‘‘परिणतनयस्यांगी—भावाद्विविक्त—विकल्पितं। भवतु भवतस्त्रातृ त्रेधा जिनेन्द्र—वचोऽमृतम्।।२।।’’
अर्थ— द्रव्र्यािथक नय को गौणकर पर्यार्यािथक नय की प्रधानता लेकर अङ्ग, पूर्व आदिरूप से रचा गया अथवा पूर्वापर दोष रहित रचा गया ऐसा उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यरूप से अथवा अङ्ग—पूर्व, और अङ्ग—बाह्यरूप से तीन प्रकार का जिनेन्द्र का वचनरूप अमृत संसार से रक्षा करे।।२।।
प्रत्येक वस्तु अनंतधर्मात्मक है। उनमें से एक-एक धर्म को कहने वाले नय होते हैं। ये नय वस्तु के स्वरूप का ज्ञान कराने में साधन होते हैंं। इनका निर्दोष लक्षण क्या है ? इन दोनों में कौन सा नय सत्य है और कौन सा असत्य ? अथवा दोनों ही सत्य हैं क्या ? इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला जा रहा है। पहले तो ‘व्यवहार’ शब्द के अनेक अर्थ हैं उन्हें समझ लेना आवश्यक है- भेद, पर्याय, औपाधिक, उपचार आदि अर्थों में व्यवहार शब्द का प्रयोग देखा जाता है। भेद- जैसे जीव के दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्यवहार से हैं। यहाँ भेद से हैं ऐसा अभिप्राय है। पर्याय- जीव अनित्य है। यह पर्याय की अपेक्षा से प्रवृत्त हुआ व्यवहार है। औपाधिक- जीव अशुद्ध है, संसारी है। यह कर्मोपाधि को ग्रहण करने वाला व्यवहार है। उपचार- देवदत्त का घर, घी का घड़ा इत्यादि, इन कथनों में प्रयुक्त हुये व्यवहार के अनेक भेद हैं। ऐसे ही और बहुत से अर्थों में व्यवहार शब्द का प्रयोग देखा जाता है सो आगम के आधार से यथास्थान दिखलाया जायेगा। अभेद, निरुपाधि, द्रव्य, शक्ति और शुद्ध भाव इत्यादि में निश्चय शब्द का प्रयोग देखा जाता है। अभेद- जीव के न दर्शन है, न ज्ञान है, न चारित्र है किन्तु जीव ज्ञायक भाव मात्र है। इसमें अभेद का प्रतिपादक निश्चयनय है। निरुपाधि- जीव सिद्ध सदृश शुद्ध है। यह कर्मोपाधिरहित निश्चय है। द्रव्य- जीव नित्य है। यह द्रव्यमात्र की विवक्षा से प्रवृत्त हुआ है। शक्ति- संसारी जीव को भगवान आत्मा या परमात्मा कहना यह शक्ति की अपेक्षा से है जैसे कि दूध को घी व स्वर्णपाषाण को सुवर्ण कहना। शुद्धभाव- जीव टंकोत्कीर्ण ज्ञान मात्र है। दर्शन-ज्ञान स्वरूप है इत्यादि। तत्त्व विचार के समय तथा ध्यान में निश्चयनय का विषय आश्रयणीय है अर्थात् चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान तक निश्चयनय से तत्त्व का विचार किया जाता है। आगे ध्यान से उसका विषय अवलंबनीय हो जाता है। व्यवहारनय भी तीर्थ प्रवृत्ति निमित्त प्रवृत्त होता है। इसके द्वारा भी वस्तु के औपाधिक भाव आदि का निर्णय करनेरूप छठे तक चलता है तथा इसके द्वारा कथित विषय का आश्रय भी छठे तक व कथंचित् सातवें तक भी रहता है। आगे ये नय स्वयं छूट जाते हैं और नयातीत परिणति होकर निर्विकल्प ध्यान होता है। आगम की भाषा में इन नयों का वर्णन देखिये-
प्रमाण के द्वारा सम्यक् प्रकार से ग्रहण की गई वस्तु के एक अंश अर्थात् धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान नय कहलाता है अथवा श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं अथवा जो नाना स्वभावों से हटाकर किसी एक स्वभाव में वस्तु को ले जाता है वह नय है।आलाप पद्धति सूत्र १८१ पृ. २८।
णिच्छयववहारणया मूलमभेया णयाण सव्वाणंं। णिच्छयसाहणहेऊ दव्वयपज्जत्थिया मुणह।।४।। अलाप पद्धति पृ. १०।
सम्पूर्ण नयों के निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो मूल भेद हैं। निश्चय का हेतु द्रव्यार्थिक नय है और साधन अर्थात् व्यवहार का हेतु पर्यायार्थिकनय है। इसी की टिप्पणी में निश्चयनया: · द्रव्यस्थिता:। व्यवहारनया: · पर्यायस्थिता: ऐसा कहा है अर्थात् निश्चयनय द्रव्य में स्थित है और व्यवहारनय पर्याय में स्थित है। इसी बात को श्री अमृतचंद्रसूरि भी कहते हैं- व्यवहारनय: किल पर्यायाश्रितत्वात्…। निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्…। यहाँ पर व्यवहारनय पर्याय के आश्रित होने से पुद्गल के संयोगवश अनादिकाल से जिसकी बंधपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीव के औपाधिक भाव का अवलंबन लेकर प्रवृत्त होता है। इसलिये वह दूसरे के भावों को दूसरे का कहता है किन्तु निश्चयनय द्रव्य के आश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव का अवलम्बन लेकर प्रवृत्त होता है अत: वह परभावों को पर के कहता है और उन सबका निषेध करता है।’’समयसार गाथा—५६, अमृतचंद्रसूरिकृत टीका। अन्यत्र भी यही सूचना है-यथा- द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च। तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किन्तु तदुभयायत्ता ।पंचास्तिकाय गाथा ४, अमृतचन्द्रसूरिकृत टीका पृ. २३। भगवान ने दो नय कहे हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इनमें से भगवान का उपदेश एक नय के आश्रित नहीं है किन्तु उभयनय के ही आश्रित है। धवला में भी कहते हैं- ‘तीर्थंकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिकनय है और उन्हीं के वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिकनय है। शेष सभी नय इन दोनों नयों के विकल्प अर्थात् भेद हैं।धवला पु. १, पृ. १२। ’’ इसलिए निश्चय-व्यवहार नयों को अच्छी तरह समझने के लिये सर्वप्रथम द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय को समझ लेना भी आवश्यक हो जाता है। आलाप पद्धति में श्री देवसेन आचार्य ने नयों और उपनयों का वर्णन बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। न अति संक्षेप और न अति विस्तार से, वह विवेचन अवश्य ही हृदयंगम करने योग्य है। उसमें द्रव्यार्थिकनय के १०, पर्यायार्थिकनय के ६, नैगमनय के ३, संग्रहनय के २, व्यवहारनय के २, ऋजुसूत्रनय के २, शब्दनय का १, समभिरूढ़नय का १ और एवंभूतनय का १, ऐसे सब २८ भेद हो जाते हैं।शेष नयों को नयचक्र या आलाप पद्धति से देखना चाहिए। यहाँ पर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का लक्षण व उनके भेदों को देखिये-
द्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। द्रव्य ही है अर्थ-प्रयोजन-विषय जिसका वह द्रव्यार्थिकनय है। इसके १० भेद हैं- *१. कर्मोपाधि से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्य को विषय करने वाला ‘शुद्ध द्रव्यार्थिक नय’ है जैसे-संसारी जीव सिद्ध सदृश शुद्धात्मा है। *२. उत्पाद-व्यय को गौण करके सत्तामात्र को ग्रहण करने वाला ‘शुद्ध द्रव्यार्थिक नय’ है जैसे-द्रव्य नित्य है। *३. भेदकल्पना से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है जैसे-निजगुण, निजपर्याय और निजस्वभाव से द्रव्य अभिन्न है। *४. कर्मोपाधि की अपेक्षा से वस्तु को ग्रहण करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है जैसे-कर्मजनित क्रोधादिभावरूप आत्मा है। *५. उत्पाद-व्यय से सापेक्ष को ग्रहण करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय होता है। जैसे-एक ही समय में द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप है। *६. भेद कल्पना से सापेक्ष द्रव्य को विषय करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। जैसे-आत्मा के ज्ञान-दर्शन आदि गुण हैंं। *७. अन्वय सापेक्ष द्रव्य को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। जैसे-गुणपर्याय स्वभाव द्रव्य है। *८. स्वद्रव्य आदि के ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है जैसे-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव, इन स्वचतुष्टय की अपेक्षा से द्रव्य अस्तिरूप है। *९. परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिकनय है जैसे-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से द्रव्य नास्तिरूप है। *१०. परमभाव को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है, जैसे-ज्ञानस्वरूप आत्मा है।
पर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिक:। पर्याय ही है अर्थ-प्रयोजन-विषय जिसका, वह पर्यायार्थिकनय है। इसके ६ भेद हैं- *१. अनादि-नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला पर्यायार्थिकनय है, जैसे-मेरु आदि रूप पुद्गल की पर्यायें नित्य हैं। *२. सादि-नित्य पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थिकनय है, जैसे-सिद्ध पर्याय नित्य है। *३. ध्रौव्य को गौण करके उत्पाद-द्रव्य को ग्रहण करने के स्वभाव वाला अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-समय-समय में पर्यायें विनाशशील हैं। *४. सत्ता को सापेक्ष करने रूप स्वभाव वाला नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-एक ही समय में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप पर्यायें होती हैं। *५. कर्मोपाधि निरपेक्ष स्वभाव वाला नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-संसारी जीवों की पर्यायें सिद्ध पर्याय सदृश शुद्ध हैं। *६. कर्मोपाधि सापेक्ष स्वभाव वाला अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-संसारी जीवों के जन्म और मरण होता है। आगे चलकर द्रव्यार्थिकनय के भेदों का व्युत्पत्ति अर्थ कहकर उसके मूल दो भेद किये हैं।
शुद्ध-अशुद्ध निश्चयनयशुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदौ।।२०३।।
शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय ये दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं। निश्चयनय का लक्षण- जिसके द्वारा अभेद और अनुपचरितरूप से वस्तु का निश्चय किया जाता है वह निश्चयनय है। इस निश्चयनय का हेतु‘णिच्छयववहारणया’ इत्यादि गाथा में सूचित किया गया है। द्रव्यार्थिकनय है। व्यवहारनय का लक्षण- जिसके द्वारा भेद और उपचार से वस्तु का व्यवहार किया जाता है वह व्यवहारनय है। वह व्यवहारनय का हेतुउसी गाथा में सूचित किया गया है। पर्यायार्थिकनय है। इन नयों का प्रयोग श्री कुंदकुंददेव की गाथाओं में तथा सर्वत्र ग्रंथों में यथासंभव घटित करना चाहिए। नियमसार में श्री कुंदकुंददेव ने जीव के ज्ञान-दर्शन गुणों का वर्णन करते हुए उन्हें स्वभाव और विभाव ऐसे दो रूप से कहा है। उसी प्रकार से जीव की पर्यायोें के भी स्वभाव-विभाव ऐसे दो भेद किये हैं। अंत में जीवद्रव्य के उपसंहार की गाथा ऐसी है-
दव्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पुव्वभणिदपज्जाया। पज्जयणयेण जीवा संजुत्ता होंति दुविहे हिं।।१८।।
द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सभी जीव पूर्वकथित पर्यायों से (स्वभाव-विभाव गुण पर्यायों से) रहित हैं एवं पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा सभी जीव स्वभाव-विभाव इन दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित हैं। यहाँ पर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों का सामान्य कथन है, अत: शुद्ध द्रव्यार्थिक और अशुद्ध द्रव्यार्थिक दोनों आ जाते हैं। संसारी जीव अशुद्ध पर्यायों से एवं मुक्त जीव शुद्ध पर्यायों से रहित हैं ऐसा अर्थ स्पष्ट हो जाता है। चूँकि यह द्रव्यार्थिकनय मात्र द्रव्य को ही ग्रहण करता है पर्यायों को नहीं तथा पर्यायार्थिक नय से भी शुद्ध-अशुद्ध दोनों प्रकार की पर्यायों को समझना चाहिए। ये दोनों नय अपने-अपने विषय को स्वतंत्ररूप से ग्रहण करते हुए भी परस्पर सापेक्ष रहते हैं तभी सम्यक् हैं अन्यथा निरपेक्ष होते ही मिथ्या हो जाते हैं। उसी प्रकार से जहाँ कहीं भी गाथाओं में ‘निश्चयनय’ कहा गया है वहाँ पर यथायोग्य शुद्ध या अशुद्ध को घटित करना चाहिए। जैसे-
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा। कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदोनियमसार।।।१८।।
यह आत्मा पुद्गल कर्मों का कत्र्ता और भोक्ता है यह व्यवहारनय का कथन है तथा कर्मजनित भावों का कत्र्ता और भोक्ता है यह निश्चयनय का कथन है। अब यहाँ कर्मजनित औपाधिक भावों का कत्र्ता-भोक्ता मानने में अशुद्ध निश्चयनय को ग्रहण करना चाहिए। उसी प्रकार से-
ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणंं। णवि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।।७।। समयसार।
ज्ञानी के चारित्र, दर्शन और ज्ञान ये व्यवहार से कहे जाते हैं किन्तु (निश्चय से) उस ज्ञानी के न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है वह तो मात्र ज्ञायक शुद्ध है। यहाँ पर जो व्यवहारनय है वह मात्र भेद के द्वारा वस्तु का निश्चय कराता है न कि उपचार के द्वारा क्योंकि ज्ञानी आत्मा के ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र व्यवहार से कहे गये हैं, इसका अर्थ-भेद से कहे गये हैं न कि उपचार अथवा कर्मोपाधि से। उसी प्रकार से आत्मा के न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है वह तो मात्र ज्ञायक शुद्ध है। यह कथन ‘भेदकल्पनानिरपेक्ष’ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से है। उसी प्रकार से-
णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो। एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव।।६।। समयसार।
जो ज्ञायक भाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है और न प्रमत्त ही है इस तरह उसे शुद्ध कहते हैं और जिसे ज्ञायक भाव के द्वारा लिया गया है वह वही है, अन्य कोई नहीं है। यहाँ पर ‘परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक’ नय के द्वारा आत्मा को कहा गया है। इसी तरह सभी के उदाहरण समझ लेना। द्रव्यार्थिक नय के दश भेदों में ‘कर्मोपाधिनिरपेक्ष’, ‘सत्तामात्रग्राहक’ और ‘भेदकल्पनानिरपेक्ष’ ये तीन नय शुद्ध द्रव्यार्थिक हैं। ‘कर्मोपाधिसापेक्ष’, ‘उत्पादव्ययसापेक्ष’ और ‘भेदकल्पनासापेक्ष’ ये तीन अशुद्ध द्रव्यार्थिक हैं। ‘अन्वयसापेक्ष’ ‘स्वद्रव्यादिग्राहक’ और ‘परद्रव्यादिग्राहक’ ये तीन सामान्य हैं एवं ‘परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक’ यह मात्र वस्तु के शुद्ध स्वभाव को ही कहता है। इसी प्रकार पर्यायार्थिक के ६ भेदों में भी शुद्ध-अशुद्ध व्यवस्था समझ लेना चाहिए। (१) नैगमनय- नैगमनय के भूत, भावी और वर्तमान काल की अपेक्षा तीन भेद हैं। *१. जहाँ पर अतीतकाल में वर्तमान का आरोपण किया जाता है वह भूत नैगमनय है। जैसे-आज दीपावली के दिन वर्धमान स्वामी मोक्ष गये हैं। *२. भविष्यत् पर्याय में भूतकाल के समान कथन करना भावी नैगमनय है। जैसे-अर्हंत सिद्ध ही हैं। *३. करने के लिए प्रारंभ की गई ऐसी ईषत् निष्पन्न-थोड़ी बनी हुई अथवा अनिष्पन्न-बिल्कुल नहीं बनी हुई वस्तु को निष्पन्नवत् कहना वर्तमान नैगमनय है। जैसे-भात पकाया जाता है। (२) संग्रहनय- संग्रहनय के दो भेद हैं-सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। *१. सभी को सामान्यरूप से ग्रहण कर लेना सामान्य संग्रह है। जैसे-सर्व द्रव्य परस्पर अविरोधी हैं-अर्थात् एक हैं। इसी नय के एकांत से ब्रह्माद्वैत आदि अद्वैतवाद हो गये हैंं। *२. एक जातिविशेष से सबको ग्रहण करना विशेष संग्रह है। जैसे-सभी जीव परस्पर अविरोधी हैं-अर्थात् एक हैं। (३) व्यवहारनय- व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-सामान्य और विशेष। *१. सामान्यसंग्रहनय के विषयभूत पदार्थ में भेद करने वाला सामान्यसंग्रह भेदक व्यवहारनय है। जैसे-द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव। *२. विशेषसंग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये विषय में भेद करने वाला विशेषसंग्रह भेदक व्यवहारनय है। जैसे-जीव के संसारी और मुक्त दो भेद हैंं। (४) ऋजुसूत्रनय- ऋजुसूत्रनय के भी दो भेद हैं-सूक्ष्मऋजुसूत्र और स्थूलऋजुसूत्र। *१. एक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करने वाला सूक्ष्मऋजुसूत्रनय है। जैसे-शब्द क्षणिक हैं। *२. अनेक समयवर्ती पर्यायों को ग्रहण करने वाला स्थूलऋजुसूत्रनय है। जैसे-मनुष्यादि पर्यायें अपनी-अपनी आयु प्रमाण काल तक रहती हैं। (५) शब्दनय- लिंग, संख्या आदि के व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ को ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे-दारा, भार्या, कलत्र अथवा जल व अप एकार्थवाची हैं। यह नय एक ही है। (६) समभिरूढ़नय- नाना अर्थों को छोड़कर जो प्रधानता से एक अर्थ में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़नय है। जैसे-‘गो’ शब्द के वाणी, शब्द आदि अनेक अर्थ होते हुए भी वह ‘पशु’ अर्थ में रूढ़-प्रसिद्ध है। (७) एवंभूतनय- जिस नय में वर्तमान क्रिया ही प्रधान होती है वह एवंभूतनय है जैसे-इंदन क्रिया में तत्पर देवराज को ‘इंद्र’ कहना। इस प्रकार द्रव्यार्थिक से लेकर एवंभूत तक नयों के २८ भेद होते हैं। अब उपनयों को देखिये।
जो नयों से समीप रहें वे उपनय हैं। इसके तीन भेद हैं-सद्भूतव्यवहार, असद्भूतव्यवहार और उपचरित असद्भूतव्यवहार। (१) सद्भूतव्यवहार उपनय- जो नय संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन आदि के भेद से गुण और गुणी के भेद करता है वह सद्भूत व्यवहार उपनय है। इसके दो भेद हैं-शुद्ध सद्भूतव्यवहार और अशुद्ध सद्भूत व्यवहार। *१. जो नय शुद्धगुण और शुद्धगुणी में तथा शुद्धपर्याय और शुद्ध पर्यायी में भेद करता है वह शुद्धसद्भूत व्यवहार उपनय है। जैसे-जीव का केवलज्ञान गुण है, जीव गुणी है तथा जीव की सिद्ध पर्याय है। *२. जो नय अशुद्धगुण—अशुद्धगुणी में और अशुद्धपर्याय-अशुद्धपर्यायी में भेद करता है वह अशुद्ध सद्भूतव्यवहार उपनय है। (२) असद्भूतव्यवहार उपनय- अन्य में प्रसिद्ध धर्म (स्वभाव) का अन्य में समारोपण करना असद्भूत-व्यवहारोपनय है। इनके तीन भेद हैं-स्वजात्यसद्भूतव्यवहार, विजात्यसद्भूत-व्यवहार और स्वजातिविजात्य—सद्भूतव्यवहार। *१. जो नय स्वजातीय द्रव्यादिक में स्वजातीय द्रव्यादि के संबंध से होने वाले धर्म का आरोपण करता है वह स्वजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-‘परमाणु बहुप्रदेशी है’ ऐसा कहना। *२. जो नय विजातीय द्रव्यादि में विजातीय द्रव्यादि का आरोपण करता है वह विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-मतिज्ञान मूर्त है, क्योंकि वह मूर्तद्रव्य से उत्पन्न हुआ है। *३. जो नय स्वजातीय द्रव्यादि में विजातीय द्रव्यादि के संबंध का आरोपण करता है वह स्वजाति विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-ज्ञेयभूत जीव और अजीव में ज्ञान है, क्योंकि वे ज्ञान के विषय हैं। (३) उपचरितअसद्भूतव्यवहार उपनय- असद्भूतव्यवहार ही उपचार है, जो नय उपचार से भी उपचार करता है वह उपचरितासद्भूतव्यवहार उपनय है। इसके भी तीन भेद हैं-स्वजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार, विजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार और स्वजातिविजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार। *१. जो उपचार से स्वजातीय द्रव्य का स्वजातीय द्रव्य को स्वामी बतलाता है वह स्वजात्युपचरितासद्भूत व्यवहार उपनय है। जैसे-पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं। *२. जो विजातीय द्रव्य का विजातीय द्रव्य को स्वामी कह देता है वह विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-वस्त्र, आभूषण, स्वर्ण, रत्न आदि मेरे हैं। *३. जिसमें मिश्रद्रव्य का स्वामी कह दिया जाता है वह स्वजाति-विजात्युपचरित-असद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-देश, राज्य, दुर्ग आदि मेरे हैं। ये सभी नय और उपनय सैद्धांतिक भाषा में कहे गये हैं। आगे इसी आलाप पद्धति में अध्यात्म भाषा से नयों का कथन किया गया है।
तावन्मूलौ द्वौ नयौ निश्चयो व्यवहारश्च।।२१५।।
अध्यात्म भाषा में भी नयों के मूल में दो भेद हैं-निश्चयनय और व्यवहारनय।
निश्चयनयतत्र निश्चयनयोऽभेदविषयो, व्यवहारो भेदविषय:।।२१६।।
उसमें निश्चयनय अभेद को विषय करता है और व्यवहारनय भेद को विषय करता है।
तत्र निश्चयो द्विविधा: शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च।।२१७।।
उनमें से निश्चयनय दो प्रकार का है-शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय। तात्पर्य यही है कि शुद्ध निश्चयनय का विषय शुद्ध द्रव्य है और अशुद्ध निश्चयनय का विषय अशुद्ध द्रव्य है। उसी को देवसेनाचार्य स्वयं कहते हैं— ‘जो नय कर्मोपाधि से रहित गुण (ज्ञान) और गुणी (जीव) को अभेदरूप से ग्रहण करता है वह शुद्ध निश्चयनय है। जैसे-केवलज्ञान आदि स्वरूप जीव है।’ इस शुद्ध नय से जीव के बंध-मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं है। ‘कर्मोपाधि सहित द्रव्य को विषय करने वाला अशुद्ध निश्चयनय है। जैसे-मतिज्ञान आदि स्वरूप जीव है। इसी नय से जीव को रागादि भाव कर्मों का कर्ता-भोक्ता भी कहा जाता है।
व्यवहारो द्विविध: सद्भूतव्यवहारोऽसद्भूतव्यवहारश्च।।२२०।।
व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-सद्भूतव्यवहारनय और असद्भूतव्यवहारनय। *‘एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहारनय है।’ *‘भिन्न वस्तु को विषय करने वाला असद्भूतव्यवहारनय है।’ ‘उपचरित और अनुपचरित के भेद से सद्भूत व्यवहार दो प्रकार का है।’ ‘उनमें से कर्मोपाधि से सहित गुण और गुणी के भेद को विषय करने वाला उपचरित सद्भूतव्यवहार नय है। जैसे-जीव के मतिज्ञान आदि गुण।’ ‘कर्मोपाधि रहित गुण और गुणी के भेद को विषय करने वाला अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे-जीव के केवलज्ञान आदि गुण।’ ‘असद्भूत व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-उपचरित और अनुपचरित।’ ‘उनमें से संश्लेष संबंध रहित, ऐसी भिन्न वस्तुओं का परस्पर में संबंध ग्रहण करना उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे-देवदत्त का धन।’ ‘संश्लेष सहित वस्तु के सम्बन्ध को विषय करने वाला अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय है। जैसे-जीव का शरीर।’ इस प्रकार से अति संक्षेप में यहाँ पर्यायार्थिक, द्रव्यार्थिक, नैगम आदि नय, उपनय तथा निश्चयनय और व्यवहारनय का स्वरूप कहा है। विशेष जिज्ञासुओं को तथा वक्ताओं को नयचक्र, आलाप पद्धति आदि ग्रंथों का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। ये सभी नय परस्पर सापेक्ष होने से सुनय कहलाते हैं अन्यथा दुर्नय हो जाते हैं। सो ही देखिये-
अष्टसहस्री नामक दर्शनशास्त्र में भी श्री विद्यानंदि महोदय ने ‘तथा चोत्तंâ’ कहकर सुनय और दुर्नय का लक्षण बताया है- तथा चोत्तंकं-
अर्थस्यानेकरूपस्य धी: प्रमाणं तदंशधी:। नयो धर्मान्तरापेक्षी, दुर्णयस्तन्निराकृति:।। अष्टसहस्री मूल पृ. २९०।
अनेकरूप पदार्थ का ज्ञान प्रमाण है, उस पदार्थ के एक अंश का ज्ञान नय है। वह नय अपने से विरोधी अन्य धर्म की अपेक्षा रखता है तथा दुर्नय अन्य धर्म का निराकरण करने वाला है। वहीं पर श्री अकलंकदेव ‘अष्टशती भाष्य’ में कहते हैं-
‘‘तदनेकांतप्रतिपत्ति: प्रमाणमेकधर्मप्रतिपत्तिर्नयस्तत्प्रत्यनीकप्रतिक्षेपो दुर्णय:।’’ अष्टसहस्री मूल पृ. २९०।
अनेकांत का ज्ञान प्रमाण है, उसके एक धर्म को जानना नय है और उस नय के विरोधी धर्म का निराकरण करना दुर्नय है। श्री समंतभद्रस्वामी की कारिका में देखिये-
मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न न मिथ्यैकांततास्ति न:। निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत।।१०८।। देवागमस्तोत्र।
मिथ्यानयों का समूह मिथ्या ही है, चूूँकि हम स्याद्वादियों के यहाँ मिथ्याएकांत नहीं है। निरपेक्षनय मिथ्या हैं और सापेक्षनय वास्तविक हैं, अर्थक्रियाकारी हैं।
‘‘निरपेक्षाणामेव नयानां मिथ्यात्वात् तद्विषयसमूहमिथ्यात्वोपगमात्,
सापेक्षाणां तु सुनयत्वात्तद्विषयाणामर्थक्रियाकारित्वात् तत्समूहस्य वस्तुत्वोपपत्ते: ।’’
अष्टसहस्री मूल पृ. २९०।
परस्पर में निरपेक्ष ही नय मिथ्यारूप हैं, चूँकि उनका विषयसमूह मिथ्यात्वरूप से स्वीकार किया गया है किन्तु सापेक्षनय सुनय है चूँकि उनका विषय अर्थ क्रियाकारी है, उन विषयों का समूह वास्तविक है। सुनय को सम्यक् एकांत और दुर्नय को मिथ्या एकांत कहते हैं। यथा- ‘‘एकांतो द्विविध:-सम्यगेकांतो मिथ्यैकांत: इति।
तत्र सम्यगेकांतो हेतुविशेषसामाथ्र्यापेक्ष: प्रमाणप्ररूपितार्थैकदेशादेश:।
एकात्मावधारणेन अन्याशेषनिराकरणप्रवणप्रणिधिर्मिथ्यैकांत:।।
तत्त्वार्थर्वाितक अ. १, सूत्र ६, पृ. ३५।
एकांत के दो भेद हैं-सम्यक् एकांत और मिथ्या एकांत। प्रमाण के द्वारा प्ररूपित वस्तु के एक देश को सयुक्तिक ग्रहण करने वाला सम्यक् एकांत है। एक धर्म (वस्तु के एक अंश) का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकांत है। इसी बात को श्री समंतभद्र स्वामी भी कहते हैं-
अनेकांतोऽप्यनेकांत: प्रमाणनयसाधन:। अनेकांत: प्रमाणात्ते तदेकांतोऽर्पितान्नयात्।। स्वयंभू स्तोत्र, अरजिन स्तुति।
अनेकांत भी अनेकांतरूप है, वह प्रमाण और नय से सिद्ध होता है। अनेकांत की सिद्धि प्रमाण से होती है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकांत की सिद्धि होती है। यही सम्यक् एकांत है। श्री जिनेन्द्रदेव के मत में परस्पर विरोधी विषय को लिये हुए भी सभी नय परस्पर में अविरोधी हैं। यथा-
‘‘नयसत्त्वर्तव: सर्वे गव्यन्ये चाप्यसंगता:। श्रियस्ते त्वयु वन् सर्वे दिव्यध्र्या चावसंभृता।।७३।। स्तुति विद्या, श्री शांतिनाथ स्तुति।
हे प्रभो! द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक अथवा नैगम आदि नय, नेवला, सर्प आदि प्राणी और बसंत, ग्रीष्म आदि ऋतुयें ये सब तथा इनके सिवाय और भी जो पृथ्वी पर परस्पर विरोधी पदार्थ हैं जो कि परस्पर में कभी नहीं मिलते हैं, वे सब आपके प्रभाव से एक साथ संगत हो गये हैं-आपस के विरोध को भूलकर मिल गये हैं तथा कितने ही अन्य कार्य देवों की ऋद्धि से निष्पन्न किये गये हैं।
क्या कोई नय असत्य है ?
जो किसी नय को सत्य एवं किसी नय को असत्य कहते हैं सो यह कथन गलत है। देखिये जयधवला नामक सिद्धांत ग्रंथ में-
‘‘णिययवयणिज्जसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा। ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा।।११७।।’’ जयधवला पु. १ पृ. २५७।
ये सभी नय अपने-अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकांतरूप समय के ज्ञाता पुरुष ‘यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है’ इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं।
क्या व्यवहारनय असत्य कहा जा सकता है ?
जयधवला, धवला आदि महाग्रंथों के प्रमाण देखिये। जयधवला में कहा है- ‘‘ववहारणयं पडुच्च पुण गोदमसामिणा चउवीसण्हमणियोगद्दाराणमादीए मंगलं कदं। ण च ववहारणओ चप्पलओ; तत्तो (ववहाराणुसारि) सिस्साण पउत्तिदंसणादो। जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओ सो चेव समस्सिदव्वो त्ति मणेणावहारिय गोेदमथेरेण मंगलं तत्थकयं।’’जयधवला पु. १, पृ. ८। श्री गौतमस्वामी ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में ‘णमो जिणाणं’ इत्यादिरूप से मंगल किया है। व्यवहारनय असत्य भी नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार का अनुसरण करने वाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है अत: जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करने वाला है उसी का आश्रय करना चाहिये ऐसा मन में निश्चय करके गौतमस्थविर ने चौबीस अनुयोगद्वारों की आदि में मंगल किया है। धवलाकार का अभिमत देखिये-
एवं दव्वट्ठियजणाणुग्गहट्ठं णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्मपयडि-पाहुडस्स आदिम्हि
काऊण पज्जवट्ठियणयाणुग्गहट्ठमुत्तरसुत्ताणि भणदि ‘णमो ओहिजिणाणं’।।२।।
इस प्रकार द्रव्यार्थिक जनों के अनुग्रहार्थ गौतम भट्टारक महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के आदि में नमस्कार करके पर्यायार्थिकनय शिष्यों के अनुग्रहार्थ उत्तर सूत्रों को कहते हैं- अवधि जिनों को नमस्कार हो।।२।। धवला पु. ९ पृ. १२।
भावार्थ- श्री गौतम स्वामी ने महाकर्मप्रकृति प्राभृत की आदि में ‘‘णमो जिणाणं’’।।१।। जिनों को नमस्कार हो। यह पहला मंगलसूत्र द्रव्यार्थिकनय वाले शिष्यों के अनुग्रहार्थ रचा है आगे पुन: ‘णमो ओहिजिणाणं’ से लेकर ‘णमो वड्ढमाणरिसिस्स’।।४४।। यहाँ तक जो नमस्कार सूत्र बनाये हैं वे पर्यायार्थिकनय वाले शिष्यों के अनुग्रहार्थ बनाये हैं, ऐसा अभिप्राय है।
कषायपाहुड़ में प्रश्न किया है कि- ‘‘नय का कथन किसलिये किया जाता है ? ‘‘स एष याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वाद्भावानां श्रेयोऽपदेश:।।८५।।
अस्यार्थ:-श्रेयसो मोक्षस्य अपदेश: कारणं, भावानां याथात्म्योपलब्धिनिमित्त-भावात्।’’ स एष नयो द्विविध:-‘द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।’जयधवला पु. १, पृ. २२१। ‘‘यह नय पदार्थों का जैसा स्वरूप है उस रूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है।।८५।। इसलिये नय का कथन किया जाता है। इस मूलवाक्य का शब्दार्थ यह है कि यह नय श्रेयस् अर्थात् मोक्ष का अपदेश अर्थात् कारण है क्योंकि वह पदार्थों के यथार्थरूप से ग्रहण करने में निमित्त है।’’ इस नय के दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। जब नय को मोक्ष का निमित्त माना है और उसी के द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक दो भेद किये हैं तब पर्यायार्थिक या व्यवहारनय असत्य अथवा संसार का निमित्त वैâसे हो सकता है ? अर्थात् कथमपि नहीं हो सकता है। अध्यात्म भाषा में जो निश्चय और व्यवहारनय हैं आज ये ही विवाद के विषय बने हुये हैं। व्यवहारनय झूठा नहीं है सच्चा है यह तो आपने समझ लिया है। अब इसका आशय कहाँ तक है ? तथा निश्चयनय का आश्रय लेने वाले कौन महापुरुष हैं ? इस पर विचार किया जाता है। वास्तव में आगम के आधार से व्यवहारनय का अवलंबन छठे और कथंचित् सातवें गुणस्थान तक होता है उसके ऊपर निश्चयनय का अवलंबन महामुनियों को ध्यानावस्था में होता है। श्रावक जो कि पंचम गुणस्थानवर्ती हैं अथवा जो असंयत सम्यग्दृष्टि हैं उनके लिए तो निश्चयनय का विषय ध्येय है, श्रद्धान करने योग्य है किन्तु व्यवहारनय के आश्रित एकदेश चारित्र ही अवलंबन करने योग्य है। श्री कुंदकुंददेव आदि महर्षिगणों के शब्दों में ही इस विषय में स्पष्टीकरण पाया जाता है। सो ही देखिये।
कौन सा नय कब और किसके द्वारा आश्रयणीय है ?
समयसार की व्याख्या में श्री अमृतचंद्र सूरि कहते हैं- ‘‘प्रत्यगात्मदर्शिभिव्र्यवहारनयो नानुसर्तव्य:। अथ च केषांचित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान्। यत:-
सुद्धो सुद्धादेसौ णायव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे।।१२।। समयसार ।
परमभावदर्शियों को शुद्ध नय का कथन करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है किन्तु जो अपरमभाव में स्थित हैं उनको व्यवहारनय के द्वारा उपदेश करना योग्य है। इसी की टीका में श्री अमृतचंद्र सूरि कहते हैं- ये खलु पर्यंतपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवंति, तेषां प्रथमद्वितीयाद्यनेकपरंपरापच्यमान……शुद्धनय……प्रयोजनवान्। ये तु प्रथम……अपरमं भावमनुभवन्ति तेषां……व्यवहारनयो विचित्रमालिका-स्थानीयत्वात्परिज्ञानमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात्।। उत्तंâ च-
जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह। एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।।
जो पुरुष अंतिम पाक से उतरे हुए शुद्ध सुवर्ण के समान शुद्ध परमभाव का अनुभव करते हैं, वे प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध सुवर्ण के समान अपरमभाव के अनुभव से शून्य हैं। अत: उनके लिए शुद्ध द्रव्य को ही कहने वाला होने से जिसने अस्खलित एक स्वभावरूप एक भाव प्रकट किया है ऐसा शुद्धनय ही उपरितन एक शुद्ध सुवर्ण के समान जाना हुआ प्रयोजनवान् है और जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पकते हुये उस अशुद्ध सुवर्ण के समान ‘अपरमभाव’ का अनुभव करते हैं वे अंतिम पाक से उत्तीर्ण शुद्ध सुवर्ण के सदृश ‘परमभाव’ के अनुभवन से शून्य हैं। अत: उनके लिए अशुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला होने से भिन्न-भिन्न एक भाव स्वरूप अनेक भाव दिखलाता हुआ यह व्यवहारनय विचित्र-अनेक वर्णमाला के समान जाना हुआ उस काल में प्रयोजनवान है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इस प्रकार से ही व्यवस्थित है। कहा भी है-‘‘यदि तुम जिनमत में प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार के बिना तो तीर्थ का (मोक्षमार्ग का) नाश हो जायेगा और दूसरे निश्चय के बिना तत्त्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा।’’समयसार गाथा १२ की टीका अमृतचंद्रसूरि कृत। अब यहाँ समझना यह है कि ‘परमभाव’ तथा ‘अपरमभाव’ क्या है ? अंतिम पाक को प्राप्त कर चुके शुद्ध सुवर्ण के सदृश ‘परमभाव’ को लिया है और एक पाक, दो पाक आदि से शुद्ध होते हुए पंद्रह पाक तक उतरे हुए सुवर्ण के सदृश ‘अपरमभाव’ को कहा है। यह श्री अमृतचंद्रसूरि का मत है। इस दृष्टि से तो शुद्ध ‘परमभाव’ बारहवें गुणस्थान में ही घटित होगा उसके नीचे अशुद्ध सुवर्ण के समान आत्मा ‘अपरमभाव’ में ही स्थित है अथवा निर्विकल्पध्यान में आठवें, नवमें, दशवें गुणस्थानों में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होने से वीतरागता मानी गई है, उस दृष्टि से वहाँ पर भी ‘परमभाव’ कहा जा सकता है उसके पहले सविकल्प अवस्था वाले छठे गुणस्थानवर्ती मुनि तो ‘अपरमभाव’ में ही हैंं। चूँकि- ‘व्यवहारनयो…..तदात्वे प्रयोजनवान, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात्।’ यह वाक्य ध्यान देने योग्य है। व्यवहार नय……उस काल में प्रयोजनवान है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इसी प्रकार से व्यवस्थित हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय से ही तीर्थ और तीर्थ का फल होता है। तब यह भी स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय का अवलंबन बुद्धिपूर्वक क्रिया होने तक चलता ही है। ‘‘निग्र्रंथ प्रवचन को अथवा निग्र्रंथचर्या को निर्वाणमार्ग श्री गौतमस्वामी ने भी कहा है।’’‘‘इमं णिग्गंथं पवयणं णिव्वाणमग्गं ……..।’’ मुनिप्रतिक्रमण। छठे गुणस्थान की सरागचर्या भी निग्र्रंथचर्या है चूँकि उसके बिना भी आगे के गुणस्थान नहीं होते हैं अत: चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छठे, सातवें तक व्यवहारनय प्रयोजनवान है वहाँ तक ‘अपरमभाव’ है ही है। व्यवहार अथवा निश्चय इन दोनों में किसी एक नय का एकांत तो मिथ्यात्व ही है अत: मिथ्यात्व में व्यवहारनय का अवलंबन नहीं है प्रत्युत व्यवहाराभास का अवलंबन है। इस ‘परमभाव’ और ‘अपरमभाव’ को श्री जयसेनस्वामी ने भी इसी तरह से कहा है। यथा- ‘‘यहाँ पर केवल भूतार्थ-निश्चयनय निर्विकल्पसमाधि में रत हुये मुनियों को प्रयोजनवान हो, मात्र इतनी ही बात नहीं है किन्तु सोलह ताव के शुद्ध सुवर्ण लाभ के अभाव में नीचे के ताव सहित सुवर्ण लाभ के समान निर्विकल्प समाधि से रहित किन्हीं प्राथमिक शिष्यों को कदाचित् सविकल्प अवस्था में मिथ्यात्व, विषय, कषाय को दूर करने के लिए व्यवहारनय भी प्रयोजनवान् है, ऐसा कहते हैं- ‘‘शुद्धात्मभावदर्शियों को शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय भावित करना चाहिए। क्यों ? क्योंकि यह सोलह ताव के सुवर्णलाभ के समान अभेद रत्नत्रय स्वरूप समाधि के काल में प्रयोजन सहित है, नि:प्रयोजन नहीं है। व्यवहार से, विकल्प से, भेद से अथवा पर्याय से कहने वाला नय व्यवहारनय है। वह पुन: नीचे के ताव वाले सुवर्णलाभ के समान प्रयोजनवान् होता है। किनके लिये? जो पुन: ‘अपरम’ अर्थात् अशुद्ध में अर्थात् असंयत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से अथवा श्रावक की अपेक्षा से सराग सम्यग्दृष्टि लक्षण वाले शुभोपयोग में अथवा प्रमत्त और अप्रमत्त मुनि की अपेक्षा से भेदरत्नत्रय लक्षण जीव पदार्थ में स्थित हैं। उनके लिए यह व्यवहारनय प्रयोजनवान है।’’ १. समयसार पृ. २७। २. समयसार गाथा ४६। ३. समयसार गाथा ४६। इससे यह समझना कि गाथा ११ में जो ‘भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।’समयसार गाथा ४६। कहा है सो वीतराग सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से ही कहा है। इस व्यवहारनय की सार्थकता कहाँ तक है सो और देखिये-
‘‘ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं। जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा’’।।४६।।
‘‘जो राग-द्वेष आदिरूप अध्यवसान आदि भाव हैं वह जीव है’’ ऐसा जिनेन्द्रदेव ने जो कहा है वह व्यवहारनय का कथन है।’’समयसार गाथा ४६। इसी की टीका में श्री अमृतचंंद्रसूरि कहते हैं- ‘‘व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वाद-परमार्थोऽपि तीर्थ प्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् त्रसस्थावराणां भस्मन इव नि:शंकमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बंधस्याभाव:। तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव:।’’ ये सब अध्यवसानादि भाव ‘जीव’ हैं ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञ देव ने कहा है, वह अभूतार्थरूप जो व्यवहारनय है उसका मत है क्योंकि व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है। जैसे कि म्लेच्छभाषा म्लेच्छों को वस्तु का स्वरूप बतलाने वाली है। उसी तरह यह व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक होने से अपरमार्थभूत होने पर भी तीर्थ प्रवृत्ति का निमित्त है अत: इसका दिखलाना न्याय संगत ही है। चूँकि उस व्यवहार के बिना परमार्थ से तो जीव शरीर से भिन्न है पुन: जैसे भस्म को नि:शंक होकर उपमर्दित कर देते हैं वैसे ही त्रस-स्थावर जीवों का भी नि:शंक होकर घात कर देने से हिंसा नहीं होगी तो फिर बंध का भी अभाव हो जायेगा। ऐसी स्थिति में ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्म से बंधता है वही छुड़ाने योग्य है’ इस प्रकार राग-द्वेष-मोह से जीव परमार्थ से भिन्न ही रहेगा, तब मोक्ष के उपाय को ग्रहण करने का भी अभाव हो जाने से मोक्ष का ही अभाव हो जायेगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष का उपाय भी व्यवहारनय से ही ग्रहण किया जाता है। व्यवहारनय के बिना बंध व मोक्ष की व्यवस्था ही नहीं ब्ना सकती है।
शंका- इस विषय में हमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु निश्चयनय के अवलंबन से होने वाला रत्नत्रय चौथे से ही शुरू हो जाता है इस मान्यता में ही विवाद है, अत: उसी का समाधान चाहिए ?
समाधान- इसका समाधान तो गाथा १२वीं में किया जा चुका है कि जो ‘अपरमभाव’ में स्थित हैं उनके लिये व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है और आज सातवें गुणस्थान से ऊपर जा नहीं सकते अत: आज निश्चयनय का विषय श्रद्धान के लिये ही योग्य है अवलंबन के लिये नहीं। हाँ, सप्तमगुणस्थान में भी शुद्धोपयोग माना गया है अत: उसकी दृष्टि से कथंचित् मुनि ही उस निश्चयनय के अवलंबनस्वरूप निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त कर सकते हैं, साधारण जन नहीं प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा समझना। क्योंकि व्यवहार या भेद रत्नत्रय साधन हैं और निश्चय या अभेद रत्नत्रय साध्य है। इस बात को आचार्यों ने स्वयं कहा है।