(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचनांश……..)
मृदुता का भाव कहा मार्दव, यह मानशत्रु मर्दनकारी।
यह दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, उपचार विनय से सुखकारी।।
मद आठ जाति कुल आदि हैं, क्या उनसे सुखी हुआ कोई।
रावण का मान मिला रज में, यमनृप ने सब विद्या खोई।।
संसार में जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप, तप, विद्या और धन इस प्रकार के आठ मद/अभिमान देखे जाते हैंं परन्तु इनके विपरीत विनय अर्थात् मार्दव/मृदुता गुण को धारण करने से आत्मा का कल्याण होता है। संसार में प्रत्येक जीव अनादिकाल से नाना योनियों में जन्म लेता रहता है, कोई ऐसी निकृष्ट योनि नहीं है कि जिसमें इस जीव ने जन्म न लिया हो और उत्कृष्ट योनियों में भी राजा, महाराज तो क्या नव ग्रैवेयक तक के अहमिन्द्र पद को भी प्राप्त कर लिया है परन्तु पुनः मिथ्यात्व के निमित्त पंच परावर्तन रूप संसार में भटकता ही रहा है अतः किस चीज का गर्व करना! यह मान कषाय ही जीवों को नीच योनियोें में ले जाने वाली है। अत: जाति, कुल आदि के घमंड को छोड़कर मार्दव धर्म धारण करना चाहिए। उच्च जाति, गोत्र आदि शुक्ल ध्यान के हेतु माने गये हैं। इसलिए मान कषाय को छोड़कर विनय का आश्रय लेकर मार्दव धर्म को हृदय में स्थान देना चाहिए। मार्दव धर्म के प्रसाद से आगे के लिए उच्च गोत्र का आस्रव होता है।