ज्ञान के भेदज्ञान के पांच भेद हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान।
(१) मतिज्ञान— मतिज्ञान के चार भेद हैं- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। अवग्रह- इन्द्रिय और पदार्थ का संबंध होते ही जो सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन के अनन्तर जो पदार्थ का प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। जैसे चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ‘यह शुक्लरूप है’ ऐसा जानना। ईहा- अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ में उसके विशेष जानने की इच्छा ईहा है। जैसे जो शुक्लरूप देखा था ‘वह बगुला’ है या ध्वजा’। अवाय- विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं। जैसे पंख आदि फड़फड़ाने से जान लेना ‘यह बगुला ही है।’ धारणा- जानी हुई वस्तु को कालान्तर में न भूलना धारणा है। इस धारणा से ही कालान्तर में स्मृति आदि होती है। इन अवग्रह आदि ज्ञानों के विषय बारह प्रकार के हैं। बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त, ध्रुव, अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, नि:सृत, उक्त और अध्रुव। बहुत वस्तुओं के ग्रहण को बहुज्ञान कहते हैं। जैसे सेना या वन को एक समूहरूप में ग्रहण करना ‘बहु’ ज्ञान है। हाथी, घोड़े या आम आदि अनेक भेदों को जानना बहुविध ज्ञान है। वस्तु के एकदेश को देखकर सम्पूर्ण को जानना अनि:सृत है। जैसे तालाब में डूबे हाथी की सूंड को देखकर हाथी को जान लेना। शीघ्रता से जाती हुई वस्तु को जान लेना क्षिप्र ज्ञान है। जैसे तेजी से चलती हुई रेलगाड़ी को जानना। बिना कहे भी अभिप्राय को जान लेना अनुक्त है। बहुत काल तक जैसे का तैसा ज्ञान रहना ध्रुव है। ऐसे ही अल्प-अल्पविध आदि को समझ लेना। इस प्रकार से अवग्रह के बारह भेद होते हैं। ऐसे ही ईहा, अवाय, धारणा के बारह-बारह भेद होने से सब अड़तालीस भेद हो जाते हैं तथा इनमें से प्रत्येक ज्ञान पांच इन्द्रिय और मन से होता है अत: ४८ को ६ से गुणा करने पर मतिज्ञान के २८८ भेद हो जाते हैं। ये २८८ भेद अर्थावग्रह की अपेक्षा से हैं। अर्थात् अवग्रह के दो भेद हैं-अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह। पदार्थ को ऐसा स्पष्ट जानना जिसके बाद ईहा, अवाय और धारणा हो सकें वह अर्थावग्रह है। जो अवग्रह अस्पष्ट हो, जिसके बाद ईहा, अवाय, धारणा न हो सकें वह व्यञ्जनावग्रह है। व्यञ्जनावग्रह, चक्षुइन्द्रिय और मन के द्वारा नहीं होता है, शेष चार इन्द्रियों से बारह प्रकार के पदार्थों का होता है अत: व्यञ्जनावग्रह के १२x४=४८ भेद होते हैं। इस तरह अर्थावग्रह की अपेक्षा २८८ और व्यञ्जनावग्रह की अपेक्षा ४८ ऐसे मिलकर २८८+४८=३३६ भेद मतिज्ञान के होते हैं। व्यञ्जनावग्रह यदि बार-बार होता है तो वह अर्थावग्रह हो जाता है फिर उसके ऊपर ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान हो जाते हैं। जैसे मिट्टी के कोरे सकोरे पर १-२ बूंद जल तत्काल सूख जाता है। यदि लगातार जल की बूंदे गिरती रहें तो वह सकोरा गीला हो जाता है। यह अर्थावग्रह का दृष्टान्त है।
(२) श्रुतज्ञान-जो ज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है वह श्रुतज्ञान है। इसके ग्यारह अंग, चौदह पूर्व रूप से भेद माने गये हैं अथवा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार भेद माने हैं। इन चारों अनुयोगों में सम्पूर्ण द्वादशांग का सार आ जाता है। प्रथमानुयोग- किसी एक महापुरुष के चरित का प्रतिपादन करने वाला, त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित का वर्णन करने वाला पुण्य के कारणभूत, बोधि-समाधि के स्थानभूत प्रथमानुयोग है। करणानुयोग-लोक- अलोक के विभाग को, दोनों कालों के परिवर्तन को और चारों गतियों को दर्पण के समान बतलाने वाला करणानुयोग है। चरणानुयोग- गृहस्थों और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारणों के प्रतिपादक शास्त्र चरणानुयोग कहलाते हैं। द्रव्यानुयोग- जीव और अजीव तत्त्वों के, पुण्य और पाप को तथा बंध-मोक्ष के प्रतिपादक शास्त्र द्रव्यानुयोग कहलाते हैं।
(३) अवधिज्ञान- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानना अवधिज्ञान है। इसके तीन भेद हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। देशावधिज्ञान देवों के और नारकियों के होता है वह भवप्रत्यय है तथा क्षयोपशम के निमित्त से होने वाला अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यञ्चों में पाया जाता है वह गुणप्रत्यय कहलाता है। यह ज्ञान असंयत सम्यग्दृष्टि और देशविरत मनुष्यों में भी हो सकता है। परमावधि और सर्वावधिज्ञान तद्भव मोक्षगामी चरम शरीरी मुनियों को ही होते हैं।
(४) मन:पर्ययज्ञान-मन:पर्यय ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मन:पर्यय ज्ञान है। यह ज्ञान मानुषोत्तर पर्वत के अन्तर्गत पर के मन में स्थित पदार्थों को स्पष्ट जान लेता है। इसके दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति। ऋजु अर्थात् सरल मन, वचन, काय के अर्थ को जानने वाला ऋजुमति है और कुटिल मन, वचन, कायगत अर्थ को जानने वाला विपुलमति है। ऋजुमति ज्ञान होकर छूट भी सकता है किन्तु विपुलमति ज्ञान छूटता नहीं है। यह चरमशरीरी को ही होता है। वैसे तो मन:पर्ययज्ञान वृद्धिंगत चारित्रधारी, किसी एक ऋद्धि वाले संयमी मुनि को ही होता है, सभी को नहीं हो सकता है।
(५) केवलज्ञान- जगत्त्रय, कालत्रयवर्ती, समस्त पदार्थों को युगपत् जानने वाला केवलज्ञान है। इस केवलज्ञान रूपी दर्पण में सम्पूर्ण लोकाकाश और अलोकाकाश एक साथ झलकता है। धर्म, अधर्म आदि सर्वद्रव्य और उन द्रव्यों की त्रिकालवर्ती सर्व पर्यायों को केवलज्ञान जानता है। जीव अनन्तानन्त हैं, जीव से अनन्तगुणे अणु—स्कन्ध भेद से युक्त पुद्गल द्रव्य हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये असंख्येय हैं। इन चारों की तीन काल सम्बन्धी पृथक—पृथक अनन्तानन्त पर्यायें हैं। उन सब द्रव्यों और उनकी सर्व त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों को अनन्त महिमा वाला केवलज्ञान एक साथ जानता है। जो केवल-एक, अतीन्द्रिय और पर सहाय की अपेक्षा से रहित है वह केवलज्ञान स्वभावज्ञान है। इसी का विस्तार— अर्थीजनमोक्ष के इच्छुक जन। जिस लिये बाह्य—अभ्यंतर चारित्र का सेवन करते हैं—आचरण करते हैं वह केवलज्ञान है। श्री भट्टाकलंक देव ने भी कहा है— जिसकी इच्छा रखने वाले-जिसके लिए वचन, मन और काय के आश्रित, बाह्य—आभ्यन्तर ऐसी उभयरूप जिन तपश्चरण की क्रियाओं का सेवन करते हैं, उसी का नाम केवलज्ञान है। यह स्वभावज्ञान इन्द्रियों से रहित अतीन्द्रिय है, क्योंकि यह इन्द्रिय और मन के व्यापार से रहित है। यह इंद्रियज्ञान आकाश आदि अमूर्त पदार्थों में, देश से जिसमें व्यवधान है ऐसे अर्थात् अतिदूरवर्ती मेरुपर्वत आदि में, काल से जिसमें अन्तराल पड़ चुका है ऐसे अतीत और अनागत कालवर्ती राम—रावण, महापद्म तीर्थंकर आदि में, स्वभाव से अन्तरित-नहीं दिखने वाले ऐसे भूत, पिशाच आदि में और उसी प्रकार अतिसूक्ष्म पर के मन की प्रवृत्ति, पुद्गल—परमाणु आदि विषयों में प्रवृत्ति नहीं कर सकता है। दूसरी बात यह है कि ये इन्द्रियाँ स्थूल, र्मूितक, मर्यादित और वर्तमानकाल के अपने—अपने विषयों को ही ग्रहण करती हैं, किन्तु अतींद्रिय ज्ञान तीन लोक के अन्तर्गत स्थूल, सूक्ष्म, मूर्तिक, अमूर्तिक, अनन्त पदार्थों को तथा भूत, वर्तमान और भविष्यत्कालीन सभी पदार्थों को भी एक साथ ही जान लेता है, क्योंकि उसमें क्रम का व्यवधान और इन्द्रियों का व्यवधान नहीं हैं। इसी बात को प्रवचनसार में कहा है— ‘‘जो ज्ञान अप्रदेशी, सप्रदेशी, मूर्त, अमूर्त ऐसे सभी पदार्थ को तथा जो पर्यायें अभी नहीं हुई हैं ऐसी अनागत एवं जो पर्यायें नष्ट हो चुकी हैं ऐसी अतीत सभी पर्यायों को जानता है वह ज्ञान अनिन्द्रिय कहा गया है।’’ इसी का विस्तार यह है कि जो ज्ञान कालाणु, परमाणु आदि अप्रदेशी द्रव्यों को, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश आदि सप्रदेशी द्रव्यों को, मूर्तिक—पुद्गल द्रव्य को और कर्मबन्धन से बद्ध हुए की अपेक्षा संसारी जीव—समूह को, अमूर्तिक—शुद्धजीव द्रव्य को और पुद्गल से अतिरिक्त शेष अचेतन द्रव्यों को भी जानता है, उसी प्रकार जो पर्यायें अभी नहीं हुई हैं ऐसी भविष्यत्कालीन और जो नष्ट हो चुकी हैं ऐसी अतीतकालीन पर्यायों को अर्थात् त्रिकालगत सभी पर्यायों सहित संपूर्ण ज्ञेयपदार्थों को जानता है, वह ज्ञान जैनशासन में अतीन्द्रिय कहा गया है, ऐसे केवलज्ञान में तीनों लोक गोष्पद के समान लघु प्रतीत होते हैं।
भावार्थ— यहाँ तक ज्ञान के पाँचों भेदों का संक्षिप्त वर्णन किया है। यहाँ पर वर्णित श्रुतज्ञान द्वादशांगरूप से कहा गया है। इसके पहले इसमें पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास आदि बीस भेद बताये हैं। उनमें से मात्र अक्षरज्ञान ही कुछ रूप में हमें और आपको प्राप्त है। द्वादशांग श्रुतज्ञान श्रुतकेवली महामुनियों को ही होता है। आर्यिकाओं को ग्यारह अंग तक ज्ञान प्राप्त होने की व्यवस्था आगम में र्विणत है। यथा—‘‘एकादशांगभृज्जाता र्साियकापि सुलोचना।।’’आर्यिका सुलोचना ने भगवान ऋषभदेव के समवसरण में ग्यारह अंगों तक का ज्ञान प्राप्त किया है। श्रावक—श्राविकाओं को एवं क्षुल्लक, ऐलक व क्षुल्लिकाओं को अंग—पूर्व पढ़ने का निषेध आया है। आगे देशावधि और इससे विपरीत मिथ्यादृष्टी के विभंगावधि या कुअवधिज्ञान नारकी और देवों में वहाँ की पर्यायजन्य—भवप्रत्यय नाम से होता है। श्रावकों के भी देशावधि ज्ञान हो सकता है जैसे कि भरत चक्रवर्ती को अवधिज्ञान हो गया था। तीर्थंकर भगवान के जन्म से ही मति, श्रुत, अवधि तीनों ज्ञानों में देशावधि ही होता है। आगे के परमावधि व सर्वावधिज्ञान मुनियों के ही होते हैं। मन:पर्ययज्ञान भी महामुनियों के ही हो सकता है। केवलज्ञान— एक केवलज्ञान ही ऐसा ज्ञान है कि जिसमें पूरा तीनों लोक ‘गौखुर’ के समान झलकता है। अत: भगवान महावीर के केवलज्ञान में संपूर्ण तीनों लोक एक छोटे से गड्ढे के समान प्रतीत होते थे। ऐसा यहाँ समझना है।
भजन
नाम तिहारा तारनहारा कब तेरा दर्शन होगा।
तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।। टेक.।।
जाने कितनी माताओं ने, कितने सुत जन्में हैं।
पर इस वसुधा पर तेरे सम, कोई नहीं बने हैं।।
पूर्व दिशा में सूर्य देव सम, सदा तेरा सुमिरन होगा।
तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।।१।।
पृथ्वी के सुन्दर परमाणू, सब तुझमें ही समा गए।
केवल उतने ही अणु मिलकर, तेरी रचना बना गए।।
इसीलिए तुझ सम सुन्दर नहिं, कोई नर सुन्दर होगा।
तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।।२।।
मन में तव सुमिरन करने से, पाप सभी नश जाते हैं।
यदि प्रत्यक्ष करें तव दर्शन, मनवांछित फल पाते हैं।।
आज ‘‘चंदनामती’’ प्रभू का, अनुपम गुण कीर्तन होगा।
तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।।३।।