श्री अरिहन्त जिनेश को, हृदय कमल में धार।
सिद्ध अनन्तानन्त को, वन्दन बारम्बार।।१।।
चौबीसों तीर्थेश की, गुणगाथा का गान।
करने की इच्छा हुई, किन्तु नहीं है ज्ञान।।२।।
हंसगामिनीसरस्वती माता मात की, कृपा यदी हो जाए।
सुन्दर और सरल-सरस, शब्दावलि मिल जाए।।३।।
जैनधर्म प्राकृतिक धर्म है, शाश्वत और अनादिनिधन है।।१।।
सबसे पहले सुनो बंधुओं! जैन किसे कहते हैं समझो।।२।।
कर्मशत्रुओं को जो जीते, उनको हम सब ‘जिन’ हैं कहते।।३।।
इनकी जो भक्ती करते हैं, वे ही जैन कहे जाते हैं।।४।।
अब तुम सुनो धर्म का लक्षण, बतलाते हैं जो विद्वज्जन्।।५।।
जो जग के सब ही जीवों को, उत्तम सुख में पहुँचा देवे।।६।।
वही धर्म सच्चा कहलाता, सार्वभौम है इसकी सत्ता।।७।।
इसमें समय-समय पर प्रियवर!, होते हैं चौबीस जिनेश्वर।।८।।
वर्तमान की चौबीसी में, ऋषभदेव पहले जिनवर हैं।।९।।
पुन: अजित–संभव–अभिनंदन, सुमति–पद्मप्रभु श्री सुपाश्र्वजिन।।१०।।
चन्द्रप्रभ अरु पुष्पदंत जी, शीतल जिनवर प्रभु श्रेयांस जी।।११।।
वासुपूज्य भगवान की जय हो, विमलनाथ की जय जय जय हो।।१२।।
श्री अनन्त प्रभु धर्मनाथ जी, शान्ति–कुन्थु अरु अरहनाथ जी।।१३।।
मल्लिनाथ–मुनिसुव्रतजिनवर, क्षेम करें नमि–नेमिजिनेश्वर।।१४।।
पार्श्वनाथ की भक्ति रचाओ, महावीर प्रभु के गुण गाओ।।१५।।
इन चौबीसों ही जिनवर के, सोलह जन्मभूमि तीरथ हैं।।१६।।
एक बार अपने जीवन में, इन तीर्थों के दर्शन कर लें।।१७।।
चौबिस में से पाँच जिनेश्वर, ब्रह्मचारी ही रहे उम्र भर।।१८।।
वासुपूज्य–मल्लि–नेमि–पार्श्वजी, वर्धमान ये पाँच बालयति।।१९।।
सोलह जिनवर स्वर्णवर्ण के, बाकी आठ के चार वर्ण हैं।।२०।।
पद्मप्रभु और वासुपूज्य जी, लालवर्ण के हैं दो प्रभु जी।।२१।।
चन्द्रप्रभ अरु पुष्पदंत का, श्वेतवर्ण है धवलचन्द्र सा।।२२।।
श्री सुपार्श्व औ पार्श्वनाथ जी, हरितवर्ण के माने प्रभु जी।।२३।।
नेमिनाथ–मुनिसुव्रत स्वामी, नीलवर्ण के हैं जगनामी।।२४।।
तीन प्रभू पर्यंकासन से, मोक्ष गए हैं सुनो ध्यान से।।२५।।
आदिनाथ जी, वासुपूज्य जी, अरु तीजे हैं नेमिनाथ जी।।२६।।
बाकी के इक्किस तीर्थंकर, खड्गासन से पहुँचे शिवपुर।।२७।।
इन सब जिनवर की भक्ती ही, कर्मनिर्जरा में निमित्त है।।२८।।
बहुत पुण्यशाली हैं हम सब, पाया हमने धर्म ये उत्तम।।२९।।
देव-शास्त्र-गुरु तीन रतन हैं, इनसे मिलते रतन तीन हैं।।३०।।
सच्चे देवों का दर्शन तो, देता है सम्यग्दर्शन को।।३१।।
समीचीन शास्त्रों का अध्ययन, सम्यग्ज्ञान प्रदाता उत्तम।।३२।।
सद् गुरुओं की सच्ची भक्ती, चारित को सम्यक् है करती।।३३।।
इनको ही रत्नत्रय कहते, इनको जो भी धारण करते।।३४।।
वे निश्चित ही शिवपद पाते, पुन: नहीं वे जग में आते।।३५।।
मेरी भी इक विनती भगवन्! कभी न छूटे सम्यग्दर्शन।।३६।।
मेरे मनमंदिर में हर क्षण, बसे रहें चौबीसों भगवन्।।३७।।
एक समय भी ऐसा नहिं हो, जब मन में प्रभु नाम नहीं हो।।३८।।
और नहीं है कोई इच्छा, यही ‘‘सारिका’’ अन्तिम वांछा।।३९।।
जब तक सिद्धलोक नहिं जाऊँ, तब तक जैनधर्म ही पाऊँ।।४०।।
यह चौबिस तीर्थंकर भगवन्तों का चालीसा सुखकारी।
इसको पढ़ने से निश्चित ही, भक्तों को मिले पुण्यभारी।।
इस युग की प्रथम बालसति गणिनी ज्ञानमती माताजी हैं।
उनकी शिष्या सद्धर्मप्रभाविका, मात चन्दनामति जी हैं।।१।।
इन छोटी माताजी की ही शुभ मंगलमयी प्रेरणा से।
चौबिस तीर्थंकर चालीसा, लिखने का पुण्य जगा मुझमें।।
बस गुरु कृपा के कारण ही, मैंने यह पाठ लिखा भव्यों!
इसको पढ़ करके तुम सब अपने, जीवन का कल्याण करो।।२।।