धर्मनाथ भगवान हैं, धर्मचक्र के ईश।
इनके चरण सरोज को, नमूँ नमाकर शीश।।१।।
धर्मध्वजा फहराई है, अखिल विश्व में नाथ!
इसीलिए इच्छा हुई, करने को गुणगान।।२।।
विद्या देवी आपकी, कृपा चाहिए मात।
क्योंकी उसके बिन नहीं, होता कोई काम।।३।।
धर्मनाथ भगवान की जय हो, जैनधर्म की सदा विजय हो।।१।।
सत्य-अहिंसा परम धर्म की, जय हो शाश्वत दयाधर्म की।।२।।
तुमने पूरे जग में स्वामी, उत्तम धर्मध्वजा फहराई।।३।।
तुम हो प्रभु जी धर्मप्रवर्तक, तुमने कहा धर्म मंगलकर।।४।।
धर्म कल्पतरु अद्भुत अनुपम, धर्म ही है जग में सर्वोत्तम।।५।।
धर्म को जो मन में धरते हैं, उन्हें देव प्रणमन करते हैं।।६।।
जैनधर्म के पन्द्रहवें प्रभु, धर्मनाथ तीर्थंकर हो तुम।।७।।
तुमने रौनाही नगरी में, चार कल्याणक प्राप्त किए हैं।।८।।
रत्न असंख्यों बरसें वहँ पर, इसीलिए है रत्नपुरी वह।।९।।
तिथि वैशाख सुदी तेरस में, प्रभु तुम आए मात गरभ में।।१०।।
भानुराज थे पिता तुम्हारे, मात सुव्रता के तुम प्यारे।।११।।
नौ महिने के बाद प्रभू जी, जन्मे माघ सुदी तेरस में।।१२।।
शत इन्द्रों से वंद्य प्रभू जी, असुरों द्वारा पूज्य प्रभू जी।।१३।।
तुम हो धर्मधुरन्धर नाथा! दश धर्मों के तुम हो दाता।।१४।।
वङ्कादण्ड है चिन्ह तुम्हारा, वर्ण है सोने जैसा प्यारा।।१५।।
दस लख वर्ष की आयु तुम्हारी, इक सौ अस्सी कर ऊँचाई।।१६।।
इक दिन उल्कापात देखकर, समझ गए प्रभु जग है नश्वर।।१७।।
सारा वैभव क्षणभंगुर है, नहिं संसार में किञ्चित् सुख है।।१८।।
तभी वहाँ पर ब्रह्मस्वर्ग से, आकर लौकान्तिक देवों ने।।१९।।
धर्मनाथ प्रभु के विराग की, भक्तिभाव से अनुशंसा की।।२०।।
नागदत्त पालकि में प्रभु को, बैठाया था देवगणों ने।।२१।।
माघ शुक्ल तेरस को प्रभु ने, दीक्षा ली थी शाल विपिनवन में।।२२।।
एक वर्ष छद्मस्थ काल था, पुन: हुआ केवल सु ज्ञान था।।२३।।
पौष शुक्ल पूर्णिमा तिथी में, सप्तच्छद तरुवर के नीचे।।२४।।
समवसरण के मध्य गंधकुटि, उस पर अधर विराजें प्रभु जी।।२५।।
धर्मामृत वर्षा के द्वारा, हुआ जगत में ज्ञान उजाला।।२६।।
पुन: आयु के अन्त में प्रभु जी, पहुँच गए सम्मेदशिखर जी।।२७।।
आठ शतक नौ मुनियों के संग, ज्येष्ठ सुदी सु चतुर्थी के दिन।।२८।।
प्रभु ने शिवपद प्राप्त कर लिया, तन से आत्मा पृथक् कर लिया।।२९।।
यम चकचूर किया जिनवर ने, पहुँच गए प्रभु सिद्धशिला पे।।३०।।
वहँ शाश्वत सुख में निमग्न हैं, ज्ञान भी वहँ पर शाश्वत ही है।।३१।।
कोई पूछे सिद्धों का सुख, कैसा होता बतलाओ तुम।।३२।।
इसका उत्तर एक यही है, उस सुख की उपमा ही नहिं है।।३३।।
उस सुख का अनुभव तो केवल, सिद्धप्रभू ही कर सकते हैं।।३४।।
एक बार उस सुख की खातिर, जाकर देखो सिद्धशिला पर।।३५।।
उस सुख का अनुभव करके तुम, आकर बतलाना हमको भी।।३६।।
भव्यों! ऐसा होता नहिं है, वहाँ से कोई आता नहिं है।।३७।।
यदि तुम को भी वह सुख चाहिए, धर्म को मन में धारण करिए।।३८।।
क्योंकी धर्म से जग के सुख हैं, धर्म से ही मिलता शिवसुख है।।३९।।
जब तक श्वांस रहे मुझ तन में, रहे ‘‘सारिका’’ धर्म हृदय में।।४०।।
यह धर्मनाथ का चालीसा, पढ़ने से धर्मवृद्धि होगी।
चालिस दिन चालिस बार पढ़ो, तो जीवन में उन्नति होगी।।
श्री गणिनी ज्ञानमती माताजी से दीक्षित पहली शिष्या।
जो हैं जिनशासन सुदीपिका श्री पूज्य चन्दनामति माताा।।१।।
उनकी ही मिली प्रेरणा तब, मैंने यह लिखा है चालीसा।
इस पाठ के द्वारा धर्म की वर्षा, करो यही है मम इच्छा।।
यह धर्म सदा मंगलमय है, इससे ही आगे बढ़ना है।
जग के सुख-वैभव भोग पुन:, आध्यात्मिक लक्ष्मी वरना है।।२।।