आगे जिनप्रतिमाओं की दिगंबर मुद्रा की विशेषता आदि का वर्णन करके पुनश्च चारों प्रकार के देवों के यहां के जिनमंदिर, जिन प्रतिमाओं की व मध्यलोक के अकृत्रिम—कृत्रिम जिनमंदिर जिनप्रतिमाओं की पृथक—पृथक वंदना की है-
‘‘श्रीमद्भावनवासस्था: स्वयंभासुरमूर्तय:। वंदिता नो विधेयासु: प्रतिमा: परमां गतिम्।।१७।।’’
अर्थ- मेरे द्वारा जिनकी वन्दना की गई है जो भवनवासी देवों के दैदीप्यमान भवनों में स्थित हैं जिनका स्वरूप स्वयं भासुररूप है ऐसी प्रतिमाएँ मुझ वंदक को परमगति अर्थात् मुक्ति प्रदान करें।।१७।।
देवों के चार भेद हैं- भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिर्वासी और कल्पवासी। इनमें से भवनवासी, व्यंतर एवं ज्योतिर्वासी देवों को ‘भवनत्रिक’ कहा जाता है। भवनवासी तथा व्यंतर देव अधोलोक एवं मध्यलोक में निवास करते हैं, ज्योतिर्वासी देव मध्यलोक में रहते हैं, जबकि वैमानिक देव ऊध्र्वलोक में रहते हैं।
भवनवासी देवों के स्थान- पहले रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग हैं। उसमें से खर भाग में राक्षस जाति के व्यंतर देवों को छोड़कर सात प्रकार के व्यंतर देवों के निवास स्थान हैं और भवनवासी के असुरकुमार जाति के देवों को छोड़कर नव प्रकार के भवनवासी देवों के स्थान हैं। रत्नप्रभा के पंकभाग नाम के द्वितीय भाग में असुरकुमार जाति के भवनवासी एवं राक्षस जाति के व्यंतरों के आवास स्थान हैं।
भवनवासी देवों के भेद- असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार। भवनवासी देवों के भवनों का प्रमाण- असुरकुमार के ६४ लाख, नागकुमार के ८४ लाख, सुपर्णकुमार के ७२ लाख, वायुकुमार के ९६ लाख और शेष देवों के ७६-७६ लाख भवन हैं अत: ७६,००००० x² ६ = ४,५६००००० + ६४,००००० + ८४,००००० + ७२,००००० + ९६,००००० = ७,७२,००००० (सात करोड़ बहत्तर लाख) भवन हैं।
जिनमंदिर- इन एक-एक भवनों में एक-एक जिनमंदिर होने से भवनवासी देवों के ७,७२,००००० प्रमाण जिनमंदिर हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओं को मन, वचन, काय से नमस्कार होवे। भवनवासियों के निवास स्थान के भेद- इन देवों के निवास स्थान के भवन, भवनपुर और आवास के भेद से तीन भेद होते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी में स्थित निवास स्थानों को भवन, द्वीप समुद्रों के ऊपर स्थित निवास स्थानों को भवनपुर और रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादि के ऊपर स्थित निवास स्थानों को आवास कहते हैं। इनमें नागकुमार आदि देवों में से किन्हीं के तो भवन, भवनपुर और आवासरूप तीनों ही तरह के निवास स्थान होते हैंं परन्तु असुरकुमारों के केवल एक भवनरूप ही निवास स्थान हैं। इनमें भवनवासियों के भवन चित्रा पृथ्वी के नीचे दो हजार से एक लाख योजनपर्यन्त जाकर हैं। ये सब भवन समचतुष्कोण, तीन सौ योजन ऊँचे हैं और विस्तार में संख्यात एवं असंख्यात योजन प्रमाण वाले हैं। जिनमंदिर- प्रत्येक भवन के मध्य में एक सौ योजन ऊँचे एक—एक कूट हैं, इन कूटों के ऊपर पद्मराग मणिमय कलशों से सुशोभित चार गोपुर, तीन मणिमय प्राकार, वनध्वजाओं एवं मालाओं से संयुक्त जिनगृह शोभित हैं। प्रत्येक जिनगृह में १०८—१०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। जो देव सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, वे कर्मक्षय के निमित्त नित्य ही जिन भगवान की भक्ति से पूजा करते हैं, इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि देवों से सम्बोधित किए गए अन्य मिथ्यादृष्टि देव भी कुलदेवता मानकर उन जिनेन्द्र प्रतिमाओं की नित्य ही बहुत प्रकार से पूजा करते हैं। देवप्रासाद- जिनमंदिर के चारों तरफ अनेक रचनाओं से युक्त सुवर्ण और रत्नों से निर्मित भवनवासी देवों के महल हैं।