राजा विभीषण ने सकलभूषण केवली को नमस्कार कर पूछा – ‘‘भगवन्! श्रीराम ने पूर्व भवों में कौन-सा पुण्य किया था? सती सीता के शील में लोकापवाद क्यों हुआ? रावण से लक्ष्मण का वैर कब से था? इत्यादि। मैं आपके दिव्यवचनों से इन सभी के पूर्वभवों को सुनना चाहता हूँ।’’ तब केवली भगवान की दिव्यध्वनि खिरी जिसे कि सभी ने श्रवण किया। ‘‘इस संसार में कई भवों से राम-लक्ष्मण का रावण के साथ वैर चला आ रहा है। उसे सुनो, इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में क्षेत्र नाम का एक नगर था। वहाँ पर नयनदत्त वैश्य की सुनंदा पत्नी के दो पुत्र थे, धनदत्त और वसुदत्त। वहीं यज्ञबलि नाम का एक ब्राह्मण था वह वसुदत्त का मित्र था। इसी नगर में सागरदत्त वणिक् की पत्नी रत्नप्रभा से गुणवती नाम की एक पुत्री हुई थी और गुणवान नाम का एक पुत्र था। इसी नगर में एक श्रीकांत वणिक् था। गुणवती का उसके पिता और भाई धनदत्त से विवाह करना चाहते थे किन्तु उसकी माँ श्री कांत को धनाढ्य समझकर उसे देना चाहती थी। तब धनदत्त के भाई वसुदत्त ने क्रोध के वश हो अपने मित्र यज्ञबलि के उपदेश व सहयोग से श्रीकांत के घर जाकर उस पर शस्त्र प्रहार किया, उसने भी वसुदत्त पर शस्त्र प्रहार किया, दोनों एक-दूसरे को मारकर मर गये। इधर धनदत्त को गुणवती न मिलने से वह घर से निकलकर अनेक देशों में भ्रमण करता रहा। गुणवती ने भी धनदत्त के साथ ही विवाह करना चाहा था किन्तु उसके साथ विवाह न हो पाने से वह दु:खी हुई । मिथ्यात्व के निमित्त जैन शासन से और दिगम्बर गुरुओं से द्वेष रखती थी। आयु के समाप्त होने पर यह गुणवती आर्तध्यान से मरकर वहीं वन में हरिणि हुई। उसी वन में ये वसुदत्त और श्रीकांत मरकर हरिण हुए थे। पूर्व संस्कार के निमित्त से यहाँ भी ये दोनों इसी हरिणी के लिए आपस में एक-दूसरे को मारकर मरे और सूकर हो गये। पुनः ये दोनों हाथी, भैंसा, बैल, वानर, चीता, भेड़िया और मृग हुए। सभी पर्यायों में ये परस्पर में द्वेष रखते हुए एक-दूसरे को मारते और मरते रहे। इधर वह धनदत्त वैश्य पुत्री गुणवती को न प्राप्त कर दु:खी हुआ।