(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनांश……..)
सब कुछ अपराध सहन करके, भावों से पूर्ण क्षमा करिये।
यह उत्तम क्षमा जगन्माता, इसकी नितप्रति अर्चा करिये।।
दशलक्षण पर्व का प्रारंभ क्षमाधर्म से होता है।
‘क्षमूष्’ धातु सहन करने अर्थ में है उस से यह ‘क्षमा’ शब्द बना है।
आचार्यों ने क्रोध को अग्नि की उपमा दी है उसे शांत करने के लिए क्षमा जल ही समर्थ है।
जैसे जल का स्वभाव शीतल है वैसे ही आत्मा का स्वभाव शांति है।
जैसे अग्नि से संतप्त हुआ जल भी जला देता है वैसे ही क्रोध से संतप्त हुई आत्मा का धर्मरूपी सार जलकर खाक हो जाता है।
क्रोध से अंधा हुआ मनुष्य पहले अपने आपको जला लेता है पश्चात् दूसरों को जला सके या नहीं भी।
क्षमा के लिए बहुत उदार हृदय चाहिए, चंदन घिसने पर सुगंधि देता है, काटने वाले कुठार को भी सुगंधित करता है और गन्ना पिलने पर रस देता है।
उसी प्रकार से सज्जन भी घिसने-पिलने से ही चमकते हैं। क्रोध से कभी शांति नही हो सकती है।
कभी बैर से बैर का नाश नही हो सकता है। खून से रंगा हुआ वस्त्र कभी भी खून से साफ नही हो सकता है।
अत: सहनशील बनकर सभी के प्रति क्षमा का भाव रखना चाहिए। दूसरों द्वारा हास्य, कटुक, कडुवे शब्दों के बोलने पर भी अपने को शांत रखने का ही प्रयास करना चाहिए।