महानुभावों! इस जगत् में चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते हुए इस जीव ने एक प्रदेश भी ऐसा नहीं छोड़ा है कि जहाँ जन्म न लिया हो क्योंकि सर्वत्र भ्रमण कर चुका है। जिनेन्द्र भगवान के वचनों को नहीं प्राप्त करते हुए ही इस जीव ने संसार में भ्रमण किया है। हम संसारी जीवों के लिए जिनेन्द्र देव के वचन निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय को कहने वाले हैं। पहले हमें यह जानना है कि निश्चय रत्नत्रय क्या है?
जब वीतरागी साधु निर्विकल्प ध्यान में स्थित होते हैं उस समय शुद्धात्मा की ही रुचि, उसी का ही ज्ञान और उसी में ही तन्मयता रूप जो एक अवस्था होती है जो कि कहने में अवश्य ही तीन रूप है, किन्तु वास्तव में वहाँ अभेद परिणति मात्र ही है जो चिच्चैतन्य स्वरूप परमानंदमय है। इस अभेद रत्नत्रय का नाम ही निश्चय रत्नत्रय है।
व्यवहार रत्नत्रय क्या है ? निश्चय रत्नत्रय के लिए जो साधक व्यवहार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और व्यवहार प्रवृत्ति रूप तेरह प्रकार का चरित्र है उसे ही व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं। जिनेन्द्र भगवानके वचन निश्चय व्यवहार नयों के द्वारा ही प्रत्येक वस्तु का विवेचन करते हैं।
यह आत्मा पंगु के सदृश है, तीनों लोक में न तो कहीं स्वयं जाता है और न ही कहीं आता है किन्तु विधि-कर्म ही इसे तीनों लोकों में कहीं भी ले जाता है और कहीं भी ले आता है। यह आत्मा शुद्ध निश्चयनय से अनंतवीर्य सम्पन्न है। इसी निश्चयनय से शुभ और अशुभ कर्म रूप दो बेड़ियों से रहित होते हुए भी व्यवहारनय से इन पुण्य- पापरूप उभय बेड़ियों से मजबूत जकड़ा हुआ है इसीलिए पंगु के समान है न कहीं जा सकता है और न कहीं आ सकता है। अनादि संसार में स्वशुद्धात्मा की भावना से विपरीत मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से जो कर्म उपार्जित करता है उस कर्म के द्वारा निर्मित ही ये पुण्य-पाप रूप दो बेड़ी हैं जिनके द्वारा यह अनादिकाल से जकड़ा हुआ है किन्तु जो यह विधाता, ब्रह्मा आदि शब्दों से कहा गया कर्म है उसके द्वारा ही जगत् में सर्वत्र घुमाया जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वीतराग सदानंद ही है एक स्वरूप जिसका, ऐसी अपनी परमात्मा की ही भावना करनी चाहिए। उससे विपरीत शुभ-अशुभ रूप दोनों प्रकार के कर्मों को हेय समझना चाहिए।
इतना समझने के बाद कई लोग प्रश्न कर देते हैं कि देवपूजा, आहारदान, औषधि आदि दान रूप क्रियाएं हेय रूप ही हो गई पुन: उनके करने का जिनागम में उपदेश क्यों दिया गया है ? तथा मुनियों की षट्आवश्यक क्रियाएं आदि भी शुभरूप होने से हेय हैं पुन: उनका भी अनुष्ठान क्यों ?
इस हेतु आचार्य श्री कुंदकुंद ने समयसार में कहा है-
वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता।
परमठ्ठबाहिरा जेण तेण ते होंति अण्णाणो।।१६१।।
अर्थात् यद्यपि जो व्रत और नियमों को धारण करते हैं, शील पालते हैं तथा तप भी करते हैं किन्तु परमात्मा स्वरूप के ज्ञान से रहित हैं इसलिए वे सब अज्ञानी हैं। पुन: श्रीजयसेनाचार्य तात्पर्य वृत्ति टीका में कहते हैं-
त्रिगुप्ति समाधि लक्षणा भेद ज्ञानाद् बाह्या ये ते व्रत नियमान धारयंत: शीलानि तपश्चरणं च कुर्वाणा अपि मोक्षं न लभंते..…..।
जिसमें तीन गुप्तियों का पालन हुआ करता है ऐसी परमसमाधि रूप भेदज्ञान से जो बाह्य हैं वे व्रत और नियमों को धारण करते हुए और तपश्चरण करते हुए भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि पूर्वोक्त त्रिगुप्तिगुप्त परमसमाधि रूप भेदज्ञान के न होने से वे परमार्थ से दूर हैं। हाँ, जो इस परमसमाधि से युक्त हैं वे व्रत, नियम, शीलों को बिना धारण किए भी और बाह्य द्रव्य रूप तपश्चरण को बिना किये भी मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। त्रिगुप्ति सहित निर्विकल्प समाधिरूप भेद ज्ञान से ही मोक्ष होता है।
इस प्रकार के त्रिगुप्ति रूप भेदज्ञान के समय में जो शुभ मन-वचन-काय के व्यापार हैं जो कि परम्परा से मुक्ति के कारण हैं। (पंचमहाव्रत, समिति, आवश्यक क्रिया आदि रूप हैं) वे भी नहीं रहते हैं तो फिर अशुभ विषय कषाय के व्यापार रूप जो मन, वचन, काय की चेष्टा है वह तो वहाँ रहेगी ही कैसे ? क्योंकि चित्त में होने वाले राग भाव के नष्ट हो जाने पर वहां ध्यान में बहिरंग विषयों में होने वाला व्यापार नहीं देखा जाता है जैसे कि तुष के भीतर और तंदुल के ऊपर की ललाई जहाँ दूर हो गई वहाँ फिर तुष का सद्भाव कैसा ? इसी प्रकार निर्विकल्प समाधि के समय बाह्य विषय संबंधी व्यापार कभी नहीं रह सकता क्योंकि जैसे शीत और उष्ण में परस्पर में विरोध है वैसे ही निर्विकल्प समाधि लक्षण भेदज्ञान और विषय कषायरूप समाधि लक्षण भेदज्ञान और विषय कषायरूप व्यापार इन दोनों का परस्पर में विरोध है। दोनों एक जगह एक काल में नहीं रह सकते।
निष्कर्ष यह निकला कि त्रिगुप्तिरूप निर्विकल्प ध्यान में पुण्य और पाप को छोड़ने का उपदेश है। जबकि वहाँ व्रत और अव्रत का सवाल ही नहीं है। ‘‘निर्विकल्प समाधिकाले व्रताव्रतस्य स्वयमेव प्रस्तावो नास्ति।’’ निर्विकल्प समाधि के समय व्रत और अव्रत का स्वयं ही प्रकरण नहीं है पुन: छोड़ने की कोई बात ही नहीं आती है बल्कि उस अवस्था में शुभ परिणामरूप क्रियाएं स्वयमेव नहीं रहती हैं।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस अवस्था को प्राप्त होने से पूर्व पंच महाव्रत आदि और सामायिक आदि आवश्यक क्रियाएं मुनियों के लिए अवश्यकरणीय हैं तथैव देशव्रती श्रावकों के लिए उनके पद के अनुसार देवपूजा, दान, स्वाध्याय–संयम आदि अवश्यकरणीय हैं क्योंकि ये सभी शुभ क्रियाएं सम्यक्त्वी जीव के परम्परा से मुक्ति के लिए कारणभूत हैं ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव का सर्वत्र सभी ग्रंथों में उपदेश है इसलिए ये शुभ अनुष्ठान एकांत से हेयरूप नहीं है बल्कि ध्यानस्थ वीतरागी महामुनियों के लिए ही हेयरूप हैं। हमारे और आपके लिए तो चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थान में ये उपादेयरूप हैं।
अत: जिनवचन के रहस्य को नय विवक्षा से समझकर ही अवधारण करना चाहिए अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है।