Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
Search
विशेष आलेख
पूजायें
जैन तीर्थ
अयोध्या
24.जिन पूजाष्टक!
March 13, 2018
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका
jambudweep
जिन पूजाष्टक
उन्नीसवाँ अधिकार
(१)
जीवों के आश्रित जन्म जरा और मरण रूप त्रय अग्नी है।
संताप बहुत देने वाली अग्नी जैसे दुख देती है।।
उन तीन अग्नि के शांति हेतु त्रयधारा क्षेपण करता हूँ।
जिन प्रभु के चरणों के आगे जलधारा अर्पण करता हूँ।। जलम्।।
(२)
जैसे भगवन के वचन सभी संसार ताप को हरते हैं।
उतना यह शीतल चंदन भी नहिं ताप जगत का हरते हैं।।
इसलिए प्रभू मेरे द्वारा यह केशर मिश्रित चंदन जो।
चरणों में र्अिपत करता हूँ जिससे फल मिले अिंकचन जो।। चंदनं।।
(३)
जो इंद्रिय रूपी धूर्तों के वश में है नहीं वही तुम हो।
इसलिए तुम्हें आश्रित करके जो दी अक्षत की राशि प्रभो।।
क्योंकी वीरों के शिर पर बंधा पट्ट जैसे शोभा पाता।
डरपोक के शिर पर बंधा पट्ट वैसी शोभा नहिं है पाता।। अक्षतं।।
(४)
प्रभु कामदेव से रहित अत: तुम ही अपुष्पशर कहलाते।
बाकी जो अन्य देव जग के वे सभी पुष्पशर कहलाते।।
इसलिए जिनेन्द्र प्रभू के ही चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ।
उनके ही पुष्प मनोहर हैं इसलिए उन्हीं को ध्याता हूँ।। पुष्पं।।
(५)
जिन देव इंद्रियों के बल को सर्वथा नष्ट करने वाले।
और यह नैवेद्य इंद्रियों के बल को पुष्टित करने वाले।।
खाने के योग्य मगर प्रभुवर के सम्मुख चढ़ा हुआ नैवेद्य।
शोभा को प्राप्त किया करता नेत्रों को भाता है नैवेद्य।। नैवेद्यं।
(६)
चंचल है अग्निशिखा जिसमें वह आरति ऐसी लगती है।
जिनवर के स्वच्छ शरीर में वो प्रतिबिम्बित होती रहती है।।
मानो प्रचंड ध्यानाग्नि सभी अवशेष कर्म को ढूंढ रही।
उन कर्मों को भी भस्म करूं जो है अघातिया कर्म अरी।। दीपम्।।
(७)
जो धूप का धुँआ फैल रहा वह ऐसा मालुम पड़ता है।
मानो वह दिशारूप स्त्री के मुख पर रचना करता है।।
कस्तूरी के रस की रचना पत्ते सी रचना होती है।
दोनों का रंग एक जैसा हिलमिल कर नृत्य कर रही हैं।। धूपम्।।
(८)
यद्यपि सबसे ऊँचा एवं अमृत सम मोक्षमयी फल है।
फिर भी प्रभु की पूजा खातिर मैं लाया कई सरस फल है।।
यद्यपि जिनवर की भक्ती ही सब फल को देने वाली है।
फिर भी हम मोह के वश होकर उत्तम फल लेकर आये हैं।। फलम्।।
(९)
जो तीनों लोकों में सबको शांती को देने वाले हैं।
और निर्मल केवलज्ञान रूप नेत्रों को धरने वाले हैं।।
शास्त्रानुसार पूजन करके मेरा मन अति आनंदित है।
स्तोत्र पाठ आदिक करके अर्पण करता पुष्पाञ्जलि है।। पुष्पांजलि:।।
(१०)
श्री ‘‘पद्मनंदिमुनि’’ ने भगवन गुणगान जो तेरा गाया है।
उससे निंह तुम्हें प्रयोजन कुछ कृतकृत्यपने को पाया है।।
फिर भी हम सब अपने स्वारथ की सिद्धि हेतु पूजा करते।
जैसे किसान खेती को अपने लिए न भूप हेतु करते।।
।।इति पूजाष्टक।।
Tags:
Padamnadi Panchvinshatika
Previous post
05.दशलक्षण धर्म का कथन!
Next post
23.श्री शांतिनाथ स्तोत्र
Related Articles
04.रत्नत्रय धर्म का कथन!
March 11, 2018
jambudweep
19.श्री मज्जिनेंन्द स्तोत्र!
March 13, 2018
jambudweep
05.दशलक्षण धर्म का कथन!
March 11, 2018
jambudweep
error:
Content is protected !!