जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में मध्य में पूर्व-पश्चिम तथा विजयार्ध पर्वत एवं हिमवन पर्वत से निकली हुई गंगा-सिंधु नदियों के निमित्त से छहखंड हो जाते हैं इनमें मध्य के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। अवसर्पिणी में सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा दु:षमा, दु:षमा सुषमा, दु:षमा और अतिदु:षमा ये छह काल होते हैं और उत्सर्पिणी में अतिदु:षमा से लेकर सुषमासुषमा पर्यन्त छह काल होते हैं इनमें से सुषमासुषमा आदि तीन कालों में भोगभूमि एवं दु:षमासुषमा आदि तीन में कर्मभूमि की व्यवस्था होती है। इस व्यवस्था के अनुसार प्रथम जंबूद्वीप के प्रथम भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में जो कर्मभूमि आती है वह प्रथम कहलाती है। भोगभूमि- भोगभूमि में मद्यांग, वादित्रांग, भूषणांग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग और वस्त्रांग ये दशप्रकार के कल्पवृक्ष मनवांछित फल देते रहते हैं। कुलकरों की उत्पत्ति- इस वर्तमान अवसर्पिणी में यहां भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में तृतीय काल में जब पल्य का आठवां भाग शेष रह गया तब कुलकरों की उत्पत्ति प्रारंभ हो गई, इनके नाम-प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचंद्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित और नाभिराज। हरिवंशपुराण में लिखा है कि बारहवें मरुदेव कुलकर ने अकेले पुत्र ‘‘प्रसेनजित्’’ को जन्म दिया अत: यहाँ से युगलिया परंपरा समाप्त हो गई। इनका विवाह किसी प्रधान कुल की कन्या के साथ सम्पन्न हुआ है। कहा भी है-
प्रसेनजितमायोज्य प्रस्वेदलवभूषितम्।
विवाहविधिना वीर: प्रधानकुलकन्यया।।
हरिवंश पराण
इन प्रसेनजित् से नाभिराज भी अकेले ही जन्मे।
इन्द्र ने इनका विवाह कु. मरुदेवी के साथ सम्पन्न किया।
कहा भी है-
तस्यासीन्मरुदेवीति, देवी देवीव सा शची।।
तस्या:किल समुद्वाहे, सुरराजेन चोदिता।
सुरोत्तमा: महाभूत्या, चक्रु: कल्याणकौतुकम्।।५६।।
महापुराण पर्व १२।
हरिवंशपुराण में भी कहा है-
अथ नाभेरभूद्देवी मरुदेवीति वल्लभा।
देवी शचीव शक्रस्य शुद्धसंतानसंभवा।।६।।
हरिवंशपुराण सर्ग—१।
शुद्ध कुल में उत्पन्न हुई मरुदेवी राजा नाभिराज की वल्लभा हुई। अयोध्या नगरी की रचना- मरुदेवी और नाभिराज से अलंकृत पवित्र स्थान में जब कल्पवृक्षों का अभाव हो गया तब उनके पुण्य विशेष से इन्द्र ने एक नगरी की रचना करके उसका नाम ‘अयोध्या’ रखा। ‘‘छठे काल के अंत में जब प्रलयकाल आता है तब उस प्रलय में यहाँ आर्यखंड में एक हजार योजन नीचे तक की भूमि नष्ट हो जाती है। उस काल में अयोध्यानगर स्थान के सूचक नीचे चौबीस कमल देवों द्वारा किये जाते हैं।’’ भक्त्यादिक्रियासंग्रह (टिप्पण) पृ. १६२। इन्हीं चिन्हों के आधार से देवगण पुन: उसी स्थान पर अयोध्या की रचना कर देते हैं। इसीलिए ‘‘अयोध्यानगरी’’ शाश्वत मानी गई है। हरिवंशपुराण में राजा नाभिराज के महल को ८१ खन ऊँचा, रत्ननिर्मित ‘‘सर्वतोभद्र’’ नाम से कहा है। श्री ऋषभदेव का स्वर्गावतरण- छह माह बाद भगवान ऋषभदेव ‘‘सर्वार्थसिद्धि’’ विमान से च्युत होकर यहाँ माता मरुदेवी के गर्भ में आने वाले हैं ऐसा जानकर सौधर्मइन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी-हे धनपते! तुम अयोध्या में माता मरुदेवी के आंगन में रत्नों की वर्षा प्रारंभ कर दो। उसी दिन से कुबेर ने प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ प्रमाण उत्तम-उत्तम पंचवर्णी रत्न बरसाना शुरू कर दिया। एक दिन मरुदेवी महारानी ने पिछली रात्रि में ऐरावत हाथी आदि उत्तम-उत्तम सोलह स्वप्न देखे। प्रात: पतिदेव के मुख से ‘‘तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर पुत्र अवतरित होंगे’’ ऐसा सुनकर महान हर्ष को प्राप्त हुईं। जब इस अवसर्पिणी के तृतीय काल मेें चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रह गये थे तब आषाढ़ कृ. द्वितीया के दिन भगवान का गर्भागम हुआ। उसी दिन अपने दिव्यज्ञान से जानकर इन्द्र ने असंख्य देवों के साथ आकर महाराजा नाभिराज और महारानी मरुदेवी का अभिषेक करके वस्त्राभरण आदि से उनका सम्मान कर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्र की आज्ञा से श्री, ह्री आदि देवियां माता की सेवा करने लगीं। क्या भगवान पुन: अवतार लेते हैं ? जैनधर्म के अनुसार कोई भी भगवान पुन:-पुन: अवतार नहीं लेते हैं।
प्रत्युत हम और आप जैसे कोई भी संसारी प्राणी क्रम-क्रम से उत्थान करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर पांच कल्याणकों को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं वे पुन: इस संसार में कभी भी अवतार नहीं लेते हैं जैसा कि भगवान ऋषभदेव के ‘दशावतार’ अर्थात् दशभवों का वर्णन पढ़ने से यह भगवान का गर्भावतार प्रकरण स्पष्ट हो जाता है। इसी जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में गंधिला देश के विजयार्ध की श्रेणी में एक ‘महाबल’ नाम के विद्याधर राजा थे एक बार इन्होंने अपने स्वयंबुद्ध मंत्री के द्वारा जैनधर्म को स्वीकार कर सल्लेखना से मरणकर स्वर्ग में ‘ललितांग’ नाम के देवपद को प्राप्त किया। वहाँ से च्युत हो विदेह क्षेत्र में राजा ‘वज्रजंघ’ हो गये। इन्होंने अपनी रानी श्रीमती के साथ एक बार वन में युगल मुनियों को आहारदान दिया। इसके फलस्वरूप उत्तम भोगभूमि में ‘आर्य’ हो गये। वहाँ चारणऋद्धिधारी मुनियों के संबोधन से सम्यग्दर्शन ग्रहण कर आयु के अंत में मरकर दूसरे स्वर्ग में ‘श्रीधर’ देव हो गये। वहां से च्युत हो विदेहक्षेत्र में सुसीमा नगरी के राजा ‘सुविधि’ हो गये। यहां भी श्रावकधर्म व क्षुल्लकदीक्षा के अनंतर मुनि बनकर समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर पुन: सोलहवें स्वर्ग में ‘इन्द्र’ हो गये, वहाँ से च्युत होकर जंबूद्वीप के विदेह में पुण्डरीकिणी नगरी में ‘वज्रनाभि’ चक्रवर्ती हो गये। इस भव में भी महामुनि बनकर पिता तीर्थंकर भगवान वज्रसेन के पादमूल में सोलहकारण भावनाओं को भाते हुए तीर्थंकरप्रकृति का बंध कर लिया। फलस्वरूप अंत में समाधिध्यान से मरण कर ‘सर्वार्थसिद्धि’ में ‘अहमिंद्र’ हो गये। इस प्रकार-१. महाबल २. ललितांगदेव ३. राजा वङ्काजंघ ४. भोगभूमिज- आर्य ५. श्रीधरदेव ६. राजा सुविधि, ७. अच्युतेन्द्र ८. वज्रनाभि चक्रवर्ती ९. अहमिन्द्र इन नवभवों में क्रम-क्रम से उत्थान करते हुए जिनधर्म के प्रसाद से सर्वार्थसिद्धि से च्युत होकर यही अहमिन्द्र का जीव माता मरुदेवी के गर्भ में आ गया। जब ये भगवान ऋषभदेव निर्वाण को प्राप्त कर लेंगे तो पुन: कभी भी इस संसार में अवतार नहीं लेंगे। जन्मकल्याणक महोत्सव- पंद्रह माह तक कुबेर द्वारा रत्नवृष्टि के अनंतर चैत्र कृष्णा नवमी को सूर्योदय के समय माता मरुदेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी क्षण स्वर्ग में इन्द्रों के आसन हिलने लगे, मुकुट झुक गये, कल्पवृक्षों से पुष्प बरसने लगे और चारों प्रकार के देवों के यहां बिना बजाये अपने आप बाजे बजने लगे। यथा-
कल्पेषु घण्टा भवनेषु शंखो, ज्योतिर्विमानेषु च सिंहनाद:।
दध्वान भेरी वनजालयेषु, यज्जन्मनि ख्यात जिन: स एष:।।
प्रतिष्ठातिलक अध्याय—९।
कल्पवासी देवों के यहाँ घंटे बजने लगे, भवनवासी देवों के यहाँ शंखध्वनि होने लगी, ज्योतिष्क देवों के यहां सिंहनाद होने लगा और व्यंतर देवों के यहां भेरी बजने लगी। जिनके जन्म के समय ऐसा हुआ ये जिन भगवान वे ही हैं। जैसे कि आज टेलीविजन या रेडियों का बटन दबाते ही हजारों किलोमीटर दूर के भी दृश्य और संगीत सामने आ जाते हैं किन्तु वहां तो बटन दबाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। प्रत्युत तीर्थंकर प्रकृति का पुण्यरूपी बटन अपने आप ही दब गया और ४० करोड़ मील से अधिक ऊँचाई पर स्थित स्वर्गलोक में अतिशय फ़ैल गया। तत्क्षण ही सौधर्मइन्द्र असंख्य देव परिवारों के साथ मध्यलोक में आये और जन्मजात शिशु को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से उनका जन्माभिषेक संपन्न किया। कुछ विद्वान सहज ही कह देते हैं कि वे तीर्थंकर हम आप जैसे साधारण मानव थे लेकिन ऐसा नहीं है वे तीर्थंकरप्रकृति नामकर्म के बंध करने तक तो साधारण कहे जा सकते हैं किन्तु तीर्थंकर प्रकृति को बांध लेने के बाद उनमें कुछ विशेष ही अतिशय प्रगट हो जाते हैं इसीलिए तो श्रीसमन्तभद्रस्वामी ने कहा है-
मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यत:।
तेन नाथ! परमाऽसि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद न:।।
स्वयंभूस्तोत्र।
हे नाथ! आपने मनुष्य योनि में जन्म तो लिया है किन्तु आप मानुषी प्रकृति का उल्लंघन कर चुके हैं इसीलिए आप देवताओं के भी देवता हैं, यही कारण है कि आप परमदेवता हैं। हे जिनधर्म तीर्थंकर! आप हमारे कल्याण के लिए हम पर प्रसन्न होइये। श्री ऋषभदेव के द्वारा कर्मभूमि व्यवस्था- श्री नाभिराजा ने भगवान का यशस्वती और सुनन्दा कुमारिकाओं के साथ इन्द्र की अनुमति से विवाह कर दिया। यशस्वती ने भरत आदि १०० पुत्र एवं ब्राह्मी पुत्री को तथा सुनन्दा ने बाहुबली एवं सुंदरी कन्या को जन्म दिया। भगवान ने पुत्रियों को एवं पुत्रों को सर्वविद्याओं में तथा कलाओं में निष्णात कर दिया। प्रजा की प्रार्थना से असि, मषि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य इन षट्क्रियाओं का उपदेश देकर उन्हें जीने की कला सिखायी। वर्णव्यवस्था और विवाहव्यवस्था आदि प्रगट की, वह भी अवधिज्ञान से विदेहक्षेत्र की शाश्वत व्यवस्था को जानकर ही की थी, अतएव वे प्रभु स्रष्टा, विधाता, ब्रह्मा आदि भी कहलाये थे।
श्री नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है-
पुरगामपट्टणादी, लोहियसत्थो य लोयववहारो।
धम्मो वि दयामूलो, विणिम्मियो आदिबह्मेण।।
त्रिलोकसार गाथा ८०२।
भगवान की आज्ञा से चूँकि इन्द्र ने देश, नगर, ग्राम आदि की व्यवस्था बनाई थी। अत: पुर, ग्राम, नगर आदि, लौकिकशास्त्र-व्याकरण आदि, लोकव्यवहार एवं दयामूल धर्म को आदिब्रह्मा ने-भगवान ऋषभदेव ने निर्माण किया है। एक समय इन्द्रों ने आकर महाराजा नाभिराजा से आज्ञा लेकर प्रभु का राज्याभिषेक कर दिया। अनंतर भगवान ने अनेक राजा, महाराजा आदि बनाकर उन्हें सुुंदर राजनीति का उपदेश दिया। दीक्षाकल्याणक- पुन: एक दिन भगवान नीलांजना के नृत्य के समय उसकी आयु समाप्त हुई देखकर विरक्त हो गये। इन्द्रों द्वारा लाई गई पालकी में बैठकर सिद्धार्थ वन में पहुँचे और जहाँ वटवृक्ष के नीचे केशलोंच करके दैगम्बरी दीक्षा ली उस स्थल का नाम ‘‘प्रयाग’’ यह प्रसिद्ध हो गया। एक वर्ष ३९ दिन बाद हस्तिनापुर में राजकुमार श्रेयांस ने प्रभु को वैशाख शु. ३ के दिन इक्षुरस का आहार देकर दानतीर्थ-प्रवर्तक पद को प्राप्त किया। केवलज्ञान कल्याणक- एक हजार वर्ष तपश्चरण के बाद प्रभु को प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्रगट हो गया। उसी क्षण भगवान पृथ्वी से ५००० धनुष-२०००० हाथ ऊपर आकाश में अधर पहुँच गये और अर्धनिमिष मात्र में ही कुबेर ने आकाश में भगवान का समवसरण बना दिया। यह १२ योजन-९६ मील का गोल था। इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है- समवसरण में आठ भूमियां और तीन कटनी होती हैं तथा चारों ओर चार वीथी-सड़कें होती हैं। इन सड़कों के मध्य प्रारंभ में ही चारों दिशाओं में एक-एक ऐसे चार मानस्तंभ होते हैं। ये भगवान के शरीर की ऊँचाई से बारह गुने ऊँचे होते हैं। यथा-भगवान ऋषभदेव के शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष अर्थात् २००० हाथ थी, अत: २०००x१२=२४००० हाथ ऊँचे मानस्तंभ थे। इनके दर्शन से मानी का मान गलित हो जाता था, वह भव्यात्मा सम्यग्दृष्टि बनकर अनंतसंसार को सीमित कर लेता था। इस समवसरण में पृथिवी से एक हाथ ऊपर से १-१ हाथ ऊँची ऐसी २० हजार सीढ़ियाँ रहती थीं। इनसे चढ़कर मनुष्य, तिर्यंच आदि सभी भव्य जीव-बाल, वृद्ध, रोगी, अंधे, लंगड़े, लूले आदि ४८ मिनट मात्र में ऊपर पहुँच जाते थे। यह अतिशय भगवान का ही था। इसमें चार परकोटे और पांच वेदियों के अंतराल में आठ भूमियां हैं।
जिनमें क्रम से धूलिसाल परकोटा, चैत्यप्रासादभूमि, वेदी, खातिकाभूमि, वेदी, लताभूमि, परकोटा, उपवनभूमि, वेदी, ध्वजाभूमि, परकोटा, कल्पवृक्षभूमि, वेदी, भवनभूमि, परकोटा, श्रीमण्डपभूमि और वेदी ऐसी व्यवस्था रहती है। आगे १६ सीढ़ी चढ़कर प्रथम कटनी, ८ सीढ़ी के बाद दूसरी कटनी, पुन: ८ सीढ़ी चढ़कर तीसरी कटनी पर गंधकुटी में भगवान विराजमान रहते हैं। प्रत्येक परकोटे एवं वेदियों में चारों दिशाओं में १-१ गोपुरद्वार बने थे, उनमें दोनों तरफ नाट्यशालाएं, मंगलघट, धूपघट और नवनिधि भंडार रखे हुए थे, इन द्वारों के रक्षक देवगण थे। *प्रथम भूमि में-१-१ जिनमंदिर के अंतर से ५-५ प्रासाद थे। *द्वितीय भूमि में-निर्मल जल में हंस, बतख आदि एवं कमल आदि थे। *तृतीय भूमि में-छहों ऋतुओं के पुष्प खिले थे। *चतुर्थ भूमि में-चार दिशा में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र के वन थे, इनमें एक-एक चैत्यवृक्षों में चारों दिशाओं में जिनप्रतिमाएं विराजमान रहती हैं। *पांचवी भूमि में-दशविध चिन्हों से सहित ध्वजाएं थीं। *छठी भूमि में-दशविध कल्पवृक्ष थे तथा चार दिशा में क्रम से नमेरु, मंदार, संतानक और पारिजात सिद्धार्थ वृक्षों में सिद्धों की प्रतिमाएं विराजमान थीं। *सातवीं भूमि में-भवन बने थे इसमें उभय तरफ अर्हंत, सिद्ध प्रतिमाओं से सहित ९-९ स्तूप थे और *आठवीं भूमि में-बारह सभा बनी हुई थीं। क्रम से इन बारह सभाओं में १. मुनिगण २. कल्पवासिनी देवियां ३. आर्यिका और श्राविका ४. ज्योतिषीदेवी ५. व्यंंतर देवी ६. भवनवासिनी देवी ७. भवनवासी देव ८. व्यंतर देव ९. ज्योतिषी देव १०. कल्पवासीदेव ११. मनुष्य और १२. तिर्यंचगण बैठते थे। समवसरण का ऐसा प्रभाव रहता है कि जातविरोधी सिंह, हरिण, गाय, व्याघ्र, सर्प, नेवला, मोर आदि सभी पशु-पक्षी परस्पर के वैर को छोड़कर मैत्रीभाव धारण कर भगवान का उपदेश सुनते हैं। संसार में एक तीर्थंकर भगवान का समवसरण ही ऐसा है कि जहाँ देवों और मनुष्यों के समान तिर्यंचों के लिए भी एक कोठा निश्चित है उस कोठे में बैठकर संख्यातों पशु-पक्षी भगवान का उपदेश सुनकर अपना कल्याण कर लेते हैं। इनमें लाखों पशु तो अिंहसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत धारण करके स्वर्ग को प्राप्त कर लेते हैं तथा दिक्कुमारियां हाथ में मंगलद्रव्य धारण करती हैं। भगवान के विहार से सर्वत्र ८००-८०० मीलों तक मंगल क्षेम और सुभिक्ष हो जाता है। सभी आपस में मैत्रीभाव धारण कर लेते हैं। रोग, शोक, आधि, व्याधि आदि उपद्रव नहीं होते हैं। भूकंप, नदी—बाढ़, अग्निप्रकोप, अकालमृत्यु आदि दुर्घटनाएं भी टल जाती हैं। वास्तव में जो महापुरुष स्वयं प्राणीमात्र पर दया करते हुए पूर्ण अहिंसा धर्म का पालन करते हैं उन्हीं में ऐसी विशेषता आ जाती है कि क्रूर प्राणी भी उनके सानिध्य को प्राप्त कर क्रूरता छोड़ देते हैं, वैर-विरोध छोड़ देते हैं। पुनरपि भगवान ने समवसरण में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण का उपदेश देकर असंख्य प्राणियों को धर्मामृत का पान कराया। जब भगवान केवलज्ञानी हो जाते हैं तब मोह, राग, द्वेष, इच्छा आदि का अभाव हो जाने से उनका उपदेश भी बिना इच्छा के—मात्र भव्यों के पुण्योदय से ही होता है, जैसे कि मेघ बिना इच्छा के ही बरसते हैं।
मोक्षकल्याणक- लाखों वर्षों तक भगवान ऋषभदेव ने श्रीविहार करके भव्यों को संतर्पित किया। अनंतर कैलाशपर्वत पर योगनिरोध करके आयुकर्म के अंत में निर्वाण धाम प्राप्त कर लिया। जब तृतीयकाल में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष थे तब भगवान मोक्ष गये हैं। हुंडावसर्पिणी काल के दोष से प्रथम तीर्थंकर तृतीयकाल के अंत में ही जन्म लेकर तृतीयकाल में ही मोक्ष चले गये हैं। वहाँ वे भगवान अनन्तानन्त काल तक अतीन्द्रिय सुख में निमग्न रहेंगे पुन: कभी भी इस पृथिवी पर अवतार नहीं लेंगे।