श्री संभव जिनराज का, करने से गुणगान।
कोई असंभव कार्य भी, संभव हो तत्काल।।१।।
चालीसा का पाठ मैं, लिखना चाहूँ आज।
वागीश्वरि देवीसरस्वती देवीमुझे, दे दो आर्शीवाद।।२।।
संभवजिन की भक्ती कर लो, भववारिधि से तिरना हो तो।।१।।
नगरी श्रावस्ती अति प्यारी, मात सुषेणा वहाँ की रानी।।२।।
पुण्यशालि पितु दृढ़रथराजा, जिनका नरभव सफल हुआ था।।३।।
संभव जिनवर ग्रैवेयक तज, आए मात गरभ में जिस दिन।।४।।
वह दिन फाल्गुन सुदि अष्टमि का, शुभ मंगलमय पावन क्षण था।।५।।
कार्तिक पूर्णा में प्रभु जन्मे, कीर्ति सुरभि व्यापी तिहुँ जग में।।६।।
सोलह सौ कर तनु ऊँचाई, साठ लाख पूरब थी आयू।।७।।
जन्मत ही दश अतिशय प्रगटे, प्रभु को सुर-विद्याधर नमते।।८।।
राजा बनकर धर्मनीति से, राज्य किया बहु कुशलरीति से।।९।।
इक दिन मेघों का विभ्रम लख, प्रभु ने छोड़ दिया वैभव सब।।१०।।
दीक्षा के शुभ भाव हो गए, आत्मज्ञान से पूर्ण हो गए।।११।।
मगसिर शुक्ला पूर्णा तिथि में, दीक्षा ले ली थी प्रभुवर ने।।१२।।
ब्रह्मस्वर्ग के देवों ने फिर, आकर प्रभु की संस्तुति की थी।।१३।।
माघ शुक्ल नवमी का वह दिन, अब तक उसको याद करें हम।।१४।।
समय बीतता गया बंधुओं! केवलज्ञान प्रगट हुआ प्रभु को।।१५।।
पौष शुक्ल एकादशि तिथि को, संभव प्रभु सर्वज्ञ हो गए।।१६।।
केवलज्ञान के भी दश अतिशय, प्रगटित होते हैं प्रभुवर के।।१७।।
इनके समवसरण में गणधर, सिंहसेन आदिक ऋद्धीधर।।१८।।
ध्वनि ॐकारमयी प्रभुवर की, खिरती है तीनों संध्या में।।१९।।
समवसरण में पशु भी आते, प्रभु की वाणी समझ वे जाते।।२०।।
देवरचित चौदह अतिशय भी, होते हैं तीर्थंकर प्रभु के।।२१।।
कुछ अतिशय हम तुम्हें बताएँ, सुनकर ही हम पुण्य कमाएँ।।२२।।
प्रभु जब बन जाते हैं केवली, नेत्रों की पलकें नहिं लगतीं।।२३।।
नख अरु केश नहीं बढ़ते हैं, प्रभु नभ में ही गमन करते हैं।।२४।।
छाया नहिं पड़ती शरीर की, प्राणी हिंसा भी नहिं होती।।२५।।
प्रभु सब विद्याओं के स्वामी, हो जाते हैं अन्तर्यामी।।२६।।
प्रभु के चरण कमल के नीचे, देव स्वर्ण कमलों को रचते।।२७।।
प्रभुवर उस पर चरण न रखते, देव भक्तीवश ऐसा करते।।२८।।
नभ में जय-जय शब्द उचरते, सभी प्राणि आनन्दित रहते।।२९।।
ये कुछ अतिशय कहे हैं हमने, ज्यादा पढ़ लेना ग्रंथों में।।३०।।
आगे अब बतलाते हैं हम, संभवप्रभु को मोक्ष हुआ कब ?।।३१।।
चैत्र सुदी षष्ठी तिथि के दिन, शिवपद प्राप्त किया जिनवर ने।।३२।।
अश्व चिन्ह से सहित आप हैं, तपे स्वर्ण सम देहकान्ति है।।३३।।
पहुँच गए प्रभु सिद्ध शिला पर, शाश्वत सुख अरु शान्ति जहाँ पर।।३४।।
चाहे जहाँ रहो हे जिनवर! कृपा रखो अपने भक्तों पर।।३५।।
क्योंकि जिस पर कृपा नहीं है, वो प्राणी जग में न सुखी है।।३६।।
चूँंकी यह सच है भव्यात्मन्! कर्म ही सुख-दुख देते हर पल।।३७।।
फिर भी प्रभु की कृपादृष्टि से, हम अच्छे ही कर्म करेंगे।।३८।।
अच्छे कर्मों का अच्छा फल, निश्चित प्राप्त करेंगे हम सब।।३९।।
अब आगे क्या कहें ‘‘सारिका’’, हो गया पूरा ये चालीसा।।४०।।
यह संभव प्रभु का चालीसा, पढ़ लेना तुम चालिस दिन तक।
इक-दो बार नहीं भव्यों! चालीस बार पढ़ना प्रतिदिन।।
चारित्रचन्द्रिका गणिनी ज्ञानमती माताजी की शिष्या।
गुरुभक्त शिरोमणि मात चन्दनामति जी प्रमुख प्रथम शिष्या।।१।।
उनकी दिव्यप्रेरणा से ही, पाठ रचा है ये हमने।
कभी नहीं सोचा था क्योंकी, इतनी बुद्धि कहाँ मुझमें।।
इसको पढ़ने से कार्य-असंभव भी, संभव हो जाएगा।
संभव जिनवर का वंदन भी, बेड़ा पार लगाएगा।।२।।