य क्षायि.उप. सैनी आहारक,अनाहारक प्यारहवें से चौदहवें न सैनी पंचेन्द्रिय आशइश्वाभाम. 5 इ. 3 ब. श्वाआ. 5 ज्ञानो. 4 दर्शनो. चारों शुक्लध्यान थम. व. का. मनुष्य सम्बन्धी धान्य- सम्बन्धी कषायात।ईत जीव किक्रे -त्रे ‘2 विशेष गति रहित जीव भी होते हैं । इन्द्रियातीत जीव भी होते हैं । कायातीत जीव भी होते हैं । योगातीत जीव भी होते हैं । कुशान नहीं होते हैं। लेश्यातीत जीव भी होते हैं । भव्याभव्य से रहित भी होते हैं । सैनी- असैनी से रहित जीव भी होते हैं । गुणस्थानहि।त जीव भी होते हैं। जीव समास रहित जीव भी होते हैं। पर्याप्ति रहित जीव भी होते हैं। प्राणातीत जीव भी होते हैं। ध्यानातीत जीव भी होते हैं । औदारिकद्विक तथा कार्मण काययोग जाति रहित जीव भी होते हैं । कुल रहित जीव भी होते हैं । 8 जिनके स्वय को, दूसरों को तथा दोनों को ही बाधा देने और बन्धन करने तथा असयम करने में निमित्तभूत क्रोधादिक कषाय नहीं हैं तथा जो बाह्य- अध्यन्तर मल से रहित हैं ऐसे जीवों को अकषाय (ककयातीत) जीव कहते हैं । ग्यारहवें गुणस्थान वाले व इसके आगे सभी जीव अकषायी हैं । (गो. जी. 289 (ग्यारहवें आदि गुणस्थानवर्ती जीवों को)
प्रश्न-अकषायी जीवों को अमल किस अपेक्षा कहा गया है?
उत्तर-अकषायी जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म इन तीनों कर्ममलों से रहित हैं, यह सिद्धों की अपेक्षा कथन है । अथवा जो भावकर्म मल से रहित हैं वे अमल हैं, यह कथन ग्यारहवें आदि गुणस्थानों की अपेक्षा है । ( गो. जी. 289 मप्र.)
प्रश्न-ग्यारहवें गुणस्थान वाले अकषायी कैसे हो सकते हैं क्योंकि उनके द्रव्यकषाय का सद्भाव पाया जाता है?
उत्तर-ग्यारहवें गुणस्थान वालों को अकषायी कहने का कारण उनके कषाय के उदय का अभाव कहा गया है । सत्ता में तो उनके कषायें रहती ही हैं ।
प्रश्न-क्या अकषायी जीव पुन: कषायवान बन सकते हैं?
उत्तर-ही, उपशम श्रेणी वाले जीव जब ग्यारहवें गुणस्थान में अकषायी हो जाते हैं वे जब वहाँ से गिरकर दसवें आदि गुणस्थानों में आते हैं तब पुन: कषायवान हो जाते है ।
प्रश्न-अकषायी जीवों के उपशम तथा क्षायिक सम्य? किन गुणस्थानों में पाये जाते ई?
उत्तर-अकषायी जीवों के उपशम सम्बक्ल केवल ग्यारहवें गुणस्थान में होता है तथा क्षायिक सम्बक्ल उपशम श्रेणी की अपेक्षा ग्यारहवें गुणस्थान में तथा क्षपक श्रेणी की अपेक्षा बारहवें में और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान वालों के होता है । सिद्ध भगवान के भी क्षायिक सम्बक्ल होता है ।
प्रश्न-सैनी- असैनी से रहित अकषायी जीव कौन- कौन से हैं?
उत्तर-सैनी-असैनी से रहित अकषायी जीव – तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिनेन्द्र देव तथा सिद्ध भगवान हैं ।
प्रश्न-कौन-कौन से गुणस्थान वाले अकषायी होते हैं?
उत्तर-उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोग-केवली और अयोग केवली इन चार गुणस्थानों में कषायरहित जीव होते हैं ।
प्रश्न-अकषायी जीवों के कितने ज्ञान हो सकते हैं?
उत्तर-अकषायी जीवों के कम-से-कम एक ज्ञान हो सकता है – केवलज्ञान तथा अधिक से अधिक एक जीव के एक साथ चार ज्ञान हो सकते हैं – मति, खुल, अवधि तथा मनःपर्ययज्ञान नाना जीवों की अपेक्षा अकषायी जीवों के पाँचों ज्ञान भी हो सकते हैं ।
प्रश्न-लेश्यातीत अकषायी जीव कौन-कौन से हैं?
उत्तर-लेश्यातीत अकषायी जीव – चौदहवें गुणस्थान वाले तथा सिद्ध भगवान हैं । – समुच्चय प्रश्नोत्तर –
प्रश्न-कषायों में योगमार्गणा किस प्रकार लगानी चाहिए?
उत्तर-कषायों में योगों का विवेचन : . 1० कषायों में – अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यान चतुष्क, स्त्रीवेद एवं नपुंसक वेद में तेरह योग – 4 मनोयोग, 4 वचनयोग, औदारिकद्बिक, वैक्रियिकद्विक तथा कार्मण । . प्रत्याख्यानावरण चतुष्क में नौ योग – 4 मनो. 4 वच. तथा 1 औदारिक काययोग । . सज्वलन चतुष्क में 11 योग – 4 मनो. 4 वच. औदारिक काययोग एवं आहारकद्बिक काययोग । . हास्यादि छह तथा पुरुषवेद में 15 योग – 4 मनी. 4 वच. 7 काययोग ।
प्रश्न-कौनसी कषायों में सभी योग होते हैं?
उत्तर-सात नोकषायों में सभी योग होते हैं – हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा तथा पुरुषवेद ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने ज्ञान हो सकते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम दो ज्ञान होते हैं – मातज्ञान, श्रुतज्ञान अथवा कुमति, कुश्रुत तथा अधिक-से-अधिक 7 ज्ञान होते हैं- मतिज्ञान, हतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, कुमति, कुहत, विभंगावधि ।
प्रश्न-कषाय में संयम मार्गणा का एक ही भेद होता है?
उत्तर-अनन्तानुबन्धी चौकड़ी तथा अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क में एक संयम – असंयम; प्रत्याख्यानावरण चौकड़ी में एक संयम – सयमासैयम ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने संयम होते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम एक सयम होता है – सूक्ष्मसाम्पराय – दसवें गुणस्थान की अपेक्षा । अथवा – संयमासंयम – पंचम गुणस्थान की अपेक्षा । असयम – प्रथम से चौथे गुणस्थान की अपेक्षा । कषायवान जीवों के अधिक-से- अधिक 6 संयम हो सकते हैं – सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, त्त्व साम्पराय, संयमासंयम तथा असंयम । यथाख्यातसयम कषायवान जीवों के नहीं होता है ।
प्रश्न-किस कषाय में सबसे ज्यादा संयम होते हैं?
उत्तर-संज्वलन लोभ में 4 सयम होते हैं – सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि तथा ख्तसाम्पराय संयम । अथवा हास्यादि 6 नोकषायों एव पुरुष वेद में 5 सयम होते हैं। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सयमासयम और असयम ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने दर्शन होते हैं?
उत्तर-कवायवान जीवों के कम से कम एक दर्शन होता है – अचक्षु दर्शन (एकेन्द्रिय से लेकर त्रीन्द्रिय जीवों तक होता है) । तथा अधिक- से- अधिक तीन दर्शन हो सकते हैं – चखुदर्शन, अचखुदर्शन, अवधिदर्शन ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने सभ्य? हो सकते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम 1 सम्बक्म होता है- क्षायिक सम्बक्ल – क्षपक श्रेणी की अपेक्षा । (आठवें से दसवें गुणस्थान तक) अथवा – कषायवान जीवों के दो सम्यक हो सकते हैं – उपशम और क्षायिक (आठ वें से दसवें गुणस्थान तक की अपेक्षा) अथवा – अनन्तानुबन्धी कषाय की अपेक्षा दो सम्बक्ल हैं – मिथ्यात्व और सासादन । कषायवान जीवों के अधिक-से-अधिक सभी (छह) सम्बक्ल हैं क्योंकि पहले गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक कषायवान जीव पाये जाते है ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कम-से- कम कितने प्राण होते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के कम-से-कम तीन प्राण होते हैं – 1 इन्द्रिय (स्पर्शन) 1 कायबल, 1 आयु । ये 3 प्राण एकेन्द्रिय जीवों की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में या लब्ध्यपर्यातक की अपेक्षा कहे गये हैं ।
प्रश्न-अकषाया जावा क प्राण होते हैं?
उत्तर-अकषायी जीवों के ग्यारहवें व बारहवें गुणस्थान की अपेक्षा अधिक-से-अधिक दस प्राण होते हैं तथा चौदहवें गुणस्थान में कम-से-कम एक प्राण-आयु प्राण होता है ।
प्रश्न-ऐसे कौन-कौनसे ज्ञानोपयोग हैं जो अकषायी अथवा कषायवान जीवों के ही होते है?
उत्तर-दो उपयोग ऐसे हैं जो अकषायी जीवों के ही होते हैं – केवलज्ञानोपयोग तथा केवलदर्शनोपयोग । तीन उपयोग ऐसे हैं जो केवल कषायवान जीवों के ही होते हैं – कुमतिज्ञानोपयोग, कुसुतज्ञानोपयोग, विभगज्ञानोपयोग
प्रश्न-ऐसे कौन-कौन से उपयोग हैं जो अकषायी और कषायवान दोनों जीवों के होते ई?
उत्तर-7 उपयोग अकषायी एवं कषायवान दोनों के होते हैं -. 4 ज्ञानोपयोग – मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग तथा मनःपर्यय ज्ञानोपयोग । 3 दर्शनोपयोग – चक्षुदर्शनोपयोग, अचक्षुदर्शनोपयोग, अवधिदर्शनोपयोग ।
प्रश्न-कषायवान जीवों के कितने ध्यान पाये जाते हैं?
उत्तर-कषायवान जीवों के तेरह ध्यान पाये जाते हैं – 4 आर्त्तध्यान – इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, वेदना और निदान । 4 रौद्रध्यान – हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द, परिग्रहानन्द । 4 धर्मध्यान – आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय । 1 शुक्लध्यान – पृथक्त्ववितर्कवीचार ।
प्रश्न:1ज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर-जो जानता है वह ज्ञान है । जिसके द्वारा जाना’ जाता है वह ज्ञान है, जानना मात्र ज्ञान है । जिसके द्वारा जीव त्रिकाल विषयक भूत- भविष्यत् वर्तमान काल सम्बन्धी समस्त द्रव्य और उनके गुण तथा उनकी अनेक प्रकार की पर्यायों को जाने उसको ज्ञान कहते है । (ग
प्रश्न:2ज्ञान कितने प्रकार का होता है?
उत्तर-ज्ञान दो प्रकार का होता है –
( 1) सम्यग्ज्ञान ( 2) मिथ्याज्ञान
( 1) ज्ञान ( 2) अज्ञान
( 1) ज्ञान ( 2) कुज्ञान
( 1) प्रत्यक्षज्ञान ( 2) परोक्ष ज्ञान
प्रश्न:3सम्यग्ज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर--जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं उस-उस प्रकार से उनको जानना सम्यग्ज्ञान है । (सर्वा.) नय और प्रमाण के विकल्प पूर्वक जीवादि पदार्थों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान हे । (रा. वा.) जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित तथा अधिकता रहित, विपरीतता रहित, जैसा का तैसा, सन्देह रहित जानता है उसको आगम के ज्ञाता पुरुष
प्रश्न:4सम्यग्ज्ञान कहते ??
उत्तर-– अन्नमनतिरिक्त याथातर्थ्य विना च विपरीतात् ।
निःसंदेहं वेदयदाहुस्तज्जानमागमिन: । ।
प्रश्न:5मिथ्याज्ञान? कुज्ञान? अज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर--जो वस्तु के स्वभाव को नहीं पहचानता है अथवा उल्टा पहिचानता है या निरपेक्ष पहिचानता है वह मिथ्याज्ञान है ।
प्रश्न:6प्रत्यक्षज्ञान किसे कहते हैं?
इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना सिर्फ आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं ” विशदं प्रत्यक्षं’ ‘ विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हें |
प्रश्न:7कौन-कौन से ज्ञान प्रत्यक्ष हैं?
उत्तर--प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार के हैं – ( 1) देशप्रत्यक्ष – अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तथा विभंगावधि ( 2) सकलप्रत्यक्ष – केवलज्ञान
तालिका संख्या
स्थान गति
इन्द्रिय काय
योग
वेद
कषाय ज्ञान
सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल संज्ञी
आहार गुणस्थान
पर्याप्ति प्राण सज्ञा उपयोग ध्यान आसव जाति
कुमति कुश्रुत ज्ञान
1. प्रश्न : मति अज्ञान (कुमति
विवरण
नतिमदे.
ए-द्वीत्रीचतुप.
5 स्थावर 1 त्रस यम. व. का. सीपुनपुं.
16 कषा. 9 नोक. स्वकीय
असयम
चक्षुअच.
कृनीकापीपशु. भव्य, अभव्य
सासादन, मिथ्यात्व सैनी, असैनी
आहारक, अनाहारक प्रथम, द्वितीय
14 स्थावर ‘5 त्रस आशइश्वाभाम. ५.. ब. श्वाआ. आभमैपरि.
1 ज्ञानों. 2 दर्शनो. वैआ. बरही.
मि. अवि.25क. 1 यो चारों गति सम्बन्धी
चारों गति सम्बन्धी
ज्ञान) किसे कहते है?
विशेष
आहारकद्विक नहीं है ।
कुमति ज्ञान में कुमतिशान
अवधि तथा केवलदर्शन नहीं है
धर्म तथा शुक्ल ध्यान नहीं होते हैं ।
उत्तर : परोपदेश के बिना जो विष, यंत्र, कूट, पंजर तथा बन्ध आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है उसको ज्ञानी जीव मत्यज्ञान कहते हैं । (गोजी. 303)
जिसको खाने से जीव मर जाये, उस द्रव्य को विष कहते हैं ।
भीतर पैर रखते ही जिसके किवाड़ बन्द हो जायें और जिसके भीतर बकरी आदि को बाँध कर पकड़ा जाता है उसको यत्र कहते हैं ।
जिससे चूहे आदि पकड़े जाते हैं उसे कूट कहते हैं ।
रस्सी में गाँठ लगाकर जो जाल बनाया जाता है, उसे पंजर कहते हैं ।
हाथी आदि को पकड़ने के लिए जो गड्ढे आदि बनाये जाते हैं, उनको बन्ध कहते हैं । (गो. जी. 3०3)
कुश्रुत ज्ञान किसे कहते हैं?
चौर शास्त्र तथा हिंसा शास्त्र आदि के परमार्थ शून्य अतएव अनादरणीय उपदेशों को कुश्रुतज्ञान कहते हैं । आदि शब्द से हिंसादि पाप कर्मों के विधायक तथा असमीचीन तत्व के प्रतिपादक ग्रन्थों को कुश्रुत और उनके ज्ञान को कुश्रुतज्ञान समझना चाहिए । (गो. जी. 3०4) कुमति आदि ज्ञानों को अज्ञान क्यों कहा है?
मति, सुत और अवधिज्ञान, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी का उदय होने पर अज्ञान हो जाते हैं । (गो. जी. 3०1)
तत्वार्थ में रुचि, निश्चय, श्रद्धा और चारित्र का धारण करना ज्ञान का कार्य है, यह कार्य मिथ्यादृष्टि जीव में नहीं पाया जाता है, इसलिए उसके ज्ञान को अज्ञान कहा है ।
रुचि – इच्छा प्रकट करना ।
निश्चय – स्वरूप का निर्णय करना ।
श्रद्धा – निर्णय से चलायमान न होना ।
क्या कोई ऐसा कुश्रुतज्ञानी है जिसके चसुदर्शन नहीं होता है?
ही, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय जीवों के ल्श्तज्ञान होता है लेकिन चखुदर्शन नहीं होता है । यद्यपि तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में भी चखुदर्शन नहीं होता है परन्तु उनके कुश्रुतज्ञान नहीं होता है ।
कुश्रुतलानी त्रम जीवों के कितने प्राण होते हैं?
कुश्रुतशानी त्रस जीवों के कम से कम चार प्राण होते हैं ।
2 इन्द्रिय, 1 बल, 1 आयु
ये चार प्राण द्वीन्द्रिय जीवों की निर्वृत्यपर्याप्तक अथवा लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था में होते
ज्ञान मार्गणा. 185
हैं । तथा अधिक-से-अधिक 1० प्राण होते हैं –
5 इन्द्रिय, 3 बल, श्वासो, आयु
ये दस प्राण सैनी पंचेन्द्रिय जीवों के होते हैं ।
कुमतिज्ञानी पुरुषवेदी के कितनी पर्याप्तियों होती हैं?
कुमतिज्ञानी पुरुषवेदी के कम-से-कम 5 पर्याप्तियाँ होती हैं –
आ., श., इ., श्वासो. तथा भाषा ।
ये पाँच पर्याप्तियाँ असैनी पंचेन्द्रिय (गर्भज) के होती हैं तथा अधिक से अधिक 6 पर्याप्तियाँ होती हैं । 6 पर्याप्तियाँ सैनी पंचेन्द्रिय जीवों के होती हैं ।
क्या कुमतिज्ञानी मुनि के भी अविरति सम्बन्धी आसव के प्रत्यय होते है? ही, कुमतिशानी मुनि के भी अविरति सम्बन्धी आसव के प्रत्यय होते ही हैं क्योंकि बाह्य में अहिंसा आदि का पालन करने से अविरति सम्बन्धी आसव नहीं रुकता है । अविरति सम्बन्धी आसव को रोकने के लिए तीन चौकड़ी कषाय के उदय का अभाव होना आवश्यक है । त्रस सम्बन्धी अविरति से बचने के लिए भी दो चौकड़ी कषाय का उदयाभाव होना ही चाहिए । कुमतिज्ञानी मुनि के दोनों ही अविरतियों का अभाव नहीं होता इसलिए अविरति सम्बन्धी आस्रवों का भी अभाव नहीं हो सकता है ।
कुमतिज्ञानी जीव के 24 स्थानों में से किस- किस स्थान के सभी भेद हो सकते हैं?
कुमतिज्ञानी जीवों के 24 स्थानों में से 15 स्थानों के सभी भेद हो सकते हैं –
( 1) गति (2) इन्द्रिय ( 3) काय ( 4) वेद ( 5) कषाय (6) लेश्या (7) भव्य ( 8) संज्ञी (9) आहारक ( 1०) जीवसमास ( 11) पर्याप्ति ( 12) प्राण ( 13) संज्ञा ( 14) जाति ( 15) कुल ।
तालिका संख्या 33
स्थान गति इन्द्रिय काय योग
वेद
कषाय
ज्ञान
‘ सयम
दर्शन
लेश्या भव्यत्व
सम्बक्ल संज्ञी
आहार ‘ गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति
प्राण
संज्ञा
उपयोग
ध्यान
आसव
1. प्रश्न : उत्तर :
2 -ला 1
कुअवधि ज्ञान
नतिमदे.
पंचेन्द्रिय
त्रस
म. व. 2 का
सी. पु. नई.
16 क. 9 नोकवाय स्वकीय
असंयम
चक्षु. अचक्षु.
कृ. नी. का. पी. प. शु. भव्य, अभव्य
. सासादन, मिथ्यात्व सैनी
आहारक
मिथ्यात्व, सासादन सैनी पंचानय
आ. श. इ. श्व!. भा. म. 5 इन्द्रिय 3 ब. श्वा. आयु. आ. भ. मै. पीर.
1 ज्ञानो. 2 दर्शनो.
4 आ. 4 री.
मि. अवि. क. 1 ०यो पंचेन्द्रिय सम्बन्धी
1 ०ट्ट -लाक. पंचेन्द्रिय सम्बन्धी
विशेष
औदारिक व वैक्रियिक काय योग होता है ।
कुअवधिज्ञान
असैनी जीव नहीं है
कुअवधिज्ञान किसे कहते हैं?
मिथ्यादृष्टि जीव के अवधि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा को लिये हुए रूपी द्रव्य को विषय करने वाला किन्तु देव-शास्र और
ज्ञान मार्गणा. 187
पदार्थों में विपरीत रूप से ग्रहण करने वाला अवधिज्ञान केवलज्ञानियों के द्वारा प्रतिपादित आगम में विभंग कहा जाता है । ‘ वि’ अर्थात् विशिष्ट अवधिज्ञान का शो अर्थात् विपर्यय विभंग है, यह निरुक्ति सिद्ध अर्थ भी है । (गो. जी. जी. 3०5) अवधिज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्मों के क्षयोपशम से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादायुक्त मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान को विभंगावधि ज्ञान कहते हैं । यही कुअवधिज्ञान है ।
अवधिज्ञान उल्टा क्यों होता है?
अवधिज्ञान विभंग या उल्टा इसलिए होता है कि इसके द्वारा जाना गया रूपी पदार्थों का स्वरूप सच्चे देव, गुरु और आगम के विपरीत होता है । तीव्र कायक्लेश के निमित्त से उत्पन्न होने से तिर्यब्ज और मनुष्यों में गुणप्रत्यय व देवनारकियों में भवप्रत्यय होता है । जीव को पहले विभंगावधि ज्ञान होता है या अवधिज्ञान?
यदि सम्यग्दृष्टि को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो पहले अवधिज्ञान होता है और यदि उसके मिथ्यात्व का उदय आ जावे तो वही अवधिज्ञान विभंगावधि में परिवर्तित हो जाता है । यदि मिथ्यादृष्टि को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो विभंगावधि ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जावे तो वही विभंगावधि अवधिज्ञान में बदल जाता है । विभगज्ञानियों के सम्बक्ल आदि के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर गिरगिट आदि अशुभ आकार मिट कर नाभि के ऊपर शख आदि शुभ आकार हो जाते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार अवधिज्ञान से लौट कर प्राप्त हुए विभगज्ञानियों के भी शुभ सस्थान मिट कर अशुभ संस्थान हो जाते हैं, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । (ध. 137 मे 98)
मिथ्यादृष्टि के दोनों (कुमति- कुश्रुत) भले ही अज्ञान होवें, क्योंकि वहाँ मिथ्यात्व का उदय पाया जाता है लेकिन सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं है इसलिए वहाँ ये अज्ञान नहीं होने चाहिए?
नहीं, क्योंकि विपरीताभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं और वह मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है । सासादन गुणस्थान में वह पाया ही जाता है इसलिए सासादन गुणस्थान में भी वे दोनों अज्ञान सम्भव हैं । (इसी प्रकार विभंगावधि को भी जानना चाहिए) मिथ्यात्व का उदय नहीं होने पर भी अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होने से तीनों ज्ञान अज्ञान रूप ही होते हैं । (रा. वा. 971)
विपरीताभिनिवेश (विपर्यय) किसे कहते हैं?
विपर्यय शब्द का अर्थ मिथ्या है । वह विपर्यय तीन प्रकार का है –
चउबीस ठाणा -मैं? 188
( 1) संशय (2) विपर्यय ( 3) अनव्यवसाय ।
संशय – विपरीत अनेक पक्षों के अवगाहन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं, जैसे- स्थाणु है या पुरुष ।
विपर्यय – विपरीत एक पक्ष का निश्चय करने वाला ज्ञान विपर्यय है जैसे-सीप में यह चाँदी है । इस प्रकार का ज्ञान होना ।
अनष्यवसाय – ” यह क्या है’ ‘ इस प्रकार जो आलोचन मात्र होता है उसको अनध्यवसाय कहते हैं । (न्यादी. 1 ‘ 9)
कुअवधिज्ञान में कौन-कौन से योग नहीं होते हैं?
कुअवधिज्ञान में 5 योग नहीं होते हैं –
औदारिक मिश्र, बैक्रियिक मिश्र, आहारकद्विक तथा कार्मण काययोग ।
अनाहारक अवस्था में कुअवधिज्ञान क्यों नहीं होता है?
कुअवधिज्ञान पर्याप्तकों के ही होता है, अपर्याप्तकों के नहीं होता है । ४. ‘ 363) असंज्ञी और अपर्याप्तकों के यह सामर्थ्य नहीं है । (सर्वा. 1? 22) इसलिए अनाहारक अवस्था में कुअवधिज्ञान नहीं होता है ।
क्या विभंगावधि ज्ञान में भी छहों लेश्याएँ होती हैं?
ही, विभंगावधि ज्ञानी के भी छहों लेश्याएँ होती हैं –
. नारकियों की अपेक्षा – तीन अशुभ लेश्याएँ ।
. देवों की अपेक्षा – तीन शुभ लेश्याएँ ।
. भोगभूमिया जीवों की अपेक्षा – तीन शुभ लेश्याएँ ।
. कर्मभूमिया मनुष्य तिर्यंच की अपेक्षा – छहों लेश्याएँ ।
कुअवधिज्ञानी जीव के 24 स्थानों में से किस- किस स्थान के सभी भेद नहीं हो सकते हैं?
कुअवधिज्ञानी जीव के 24 स्थानों में से 16 स्थान के सभी भेद नहीं पाये जाते हैं – ( 1) इन्द्रिय (2) काय ( 3) योग (4) ज्ञान (5) संयम (6) दर्शन (7) सभ्यक्ल (8) संज्ञी (9) आहारक ( 1०) गुणस्थान ( 11) जीवसमास ( 12) उपयोग ( 13) ध्यान ( 14) आसव के प्रत्यय ( 15) जाति ( 16) कुल ।
९ज्ञान मार्गणा? 189
तालका सख्या 34
स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद
कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्बक्ल
संज्ञी
आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति
प्राण
संज्ञा
उपयोग
ध्यान
मति सुत अवधिज्ञान
विशेष
नतिमदे.
पंचेन्द्रिय एकेन्द्रिय आदि चार इन्द्रिय नहीं हैं। त्रस
4 म. 4 व. 7 का.
सीपुनपु.
12 क. 9 नोक.
? स्वकीय मतिज्ञान में मतिज्ञान………
साछेपसूयसंयअस.
चअचअव. केवलदर्शन नहीं है
कृनीकापीपशु.
भव्य
क्षाक्षयोउप. मिथ्यात्व, सासादन और
सभ्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं।
सैनी
आहारक, अनाहारक
चौथे से बारहवें तक
सैनी पंचेन्द्रिय
आशइश्वाभाम.
5 इन्द्रिय, 3 बल. श्वाआ.
आभमैप.
. 1 ज्ञानो. 3 दर्शनो.
आ. बर., ४४. .शुक्ल ख्तक्रियाप्रतिपाती तथा स्युपरतक्रिया निवृत्ति ध्यान नहीं हैं।
48 १२३. 2 क. 1 यो
जाति 26 लाख पंचेन्द्रिय सम्बन्धी
कुल 1०8 – ला.क. पंचेन्द्रिय सम्बन्धी
: मातेंज्ञान किसे कहते हैं?
: इन्द्रिय और मन के निमित्त से शब्द, रस, स्पर्श, रूप और गन्ध आदि विषयों में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । ( ज. ध. 1 ?? 42)
मतिज्ञानावरण एव वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से तथा बहिरंग पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से मूर्त-अमूर्त वस्तुओं का जो एकदेश से, विकल्पाकार परोक्ष रूप से अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है । ३- द्रसै. टी. 5)
मतिज्ञान कितने प्रकार का होता है?
मतिज्ञान 4 प्रकार का होता है – अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अथवा
मतिज्ञान 336 प्रकार का होता है –
अवग्रह के 12० ( 72 अर्थावग्रह. 48 व्यञ्जनावग्रह)
ईहा 72, अवाय 72, धारणा 72 यानी
12०. 72. 72. 72८336 ।
अवग्रह – पाँच इन्द्रिय तथा मन की सहायता से दर्शन के पश्चात् जो सामान्य अवलोकन होता है, वह अवग्रह है ।
ईहा – अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं । अवाय – पदार्थों का निर्णय करना अवाय है ।
धारणा – निर्णीत पदार्थ को भविष्य में नहीं भूलना धारणा है । लि. सू 1? 15 – 19) नोट – विशेष तत्वार्थफ्ट की टीकाओं में देखें ।
श्रुतज्ञान किसे कहते हैं?
जो परोक्ष रूप से सम्पूर्ण वस्तुओं को अनेकान्त रूप दर्शाता है, सशय, विपर्यय आदि से रहित है, उस ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं । (का. अ. 262)
श्रुतशानावरण कर्म के क्षयोपशम से नोइन्द्रिय के अवलम्बन से तथा प्रकाश, उपाध्याय आदि बहिरंग सहकारी कारण से जो मूर्त्तिक-अमूर्त्तिक वस्तु को, लोक तथा अलोक को व्याप्ति ज्ञान रूप से अस्पष्ट जानता है, उसको श्रुतज्ञान कहते हैं । ३- द्रर्स. टी. 5) श्रुतज्ञान कितने प्रकार का होता है?
श्रुतज्ञान दो प्रकार का होता है- 1. अंगबाह्य 2. अंगप्रविष्ट । अंगबाह्य श्रुतज्ञान अनेक प्रकार का है तथा अंगप्रविष्ट आचारोग आदि के भेद से 12 प्रकार का होता है । (त. सु 1 ‘ 2०)
ज्ञान मलण’. 191
३
5. प्रश्न
अवधिज्ञान किसे कहते हैं?
अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो मूर्त पदार्थों को एकदेशप्रत्यक्ष जानता है वह अवधिज्ञान है । २- द्रसै. टी. 5)
जो प्रत्यक्ष ज्ञान अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त परमाणु आदि पूर्घ द्रव्यों को जानता है उसको अवधिज्ञान जानना चाहिए । (ति. प. 4 ‘ 981) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके विकल्प से अनेक प्रकार के पुद्गल द्रव्य को जो प्रत्यक्ष जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं । (य. 17 93)
अवधिज्ञान कितने प्रकार का होता है?
अवधिज्ञान दो प्रकार का है – ( 1) भवप्रत्यय अवधिज्ञान ( 2) गुणप्रत्यय 7 क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान ।
अथवा अवधिज्ञान के तीन भेद हैं – ( 1) देशावधि ( 2) परमावधि ( 3) सर्वावधि भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव-नारकियों के होता है । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य – तिर्यच्चों के होता है ।
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छह भेद हैं –
( 1) अनुगामी (2) अननुगामी (3) वर्धमान ( 4) हीयमान ( 5) अवस्थित (6) अनवस्थित । त्, भू 1? 21 – 22)
मतिश्रुत ज्ञान में योगमार्गणा किस प्रकार लगानी चाहिए?
मतिश्रुत ज्ञान में योगमार्गणा : मति सुत ज्ञानियों के सामान्य से पन्द्रह योग होते हैं । चतुर्थ गुणस्थानवतीं मतिभुतज्ञानी के 13 योग होते हैं । पचम गुणस्थानवर्ती मतिश्रुतज्ञानी के 9 योग होते हैं । छठे गुणस्थानवर्ती मतिश्रुतज्ञानी के 11 योग होते हैं और सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थानवर्ती मतिसुतज्ञानी के 9 योग होते हैं ।
क्या सभी त्रम जीवों के मति आदि ज्ञान होते हैं?
नहीं, केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि त्रस जीवों के ही मति सुतादि ज्ञान होते है अन्य द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों के नहीं, क्योंकि उनको सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है । विशिष्ट सम्बक्ल ही अवधिज्ञान की उत्पत्ति का कारण है । इसलिए सभी सम्यग्दृष्टि तिर्यब्ज और मनुष्यों में अवधिज्ञान नहीं होता है । ७. सत् प्र. 12० लू)
मति- भुत ज्ञानी जीवों के सामायिक संयम कहाँ-कहाँ नहीं पाया जाता है?
मति- सुत ज्ञानी जीवों के 5 गुणस्थानों में सामायिक सयम नहीं पाया जाता है – चौथा, पाँचवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं ।
13. प्रश्न उत्तर
क्या ऐसे कोई मति- भुत ज्ञानी हैं जिनके कापोत लेश्या ही पाई जाती है?
ही, ऐसे मति- सुत ज्ञानी जीव भी हैं जिनके कापोत लेश्या ही पाई जाती है –
( 1) प्रथम एवं दूसरे नरक के मति- सुलतानी नारकियों के तथा तीसरे नरक में जहाँ तक कापोत लेश्या पाई जाती है ।
(2) तीसरे नरक में स्थित तीर्थंकर प्रकृति वाले मति-भूत ज्ञानी जीवों के ।
(3) मतिश्रुत ज्ञानी (कृतकृत्यवेदक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि) मनुष्य जब भोगभूमि में जाते हैं तब उनकी निर्वृत्यपर्यासक अवस्था में ।
क्या ऐसे कोई अवधिज्ञानी जीव हैं जिनके कृष्ण लेश्या भी पाई जाती है? ही, ऐसे अवधिज्ञानी जीव भी हैं जिनके कृष्ण लेश्या भी पाई जाती है –
( 1) पाँचवें नरक के अवधिज्ञानी जीव ।
(2) कर्म-भूमिया तिर्यज्व-मनुष्य ।
(3) जो आचार्य छठे गुणस्थान तक छहों लेश्याएँ मानते हैं उनकी अपेक्षा चौथे, पाँचवें गुणस्थानवर्ती अवधिज्ञानी तिर्यब्ज-मनुष्य तथा छठे गुणस्थानवर्ती अवधिज्ञानी मनुष्यों के भी कृष्ण लेश्या हो सकती है ।
अवधिज्ञानी जीवों के कौन- कौन सा सम्य? कहाँ- कहाँ पाया जाता है?
अवधिज्ञानी जीवों के – 1. क्षायिक सम्बक्ल – चौथे से बारहवें तक
2. क्षायोपशमिक सम्बक्ल – चौथे से सातवें तक
3. उपशम सम्बक्ल – चौथे गुणस्थान से 11 वें तक ।
सम्बक्ल – मार्गणा के शेष मिथ्यात्वादि भेद अवधिज्ञानी जीवों के नहीं होते हैं ।
क्या कोई ऐसे अवधिज्ञानी जीव हैं जिनके अनाहारक अवस्था नहीं होती?
ही, ऐसे अवधिज्ञानी जीव भी हैं जिनके अनाहारक अवस्था नहीं होती है –
( 1) तद्भव मोक्षगामी जीवों के ।
(2) सर्वावधि ज्ञानी एश्वं परमावधि ज्ञानी मुनिराज के ।
( 3) क्षपक श्रेणी में स्थित अवधिज्ञानी जीवों के ।
(4) प्रथमोपशम सम्बक्च वाले अवधिज्ञानी जीवों के ।
नोट – यद्यपि तद्भव मोक्षगामी जीवों के अनाहारक अवस्था होती है लेकिन अवधिज्ञान के साथ नहीं होती, केवलज्ञान के साथ होती है ।
ज्ञान मार्गणा? 193
ं
.प्रश्न उत्तर
15. प्रश्न उत्तर
16. प्रश्न
क्या मति- धुत ज्ञानी जीवों के परिग्रह संज्ञा का भी अभाव हो सकता है?
ही, मति-मृत ज्ञानी जीव भी जब दसवें गुणस्थान को पार करके ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है, तब उसके परिग्रह सज्ञा का भी अभाव हो जाता है ।
मति- भुत ज्ञानी जीव के कौन-कौन सी जातियाँ नहीं होती हैं –
मति सुतज्ञानी जीव के अट्ठावन लाख जातियाँ नहीं होती हैं –
नित्य निगोद की 7 लाख वायुकायिक की 7 लाख
इतर निगोद की 7 लाख वनस्पतिकायिक की 1० लाख
पृथ्वीकायिक की 7 लाख द्वीन्द्रिय की 2 लाख
जलकायिक की 7 लाख त्रीन्द्रिय की 2 लाख
अग्रिकायिक की 7 लाख चतुरिन्द्रिय की 2 लाख ८58 लाख
विभंगावधि ज्ञान के समान निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में अवधिज्ञान का निषेध क्यों नहीं किया है?
नहीं, क्योंकि उत्पत्ति की अपेक्षा तो अपर्याप्तावस्था में अवधिज्ञान का भी विभंगज्ञान के समान ही निषेध देखा जाता है । सम्यग्दृष्टियों के उत्पन्न होते ही प्रथम समय से ही अवधिज्ञान होता है, ऐसा नहीं है; क्योंकि ऐसा मानने पर विभंगज्ञान के भी उसी प्रकार की उत्पत्ति का प्रसंग आता है; पर इसका अर्थ यह भी नहीं है कि देव और नारकियों के अपर्याप्तावस्था में अवधिज्ञान का अत्यन्त अभाव है; क्योंकि तिर्यव्यों और मनुष्यों में सम्बक्ल गुण के निमित्त से उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान देवों और नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में भी पाया जाता है । विभंगज्ञान में भी यह क्रम लागू हो जायेगा, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि अवधिज्ञान के कारणभूत अनुकम्पा आदि का अभाव होने से अपर्याप्त अवस्था में वहाँ उसका अवस्थान नहीं रहता है । ( ध. 13 ‘ 291)
—इ-?ँ?;?
चउबीस ठाणा? 194
तालिका संख्या 35
स्थान गति इन्द्रिय काय योग वेद
कषाय ज्ञान सयम दर्शन लेश्या भव्य सम्बक्म
सज्ञी
आहार गुणस्थान जीवसमास पर्याप्ति प्राण
सज्ञा
उपयोग ध्यान
आसव
जाति 14 ला. ल 14 लाक
मनःपर्यय ज्ञान
? विशेष
मनुष्यगति
। पंचेन्द्रिय
त्रस
म. व. -का. औदारिक काययोग है।
पुरुष वेद
4 कषाय 7 नोक.
स्वकीय मन: पर्ययज्ञान
स[छेसूय. परिहारविशुद्धिसंयमा. तथाअसंयमनहींहैं। चअचअव.
पीपशु.
भव्य
क्षाक्षायोउप. द्वितीयोपशम सम्य. की अपेक्षा उपशम सम्य. होता है ।
सैनी
आहारक अनाहारक नहीं है
छठे से बारहवें तक
सैनी पंचेन्द्रिय
आ.श,इ.श्ंवा.भा.म.
5 इन्द्रिय 3 बलश्वाभा.
आभपैपरि.
1 ज्ञानो. 3 दर्श. मनःपर्ययज्ञानोपयोग है।
3 आ. 4 ध. 2 शुका. निदान आर्त्तध्यान नहीं है ।
11 क. प्रयोग
मनुष्यगति सम्बन्धी
लच७ सम्बन्धी
1. प्रश्न : मन: पर्ययज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर : मनःपर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से दूसरों के मनोगत पदार्थ को एकदेश प्रत्यक्ष जानता है वह मनःपर्यय ज्ञान है । (रा. वा. 4)
ज्ञान मलण’. 195
३
3. प्रश्न उत्तर
4. प्रश्न उत्तर
चिन्ता, अचिन्ता और अर्धचिन्ता के विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थ को जो ज्ञान नरलोक के भीतर जानता है, वह मनःपर्यय ज्ञान है । (ति. प. 4? 973)
मन: पर्यय ज्ञान कितने प्रकार का होता है?
मनःपर्यय ज्ञान दो प्रकार का होता है –
( 1) ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञान (2) विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान
ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान : ऋजु का अर्थ निर्वर्तित (निष्पन्न) और प्रगुण (सीधा) है । दूसरे के मन को प्राप्त वचन, काय और मनस्कृत अर्थ के विज्ञान से निर्वर्तित या ऋजु जिसकी मति है वह ऋजुमति कहलाता है । (सर्वा. 1723)
विपुलमति मनःपर्ययज्ञान : अपने और पर के व्यक्त मन से या अव्यक्त मनसे चिन्तित या अचिन्तित (या अर्धचिन्तित) सभी प्रकार के चिन्ता, जीवन-मरण, सुख-दु: ख, लाभ- अलाभ आदि को जानता है, वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञान कहलाता है । (रा. वा. 1? 23)
ऋजुमति एवं विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान में क्या विशेषता है?
ऋजुमति एवं विपुलमति मनःपर्ययज्ञान में विशुद्धि एव अप्रतिपात की अपेक्षा विशेषता है- विशुद्धि : अनुमति से विपुलमति मनःपर्ययज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा विशुद्धतर है ।
अप्रतिपात : अप्रतिपात की अपेक्षा भी विपुलमति मनःपर्ययज्ञान विशिष्ट है, क्योंकि इसके स्वामियों के प्रवर्धमान चारित्र पाया जाता है परन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है, क्योंकि इसके स्वामियों के कषाय के उदय से घटता हुआ चारित्र पाया जाता हे । (त. सू 1 ‘ 24) मनःपर्ययज्ञान किसको होता है?
मनःपर्ययज्ञान मनुष्यों में ही होता है देव, नारक व तिर्यब्ज योनि में नहीं । मनुष्यों में भी गर्भजों में ही होता है, सम्हर्च्छिमों में नहीं । गर्भजों में भी कर्मभूमिजों के ही होता है, अकर्मभूमिजों में नहीं । कर्मभूमिजों में भी पर्याप्तकों के ही होता है अपर्याप्तकों के नहीं । उनमें भी सम्यग्दृष्टियों के होता है मिथ्यात्व-सासादन व सम्बग्मिथ्यादृष्टियों के नहीं । उनमें भी संयतों के ही होता है असंयतों तथा संयतासंयतों के नहीं । संयतों में भी प्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक ही होता है उससे ऊपर नहीं । उनमें भी प्रवर्तमान चारित्रवालों को ही होता है हीयमान चारित्रवालों को नहीं । उनमें भी सात ऋद्धियों में से अन्यतम ऋद्धि को प्राप्त होने वाले के ही होता है अन्य के नहीं । ऋद्धिप्राप्तों में भी किन्हीं के ही होता है, सबको नहीं । ( रा. वा. 1723)
म न : पययज्ञान प्रमाद से राहत अप्रमत्त मुनि के ही उत्पन्न होता है । यहाँ अप्रमत्तपने का नियम उत्पत्ति काल में ही है, पीछे प्रमत्त अवस्था में भी सम्भव है । काता 3-4) मन: पर्ययज्ञानी के अवेद अवस्था में कितने संयम होते हैं?
मनःपर्ययज्ञानी की अवेद अवस्था में भी चार संयम होते हैं –
नवम गुणस्थान की अपेक्षा – सामायिक-छेदोपस्थापना ।
दशम गुणस्थान की अपेक्षा – न्ल्यू साम्पराय ।
ग्यारहवें-बारहवें की अपेक्षा – यथाख्यात ।
मन: पर्ययज्ञानी के अरति-शोक कषाय के साथ कितने गुणस्थान होते हैं?
मनःपर्यय ज्ञानी के अरति-शोक कषाय के साथ तीन गुणस्थान होते हैं –
छठा, सातवीं, आठवीं ।
मनःपर्यय ज्ञान में कषायों की विवेचना कैसे करनी चाहिए?
मनःपर्यय ज्ञान में कषायों की विवेचना –
11 कषाय-छठे से आठवें गुणस्थान तक-संज्वलन चतुष्क तथा स्त्रीवेद-नपुंसक ० बिना सात नोकषाय ।
5 कषाय – नौवें गुणस्थान में – सज्वलन चतुष्क एव पुरुषवेद ।
4 कषाय – नौवें गुणस्थान में – संज्वलन चतुष्क ।
3 कषाय – नौवें गुणस्थान में – सज्वलन मान, माया, लोभ ।
2 कषाय – नौवें गुणस्थान में – सैज्जवन माया और लोभ ।
1 कषाय – नौवें तथा दसवें गुणस्थान में – सज्वलन लोभ, नौवें में जब केवल ?? लोभ शेष रहता है ।
० कषाय – ग्यारहवें-बारहवें गणस्थान में ।
मनःपययज्ञानी के कौन से सम्बक्ल में सबसे कम गुणस्थान होते हैं?
मनःपर्यय ज्ञानी के क्षायोपशमिक सम्यक में केवल दो गुणस्थान होते हैं –
छठा, सातवीं ।
मन: पर्ययज्ञानी के छठा गुणस्थान है तो उसके कम-से-कम 7 प्राण क्यों नहीं हो सकते?
मनःपर्यय ज्ञानी को छठा गुणस्थान होने पर भी आहारकऋद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है क्योंकि मनःपर्यय ज्ञान के साथ आहारक योग का निषेध है इसलिए उनके कम-से-कम 7 प्राण नहीं हो सकते हैं । छठे गुणस्थान में 7 प्राण मात्र आहारकमिश्र काययोग की अपेक्षा ही होते हैं ।
ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी के कितनी संज्ञा का अभाव हो सकता है?
अनुमति मनःपर्ययज्ञानी जीवों के चारों संज्ञाओं का अभाव हो सकता है ।
7 वें गुणस्थान से आहार सज्ञा का ।
9 वें गुणस्थान से भय सज्ञा का ।
9 वें गुणस्थान के अवेद भाग से मैथुन सज्ञा का तथा
ग्यारहवें – बारहवें गुणस्थान में पीणह सज्ञा का भी अभाव हो जाता है ।
क्या विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी के भी आर्चध्यान हो सकते हैं?
ही, विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी जीवों के भी आर्त्तध्यान हो सकते है क्योंकि छठे गुणस्थान में भी विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान पाया जाता है । जैसे – भगवान महावीर स्वामी के मोक्ष जाने पर गौतमस्वामी को इष्ट वियोगज आर्सध्यान होना सम्भव है । लेकिन मनःपर्ययज्ञानी के निदान नाम का आर्त्तध्यान नहीं हो सकता है ।
नोट – मुनिराज के आर्त्तध्यान कदाचित् ही होते हैं और क्षण मात्र के लिए ही हो सकते ??
मन: पर्ययज्ञानी जीव के सामायिक संयम के साथ कम- से- कम कितने आसव के प्रत्यय होते हैं?
मनःपर्ययज्ञानी सामायिक संयम वाले के कम-से-कम दस आसव के प्रत्यय होते हैं – 1 कषाय (संज्वलन लोभ) 9 योग ( 4 म. 4 व- 1 औदारिक काययत्नो)
नवमें गुणस्थान में जब सज्वलन क्रोध, मान, माया का उपशम या क्षय हो जाता है उस समय सामायिक संयम के साथ आसव के दस प्रत्यय होते हैं ।
चउबीस ठाणा? 198
तालिका संख्या 36
स्थान
गति
इन्द्रिय
काय
योग
वेद
कषाय
ज्ञान
संयम
– दर्शन
लेश्या
भव्यत्व
सम्बक्म
संज्ञी
आहारक
गुणस्थान
जीवसमास
पर्याप्ति
प्राण
सज्ञा
उपयोग
ध्यान
आसव
जाति 14 कुल 14
केवलज्ञान विवरण
मनुष्य गति
पंचेन्द्रिय
त्रस
म. व. का.
केवलज्ञान
यथाख्यात
केवलदर्शन
शुक्ल लेश्या भव्य
क्षायिक सम्बक्ल
आहारक, अनाहारक
तेरहवीं, चौदहवाँ
पंचेन्द्रिय
आ. श. इ. श्वा. भा. म.
वचन बल, कायबल, श्वा. आ
केवलज्ञानो; केवलदर्शनो शुख ध्यान
योग
मनुष्यगति सम्बन्धी
.क. बार सम्बन्धी
गति से रहित जीव भी होते हैं । इन्द्रिय से रहित जीव भी होते हैं । कायातीत जीव भी होते हैं ।
औदारिकद्विक एवं कार्मण काययोग
संयम से रहित जीव भी होते हैं।
लेश्यातीत जीव भी होते हैं। भव्याभव्य से रहित भी होते हैं।
सैनी- असैनी से रहित ही होते हैं ।
गुणस्थानातीत भी होते हैं। समासातीत जीव भी होते हैं । पर्याप्ति से रहित भी होते हैं। प्राणातीत जीव भी होते हैं। संज्ञातीत जीव ही होते हैं।
ख्तक्रियाप्रतिपाक, व्रपरतक्रियानिवृति। म व का. ।
ज्ञान मार्गणा? 199
1. प्रश्न उत्तर
1. प्रश्न उत्तर
3. प्रश्न उत्तर
: केवलज्ञान किसे कहते है?
: ज्ञानावरणीय कर्म के अत्यन्त क्षय होने से जो तीन लोक, तीन काल की सम्पूर्ण द्रव्य-
गुण पर्यायों को एक साथ प्रत्यक्ष रूप से जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं ।
केवल असहाय को कहते हैं । जो ज्ञान असहाय है, इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित है, त्रिकाल गोचर अनन्त पर्याय समवाय सम्बन्ध को प्राप्त अनन्त वस्तुओं को जानने वाला है, असंकुटित (सर्व व्यापक) है और असपल (प्रतिपक्ष रहित) है उसे केवलज्ञान कहते हैं । (थ. 6)
केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा रहित है इसलिए भी वह केवल असहाय है । इस प्रकार केवल, असहाय जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान कहते हें । जि. ध. 1 ‘, से 3)
भावेन्द्रिय के अभाव में केवलज्ञानी पंचेन्द्रिय कैसे हो सकते हैं?
आगम में सयोगी और अयोगी केवली के पंचेन्द्रियत्व कहा है वहाँ द्रव्येन्द्रियों की विवक्षा है, ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप भावेन्द्रिय की नहीं । यदि भावेन्द्रिय की विवक्षा होती तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती हे । (रा. वा. 1०) केवलियों के यद्यपि भावेन्द्रिय समूल नष्ट हो गयी है और बाह्य इन्द्रियों का व्यापार भी बन्द हो गया है तो भी भावेन्द्रिय के निमित्त से उत्पन्न हुई द्रव्येन्द्रियों के सद्भाव की अपेक्षा उन्हें पंचेन्द्रिय कहा गया है । (य. 17265)
केवली को भूतपूर्व का ज्ञान कराने वाले न्याय के आश्रय से पंचेन्द्रिय कहा है । (ध. 1 266)
आवरण के क्षीण हो जाने से पंचेन्द्रियों के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने पर भी क्षयोपशम से उत्पन्न और उपचार से क्षायोपशमिक सज्ञा को प्राप्त पाँचों बाह्येन्द्रिय का अस्तित्व पाये जाने से सयोगी और अयोगी जिनों के पंचेन्द्रियत्व सिद्ध कर लेना चाहिए । ७.) नोट – केवली भगवान के क्षायोपशमिक ज्ञान रूप भावेन्द्रिय का अभाव हुआ है न कि पंचेन्द्रिय जाति नाम कर्म के उदय का । अत’ औदयिक भाव रूप पंचेन्द्रियत्व का सद्भाव होने में कोई बाधा नहीं है ।
केवली भगवान पंचेन्द्रिय हैं तो उनके चार प्राण ही क्यों कहे हैं, दस क्यों नहीं? यदि प्राणों में द्रव्येन्द्रियों का ही ग्रहण किया जावे तो संज्ञी जीवों के अपर्याप्त काल में सात प्राणों के स्थान पर कुल दो प्राण ही कहे जावेंगे, क्योंकि उनके द्रव्येन्द्रियों का अभाव होता है । अत:! यह सिद्ध हुआ कि सयोगी जिन के भावेन्द्रिय नहीं होने से चार अथवा दो ही प्राण होते हैं । (र्धे. 2 ‘ मै मै मैं)
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चउबीस ठाणा? 2००
केवलज्ञान के साथ शुक्ल लेश्या केवल रच्छ गुणस्थान में होती है- तेरहवें में ।
केवलज्ञान में अनाहारक अवस्था में कम- से- कम कितने प्राण हो सकते हैं? केवलज्ञान में अनाहारक अवस्था में कम-से-कम एक प्राण होता है – आयु प्राण । यह एक प्राण चौदहवें गुणस्थान की अपेक्षा कहा गया है ।
केवलज्ञान के साथ औदारिक मिश्र अवस्था में कितने आसव के प्रत्यय होते हैं? केवलज्ञान के साथ औदारिकमिश्र अवस्था में आसव का केवल एक ही प्रत्यय होता है – औदारिक मिश्र योग सम्बन्धी । क्योंकि उस समय नाना जीवों की अपेक्षा भी शेष योग नहीं हो सकते हैं ।
चौबीस स्थानों में ऐसे कौन से स्थान हैं जिनके सभी उत्तर भेद केवलज्ञान में पाये जाते हैं?
चौबीस स्थानों में ऐसे केवल दो स्थान हैं जिनके सभी उत्तर भेद केवलज्ञान में पाये जाते हैं- ( 1) आहार (2) पर्याप्ति ।
ऐसे कौन से स्थान हैं जिनका एक भी भेद केवलज्ञान में नहीं पाया जाता है? चार स्थान ऐसे हैं जिनका एक भी भेद केवलज्ञान में नहीं पाया जाता है –
( 1) वेद (2) कषाय (3) संज्ञी (4) संज्ञा
सिद्ध भगवान की अपेक्षा (क्योंकि वे भी केवलज्ञानी हैं) 19 स्थान ऐसे हैं जिनका एक भी भेद उनके नहीं पाया जाता है –
( 1) गति (2) इन्द्रिय ( 3) काय (4) योग (5) वेद (6) कषाय (7) संयम (8) लेश्या (9) भव्य ( 1०) संज्ञी ( 11) गुणस्थान ( 12) जीवसमास ( 13) पर्याप्ति ( 14) प्राण
उत्तर : . प्रश्न :
. प्रश्न :
8. प्रश्न
15 सज्ञा 16 ध्यान 17 आसव ० प्रत्यय 1819 कुल ।
यथार्थ में तो सिद्ध भगवान के चौबीस स्थानों में से एक भी भेद नहीं पाया जाता है ०८’ वे कर्मों के बन्ध, उदय एव सत्व से रहित हैं, उनके सभी गुण शुद्ध ही होते हैं । ० उनके ज्ञान, दर्शन, सम्यक, आदि गुण पाये जाते हैं केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि ‘ फिर भी उन्हें केवलज्ञानी कहा जाता है क्योंकि वह ज्ञान गुण की शुद्ध पर्याय है ।
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