श्रीगौतमादिपदमद्भुतपुण्यबन्ध-मुद्द्योतिताखिलममोहमघप्रणाशम्।
वक्ष्ये जिनेश्वरमहं प्रणिपत्य तथ्यम् निर्वाणकारणमशेषजगद्धितार्थम्१।।
सत्य और मुक्तिप्राप्ति के लिए हेतु तथा त्रैलोक्य का हित करने के लिए प्रयोजनभूत जिनेश्वर को मैं नमस्कार करके अद्भुत पुण्यबन्धकारक संपूर्ण विषयों को बतलाने वाला पापनाशक श्री गौतमादि ऋषियों के सफल वचनों को मैं कहता हूँ। श्री वर्धमानस्वामिनं प्रत्यक्षीकृत्य गौतमस्वामी स्तुतिमाह-
-हरिणीछन्द-
जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता- वमरमुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ।
कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ताः परस्परवैरिणो। विगतकलुषाः पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु:।।१।।
जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते। कोऽसौ ? भगवान् इन्द्रादीनां पूज्य:, केवलज्ञानसम्पन्नो वा। कथम्भूतोऽसौ? यस्य पादौ प्रपद्य प्राप्य। विशश्वसु: विश्वासं गता: ? के ते ? परस्परवैरिण: अहिनकुलादय:। कथम्भूता:? कलुषहृदया: व्रूâरमनस:। मानोद्भ्रान्ता: मानेनाहड्कारेण स्तब्धत्वेन उद्भ्रान्ता: यथावदात्मस्वरूपात्प्रच्याविता:। ते कथम्भूता: सन्तो विशश्वसु:? विगतकलुषा: विनष्टक्रूरभावा:। किं विशिष्टौ पादौ? हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भितौ हेमाम्भोजेषु सुवर्णमयपद्मेषु प्रचार: प्रकृष्टोऽन्यजनासम्भवी चरणक्रमसंचाररहितश्चार: गमनं तेन विजृम्भितौ विलसितौ शोभितौ तेषां वा प्रचारो रचना—पादन्यासे पद्मं सप्त पुर: पृष्टतश्च सप्त इत्येवंरूप: तत्र विजृम्भितौ प्रवृत्तौ विलसितौ वा। पुनरपि िंकविशिष्टौ तौ इत्याह—अमेरत्यादि अमरा देवास्तेषां मुकुटानि तेषु छाया छायामणय: तत उद्गीर्णा नि:सृता सा चासौ प्रभा च तया परिचुम्बितौ संश्लिष्टौ आलिङ्गितौ।।१।।
श्री गौतमस्वामी श्रीवर्धमान प्रभु को प्रत्यक्ष देखकर उनकी स्तुति करते हैं—
अर्थ—सामान्य लोग क्रम से एक—एक चरण जमीन पर रखकर चलते हैं। परन्तु भगवान् जब उपदेश देने के लिए विहार करते हैं, तब वे अधर गमन करते हैं तथा उनके दो चरण आगे—पीछे न होकर सम गमन करते हैं। वे देव विरचित सुवर्णकमलों पर से विचरते हैं, तब प्रभु के चरण अतिशय सुन्दर दिखते हैं। जब प्रभु का विहार होता है, तब उनके चरणों के आगे सात कमल और पीछे सात कमल तथा पदतल में एक कमल ऐसे पन्द्रह कमलों की निर्मिति देव करते हैं। देव जब उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, तब उनके मुकुट स्थित छायारत्नों की कान्ति जिनेन्द्र के चरणों पर पड़ने से चरण अपूर्व सुन्दर दिखते हैं। व्रूâर तथा अहंकार से आत्मस्वरूप से च्युत हुए तथा परस्पर के वैरी जीव जिनेन्द्र के चरणों का आश्रय पाकर अपना क्रूर स्वभाव छोड़ देते हैं तथा तत्काल शान्त बनते हैं। देखिए, केवलज्ञान संपन्न तथा देववन्द्य महावीर प्रभु का यह सामथ्र्य कितना अवर्णनीय है। भगवन्त का सारे विश्व में विजय हो, उन्हें मेरा नमस्कार हो।।१।।
तदनु जयति श्रेयान् धर्म: प्रवृद्धमहोदय:। कुगति-विपथ-क्लेशाद्योऽसौ विपाशयति प्रजा:।।
परिणतनयस्याङ्गी-भावाद्विविक्तविकल्पितं। भवतु भवतस्त्रातृ त्रेधा जिनेन्द्रवचोऽमृतम्।।२।।
तदन्वित्यादि—तस्माद्भगवन्नमस्कारदनु पश्चात्। जयति। कोऽसौ ? धर्मो नरकादिषु गतिषु पतत: प्राणिन: धरतीति धर्म: उत्तमक्षमादिलक्षणश्चारित्रस्वरूपो वा। कथम्भूत: श्रेयान् अतिशयेन प्रशस्य:। पुनरपि कथम्भूत: ? प्रवृद्धमहोदय: प्रकर्षेण वृद्धो वृद्धिं गतो महान् उदय: स्वर्गादिपदप्राप्तिर्यस्मात्प्राणिनाम्। पुनरपि कथम्भूत: ? योऽसौ धर्म:। प्रजा:लोकान्। विपाशयति पाशाद्विमोचयति। कथम्भूतात्पाशादित्याह—कुगतीत्यादि—कुत्सिता गति: कुगति:, विरूपक: पन्था। विपथ: मिथ्यादर्शनादि:, क्लेशो दु:खं कुगतिश्च, विपथश्च क्लेशश्च तत्तस्मात्तद्रूपादित्यर्थ:। पूर्वाद्र्धेन धर्मं नमस्कृत्योत्तरार्धेन जैनेन्द्रं वचो नमस्कुर्वन्नाह—परिणतेस्यादि विविधपर्यायरूपतया परिणमते यत्तत्परिणतं द्रव्यमुच्यते, तत्र नय: परिणतनय: द्रव्यार्थिकनय—स्तस्य अङ्गीभावात् अप्रधानभावात् पर्यार्यािथकनयप्राधान्यात् इत्यर्थ:। अथवा परिणतं परिणामस्तत्र नय: पर्यार्यािथकनय: तस्य अङ्गीभावात्स्वीकारात्। विविक्तैर्गणधरदेवादिभि: विविक्तं वा विभिन्नं विकल्पितं अङ्गपूर्वादिभेदेन रचितम्। यदि वा विवित्तंâ विशुद्धं पूर्वापरविरोधदोषविर्विजतं यथाभवत्येवं विकल्पितं रचितम्। कथम्भूतं तदस्त्वित्याह—भवत इत्यादि भवत: संसारात्। त्रातृ रक्षकम्। भवतु सम्पद्यताम्। कथं तद्व्यवस्थितमित्याह त्रेधेत्यादि। त्रेधा उत्पादव्ययध्रौव्यरूपै: अङ्गपूर्वगतबाह्यरूपै: वा त्रिभि: प्रकारैव्र्यवस्थितम् । यत् जिनेन्द्रवचोऽमृतम् जिनेन्द्रवच एव अमृतम्। अमृतमिवामृतमाप्याय—कत्वात्। यथैव हि प्राणिनो देहदु:खापनेतृत्वेनामृतं आप्यायवंâतथा नारकादिमहादु:खपीडितानां तेषां तदपनेतृत्वेनाप्यायकत्वात्तद्वचोऽमृतमुच्यते।।२।।
श्री गौतमस्वामी धर्म तथा जिनेश्वर को नमस्कार करते हुए कहते हैं—
अर्थ—नरकादि दुर्गतियों में गिरते हुए प्राणियों को जो ऊपर उठाता है, उसे धर्म कहते हैं। यह उत्तमक्षमादिरूप दश प्रकार का है तथा चारित्ररूप है। इससे स्वर्ग, चक्रर्वितपद तथा तीर्थंकरपद प्राप्त होता है। अत: यह धर्म प्रशंसनीय है। कुमति, मिथ्यात्व, क्रोधलोभादि विकार तथा नानाविध दु:खों से यह धर्म प्राणियों को मुक्त करता है। इस जैनधर्म का सारे विश्व में विजय हो। मैं इसे नमस्कार करता हूँ। धर्म की वंदना के अनन्तर मैं जिनेन्द्र के वचन की वन्दना करता हूँ। उसकी विजय हो। अमृत प्राणियों के शारीरिक दु:ख नष्ट कर उन्हें पुष्ट करता है, तद्वत् यह जिनवचनामृत नरकादि महादु:खों से पीड़ित जीवों के दु:ख दूर करके उन्हें सुख देता है। अत: यह जिनवचन अमृतोपम है। इन जिनेन्द्र वचनों की रचना गणधरों ने पूर्वापरविरोधरहित की है। यह जिनेन्द्रवचन द्रव्यार्थिकनय को गौणता देकर तथा पर्यायार्थिक नय को मुख्यत्व समर्पण करके ग्यारह अंग, चौदह पूर्व तथा अंगबाह्यश्रुत का विशद तथा नाना भेदयुक्त वर्णन करता है। वस्तु के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव का वर्णन करता है। इस प्रकार उत्तम गुणों से भूषित यह जिनवचन हमारा संसार से रक्षण करे।।२।।
भगवद्वच: स्तुत्वा तज्ज्ञानं स्तोतुं तदन्वित्याद्याह— तदनु जयताज्जैनी वित्ति: प्रभंगतरंगिणी। प्रभवविगमध्रौव्य – द्रव्यस्वभावविभाविनी।। निरुपमसुखस्येदं द्वारं विघट्य निरर्गलं। विगतरजसं मोक्षं देयान्निरत्ययमव्ययम्।।३।।
तस्माज्जिनेन्द्रवचननमस्कारादनु पश्चात्। जिनस्येयं जैनी वित्ति: केवलज्ञानम्। जयतात् मत्यादिज्ञानेभ्य: सर्वोत्कर्षेण वद्र्धताम्। कथम्भूतेत्याह—प्रभङ्गेत्यादि—प्रभङ्गतरङ्गिणी प्रकृष्टा प्रवृद्धा वा भङ्गा:स्यादस्ति स्यान्नास्तीत्यादय: त एव तरङ्गा:।। कल्लोलास्ते विद्यन्ते यस्याम्। ते हि सकलवस्तुगता ग्राह्यत्वेन तत्र वर्तन्ते, स्वरूपगतास्तु तादात्म्येनेति। पुनरपि कथम्भूतेत्याह—प्रभवेत्यादि प्रभव उत्पाद: विगमो विनाशो ध्रौव्यं स्थैर्यं तान्येव द्रव्याणां स्वभावा: तान्विभावयति प्रकाशयति इत्येवंशीला। इदं भगवदादिचतुष्टयं संस्तुतं सतिकं कुर्यादित्याह देयादित्यादि। देयात्कं मोक्षम्। किं कृत्वा विघट्य। किं तत् ? द्वारं। कस्य ? निरुपमसुखस्य उपमाया: निष्क्रान्तं निरुपमं तच्च तत्सुखं च अनन्तसुखम्। तस्य यद्द्वारं पिधायकं कपाटसम्पुटस्थानीयं मोहनीयं कर्म तद्विघट्य वियोज्य। कथं विघट्य ? निरर्गलं अर्गला अन्तरायं तस्या: निष्क्रान्तं यथाभवत्येवं विघट्य। विघटितमपि हि द्वारं अर्गलासद्भावे नेष्टप्रदेशे प्रवेष्टुं प्रयच्छति। कथम्भूतं मोक्षं ? विगतरजसं रजो ज्ञानदृगावरणे सकलकर्माणि वा, विगतं विनष्टं रजो यत्र। निरत्ययं अत्ययो व्याधि: जरामरणे वा ततो निष्क्रान्तम् । अव्ययं अविनश्वरम् ।।३।।
श्री गौतमगणधर जिनेश्वर के केवलज्ञान की स्तुति करते हैं—
अर्थ—श्री जिनेश्वर का केवलज्ञान मत्यादिज्ञानों में अत्यन्त श्रेष्ठ है। ऐसे केवलज्ञान की जगत् में निरन्तर विजय हो। गौतमगणधर ने इस ज्ञान को नदी का रूपक दिया है। नदी में अनेक तरंगे उत्पन्न होती हैं। इस केवलज्ञाननदी में भी ‘स्यादस्ति, स्यान्नास्ति’ आदि सात प्रकार की तरंगे उत्पन्न होती हैं। ये सात भंग वस्तु के सात धर्म हैं और वे केवलज्ञान से जाने जाते हैं। अत: यह केवलज्ञानरूपी नदी ‘स्यादस्त्यादि’ लहरों से युक्त हैं। ऐसा कहना अनुचित नहीं है। वस्तु में ये सात धर्म कथंचित् तादात्म्यस्वरूप में रहते हैं। उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य द्रव्य का स्वरूप है। यह केवलज्ञान ने कहा है। द्रव्य की नवीन अवस्था उत्पन्न होना उत्पाद है। द्रव्य की पूर्वावस्था नष्ट होना व्यय है तथा इन दोनों अवस्थाओं में द्रव्य स्थिर रहना ध्रौव्य है। ये तीन अवस्थाएँ जीवादि द्रव्यों की होती हैं और केवलज्ञान उन्हें स्पष्ट जानता है। गौतमगणेश्वर ने जिनेश्वर, तदुपदिष्ट जिनधर्म, उनके वचन और केवलज्ञान का वर्णन किया है, स्तुति की है। इस स्तुति से मुक्ति मिले, ऐसा अभिप्राय श्रीगौतमगणधर ने व्यक्त किया है। मोक्ष अनन्तसुखों का द्वार है। परन्तु मोहनीयादिकर्मरूपी किवाड़ों से वह बंद हो गया है। अन्तराय कर्मरूप अर्गला इस दरवाजे में लगी है और दरवाजा खुलने पर भी अन्तरायरूपी अर्गला जब तक अलग नहीं होती, तब तक वह दरवाजे के अंदर जाने में बाधा उत्पन्न करती है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्य अघातियाँ कर्म जब नष्ट होते हैं, तब मोक्ष प्राप्त होता है। यह मोक्ष रोगरहित, जरामरणरहित तथा अविनाशी है। उपर्युक्त चार पदार्थों के स्तवन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।।३।।
अर्हत्सिद्धाचार्यो-पाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्य:। सर्वजगद्वंद्येभ्यो, नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्य:।।४।।
अर्हत्सिद्धेत्यादि—अर्हन्तश्च सिद्धाश्च आचार्याश्च उपाध्यायाश्च तेभ्यो नमोऽस्तु नमस्कारो भवतु। तथा च तथैव साधुभ्यो नमोऽस्तु। कथम्भूतेभ्य: ? सर्वजगद्वन्द्येभ्य: सर्वाणि च तानि जगन्ति च त्रयो लोकास्तेषां वन्द्यास्तेभ्य:। िंक नियते क्षेत्रे नियतेभ्य इत्याह सर्वत्र सर्वेभ्य:।।४।। पञ्चपरमेष्ठिन: सामान्येन नमस्कृत्य मोहादीत्यादिना अर्हत: पुर्निवशेषतो नमस्करोति। तेषां धर्मोपदेष्टृ—त्वेनोपकारकरत्वात्।।
अर्थ—जो समस्त त्रैलोक्य से वंदनीय है, ढाई द्वीपों के सर्व क्षेत्रों में हैं, ऐसे सर्व अर्हन्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पंचपरमेष्ठियों को मेरा नमस्कार हो।।४।। अरहंत भव्यों को उपदेश देकर उपकार करते हैं। अत: गौतम गणधर उन्हें पुन: विशेषतया नमस्कार करते हैं।
मोहादिसर्वदोषारि-घातकेभ्य: सदा हतरजोभ्य:। विरहितरहस्कृतेभ्य: पूजार्हेभ्यो नमोऽर्हद्भ्य:।।५।।
मोहो मोहनीयं स आदिर्येषां क्षुधादीनां ते च ते सर्वे दोषाश्च त एवारयोऽरिकार्यकारित्वा। यथैव ह्यरयो दु:खदा एवमेतेऽपि। तेषां घातकेभ्य:। सदा हतरजोभ्य: सदा सर्वकालं हते विनाशिते रजसी ज्ञानदृगावरणे यै:। विरहितरहस्कृतेभ्य: रहस्कृतमन्तरायो विरहितं स्पेâटितं रहस्कृतं यै:। पूजार्हेभ्य इन्द्राद्युपनीतामतिशयवतीं पूजामर्हन्तीति पूजार्हास्तेभ्यो नमोऽर्हद्भ्य:।।५।।
अर्थ—मोहनीय कर्म तथा क्षुधा, पिपासा, वृद्धावस्था आदि अठारह दोष शत्रु के समान जगत् के जीवों को दु:ख देते हैं। अर्हत्परमेष्ठी ने इन मोहादि शत्रुओं का नाश किया है। अरहंतों ने ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मो का भी नाश किया है। इन दो कर्मों को ‘रज’ कहते हैं। रहस् अर्थात् अन्तराय कर्म का भी अरहंत ने नाश किया है। इस तरह मोहनीयादि चार घातियाँ कर्मो का नाश अरिहंतों ने किया है। देवादिकों के द्वारा पूज्य होने से उनका अर्हन् नाम भी सार्थक है। ये सारे गुण जिनमें हैं, ऐसे भगवान् अर्हन्त को मैं नमस्कार करता हूँ।।५।।
एवमर्हतो वन्दित्वा तद्धर्मं वन्दमान: क्षान्त्यार्जवादीत्याद्याह— क्षान्त्यार्जवादिगुणगण-
सुसाधनं सकललोकहितहेतुं। शुभधामनि धातारं, वन्दे धर्मं जिनेन्द्रोक्तम्।।६।।
क्षान्त्यार्जवादीत्याह—जिनेन्द्रोक्तं जिनेन्द्रप्रतिपादितम्। धर्मं उत्तमक्षमादिलक्षणं चारित्ररूपं वा वन्दे। कथम्भूतमित्याह—क्षान्तीत्यादि क्षान्ति: क्षमा, आर्जवमवक्रता ते आदिर्येषाम् । आदिशब्देन मार्दवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि गृह्यन्ते। ते च ते गुणाश्च तेषां गण: समूह: सुशोभनं साधनं यस्य स तथोक्तस्तम्। ननु चारित्रलक्षणधर्मस्य क्षान्त्यादिसुसाधनत्वं युक्तम्। न पुन: उत्तम—क्षमादिलक्षणं तस्यैव तद्धेतुत्वविरोधात् इति चेत् न द्रव्यरूपाणां तेषां भावरूपक्षमादिहेतुत्वे, भावरूपाणां च द्रव्यरूपक्षमादिहेतुत्वे, विरोधासम्भवात्। पुनरपि कथम्भूतम्? सकललोकहितहेतुं सकलाश्च ते लोकाश्च प्राणिन: तेभ्यो हितं सुखं तद्धेतुश्च तस्य हेतुस्तम्। शुभधामनि धातारं शुभं च तद्धाम च निर्वाणं तत्र धातारं स्थापयितारम्।।६।।
अरिहंत को नमस्कार कर जिनधर्म को श्रीगौतमगणधरदेव वंदन करते हैं—
अर्थ—श्रीजिनेश्वरों ने उत्तम क्षमादिरूप िंकवा चारित्ररूप धर्म का भव्यों के लिए उपदेश दिया है। इस धर्म को मैं भक्ति से नमन करता हूँ। यह धर्म प्राणिमात्र को दु:ख से दूर कर उनका हित करता है तथा उन्हें अनंतसुख देता है। अत्यन्त शुभस्थान की—मोक्ष की प्राप्ति करा देता है। चारित्रधर्म की पूर्णता होने के लिए उत्तम क्षमादिकारणों की आवश्यकता होती है।।६।। प्रश्न—क्षमादिस्वरूप धर्मों के लिए क्षमादि कारणों की ही आवश्यकता लगती है, वह समझ में नहीं आता है। क्षमादिरूप धर्म को कारण और उसी को कार्य मानना संभवनीय नहीं है। एक ही वस्तु कारण—कार्य दोनों रूप होना संभवनीय नहीं लगता। उत्तर—भावस्वरूप क्षमादि धर्मों का द्रव्यरूपी उत्तमक्षमादि धर्म कारण है। इस रीति से मानने पर विरोध नष्ट होता है। अन्त:करण में क्षमा होने पर अपने मुख पर क्रोध से होने वाला विकार दृष्टिगोचर नहीं होगा। बाह्यशान्ति से अन्त:शान्ति का अनुमान किया जाता है। तब बाह्यशान्ति अन्त:शान्ति को पहचानने के लिए कारण होती है तथा अन्त:शान्ति के बिना यथार्थ बाह्य क्षमादि शान्ति हो नहीं सकती। अत: वह बाह्यशान्ति का कारण है।।६।।
एवं जिनेन्द्रोक्तं धर्मं स्तुत्वा तद्वचनं स्तोतुमाह— मिथ्याज्ञानतमोवृत-
लोकैज्योतिरमितगमयोगि। सांगोपांगमजेयं, जैनं वचनं सदा वन्दे।।७।।
मिथ्याज्ञानेत्यादि—मिथ्याज्ञानं विपरीतज्ञानम्। तदेव तम: तेन वृत: प्रच्छादित: स चासौ लोकश्च तस्यैकमद्वितीयं ज्योति: जीवाद्यशेषतत्त्वप्रकाशकत्वात्। अमितगमयोगि अमितोऽपरिमित: असङ्खयात: स चासौ गमश्च अशेषार्थविषयं श्रुतज्ञानं तेन योग: सम्बन्ध: कार्यकारणभावलक्षण:, श्रुतस्य तज्जनकत्वात्। यदि वा अमितगमोऽनन्तावबोध: केवलज्ञानं तेन योगस्तस्य तज्जन्यत्वात् सोऽस्यास्तीति तद्योगी। साङ्गोपाङ्गं अङ्गानि आचारादीनि उपाङ्गानि पूर्ववस्तुप्रभृतीनि सह तैर्वर्तते इति साङ्गोपाङ्गम्। न जीयते एकान्तवादिभिरिति अजेयम्। शक्यार्थस्य अविवक्षितत्वात् अजय्यमिति न भवति। तदेवंविधं जैनं वचनं सदा वन्दे जिनस्येदं जैनमित्यनेनेश्वरादिवचनव्यवच्छेद:। सदा इत्यनेन नियतकालविषयस्तुति—व्युदास:।।७।।
अर्थ—जिनेश्वर के वचन विपरीतज्ञानरूपी अंधकार से आच्छादित हुए जगत को प्रकाशित करने के लिए अनुपम प्रकाश के समान है क्योंकि वह संपूर्ण जीवादि पदार्थों का स्पष्ट विवेचन करता है। यह उनका वचन श्रुतज्ञान से उत्पन्न हुआ है। अर्थात् पूर्व में जिनेन्द्र भगवान् श्रुतज्ञान से पदार्थों का स्वरूप परोक्षरूप से जानते थे। उस समय उनको श्रुतज्ञान था। वे श्रुतकेवली थे। तदनंतर वे श्रुतज्ञान की आराधना से केवली हो गये। इसलिए श्रुतज्ञान केवलज्ञान की उत्पत्ति में कारण हुआ। जिनेश्वर ने केवलज्ञान से भावश्रुत की रचना की। बारह अंग, चौदहपूर्व, वस्तु वगैरह श्रुतज्ञान के उपांग है। यह श्रुतज्ञान एकान्तवादियों से अिंजक्य है। जिनेश्वर प्रतिपादित यह श्रुतज्ञान सदा जयवंत रहे।।७।। तात्पर्य श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान में अन्योन्य कार्यकारणता है। प्रथम श्रुतज्ञान केवलज्ञानोत्पत्ति में कारण होता है और वह केवलज्ञान उस श्रुत को प्रकाशित करता है। इस श्रुतज्ञान की आराधना से जीवों को केवलज्ञान प्राप्त होता है, वह भी केवलज्ञान से फिर श्रुतज्ञान की उत्पत्ति करता है। इस प्रकार श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में कार्यकारण संबंध है। वह अनादिकाल से अनंतकाल तक अव्याहत चालू रहेगा।
भगवद्वच: स्तुत्वा तत्प्रतिमास्तद्वचनात्प्रसिद्धा: स्तोतुमाह— भवनविमानज्योति-
व्र्यंतरनरलोकविश्वचैत्यानि। त्रिजगदभिवन्दितानां, वंदे त्रेधा जिनेन्द्राणां।।८।।
भवनेत्यादि—भवनानि च विमानानि च ज्योतिषश्च व्यन्तराश्च नराश्च भवनविमानज्योति—व्र्यन्तर-नरास्तेषां लोका निवासस्थानानि भवनविमानज्योतिव्र्यन्तरनरलोकाश्च तेषां विश्वचैत्यानि। सर्वप्रतिमा:। केषां ? जिनेश्वराणाम्। कथम्भूतानाम् ? त्रिजगदभिवन्दितानाम्। त्रिलोकाभिस्तुतानाम् । त्रेधा मनोवाक्कायै: वन्दे।।८।।
भगवद्वचनस्तवन के अनन्तर उनकी प्रतिमाओं की स्तुति श्री गौतमगणधर करते हैं—
अर्थ—भवनवासी, सौधर्मादि सर्वार्थसिद्ध्यन्त विमानसमूह, ज्योतिष्क, व्यन्तर व मनुष्यक्षेत्र में जिनेश्वरों के त्रैलोक्यवंदित सर्वकृत्रिम—अकृत्रिम जो असंख्य बिंब हैं, उन्हें मैं मन, वचन, काय से वन्दन करता हूँ।।८।।
एवं चैत्यान्यभिनुत्य चैत्यालयानभिनवितुं भुवनत्रयेऽपीत्याह— भुवनत्रयेऽपि भुवन-
त्रयाधिपाभ्यच्र्य-तीर्थकर्तृणाम्। वन्दे भवाग्निशान्त्यै, विभवानामालयालीस्ता:।।९।।
भुवनत्रयेऽपीत्याह—आलयालीर्वन्दे। कस्मिन् ? भुवनत्रयेऽपि अपि आलयालीत्यस्यानन्तरं द्रष्टव्य:। न केवलं चैत्यानि किन्त्वालयालीरपि वन्दे। केषां ? भुवनत्रयाधिपाभ्यच्र्यतीर्थकर्तृणाम्। भुवनानां त्रयं तस्य अधिपा: स्वामिन: देवेन्द्रनरेन्द्रधरणेन्द्रास्तैरभ्यच्र्या: पूज्यास्ते च ते तीर्थकराश्च तेषाम्। विभवानां विनष्टसंसाराणाम्। आलयानां जिनगृहाणाम्। आल्य: पङ्क्तयस्ता:। भुवनत्रयसम्बन्धित्वेन प्रसिद्धा:। किमर्थं वन्दे ? भवाग्निशान्त्यै भव: संसार: स एवाग्नि: बहुप्रकारदु:खसन्तापहेतुत्वात्। तस्य शान्ति:शमनं विध्यापनं विनाशस्तस्यै।।९।।
अब चैत्यालयों की वंदना करते हैं—
अर्थ—इस त्रैलोक्य में तीन लोकों के नाथ, देवेन्द्र, चक्रवर्ती तथा धरणेन्द्रों से पूजनीय तथा संसाररहित तीर्थंकरों के असंख्य जिनमंदिर हैं, उन्हें मैं दु:खसंताप उत्पन्न करने वाले संसाराग्नि की शान्ति के लिए वन्दन करता हूँ।।९।।
इति पंचमहापुरुषा:, प्रणुता जिनधर्म-वचन-चैत्यानि। चैत्यालयाश्च विमलां, दिशन्तु बोधिं बुधजनेष्टां।।१०।।
इतीत्यादिना स्तुत्यर्थमुपसंहृत्य स्तोता स्तुते:फलं याचते। इत्येवमुक्तप्रकारेण। पञ्चमहा—पुरुषा: पञ्चपरमेष्ठिन:। प्रणुता: स्तुता:। न केवलमेते जिनधर्मवचनचैत्यानि चैत्यालयाश्च। ते सर्वे प्रणुता: सन्त: िंक कुर्वन्तु ? दिशन्तु प्रयच्छन्तु। बोिंध सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रप्राप्तिम् किंविशिष्टाम्। विमलां क्षायिकीम्। पुनरपि किंविशिष्टाम्? बुधजनेष्टाम् बुधजना गणधरदेवादयस्तेषामिष्टा-मभिप्रेताम् ।।१०।।
अब श्री गौतमगणधर स्तुतिफल की याचना करते हैं—
अर्थ—उपर्युक्त पंचपरमेष्ठी, जिनधर्म, जिनवाणी, जिनप्रतिमा और जिनमंदिर इनका मैंने स्तवन किया है। वे मुझे गणधरादि मर्हिषयों को प्रिय क्षायिक समाधि—रत्नत्रय प्राप्त करा दे।।१०।।
अकृतानि कृतानि चाप्रमेय-द्युतिमन्तिद्युतिमत्सु मन्दिरेषु। मनुजामरपूजितानि वंदे प्रतिबिम्बानि जगत्त्रये जिनानाम्।।११।।
इदानीं कृत्रिमाकृत्रिमधर्मोपेततया जिनप्रतिमा: स्तोतुमकृतानीत्याद्याह उपस्कन्धकच्छन्द:। वन्दे कानि? प्रतिबिम्बानि। केषाम् ? जिनानामर्हताम् । क्व? जगत्रये। द्युतिमत्सु मन्दिरेषु त्रिभुवने प्रचुर प्रभासमन्वित—चैत्यालयेषु स्थितानि। कथम्भूतानि? अकृतानि बुद्धिमन्निमित्तव्या—पाराजन्यानि। कृतानि च तद्व्यापारजनितानि च। अप्रमेयद्युतिमन्ति प्रचुरताप्रभायुक्तानि। मनुजामरपूजितानि इन्द्रचक्रवत्र्यादिलोकपूजितानि।।११।। अब स्तुतिकार कृत्रिम तथा अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की स्तुति करते हैं— अर्थ—इस त्रैलोक्य में अतिशय कान्तियुक्त कृत्रिम तथा अकृत्रिम जिनमंदिरों में अनुपम तेजोयुक्त कृत्रिम व अकृत्रिम जिनप्रतिमाएँ हैं, जिनकी मनुष्य और सुरासुर पूजा करते हैं, उन्हें मैं वन्दन करता हूँ।।११।।
द्युतिमंडलभासुरांगयष्टीः, प्रतिमा अप्रतिमा जिनोत्तमानाम्।
भुवनेषु विभूतये प्रवृत्ता, वपुषा प्राञ्जलिरस्मि वन्दमान:।।१२।।
का: ? प्रतिमा:। किंविशिष्टा: ? अप्रतिमा: अनुपमा: । केन व पुषा तेजसा स्वरूपेण वा। पुनरपि कथम्भूता:? द्युतिमण्डलभासुराङ्गयष्टी: द्युतिमण्डलं प्रभामण्डलं तेन भासुरा दीप्ता अङ्गयष्टिर्यासां यष्टिरिव यष्टि: संसारार्णवे पततामवष्टम्भहेतुत्वात्। अङ्गमेवयष्टि:। भुवनेषु त्रिषु प्रवृत्ता: प्रसृता:। जिनोत्तमानामर्हताम्। किमर्थं ता वन्दमान: प्राञ्जलिरस्मि भूतये। अर्हदादिविशिष्टपदप्राप्तये। अथवा उत्कृष्टपुरुषार्थवती विशिष्टा भूति:, विशिष्टेषु वरप्रदेशेषु भूति: प्रादुर्भावो यस्या: सकाशात् असौ विभूति:पुण्यप्राप्ति: तस्यै।।१२।।
अर्थ—कान्तिमण्डल से जिनके देह चमकते हैं, ऐसे तीर्थंकरों के उपमारहित जिनिंबब इस त्रैलोक्य में असंख्य हैं। मैं उन जिनेश्वरों के सर्व बिम्बों को दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करता हूँ। अरिहंत, सिद्ध आदि परमेष्ठियों की पदवी मुझे प्राप्त हो, ऐसी मेरी चाह है।।१२।।
विगतायुधविक्रियाविभूषा:, प्रकृतिस्था: कृतिनां जिनेश्वराणाम्।
प्रतिमा: प्रतिमागृहेषु कांत्या- प्रतिमा कल्मषशान्तयेऽभिवन्दे।।१३।।
विगतायुधेत्यादि। अभिवन्दे अभिमुखीभूय स्तुवे। का:? प्रतिमा: िंकविशिष्टा? अप्रतिमा अतुल्या:। कया? कान्त्या। क्व व्यवस्थिता:? प्रतिमागृहेषु चैत्यालयेषु। पुनरपि कथम्भूता:? विगतायुधविक्रियाविभूषा आयुधं प्रहरणं, विक्रिया विकार: विविधा विशिष्टा वा भूषा अलङ्कारो विगता एता यासु। इत्थम्भूताश्च ता: प्रकृतिस्था: स्वरूपस्था:। केषां प्रतिमा:? जिनेश्वराणाम्। िंकविशिष्टानाम्? कृतिनां कृतं पुण्यं शुभायुर्नामगोत्रलक्षणं विद्यते येषां ते कृतिनस्तेषाम्। किमर्थमभिवन्दे? कल्मषशान्तये कल्मषं पापं तस्य शान्तये विनाशाय।।१३।।
अर्थ—कृत—पुण्य अर्थात् शुभ आयु, शुभ नाम तथा शुभ गोत्रादि पुण्यप्रकृतियों का उदय जिनको हैं, ऐसे जिनेश्वरों की जिनप्रतिमाएँ जिनचैत्यालयों में हैं, उनकी अद्वितीय कान्ति हैं। जिनेश्वरों का जैसा रूप था, वैसा इन प्रतिमाओं का रूप है। ये प्रतिमाएँ शस्त्रास्त्रों से रहित हैं, भूषणों से रहित तथा निर्विकार सर्वाङ्ग में शान्ति को धारण करने वाली हैं। मेरा पाप नष्ट होने के लिए मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।।१३।।
कथयन्ति कषायमुक्तिलक्ष्मीं, परया शान्ततया भवान्तकानाम्।
प्रणमाम्यभिरूपमूर्तिमन्ति, प्रतिरूपाणि विशुद्धये जिनानाम्।।१४।।
कथयन्तीत्यादि। प्रणमामि कानि? प्रतिरूपाणि प्रतिबिम्बानि। कथम्भूतानि? अभिरूपर्मूित—मन्ति अभि समन्तात् रूपं यस्या: सा चासौ र्मूितश्च स्वरूपं विद्यते येषां ते। पुनरपि कथम्भूतानि? कथयन्ति शंसन्ति। कां? कषायमुक्तिलक्ष्मीम् कषायाणां मुक्तिरभावस्तस्या लक्ष्मी: सम्पत्ति:। तस्यां वा सत्यां लक्ष्मीरन्तरङ्गा बहिरङ्गा च विभूति:। कया? परया शान्ततया परमोपशान्त्या मूत्र्या। केषां प्रतिरूपाणि? जिनानाम्। किंविशिष्टानाम् ? भवान्तकानां भव:संसारस्तस्य अन्तका विनाशकास्तेषाम्। किमर्थं प्रणमामि? विशुद्धये कर्ममलप्रक्षालनाय।।१४।।
अर्थ—श्रीजिनेश्वरों की ये प्रतिमाएँ अत्यन्त सुन्दर हैं। अतिशय शान्त स्वरूपमयी होने से कषायों का नाश होने से प्राप्त होने वाली अन्तरंग अनंतज्ञानादि लक्ष्मी तथा बहिरंग समवसरणादि लक्ष्मी का वर्णन करती हुई—सी दिखती हैं। संसार का जिन्होंने नाश किया है, ऐसे जिनेश्वरों की इन प्रतिमाओं को मेरे कर्मरूपी मल का क्षालन होने के लिए मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ।।१४।।
यदिदं मम सिद्धभक्तिनीतं, सुकृतं दुष्कृतवत्र्मरोधि तेन।
पटुना जिनधर्म एव भक्ति- र्भवताज्जन्मनि जन्मनि स्थिरा मे।।१५।।
यदिदमित्यादिना स्तोता स्तुते: फलं प्रार्थयति। यत्सुकृतं पुण्यम्। सिद्धभक्तिनीतमिदम् सिद्धानां जगत्रये प्रसिद्धानामर्हत्प्रति बिम्बानां भक्तिस्तया नीतं प्रापितं उपढौकितं मम। कथम्भूतम्? दुष्कृतवत्र्मरोधि दुष्कृतं पापं तस्य वत्र्म मार्ग: अप्रशस्तमनोवाक्कायस्तद्रुणद्धीत्येवं शीलम्। तेन सुकृतेन। पटुना समर्थेन। भक्ति: स्थिरा अविचला। मे जिनधर्म एवं भवतात् भवतु। कदा? जन्मनि जन्मनि भवे भवे।।१५।।
स्तोता स्तुतिफलप्राप्ति की याचना करता है—
अर्थ—त्रैलोक्यप्रसिद्ध श्रीजिनेश्वरों की प्रतिमाओं की भक्ति करने से प्राप्त हुआ जो पुण्य, वह पाप के कारणरूप मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियों को रोकता है। यह मेरा समर्थ पुण्य प्रत्येक जन्म में जिनधर्म में दृढ़ भक्ति के लिए कारण होवे।।१५।।
चर्तुिणकायामरसम्बन्धित्वेन तिर्यग्लोकसम्बन्धित्वेन च जिनचैत्यस्तवनार्थमर्हतामित्याह—
अर्हतां सर्वभावानां, दर्शनज्ञानसम्पदाम्। कीर्तयिष्यामि चैत्यानि, यथाबुद्धि विशुद्धये।।१६।।
पथ्यावक्त्रच्छन्द:। कीर्तयिष्यामि स्तोष्ये। कानि? चैत्यानि। केषाम् ? अर्हताम् । किंविशिष्टानाम्? सर्वभावानां सर्वे नि:शेषा भावा: पदार्था विषया येषाम्। अथवा सर्व:परिपूर्णो भाव: चारित्रपरिणाम: परमोदासीनलक्षणो येषाम्। पुनरपि कथम्भूतानाम् ? दर्शनज्ञानसम्पदाम् दर्शनज्ञानयो: क्षायिकरूपयो: सम्पद्येषाम् । तयोर्वा सतो: सम्पत् समवसरणादिविभूतिर्येषाम्। कथं तानि कीर्तयिष्यामि? यथास्वबुद्धि स्वमतिविभवानतिक्रमेण। किमर्थम् ? विशुद्धये कर्ममलप्रक्षालनाय।।१६।।
चर्तुिणकाय देवों के विमानादिकों में तथा मनुष्यक्षेत्र में स्थित जिनिंबबों का स्तोता स्तवन करता है—
अर्थ—संपूर्ण पदार्थ जिनके ज्ञान में प्रतििंबबित हुए हैं अर्थात् ज्ञान के विषय हुए हैं अथवा सर्व—संपूर्ण—भाव—चारित्रपरिणाम जिनके हैं िंकवा उदासीनतालक्षण चारित्रपरिणाम को—यथाख्यातचारित्र को जिन्होंने धारण किया है, केवलदर्शन और केवलज्ञान गुणों से पूर्ण, समवसरणादि बाह्य ऐश्वर्य से शोभायमान, ऐसी अर्हत्प्रतिमाओं का मेरे कर्मों का क्षय होने के लिए बुद्धि के अनुसार मैं वर्णन करता हूँ।।१६।।
श्रीमद्भावनवासस्था:, स्वयंभासुरमूर्तय:। वन्दिता नो विधेयासु:, प्रतिमा: परमां गतिम्।।१७।।
श्रीमदित्यादि। विधेयासु: क्रियासु:। का:? प्रतिमा:। काम् ? परमांगिंत मुक्तिम् । नोऽस्माकम्। किंविशिष्टा:? वन्दिता: सत्य:। पुनरपि किंवशिष्टा: ? श्रीमद्भावनवासस्था: भवनेषु भवा भावना देवास्तेषां वासा:, श्रीमन्तश्च ते भावनवासाश्च तत्र तिष्ठन्ति ते तत्स्था:। स्वयंभासुरमूर्तय: स्वयं स्वभावेन भासुरा दीप्रा मूर्ति: स्वरूपं यासाम्।।
अर्थ—अतिशय शोभायमान जो भवनवासी देवों के स्थान हैं, उनमें स्वभावत: कान्तियुक्त र्मूितस्वरूप जिनेश्वरों के िंबब हैं। उन्हें हम वन्दन करते हैं, वे हमें मोक्ष प्रदान करें।।१७।।
यावन्ति सन्ति लोकेऽस्मिन्नकृतानि कृतानि च।
तानि सर्वाणि चैत्यानि, वन्दे भूयांसि भूतये।।१८।।
यावन्तीत्यादि। यावन्ति यत्परिमाणानि। सन्ति विद्यन्ते। लोकेऽस्मिन् तिर्यग्लोके। अकृतानि कृतानि च तानि च तानि। भूयांसि प्रचुरतराणि चैत्यानि सर्वाणि वन्दे। भूतये विभूत्यर्थम्।।१८।।
अर्थ—इस मध्यलोक में जितने अकृत्रिम और कृत्रिम जिनिंबब हैं, उन सब जिनिंबबों को मैं मोक्षप्राप्ति के लिए वंदन करता हूँ।।१८।।
ये व्यन्तरविमानेषु, स्थेयांस: प्रतिमागृहा:। ते च संख्यामतिक्रान्ता:, सन्तु नो दोषविच्छिदे।।१९।।
ये व्यन्तरेत्यादि। ये प्रतिमागृहा: प्रतिमाश्च गृहाश्च प्रतिमानां वा गृहा:। स्थेयांस: अतिशयेन स्थिरा: सर्वदावस्थायिन। क्व ? व्यन्तर विमानेषु व्यन्तरान्विशेषेण मानयन्तीति व्यन्तरविमानानि व्यन्तर निवासास्तेषु। ते च तेऽपि सङ्ख्यामतिक्रान्ता असङ्ख्याता:। सन्तु भवन्तु। नोऽस्माकम्। दोषशान्तये रागाद्युपररमाय।।१९।।
अर्थ—व्यन्तर देवों के जहाँ निवासस्थान हैं, वहाँ असंख्यात जिनमंदिर और जिनप्रतिमाएँ हैं, वे प्रतिमाएँ तथा जिनमंदिर हमारे दोषों का विनाश करें।।१९।।
ज्योतिषामथ लोकस्य, भूतयेऽद्भुतसम्पद:।
गृहा: स्वयंभुव: सन्ति, विमानेषु नमामि तान्।।२०।।
ज्योतिषामित्यादि। अथ व्यन्तरविमानसम्बन्धिप्रतिमागृहस्तवनानन्तरं ज्योतिषां लोकस्य सम्बन्धिषु विमानेषु ये गृहा: सन्ति। कस्य? स्वयम्भुवोऽर्हत:। कथम्भूता अद्भुतसम्पद: आश्चर्यावहा सम्पद्विभूतिर्येषाम्। नमामि तान्। किमर्थम् ? विभूतये विभूतिनिमित्तम्।।
अर्थ—ज्योतिषी देवों के विमानों में आश्चर्यचकित वैभव को धारण करने वाले जो स्वयंभू जिनेश्वर के मंदिर हैं, उन्हें मैं ज्ञानादिगुणसंपदा प्राप्त होने के अभिप्राय से वंदन करता हूँ।।२०।।
वन्दे सुरतिरीटाग्र – मणिच्छायाभिषेचनम् ।
याः क्रमेणैव सेवंते, तदर्चाः सिद्धिलब्धये।।२१।।
वन्दे इत्यादि। वन्दे का: ? तदच्र्चा: ताश्च ता वैमानिकदेवसम्बन्धिन्य: अर्चा: प्रतिमा: किं कुर्वन्ति? या: सेवन्ते िंक तत् ? सुरतिरीटाग्रमणिच्छायाभिषेचनम् सुरा वैमानिकदेवा इह गृह्यन्ते ततोऽन्येषां प्रोगेवोक्तत्वात्। तेषां तिरीटानि मुकुटानि तेषामग्राणि तत्र मणय:, यदि वा अग्रा: प्रधानभूता: ते च ते मणयश्च तेषां छाया दीप्त्य: ताभिरभिषेचनं स्नपनम् । कै: क्रमैरेव चरणैरेव सर्वदा तत्पादेषु प्रणत्तोत्तमाङ्गा इत्यर्थ:। किमर्थं वन्दे? सिद्धिलब्ध्ये मुक्तिप्राप्तये।।२१।।
अर्थ—स्वर्गवासी देव अपने मुकुटों के अग्रभाग में स्थित रत्नों की कान्ति से श्रीजिनेश्वरों की प्रतिमाओं के चरणों का अभिषेक करते हैं। उन जिनेश्वरप्रतिमाओं को मैं मोक्षप्राप्ति के लिए वंदन करता हूँ।।२१।।
इतीत्यादिना स्तोता स्तुते: फलं प्रार्थयते— इति स्तुतिपथातीत –
श्रीभृतामर्हतां मम। चैत्यानामस्तु संकीर्ति:, सर्वास्रवनिरोधिनी।।२२।।
इति इत्येवमुक्तप्रकारेण यासौ सङ्कीर्ति: सङ्कीर्तनं स्तुति:। केषां? चैत्यानाम् । केषां सम्बन्धिनां चैत्यानाम् ? अर्हताम् । किंविशिष्टानाम् ? स्तुतिपथातीतश्रीभृतां स्तुते: पन्था मार्ग: तमतीता सा चासौ श्रीश्च इन्द्रादिभिरपि या स्तोतुमशक्या अन्तरङ्गा बहिरङ्गा च श्री: तां विभ्रति ये तेषां सङ्र्कीित: मम सर्वास्रवनिरोधिनी अस्तु मुक्तिप्रदा भवत्वित्यर्थ:२।।
पुन: स्तोता स्तुति की फलयाचना करता है—
अर्थ—जिनकी अन्तरंगज्ञानादिगुणरूप सम्पत्ति तथा बहिरंग समवसरणादि विभूतिरूप दोनों विभवों का वर्णन करना इन्द्रादिकों से भी असंभव है, ऐसे जिनेश्वरों की प्रतिमाओं की जो मैंने स्तुति की है, वह मेरे पापपुण्यरूप आस्रवों का निरोध करने में कारण हो अर्थात् इस स्तुति से मुझे मोक्ष प्राप्त हो।।२२।।
स्कन्धच्छन्द:- अर्हन्महानदस्य, त्रिभुवनभव्यजनतीर्थयात्रिकदुरित-
प्रक्षालनैककारण-मतिलौकिककुहकतीर्थमुत्तमतीर्थम्।।२३।।
अर्हन्महानदस्येत्यादि। उत्तमतीर्थं दुरितं व्यपहरत्विति सम्बन्ध:। कस्य तीर्थं? अर्हन्महानदस्य महांश्चासौ। नदश्च महानद:। अर्हन्नेव महानदोऽर्हन्महानद: तस्य। पूर्वप्रवृत्तसरित्प्रवाहविपरीत—प्रवाहो हि नदो भवति। अर्हन्नपि पूर्वप्रवृत्तसंसारसरित्प्रवाहविपरीत—प्रवाहत्वान्नद इत्युच्यते। भगवता च नदेन तुल्योऽन्यो नदो न संभवति, ततो विशिष्टगुणोपेत्तत्वादिति महानद इत्युच्यते। तदैवास्य ततो विशिष्टगुणोपेतत्वं तत्तीर्थस्येतरतीर्थाद्विशिष्टत्व—प्रदर्शनद्वारेण दर्शयति। उत्तमतीर्थम्—तीर्यते संसारसरिद्येन तत्तीर्थम्। द्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वादिलक्षणं भगवतो मतम्। उत्तमं असाधारणं तच्च तत्तीर्थं च। कथमस्योत्तमत्वं इति चेत् अतिलौकिककुहकतीर्थं यत:। लोके भवं लौकिवंâ कुहकतीर्थम्। कुहकतीर्थं आश्चर्यप्रधानं दम्भप्रधानं च। अतिक्रान्तं लौकिककुहकतीर्थं येन। यत्तीर्थं भवति तत्तीर्थं यात्रिकाणां पृथिवीतलर्वितनां कतिपयानां किल दुरितस्य शरीरमलस्य च प्रक्षालनकारणं भवति। इदं त्वर्हन्महानदस्योत्तमतीर्थं त्रिभुवनर्वितनां भव्यजनानां तीर्थयात्रिकाणां दुरितस्य पापकर्मण: प्रक्षालने स्पेâटने एकमद्वितीयं कारणम्।।२३।।
अर्थ—पूर्वदिशा की तरफ बहने वाली नदी के प्रवाह के विरुद्ध जिसका प्रवाह बहता है, उसे नद कहते हैं अर्थात् नद का प्रवाह पूर्वदिशा में बहता नहीं, वह पश्चिमाभिमुख बहता है। यहाँ स्तुतिकार ने नद का रूपक देकर अर्हत्परमेष्ठी का वर्णन किया है और वह पूर्णतया उचित है। संसाररूप नदी के प्रवाह के विरुद्ध अर्हन्नदका प्रवाह है, वह मोक्षमार्ग की तरफ जाता है। यह अरहंतरूप नद छोटा नहीं है। इस अर्हन्नद के समान कोई नद नहीं है। अत: यह विशिष्टगुणयुक्त होने से महानद है। नद में तीर्थ होते हैं, इसमें भी द्वादशाङ्ग और चौदहपूर्व स्वरूपी श्रुतज्ञान तीर्थ है। द्वादशांग और चौदह पूर्वों का वर्णन करने वाला अर्हन्मत ही इसमें तीर्थ है। जिसमें संसाररूपी नदी पार की जाती है, उसे तीर्थ कहते हैं और द्वादशांग तथा चौदहपूर्वरूप तीर्थ से संसार नदी तिरकर जनता पार हो जाती है।।२३।।
ननु तीर्थ: प्रतिदिनं वहत्प्रवाहो भवति, स चात्र न भविष्यतीत्यत्राह— लोकालोकसुतत्त्व-
प्रत्यवबोधनसमर्थदिव्यज्ञान- प्रत्यहवहत्प्रवाहं, व्रतशीलामलविशालकूलद्वितयम्।।२४।।
लोकालोकेत्यादि—लोकश्च अलोकश्च तयो: शोभनं तत्त्वं स्वरूपं। शोभनानि च जीवादीनि तत्त्वानि तस्य तेषां वा प्रतिसमन्तात्प्रत्येवंâ वा अवबोधनं परिच्छित्ति: तत्र समर्थानि दिव्यज्ञानानि च केवलज्ञानानि, मत्यादिसम्यग्ज्ञानानि वा, तान्येव प्रत्यहं प्रतिदिनं वहत्प्रवाहो यत्र। तर्हि कूलद्वयं तीर्थे भवति तदत्र न भविष्यतीत्याह-व्रतशीलामलविशालवूâलद्वितयम्—व्रतानि पञ्च, शीलानि अष्टादशसहस्रसङ्ख्यानि। तान्येव अमलं निर्दोषं, विशालं विस्तीर्ण कूंलद्वितयं तटद्वयं यस्य।।२४।।
अन्यमतियों के माने हुये तीर्थ में स्नान करने से केवल शरीर का मल नष्ट होगा; परन्तु अरहंतरूपमहानद के तीर्थ में स्नान करने से पापरूपमल नष्ट होता है और आत्मा में पवित्रता आती है। अत: यह तीर्थ दांभिक लोगों के तीर्थ से अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा असामान्य है। त्रैलोक्य के तीर्थयात्रा करने वाले सर्वभव्यों के पातक नष्ट करने में समर्थ होने से सर्वलौकिक—अन्यमतीय—तीर्थ इसका साम्य कदापि नहीं कर सकते हैं। तीर्थ में से नित्य पानी बहता है, परन्तु यह अर्हन्महानदतीर्थ इस प्रकार का न होगा, इस शंका का निरसन स्तुतिकार करते हैं—
अर्थ—लौकिक—अन्यमतीयतीर्थ में से जलप्रवाह बहता हुआ देखा जाता है; परन्तु अर्हन्महानद के तीर्थ में से लोक तथा अलोक के स्वरूप जानने में समर्थ दिव्यज्ञानरूपी जल का प्रवाह सतत बहता है। मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवलज्ञानरूपी जलप्रवाह सतत बहता है। इस अरिहंतरूपी तीर्थ के पंचव्रतसमूह और अट्ठारह हजार शीलरूपी दो सुंदर और स्वच्छ किनारे हैं। तात्पर्य—तीर्थ में जलप्रवाह बहता है। यहाँ भी जीवादि पदार्थों को जानने वाला ज्ञानरूपी जल प्रवाह है। तीर्थ को दो किनारों से शोभा आती है। अरिहंत के तीर्थ को व्रत और शील ये दो तट हैं। अत: अर्हत् तीर्थ सुन्दर दिखाई देता है। यही साम्य इन दो तीर्थों में हैं।।२४।।
ननु तीर्थं राजहंसैर्मनोज्ञघोषेण, सिकतासमूहेन च शोभां विभर्ति न चेदं तथा भविष्यतीत्याह—
शुक्लध्यानस्तिमित-स्थितराजद्राजहंसराजितमसकृत्।
स्वाध्यायमन्द्रघोषं, नानागुणसमितिगुप्तिसिकतासुभगम्।।२५।।
शुक्लध्यानेत्यादि—शुक्लध्यानान्येव स्तिमितं स्थिरं यथाभवत्येवं स्थिता राजन्त: शोभमाना राजहंसा गणधरदेवादयस्तैराजितं शोभितम्। असकृत् सर्वदा। स्वाध्यायमन्द्रघोषं शोभनो लाभपूजाख्यातिर्विजत: आध्याय: पाठ: स्वाध्याय: स एव मन्द्रो मनोज्ञो घोषो नादो यत्र। नानागुणाश्चतुरशीतिलक्षगुणास्ते च समितयश्च पञ्च, गुप्तयश्च तिस्र: ता एव सिकतास्ताभि: सुभगं मनोज्ञम्।।२५।।
तीर्थ के दो किनारे राजहंस पक्षियों से, मधुर शब्दों से तथा बारीक बालुका समूह से सुन्दर दिखते हैं। ऐसी शोभा इस अर्हन् तीर्थ में नहीं होगी, इस शंका का निरसन स्तुतिकार आगे के श्लोक में करते हैं।
अर्थ—इस अरहंतरूपी महानद—तीर्थ के दो तट शुक्लध्यानरूपी स्थिर तथा सुन्दर राजहंसों से अतिशय शोभा को प्राप्त हुए हैं। लाभ, आदर, सत्कार तथा ख्याति का उद्देश्य जिनके मन में नहीं है और जो आत्म—कल्याण का हेतु केवल धारण करके स्वाध्याय करते हैं, ऐसे मुनियों के मधुर शब्दों से इस तीर्थ के किनारे शोभा को प्राप्त हुए हैं। चौरासी लाख उत्तरगुण, पांच समिति, तीन गुप्तिरूपी सिकतासमूह के प्रदेश से इस तीर्थ के किनारे सुन्दर दिखते हैं।
अथोच्यते तीर्थमावर्तपुष्पितलतातरङ्गोपेतं भवति तदुपेतत्वं चात्र न भविष्यतीत्यत्राह—
क्षान्त्यावर्तसहस्रं, सर्वदया विकचकुसुमविलसल्लतिकम्।
दुःसहपरीषहाख्य – द्रुततररंगत्तरंगभंगुरनिकरम्।।२६।।
क्षान्त्यावर्तेत्यादि—क्षान्तय: क्षमा: सहिष्णुतास्ता एव आवर्त—सहस्राणि यत्र। सर्वदया—विकचकुसुमविलसल्लतिकम्—सर्वेषु प्राणिषु दया सर्वदया सैव विकचकुसुमविल—सल्लतिका यत्र विकचानि विकसितानि च तानि कुसुमानि च तैर्विलसन्त्यश्च ता लतिकाश्च। दुस्सहपरीषहाख्यद्रुततररङ्गत्तरङ्गभङ्गुरनिकरम्—दु:खेन महता कष्टेन सह्यन्ते इति दु:सहा: ते च ते परीषहाख्याश्च परीषह इत्याख्या सज्ज्ञा येषां क्षुत्पिपासादीनां त एव द्रुततरा: शीघ्रतरा: रङ्गत्तरङ्गा रङ्गन्तस्तिर्यक् सरन्तस्ते च ते तरङ्गाश्च तेषां भङ्गुरो निकर: सङ्घातो यत्र।।२६।।
तीर्थ में भ्रम, पुष्पलता और तरंग होने से उसकी शोभा बढ़ती है। परन्तु अरिहंत के तीर्थ में इनका अभाव होगा, ऐसी शंका का परिहार—
अर्थ—यह अर्हत्तीर्थ क्षमारूपी सहस्रों भंवरों से युक्त हैं। सर्वप्राणियों पर दयारूपी पुष्पलतायें इस तीर्थ में हैं और ये पुष्पलताएँ विकसित पुष्पों से सुन्दर दिखती हैं। तथा जिनको सहन करना कठिन है, ऐसी क्षुधादि परिषहरूपी तरङ्गें बार-बार यहाँ उत्पन्न होती हैं तथा नष्ट होती हैं, ऐसा यह तीर्थ है।।२६।।
ननु फेनशैवलकर्दममकरविर्विजतं तीर्थं भवति सेव्यमिदं च तद्विर्विजतं न भविष्यतीत्याह—
व्यपगतकषायपेâनं, रागद्वेषादिदोष-शैवलरहितम्।
अत्यस्तमोहकर्दम-मतिदूरनिरस्तमरणमकरप्रकरम्।।२७।।
व्यपगतेत्यादि—व्यपगतकषायफेंनम्—कषाया एव फेंन: स्वच्छात्मस्वरूपस्य कालुष्य—हेतुत्वात्। विशेषेण अपगतो नष्ट: स यत्र यस्माद्वा। रागद्वेषादिदोषशैवलरहितम्। रागद्वेषौ आदिर्येषां मोहादीनां ते च ते दोषाश्च त एव शैवलो व्रतिनां पातनहेतुत्वात् । स्वच्छात्मस्वरूप—जलस्य कालुष्यकारणत्वाच्च, तै रहितम्। अत्यस्तमोहकर्दमम् अत्यस्तो मोह एव कर्दम: स्वपरपरिच्छेदकस्य जीवस्वरूपस्वच्छजलस्य व्यामोहलक्षणकालुष्य—कारणत्वात्। अत्यस्तो मोहकर्दमो येन स अत्यस्तमोहकर्दम:। अतिदूरनिरस्तमरणमकरप्रकरम् मकराणां प्रकरोऽविच्छिन्नसन्ततिविशेषो मरणान्येव मकरप्रकर: शरीराद्यपायहेतुत्वात् अतिदूरं निरस्तो निक्षिप्तो मरणमकरप्रकारो निर्वाणप्राप्तिहेतुत्वात् येन तत्तथोक्तम्।।२७।।
फेन, शैवाल, कीचड़ तथा मगरादि जलचरों का लौकिक तीर्थ में अभाव है। परन्तु उपर्युक्त पदार्थ अर्हत्तीर्थ में है या नहीं, इस प्रकार की शंका का समाधान— अर्थ—इस अर्हत्तीर्थ में कषायरूपी पेâन नहीं है। कारण यह कषायपेâन आत्मा के निर्मलस्वरूप में निर्मलता नहीं रहने देता। अत: यह अर्हत्तीर्थ कषायपेâन से रहित है। राग, द्वेष, लोभ, मोहादिक दोष रूपी शैवाल—काई भी इस अर्हत्तीर्थ में नहीं है। वह यदि होती तो यहाँ स्नान करने के लिये आने वाले मनुष्यों के चरण फिसल कर गिर जायेंगे। पानी में जब काई उत्पन्न होती है, तब उसकी स्वच्छता नष्ट होती है और वह कलुषित होता है। इस अर्हत्तीर्थ में रागद्वेषादिरूप काई यदि होती तो व्रती—लोगों का आत्मस्वरूप से पतन होता और आत्मस्वरूप का जल रागद्वेषादिरूप काई से बिगड़ जाता। इस अर्हत्तीर्थ में मोहरूपी कीचड़ नहीं है। यदि वह इसमें होता तो आत्मारूपी पानी गंदा हो जाता। पानी में जब कीचड़ प्रगट होती है, तब उसकी स्वच्छता रहती नहीं तथा उसमें स्थित पदार्थ भी स्पष्टता से दृग्गोचर नहीं होते। आत्मस्वरूप के जल में मोह की कीचड जब तक पैदा नहीं होती, तब तक वह स्वच्छ रहता है। तथा उसमें जो पदार्थ होते हैं वे भी स्वच्छ दिखते हैं। अर्थात् मोहरहित आत्मा स्वस्वरूप तथा परस्वरूप अच्छी तरह देखता है। मोह के सद्भाव में वह स्वपरवस्तु स्वरूप देखने में असमर्थ होता है। यह अर्हत्तीर्थ जन्म—मरणरूपी मगरमच्छादि जलचरों से रहित ही है, जिनके अभाव में यह अर्हत्तीर्थ मोक्षप्राप्ति कराने में साधनभूत हुआ है।।२७।।
अथोच्यते तीर्थमनेकप्रकारपक्षिशब्दपुलिनजलावरोधजलनिर्गमधर्मैरुपेतां शोभां बिर्भित, इदं तु तथा न भविष्यतीत्यत्राह—
ऋषिवृषभस्तुतिमन्द्रोद्रे-कितनिर्घोष-विविधविहगध्वानम्।
विविधतपोनिधिपुलिनं, सास्रवसंवरनिर्जरानिःस्रवणं।।२८।।
ऋषिवृषभेत्यादि—ऋषीणां वृभषा गणधरदेवादय:, स्तुतिस्वरूपाणि मनोज्ञानि उद्रेकितानि उत्कटशब्दितानि तानि च निर्घोषाश्च शास्त्रपाठा: स्तुतिमन्द्रोद्रेकितनिर्घोषा:, ऋषिवृषभाणां स्तुतिमन्द्रोदे्रकित—निर्घोषास्त एवं विविधा नानाप्रकारा विहगध्वाना: पक्षिशब्दा यत्र। विविधतपोनिधिपुलिनम् विविधानि बहुप्रकाराणि तपांसि निधीयन्ते येषु ते विविधतपोनिधयो मुनिवरास्त एव पुलिनं संसारसरित्प्रवाहे प्रवहतां तदुत्तरणस्थानं यत्र। सास्रवसंवरण—निर्जरानि:स्रवणम् आस्रवणमास्रव: कर्मणामागमनम् , तस्य संवरणं निवारणं यथा प्रविशतो जलस्यावरोध इति। निर्जरा उपात्तकर्मणां निर्जरणं सैव नि:स्रवणं यथा उपात्तजलस्य निर्गम इति। आस्रवसंवरणं च निर्जरानिस्रवणं च ताभ्यां सह वर्तते इति सास्रवसंवरण—निर्जरानि:स्रवणम्।।२८।।
लौकिकतीर्थ अनेक पक्षियों के शब्दों से शब्दमय होता है; वह बालुकामय प्रदेश, जलसंचय तथा जल निकलने के द्वार से युक्त होता है। परन्तु अर्हत्तीर्थ वैसा नहीं होता, इस शंका का उत्तर आचार्य देते हैं—
अर्थ—यह अर्हत्तीर्थ गणधरादि श्रेष्ठ मुनियों की मधुर स्तुति, तथा शास्त्रपठनरूप नाना पक्षियों के शब्दों से युक्त हैं। अन्यमतियों के तीर्थों पर नानाविध पक्षियों की ध्वनि सुनी जाती हैं। अर्हत्तीर्थ में स्तुति तथा शास्त्र पठन के शब्द सुने जाते हैं। यदि नदी में बहते हुए मनुष्य को बालुका प्रदेश नदी से उत्तीर्ण होने का स्थान है, वैसे अर्हत्तीर्थ में अनेक प्रकार के अनशन, अवमोदर्य आदि तपश्चरण करने वाले मुनिजन ही बालुका प्रदेशस्वरूप हैं और वे संसार—नदी के प्रवाह में बहते मनुष्य को पार लगाने के लिए बालुका प्रदेश के समान हैं। जैसे दूसरे तीर्थों में पानी अधिक नहीं आवे, इसलिए उसको प्रतिबंध करते हैं तथा अधिक पानी आ गया तो उसे निकालने की भी व्यवस्था की जाती है। वैसे अर्हत्तीर्थ भी कर्मों को जीव में आने में प्रतिबन्ध करता है और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है। अर्थात् पूर्वबद्ध कर्मों को वह आत्मा में से निकाल देता है। इस प्रकार इस अर्हत्तीर्थ का अन्यतीर्थों के साथ विलक्षण सादृश्य होने पर भी सर्व तीर्थों की अपेक्षा से यह अत्यन्त श्रेष्ठ है और यही प्राणिमात्रों का नि:संशय कल्याण करने वाला है।
गणधरचक्रधरेन्द्र- प्रभृतिमहाभव्यपुंडरीकै:पुरुषै:, बहुभि:
स्नातं भक्त्या, कलिकलुषमलापकर्षणार्थममेयम्।।२९।।
गणधरेत्यादि तदित्थम्भूतं तीर्थं पुरुषैर्बहुभि: स्नातं स्नान्त्यस्मिन्निति स्नातं स्नानस्थानम्। किंविशिष्टैस्तै:? गणधरचक्रधरेन्द्र-प्रभृतिमहाभव्यपुण्डरीकै: गणधराश्च चक्रधराश्च इन्द्राश्च ते प्रभृतय आद्या येषां ते च ते महान्तश्च ते भव्यपुण्डरीकाश्च भव्यानां प्रधाना: यदि वा महाभव्याश्च ते पुण्डरीकाश्चेति विग्रहस्तै:। कया स्नातं? भक्त्या । किमर्थं? कलिकलुषमलापकर्षणार्थम्। कलौ दुष्षमकाले कलुषं कर्म यदुर्पािजतं तदेव मलं आत्मस्वरूपप्रच्छादकत्वात्तस्यापकर्षणार्थं स्फेटनार्थम् अमेयं महत्।।२९।।
अर्थ—भव्यों में अतिशय श्रेष्ठ ऐसे गणधर, चक्रधर, देवेन्द्र आदि बहुत पुरुषपुंगव जन्म जन्म में संचित किये कर्मरूपीमल का नाश करने के लिये इस महान् अर्हत्तीर्थ में भक्ति में स्नान करते हैं।
अवतीर्णवत: स्नातुं, ममापि दुस्तरसमस्तदुरितं दूरं।
व्यपहरतु परमपावन-मनन्यजय्यस्वभावभावगभीरं।।३०।।
तत्तीर्थं ममापि दुस्तरसमस्तदुरितं दुस्तरमनवगात्ह्यपारं (गाह्यपारं) तच्च तत् समस्तं च निरवशेषं दुरितं कर्म, दूरमपुनरावृत्तं यथा भवत्येवं। व्यपहरतु विशेषेण निर्मूलतोऽपहरतु स्फेटयतु। किंविशिष्टस्य मम? अवतीर्णवत: तीर्थे अनुप्रविष्टस्य। किमर्थम् ? स्नातुं कर्ममलं प्रक्षालयितुम् । किंविशिष्टं तीर्थम् ? परमपावनं परमं सर्वाधिनायकत्वात्। पावनं सर्वदोषापहारकत्वात्। अनन्यजय्यस्वभाव-भावगभीरम्—अन्यै: परवादिभि: जेतुं शक्या अन्यजय्या न अन्यजय्या अनन्यजय्या: स्वभावा: स्वरूपाणि येषां ते च ते भावाश्च जीवादय: तै: गभीरमगाधम्।।३०।।
अर्थ—यह अर्हत्तीर्थ सर्व तीर्थों में श्रेष्ठ है तथा सर्वदोषों को नष्ट करता है। परवादीगण जिनका खण्डन नहीं कर सकते ऐसे अनेकान्तजीवादि पदार्थों से यह तीर्थ अतिशय गंभीर है। अर्थात् जीवादि पदार्थों का स्वभाव—वर्णन इस अर्हत्तीर्थ में ही निर्दोष लिखा हुआ दिखेगा। वह अन्यत्र नहीं दिखेगा। ऐसे इस पवित्र अर्हत्तीर्थ में स्नान के लिए उतरे हुए मेरे अनंत पातक नष्ट होवे।।३०।।
पृथ्वी छंद अताम्रनयनोत्पलं, सकलकोपवह्नेर्जयात् , कटाक्षशरमोक्षहीन – मविकारतोद्रेकतः।।
विषादमदहानित:, प्रहसितायमानं सदा, मुखं कथयतीव ते, हृदयशुद्धिमात्यन्तिकीम्।।३१।।
अताम्रेत्याह—जिनेन्द्र तव रूपं पुनात्विति सम्बन्ध:। यत्र रूपे मुखं कथयतीव प्रकटयतीव। ते तव हृदयशुद्धिं हृदयं चित्तं ज्ञानमित्यर्थ: तस्य शुद्धिं निर्मलतां प्रतिबन्धकहािंन िंकविशिष्टां? आत्यन्तिकीम्—अन्तमतिक्रान्त: काल: अत्यन्त: तस्मिन्भवाम्। क्षायिकत्वे हि तद्विशुद्धेर्न कदाचिदन्तो भवतीति। कथम्भूतं मुखम् ? अताम्रनयनोत्पलम्—ईषत्ताम्रे अताम्रे ते च ते नयने च त एव उत्पले यत्र, उत्पल—शब्देनात्र उत्पलपत्रे गृत्द्येते समुदायेषु हि वृत्ता: शब्दा अवयवेषु अपि वर्तन्ते इत्यभिधानात्। कोपावेशात्ते ताम्रे भविष्यत इत्यत्राह—सकल कोपवह्नेर्जयात् सकलो अनन्तानुबन्ध्यादिभेदभिन्न: स चासौ कोप एव वहिन: सन्तापहेतुत्वात् तस्य जयात् क्षयकरणात्। पुनरपि कथम्भूतम् ? कटाक्षशरमोक्षहीनम्—कामोद्रेकादिष्टे प्राणिनि तिर्यग्दृष्टिपात: कटाक्ष: स एव शरो मर्मवेधित्वात् तस्य मोक्षो मोचनं तेन हीनं कुत:? अविकारतोद्रेकत: अविकारता वीतरागता तस्या उद्रेकत: परमप्रकर्षं प्राप्तत्वात् । पुनरपि िंकविशिष्टम्—प्रहसितायमानं सदा प्रहसितमिव आत्मानं आचरति इति प्रहसितायमानं सदा सर्वकालम्। कुत:? विषादमदहानित: विषादान्मदाच्च कदाचिदप्रसन्नता मुखे भवति तु तयोरत्यन्तप्रक्षयतस्तन्मुखस्य सर्वदा प्रसन्नतोपपत्ते: प्रहसितायमानं सदेत्युच्यते।।३१।।
अब यहाँ से पाँच श्लोकों में जिनेश्वर के रूप का ग्रंथकार वर्णन करते हैं—
अर्थ—हे जिनेश ! आपके कमलदलतुल्य तथा िंकचित् ताम्रनेत्र अतिशय मनोहर दिखते हैं। ये आपके क्रोध से ताम्र हुए होंगे ऐसा किसी के मन में प्रतिभास हो सकेगा। परन्तु वह प्रतिभास बिल्कुल अनुचित है; क्योंकि आपने अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संज्वलनरूप चार प्रकार के क्रोधरूप अग्नि का आपने नाश किया है। अत: क्रोध से आपके नेत्र लाल नहीं हुए हैं, ऐसा सिद्ध हो गया। अर्थात् आपके नेत्र नैसर्गिकता से ही िंकचित् लाल हैं। हे प्रभो, आप कटाक्षरूप बाण से रहित हैं, क्योंकि आपमें राग—भाव बिलकुल नहीं है। आप में वीतरागता पूर्णतया प्रगट हुई है। राग और काम का उद्रेक होने से मनुष्य अपनी प्रियतमा को तिरछी नजर से देखता है। आपमें सराग भाव नहीं है, खेद और उन्मत्तपना उत्पन्न होने से मुख पर प्रसन्नता का भाव लुप्त होता है। परन्तु आप में ये दोनों भाव नहीं है। अत: आपका मुख सदैव प्रसन्न ही रहता है। विषाद और मद का आपने पूर्णनाश किया है अत: उनका लेश भी आपमें नहीं रहा है। अत: आपका मुख कभी भी अप्रसन्न नहीं रहता है। आपका अत्यन्त प्रसन्न मुख, आपका अन्त:करण पूर्ण निर्मल हुआ है ऐसी सूचना करता है। तथा आपका ज्ञान पूर्ण दशा को प्राप्त हुआ है इसकी भी सूचना देता है।।३१।।
निराभरणभासुरं, विगतरागवेगोदया- न्निरंबरमनोहरं, प्रकृतिरूपनिर्दोषत:।
निरायुधसुनिर्भयं, विगतहिंस्यिंहसाक्रमात् निरामिषसुतृप्तिमद्विविधवेदनानां क्षयात्।।३२।।
पुनरपि कथम्भूतं रूपम्? निराभरणभासुरं आभरणेभ्यो निष्क्रान्तं निराभरणं। तच्च तद्भासुरं च भासनशीलं परमशोभासमन्वितम्। आभरणशोभामपि कुतस्तन्न करोति चेत् विगतरागवेगोदयात् रागस्य वेग आवेशस्तस्योदयो विशेषेण गतो नष्ट: स चासौ रागवेगोदयश्च त स्मान्निरम्बरमनोहरम्। अंबरेभ्यो वस्त्रेभ्यो नि:क्रान्तं निरम्बरं तच्च तन्मनोहरं च मनोज्ञम्। कस्मात्तदम्बराण्यपि नादत्ते इत्याह प्रकृतिरूप—निर्दोषत:। प्रकृतिरूपं सहजरूपं तत्र निर्दोषतो रागादिदोषासम्भवात् अनेन विशेषणद्वयेन श्वेतपटा भगवत: कुण्डलाद्याभरणं देवाङ्गवस्त्रादि परिधानं च परिकल्पयन्त: प्रत्युक्ता:। ननु निर्दोषत्वेऽपि लज्जाप्रच्छादनार्थं वस्त्रग्रहणं भगवतो न विरुद्धमित्यप्यनुपपन्नम् । लज्जाया एव दोषत्वात् । प्रक्षीणमोहे भगवति मोहविशेषात्मिकाया लज्जाया असम्भवाच्च। पुनरपि कथम्भूतं निरायुधसुनिर्भयम् आयुधं प्रहरणं तस्मान्निष्क्रान्तं तद्वा निष्क्रान्तं यस्मात् तन्निरायुधं इत्थम्भूतमपि सुनिर्भयम् । भयान्निष्क्रान्तं भयं वा निष्क्रान्तं यस्मात् निर्भयं सुष्ठु निर्भयं सुनिर्भयं। कुत: विगतिंहस्यिंहसाक्रमात्। हिंस्यश्च िंहसा च तयो: क्रमोऽनुपरिपाटी। विशेषेण गतो नष्ट: स चासौ िंहस्यिंहसाक्रमश्च वध्यवधकक्रम:। यदि हि भगवता कस्यचित् िंहस्यस्य िंहसा विधीयते तदा तेनापि भगवत: सा विधीयते इति िंहस्यिंहसाक्रम: स्यात् । न च भगवता कस्यचित्सा विधीयते परमकारुणिकत्वात्। पुनरपि िंकविशिष्टं तव रूपम् ? निरामिषसुतृप्तिमत् आमिषादाहारात् निष्क्रान्तं निरामिषम्। तदित्थम्भूतमपि सुतृप्तिमत् शोभना इतरप्राणितृप्तिभ्यो विलक्षणा कवलाहाररहिता तृप्ति: सुतृप्ति: सा विद्यते यत्र तत्तद्वत् । कुत: विविधवेदनानां क्षयात् विविधा नानाप्रकारा: क्षुत्पिपासादिजनिता वेदना: पीडा: तासां क्षयादभावात्।।३२।।
अर्थ—श्रीजिनेश्वर का रूप आभूषणों के बिना ही अत्यन्त सुन्दर दिखता है। श्री जिनेश्वर अपना देह अलंकारों से क्यों नहीं सजाते, इस प्रश्न का उत्तर यह है—उन्होंने रागभाव का मूलत: नाश किया है। मन में जब रागभाव उत्पन्न होता तब मानव अपना शरीर अलंकारों से भूषित करता है तथा अपने पास सुन्दर पदार्थ रखने की इच्छा उसे होती है। परन्तु जिन्होंने रागभाव का विनाश किया हैं उनके मन में ऐसे विचार कभी भी उत्पन्न नहीं होते। जिनेश्वर का स्वरूप वस्त्र के अभाव में भी अतिशय मनोहर दिखता है। उनको वस्त्रों की आवश्यकता ही नहीं थी। वे रागादि दोषों से रहित थे। अत: अपना शरीर कपड़ों से सजाने के स्वप्न में भी कभी उनको इच्छा नहीं थी। श्वेताम्बरजन भगवान जिनेश्वर को कुण्डल हार आदि आभरणों से तथा रेशमी वस्त्रों से सजाते हैं। परन्तु यह उनका सजाने का कार्य अनुचित है। ये उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध होता है। कदाचित् निर्दोष होते हुए भी भगवान् लज्जा से अपने अंग पर वस्त्र धारण करते हैं ऐसा कथन भी योग्य नहीं हैं। क्योंकि लज्जा भी दोष ही है। जिनेश्वर ने मोहकर्म का पूर्ण नाश किया है और लज्जा भी मोहकर्म का ही एक भेद है। अर्थात् वह भी मोह के नाश से ही नष्ट हो गई है। इसलिये लज्जा से जिनेश्वर वस्त्र धारण करते हैं, यह कहना भी योग्य नहीं है। जिनेश्वर ने अपने पास एक भी शस्त्र नहीं रखा है। अतएव वे निर्भय हैं। इसका कारण यह है कि वे किसी का भी घात नहीं करते हैं। यदि किसी का घात किया होता तो वह भी जिनेश्वर का घात करता। जिनेश्वर अतिशय दयालु होने से अपने पास शस्त्र रखने की उनको आवश्यकता ही नहीं है। तथा जिनेश्वर आहार भी ग्रहण नहीं करते हैं। तो भी उनको जो तृप्ति होती है वैसी अन्य को नहीं होती। उनको ऐसी लोकोत्तर तृप्ति होने का कारण यह है कि उन्होंने भूख, तृष्णा आदि दु:खों का पूर्ण विनाश किया है।।३२।।
मितस्थितनखांगजं, गतरजोमलस्पर्शनं नवांबुरुहचन्दन – प्रतिमदिव्यगन्धोदयम् ।
रवीन्दुकुलिशादि – दिव्यबहुलक्षणालंकृतं दिवाकरसहस्रभासुर – मपीक्षणानां प्रियम्।।३३।।
मितस्थितेत्यादि—अङ्गं शरीरं तत्र जाता अङ्गजा: केशा:। मिता: परिमिता: वृद्धिरहिता: स्थिता नखा अङ्गजाश्च यत्र। यत्समये हि केवलज्ञानमुत्पन्नं भगवतस्तत्समये यावत्परिमाणा नखा: केशाश्च अग्रेऽपि तत्परिमाणा एव तिष्ठन्ति। न पुनर्वद्र्धन्ते। गतरजोमलस्पर्शनम् । रज: पांसु: तदेव मलं तेन स्पर्शनं सम्बन्धो गतं नष्टं रजोमलस्पर्शनं यत्र। नवाम्बुरुहचन्दनप्रतिम—दिव्यगन्धोदयम्—नवं प्रत्यग्र विकसितं तच्च तदम्बुरुहं च, अम्बु पानीयं तत्र रोहति। प्रादुर्भवति इत्यम्बुरुहं कमलं तच्च चन्दनं च ताभ्यां प्रतिम: सदृश: दिव्यो अन्यजन्यशरीरासम्भवी यो गन्धस्तस्योदय: प्रादुर्भावो यत्र। रवीन्दुकुलिशादिपुण्यबहुलक्षणा—लङ्कृतम्—रविरादित्य इन्दुश्चन्द्र: कुलिशं वङ्कामेतान्यादिर्येषां तानि च तानि पुण्यानि च प्रशस्तानि च बहूनि च अष्टोत्तरशतसङ्ख्यानि लक्षणानि च तैरलङ्कृतं भूषितम्। दिवाकरसहस्रभासुरमपीक्षणानां प्रियम्—दिवाकराणां सहस्रं, तद्वद्भासुरमपि दीप्रमपि ईक्षणानां लोचनानां प्रियं वल्लभम्।।३३।।
अर्थ—जिनेश्वर को जब केवलज्ञान उत्पन्न होता है, तब उनके नख और केश जितने थे उतने ही वे रहते हैं ; उनकी वृद्धि आगे अधिक होती ही नहीं। इसका कारण यह है कि केवली भगवंत का शरीर परमौदारिक सप्तधातु रहित होता है। इसलिये नखों तथा केशों की बाढ़ होती नहीं। जिनेन्द्र के शरीर को धूली का स्पर्श होता ही नहीं। उनका शरीर दर्पणतुल्य निर्मल होता है। सद्य: विकसित कमल तथा नव चन्दन के समान उनके अंग का दिव्यगंध प्रकट होता है। किसी भी मनुष्य का शरीर प्रभु के शरीर समान सुगन्धित नहीं होता है। सूर्य, चन्द्र, वङ्का आदिक दिव्य और उत्तम १००८ शुभ लक्षणों से प्रभु का देह अलङ्कृत होता है। तथा सहस्रों सूर्यों से भी अधिक दैदीप्यमान होकर भी प्रभु का देह लोगों के लोचनों को प्रिय आल्हादित करने वाला होता है।।३३।।
हितार्थपरिपंथिभि: प्रबलरागमोहादिभि:। कलंकितमना जनो, यदभिवीक्ष्य शोशुद्ध्यते।।
सदाभिमुखमेव यज्जगति पश्यतां सर्वत:। शरद्विमलचन्द्रमंडल – मिवोत्थितं दृश्यते।।३४।।
हितायेत्यादि—यद्रूपं अभि अभिमुखं समन्ताद्वा वीक्ष्य विलोक्य, शोशुध्यते अतिशयेन शुद्धो भवति। कोऽसौ ? जन:। कथम्भूत:? कलज्र्तिमना: कलज्र्तिं मलिनीकृतं मनो यस्य। वैâ: ? प्रबलरागमोहादिभि: प्रकृष्टं बलं सामथ्र्य येषां ते प्रबला रागश्च मोहश्च तौ आदिर्येषां द्वेषादीनां, प्रबलाश्च ते रागमोहादयश्च तै:। कथम्भूतै:? हितार्थपरिपन्थिभि: हितश्चासौ अर्थश्च मोक्षस्तस्य परिपन्थिनोऽपहारिणश्चौरा इत्यर्थ: तै:। सदाभिमुखमेव यज्जगति पश्यतां सर्वत:सदा सर्वदा अभिमुखं एव सम्मुखेव कथं ? सर्वत: सर्वासु दिक्षु यद्रूपं दृश्यते। केषां ? पश्यताम्। क्व? जगति। किमिव ? शरद्विमलचन्द्रमण्डलमिव शरदि शरत्काले विमलं विनष्टं घनपटलकलङ्वंâ तच्च तच्चन्द्रमण्डलं च चन्द्रबिम्बं तदिव उत्त्थितं उदितम्।।३४।।
अर्थ-जीवों का कल्याण मोक्षप्राप्ति से होता है परन्तु उसकी प्राप्ति को न होने देने वाले मोहादिक शत्रु—मनोाqवकार बहुत शक्तिशाली हैं। उनसे मलिन मन वाले लोग प्रभु का दर्शन करके अतिशय शुद्ध हो जाते हैं। जो जीव इस जगत में सदा प्रभु का मुख देखते हैं। उनको वह प्रभु का मुख शरद् ऋतु के उदितनिर्मल पूर्ण चन्द्र मण्डल के समान दिखता है।।३४।।
तदेतदमरेश्वर – प्रचलमौलिमालामणि- स्फूरत्किरणचुम्बनीय – चरणारविन्दद्वयम्।
पुनातु भगवज्जिनेन्द्र! तव रूपमन्धीकृतं। जगत् सकलमन्यतीर्थगुरुरूपदोषोदयै:।।३५।।
तदेतदित्याह—तद्रूपमेतद्व्यार्विणतप्रकारम् । अमराणामीश्वरा इन्द्रा: यदि वा अमरा देवा ईश्वरा देवेन्द्रधरणेन्द्र—नरेन्द्रा: तेषां प्रचला पुन: पुन: प्रणामपरा: ते च ते मौलयश्च तेषां माला पङ्क्ति तत्र मणय: तेषां स्पुâरन्तो दीप्रास्ते च ते किरणाश्च रश्मय: तैश्चुम्बनीयमाश्लेषणीयं चरणारविन्दे कमले तयो: द्वयं। पुनातु पवित्रीकरोतु। तव रूपं हि जिनेन्द्रभगवन् केवलज्ञान—सम्पन्न, यदि वा पूज्य। िंक तत्पुनातु? जगत्सकलम्। किंविशिष्टं? अन्धीकृतं विवेकपराङ्मुखी—कृतम्। कै:? अन्यतीर्थगुरुरूपदोषोदयै: जैनतीर्थादन्यत्तीर्थं मतं येषां ते अन्यतीर्था आप्ताभिमानिनो मिथ्यादृष्टय: तेभ्यो गुरुरूपाणां बृहत्स्वरूपाणां दोषाणां रागद्वेषमोहानां ये उदया: प्रादुर्भावास्तै:।।३५।।
अर्थ—हे केवलज्ञानसंपन्न इन्द्रादिपूज्य जिनेश्वर! यह संपूर्ण विश्व अन्यमतीय मिथ्यादृष्टि लोगों से फैलाये गये रागद्वेषमोहादिकविकारों से अन्ध बन गया है। इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती नमस्कार करते समय उनके मुकुट स्थित मणियों से स्पुâरित किरणों से हे प्रभो! आपके दोनों चरण कमल आश्लिष्ट हुए हैं। वे ऐसे मिथ्यामत से अंधे हुए सर्व जगत को पवित्र करे। तात्पर्य—राग, द्वेष मोहादिविकारों का नाश होकर सर्वत्र जैनधर्म का प्रसार हो, जिससे जनता का सच्चा हित हो सके।।३५।।
इच्छामि भन्ते! चेइयभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, अहलोयतिरियलोयउड्ढलोयम्मि किट्टिमा-किट्टिमाणि जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तिसु वि लोएसु भवणवासिय—वाणविंतर-जोइसियकप्पवासियंति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गन्धेण, दिव्वेण पुप्फेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिव्वेण ण्हाणेण, णिच्चकालं अंचंति, पुज्जंति, वंदंति, णमंसंति अहमवि इह संतो तत्थ, संताइं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण-सम्पत्ति होउ मज्झं। अंचलिका की संस्कृत एवं हिन्दी टीका अथ इच्छामि भंते भगवन् अहं इच्छामि अभिलषामि। किं कर्तुं ? चेइयभत्तिकाउस्सगो कओ तस्सालोचेउं चैत्यभक्तिकायोत्सर्गो यो मया कृत: तमालोचयितुम्। वर्तमानदोषनिराकरणार्थमित्यर्थ:। अहलोयतिरियलोये उड्ढलोयम्मि अधोलोकतिर्यक् लोकोध्र्वलोकेषु्। किट्टिमाकिट्टिमाणि कृत्रिमाकृत्रिमाणि। शाश्वताशाश्वतानि तानि यानि जिनचेइयाणि जिनचेइयाणि जिनचैत्यानि जिनप्रतिमा: यानि। तानि सर्वाणि तिसुवि लोएसु त्रिष्वपि लोकेषु। भवनवासियवाणिंवतर—जोइसियकप्पवासियत्ति भवनवासिनोऽसुरादय:, वानव्यन्तरा वनोद्भवा: किंनरादय:, जोइसिय ज्योतिष्का: चन्द्रादय:, कप्पवासिय कल्पवासिन: सौधर्मादय:। इति चउव्विहा देवा चर्तुिवधाश्च देवाश्चतु:प्रकारा देवा: अणिमाद्यष्टगुणोपेता:। कथम्भूता: सपरिवारा: पल्यादिसहिता:। दिव्वेिंह गंधेिंह दिव्यै: स्वर्गलोकोद्भवै: कुङ्कुमागुरुकर्पूरचन्दनादिद्रव्यै:। दिव्वेिंह पुप्फेहिं मंदारपारिजातसन्तानकादिकुसुमै:। दिव्वेिंह धूवेिंह दिव्यैर्धूपै: कृष्णागुरुदेवदारुचन्दना—दिसुगन्धद्रव्यसंजातै:। दिव्वेण चुण्णेण दिव्येन चूर्णेन। दिव्वेिंह वासेिंइ दिव्यैर्वासै: कर्पूरादिकचूर्णै:। दिव्वेण ण्हाणेण दिव्येन स्नानेन क्षीरोदजलादिभि:। णिच्चकालं नित्यकालं सर्वकालं त्रिकालमित्यर्थ:। अंचंति स्नपयंति। पुज्जंति पूजयन्ति। वंदंति स्तुवन्ति नमस्संति नमस्यन्ति पंचाङ्गप्रणामं कुर्वन्ति। अहमवि अहमपि इह संतो इह सन् अत्र क्षेत्रे वर्तमान:। तत्थ संताइं तत्र सन्ति पूर्वोक्तस्थानेषु वर्तमानानि। णिच्चकालं त्रिकालं अनवरतं च। अंचेमि अर्चामि। पूजेमि पूजयामि। वंदामि स्तौमि। णमंसामि नमस्यामि प्रणिपतामि। एवंकृते सति दुक्खक्खओ शारीरमानसदु:खक्षय:, कम्मक्खओ ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मक्षय:, बोहिलाहो रत्नत्रयलाभ:, सुगइगमणं मोक्षगमनं, समाहिमरणं रत्नत्रये र्नििवघ्नतया अक्लीवमरणं, जिणगुणसंपत्ती जिनस्य गुणा: चतुस्त्रिंशदतिशया, अष्टमहाप्रातिहार्याणि अनन्तज्ञानादिचतुष्टयं चेत्यादय: सैव सम्पत्तिर्लक्ष्मी:। सा होउ मज्झं भवतु ममेति।।१
अंचलिका का अर्थ इस प्रकार चैत्यभक्ति करने के बाद हे भगवन् ! मैंने चैत्यभक्ति का कायोत्सर्ग किया अब मैं आलोचना करने की इच्छा करता हूँ अर्थात् जो चैत्यभक्ति का कायोत्सर्ग किया है उसमें वर्तमान काल में जो दोष हुए हैं उनका निराकरण करने की मेरी इच्छा है। अर्थात् उन दोषों की मैं आलोचना करता हूँ। अधोलोक, ऊर्ध्वलोक तथा मध्यलोक में जो कृत्रिम तथा अकृत्रिम जिनमंदिर हैं, उन सर्व मंदिरों की चर्तुिणकाय देव, असुरादिक भवनवासी, किन्नरादिक व्यंतर, चंद्र—सूर्यादिक ज्योतिष्क तथा सौधर्मादिक कल्पवासी ये सब देव मिलकर परिवार के साथ अणिमादिक आठ गुणयुक्त होकर देवांगना आदि परिवार लेकर स्वर्गलोकों का कुंकुम, अगरु, कर्पूर, चन्दन आदि पदार्थ जिसमें मिलाये हैं ऐसे दिव्य गंध से, दिव्य पुष्पों से मंदार, पारिजात, संतानकादि दिव्यपुष्पों से, कृष्णागरु, देवदारु, चंदनादि सुगंध द्रव्यों से मिश्रित दिव्य धूप से पंचवर्णमयी माणिक्यचूर्ण से, दिव्य कर्पूरादिक वास से, कर्पूरादिक चूर्ण से, क्षीरसमुद्रादिक जलों से अभिषेक करना इत्यादिक से वे देवगण नित्यकाल अर्थात् त्रिकाल में आकर पूजते हैं, वंदन करते हैं, स्तुति करते हैं नमस्कार करते हैं। मैं भी यहाँ स्वकीय ग्रामादिक में निवास करता हुआ भी मानो ऊध्र्वलोकादि में निवास करता हूँ। ऐसी भावना से नित्यकाल मैं त्रिकाल में अर्चन, पूजन, वंदन नमस्कार करता हूँ। जिससे मेरे दु:खों का क्षय होवे। ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों का क्षय होवे, बोधिलाभ—रत्नत्रयलाभ होवे, सुगति में गमन होवे, रत्नत्रययुक्त र्नििवघ्नता से समाधिमरण प्राप्त होवे, जिनगुणों की संपत्ति की प्राप्ति होवे अर्थात् मुझे चौंतीस अतिशय, अष्टमहाप्रातिहार्य, अनन्तज्ञानादिचतुष्टय आदि की प्राप्ति होवे, ऐसी मैं इच्छा करता हूँ। इस प्रकार श्री गौतमस्वामी ने समवसरण में विराजमान श्री महावीर स्वामी की वन्दना करके नव देवताओं की वन्दना की है पुनः अकृत्रिम-कृत्रिम जिनप्रतिमा एवं जिनालयों की वन्दना की है। यह चैत्यभक्ति नाम से प्रसिद्ध है। हम सभी दिगम्बर जैन साधु-साध्वी प्रतिदिन त्रिकाल देववन्दना-सामायिक में इस भक्ति का पाठ करते हैं।