श्री गौतमस्वामी नवदेवों के अन्तर्गत धर्म की वंदना करते हैं—
‘‘क्षान्त्यार्जवादिगुणगणसुसाधनं सकललोकहितहेतुम्। शुभधामनि धातारं, वन्दे धर्मं जिनेंद्रोक्तम्।।६।।’’
अर्थ— जो क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि गुणों के समूह का साधन है, संपूर्ण लोक के हित का का हेतु है और शुभ—मोक्षस्थान में पहुँचाने वाला है ऐसे जिनेंद्रदेव द्वारा कथित धर्म की मैं वन्दना करता हूँ।। यहाँ श्री गौतमस्वामी ने उत्तमक्षमा आदि दश धर्मों को ‘धर्म’ कहा है। अन्यत्र रत्नत्रय को भी धर्म कहा है। यथा— ‘‘मिच्छणाण—मिच्छदंसण—मिच्छचारित्तं च पडिविरदोमि, सम्मणाण—सम्मदंसण—सम्मचरित्तं च रोचेमि जं जिणवरेिंह पण्णत्तंदैवसिक प्रतिक्रमण से उद्धृत।’’ ‘‘मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र से मैं विरक्त होता हूँ और सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्त्व चारित्र जो कि जिनेंद्र देवों द्वारा प्रणीत है उसी में मैं रुचि रखता हूँ।’’ इसी प्रकार वीरभक्ति में श्रीगौतम स्वामी ने ‘‘धर्मस्य मूलं दया’’ कहा है कि धर्म का मूल दया है। पुनश्च इसी वीरभक्ति में कहा है कि—
‘‘धम्मो मंगलमुद्दिट्ठं अहिंसा संजमो तवो।’’
धर्म मंगल स्वरूप कहा गया है वह ‘अहिंसा, संयम और तप भी है आदि।