सोलहवें तीर्थेश श्री-शान्तिनाथ भगवान।
जिनके दर्शन से मिले, शान्ती अपरम्पार।।१।।
बारहवें मदनारिजयीकामदेव, शान्तिनाथ भगवान।
जिनकी पूजन से सभी, कामव्यथा नश जाए।।२।।
पंचमचक्री ख्यात हैं, शान्तिनाथ भगवान।
इनका वंदन यदि करें, सुख-वैभव मिल जाए।।३।।
इन त्रयपदयुत नाथ के, चालीसा का पाठ।
पूरा होवे शीघ्र ही, कृपा करो श्रुतमात।।४।।
शान्तिनाथ! तुम शान्ति विधाता, शरणागत को शरण प्रदाता।।१।।
भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में, कुरुजांगल इक देश है सुन्दर।।२।।
उसमें हस्तिनागपुर नगरी, लगती सुन्दर स्वर्गपुरी सी।।३।।
इसी नगरिया के राजा श्री-विश्वसेन अति शूरवीर थे।।४।।
सुखपूर्वक वे समय बिताते, धर्मनीति से राज्य चलाते।।५।।
उनकी रानी ऐरा देवी, सुन्दरता में अद्वितीय थीं।।६।।
इन्हीं भाग्यशाली माता से, शान्तिनाथ तीर्थंकर जन्मे।।७।।
भादों वदि सप्तमि तिथि प्यारी, इन्द्र करें गर्भोत्सव भारी।।८।।
पुन: ज्येष्ठ कृष्णा चौदश को, लिया जन्म श्री शान्तिनाथ ने।।९।।
तभी कल्पवासी देवों के, भवनों में बजते हैं घण्टे।।१०।।
ज्योतिष देवों के विमान में, सिंहनाद लग गए गूंजने।।११।।
व्यन्तर देवों के निवास में, भेरी के हो रहे शब्द थे।।१२।।
भवनवासि देवों के गृह में, होने लगे नाद शंखों के।।१३।।
और अनेक वाद्य ध्वनि सुनकर, समझ लिया देवों ने तत्क्षण।।१४।।
तीर्थंकर का जन्म हुआ है, पुण्य हमारा उदित हुआ है।।१५।।
पहुँच गए वे मध्यलोक में, विश्वसेन के राजमहल में।।१६।।
प्रभु का जन्ममहोत्सव करके, लौट गए अपने स्वर्गों में।।१७।।
इधर प्रभू का लालन-पालन, करते बड़े प्रेम से सब जन।।१८।।
एक लाख वर्षायु आपकी, कान्ति स्वर्ण के ही समान थी।।१९।।
धीरे-धीरे युवा हुए प्रभु, तन सुगठित सौन्दर्य अनूपम।।२०।।
काल कुमार बिताए सहस्रों, राज्यपाट तब सौंपा पितु ने।।२१।।
बीत रहा था समय खुशी से, चक्ररत्न उत्पन्न हुआ तब।।२२।।
चक्रवर्ति बन गए प्रभू जी, प्रगटे चौदह रत्न-नवों निधि।।२३।।
इक दिन प्रभु शृंगार भवन में, दर्पण में मुख देख रहे थे।।२४।।
तभी दिखे दो मुख दर्पण में, हुए बहुत आश्चर्यचकित वे।।२५।।
आत्मज्ञान को प्राप्त कर लिया, पूर्वजन्म स्मरण कर लिया।।२६।।
मोह मुझे अब तज देना है, मुझको दीक्षा ले लेना है।।२७।।
ऐसा सोच रहे थे प्रभु जी, लौकान्तिक सुर आए तब ही।।२८।।
किया समर्थन प्रभु विराग का, जानें सब जग की असारता।।२९।।
प्रभु को पालकि में बैठाकर, देव ले गए सहस्राम्रवन।।३०।।
नम: सिद्ध कह शान्तिनाथ प्रभु, दीक्षा ले बन गए महामुनि।।३१।।
परिणामों में विशुद्धी आई, ज्ञान मन:पर्यय प्रगटाई।।३२।।
दीक्षा के पश्चात् बंधुओं! सोलह वर्ष किया तप प्रभु ने।।३३।।
पुन: घातिकर्मों के क्षय से, केवलज्ञान हुआ प्रगटित तब।।३४।।
दिव्यध्वनि के द्वारा प्रभु ने, धर्मवृष्टि की पूरे जग में।।३५।।
आयु अन्त में शान्तिनाथ जी, पहुँच गए सम्मेदशिखर जी।।३६।।
वहाँ जन्मतिथि में ही प्रभु ने, शाश्वत शान्ती प्राप्त करी थी।।३७।।
यह शाश्वत शांती ऐसी है, जिसके बाद न हो अशांति है।।३८।।
प्रभु यदि तुम कुछ देना चाहो, तो मुझको यह शान्ती दे दो।।३९।।
जिससे मेरे भी जीवन का, हो जावे उद्धार ‘‘सारिका’’।।४०।।
यह शान्तिनाथ का चालीसा, चालिस दिन चालिस बार पढ़ो।
तीर्थंकर जैसा पुण्य तथा चक्री सा वैभव प्राप्त करो।।
हैं युगप्रवर्तिका गणिनी ज्ञानमती माताजी इस युग में।
उनकी शिष्या रत्नत्रयपूर्णा मात चन्दनामति जी हैं।।१।।
उन छोटी माताजी की दिव्य-प्रेरणा मुझको प्राप्त हुई।
तब मेरे मन के अन्दर कुछ, लिखने की इच्छा जाग उठी।।
इसलिए लिखा यह चालीसा, इसको पढ़कर हे भव्यात्मन्!
सांसारिक सुख को भोग पुन:, आत्मा को भी करना पावन।।२।।