‘‘ये व्यन्तरविमानेषु स्थेयांस: प्रतिमागृहा:। ते च संख्यामतिक्रान्ता: सन्तु नो दोषविच्छिदे।।१९।।’’
अर्थ- व्यंतरों के आवासों में सर्वदा अवस्थित जो असंख्यात प्रतिमागृह हैं वे मेरे दोषों की शान्ति के लिये होवें ।।१९।।
व्यंतर देव- रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में व्यंतर देवों के सात भेद रहते हैं-किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, भूत और पिशाच। पंक भाग में राक्षस जाति के व्यंतरों के भवन हैं। सभी व्यन्तर देवोेंं के असंख्यात भवन हैं। उनमें तीन भेद हैं-भवन, भवनपुर और आवास। खर भाग, पंक भाग में भवन हैं। असंख्यातों द्वीप, समुद्रों के ऊपर भवनपुर हैं और सरोवर, पर्वत, नदी, आदिकों के ऊपर आवास होते हैं। मेरु प्रमाण ऊँचे मध्यलोक में और मध्यलोक में मेरु की चूलिका तक ऊपर—ऊध्र्वलोक में व्यन्तर देवों के निवास हैं। इन व्यन्तरों में से किन्हीं के भवन हैं, किन्हीं के भवन और भवनपुर दोनोें हैं एवं किन्हीं के तीनों ही स्थान होते हैं। ये सभी आवास प्राकार (परकोटे) से वेष्टित हैं। जिनमंदिर- इस प्रकार व्यन्तर देवों के स्थान असंख्यात होने से उनमें स्थित जिनमंदिर भी असंख्यात प्रमाण हैं क्योंकि जितने भवन, भवनपुर और आवास हैं, उतने ही जिनमंदिर हैं।