।।पंचम अधिकार।।
‘‘यदि भावना का कथन’’
(१)
निज आत्मा का स्वरूप लखकर व्रत धारण कर वन में जाकर।
और मोहजनित कर्मों के सब संकल्प विकल्पों को तजकर।।
जो मुनिगण मनरूपी वायू से नहीं चलायमान होते।
आत्मा में लीन वही मुनिगण पर्वत समान स्थिर रहते।।
(२)
चित की वृत्ती का कर निरोध इंद्रिय वश करके धैर्य सहित।
स्वासोच्छवास को रोक तथा पर्यंकासन से हो स्थित।।
निर्जन वन की कंदराओं में मैं बैठ के आतम ध्यान करूँ।
मुनिगण ऐसा विचार करते मैं कब शिवपथ को प्राप्त करूँ।।
(३)
धूली धूसरित वस्त्र विरहित पर्यंकासन से सहित शांत।
और वचन रहित आँखे मूंदे जब निज स्वरूप कर लिया प्राप्त।।
वन में भ्रम सहित मृगों का गण आश्चर्य सहित जब देखेगा।
उस समय पुण्यशाली मेरे समान कोई भी नहिं होगा।।
(४)
हो किसी शून्य मठ में निवास और दिशारूप ही अम्बर हो।
संतोषमयी धन क्षमारूप स्त्री तपरूपी भोजन हो।।
मैत्री हो सभी प्राणियों में आतमस्वरूप काचितन हो।
ये सभी वस्तुएँ पास मेरे फिर पर से नहीं प्रयोजन हो।।
(५)
जो उत्तमकुल में जन्म पाय सुन्दर निरोग तन प्राप्त करे।
शास्त्रों को पढ़ वैराग्य प्राप्त कर तप को जो निर्बाध करे।।
वह पुण्यवान बस इक जग में मदरहित ध्यान अमृत पीता।
तो मानो वह मनुष्य घर के ऊपर मणिमयी कलश रखता।।
(३९२)
जो ग्रीष्म ऋतू में पर्वत पर योगीजन ध्यानलीन होते।
वर्षा में वृक्षों के नीचे शिशि ऋतु में गगन तले करते।।
ऐसे तप के धारी ध्यानी जिनकी आत्मा अत्यन्त शांत।
उन योगी का पथ मिले मुझे उनको मेरा शत शत प्रणाम।।
(३९३)
इस भेद ज्ञान से जिस समाधि में मन की वृत्ति संकुचित है।
ऐसी अद्भुत उत्कृष्ट समाधि धन्य शमिक मुनि के होती हैं।।
मस्तक पर चाहे वङ्का गिरे तीनों लोकों के जलने पर।
जिन मुनि के मन न विकार कोई चाहे प्राणों के नशने पर।।
(३९४)
जिसे कर्मों का संबंध नहीं और अहं शब्द आत्मावाचक।
इस आत्मतत्त्व को जिन मुनिवर ने जान लिया सुन लिया कथन।।
जिस मुनि को रहने सोने को निजतत्त्व ही श्रेष्ठ संपदा है।
सुख भी है वही वृत्ति वो ही निजतत्त्व वही प्रिय लगता है।।
(३९५)
जो यतिभावन अष्टक सब पाप शत्रु को नष्ट करन वाला।
और राजश्री व स्वर्ग मोक्ष की लक्ष्मी को देने वाला।।
जिसकी रचना चैतन्यरत्न ‘‘श्री पद्मनंदिमुनि’’ ने की है।
जो तीनों काल पढ़े उनको इच्छित अभीष्ट मिलता ही है।।
।।इति यतिभावनाष्टक पञ्चमाधिकार।।