वर्धमान सन्मति प्रभो , महावीर अतिवीर |
पांच नामयुत वीरप्रभु , को नित नाऊँ शीश ||
चालीसा महावीर का , पढ़ो भव्य मन लाय |
रोग शोक संकट टले , सुख सम्पति मिल जाय ||
जय श्री सन्मति गुणरत्नाकर , त्रिभुवन के तुम ही हो भास्कर ||१||
महावीर अतिशय सुखकारी , तुम चरणों नित धोक हमारी ||२||
कुण्डलपुर में जन्में स्वामी , परम पूज्य है यह भू मानी ||३||
त्रिशलानंदन तुम कहलाए , पितु सिद्धारथ हर्ष मनाएं ||४||
तीन लोक में आनंद छाया ,इंद्र ने जन्मकल्याण मनाया ||५||
भव तन भोग समझ क्षणभंगुर , ममता मोह को तजकर तत्क्षण ||६||
दीक्षा हेतु चले महावीरा , मात पिता के मन को पीड़ा ||७||
जातिस्मृति से विराग आया, लौकान्तिक सुर स्तुति गाया ||८||
नमः सिद्ध कह दीक्षा ले ली, मगशिर कृष्णा दशमी तिथि थी ||९||
प्रथम आहार कूल नृप दीना,पंचाश्चर्य देवों ने कीना ||१०||
द्वितिय अहार चंदना सति ने, दिया प्रसिद्ध कथा है जग में ||११||
तिथि वैशाख सुदी दशमी थी,श्री कैवल्यरमा से प्रीती||१२||
इंद्र ने समवसरण रचवाया ,किन्तु दिव्यध्वनि को नहिं पाया ||१३||
अवधिज्ञान से जान लिया जब ,गौतम स्वामी को लाए तब ||१४||
गौतम स्वामी मुनी बने जब, दिव्यदेशना खिरी वहीं पर ||१५||
विपुलाचल पर्वत वह प्यारा ,राजगृही में स्थल न्यारा ||१६||
कार्तिक कृष्णा मावस तिथि थी ,प्रातःकाल की शुभ बेला थी ||१७||
पावापुरी उद्यान सरोवर ,बीच शिला पर तिष्ठे प्रभुवर ||१८||
मुक्तिश्री का वरण कर लिया , निज आत्मा को धन्य कर लिया ||१९||
इंद्र ने मोक्षकल्याण मनाया,अगणित दीपों को था जलाया ||२०||
दीपावली का पर्व तभी से, मना रहे सब लोग खुशी से ||२१||
बाल ब्रम्हचारी हे प्रभुवर ! तुम कहलाए सर्व हितंकर ||२२||
वर्तमान में उनका शासन , धर्म का डंका बजता निशदिन ||२३||
किन्तु काल का दोष प्रबल है,जो दिखता रहता प्रतिपल है ||२४||
तुमने जो सद् मार्ग दिखाया ,पाते जीव सफल निज काया ||२५||
सात हाथ धनु ऊंची काया, आयु बहत्तर वर्ष थी पाया ||२६||
हिंसा से रत जब भारत था , धर्म अहिंसा बिगुल बजा था ||२७||
महावीरजी तीरथ प्यारा , अतिशय एक हुआ था न्यारा ||२८||
मूंगावर्णी सुन्दर प्रतिमा , मन को हरती दिव्य अनुपमा ||२९||
तुम गुरु ग्रह के स्वामी माने, भक्त तेरा स्तवन बखानें ||३०||
मेरे गुरुग्रह कष्ट निवारो, हे वीरा अब मुझे उबारो ||३१||
श्रद्धा से तुम पास में आया , भावों की कुसुमांजलि लाया ||३२||
जन्मकुंडली में गुरुग्रह हो, अगर निम्न श्रेणी में वह हो ||३३||
प्राणी कितना हो गुणवान, किन्तु मिले उसको अपमान ||३४||
उसके गुण अवगुण बन जाते, मन को नित संताप दिलाते ||३५||
अगर उच्च हो गुरु ग्रह फिर तो, प्राणी यशकीर्ती को पाते ||३६||
हे प्रभु गुरुग्रह उच्च करो अब ,धर्म में रूचि हो ज्ञान बढ़े बस ||३७||
बस तेरा गुणगान उचारूं ,सुख शांती समृद्धी पा लूँ ||३८||
करुणाकर तव शरण में आया , दुखों से में हूँ अकुलाया ||३९||
अब निश्चित ग्रह शांती होगी, रिद्धि सिद्धि में वृद्धी होगी ||४०||
प्रभु महावीर का चालीसा जो, चालीस दिन तक पढ्ते हैं |
सच्चे मन से जो भक्त ’इंदु’, श्री वीर प्रभू को भजते हैं ||
इच्छाओं की पूर्ती होकर , गुरुग्रह संताप सभी हरते |
सांसारिक सुख के साथ आत्मकल्याण सहज में वे करते ||१||