शारीरिक व्याधि का अनुभव नहीं होना स्वस्थ्यता नहीं है , अपितु स्वास्थ्य के तीन स्तर है – 1. आध्यात्मिक 2. मानसिक 3. शारीरिक इन तीनों स्तर पर स्वस्थ रह कर जीवन व्यतीत करता है वह स्वस्थ है ! सुश्रुत” संहिता में स्वस्थ इस प्रकार प्रतिपादित किया है – “सम दोष: अग्निश्च समधातु मलक्रिय: ! प्रसत्रात्मेंद्रियमना: स्वस्थ इत्यमि धीयते !! अर्थात वात, पित, कफ दोष जिसके सम हो, जिसकी आत्मा, इन्द्रियां एवं मन प्रसन्न हो वह स्वस्थ कहलाता है जैन दर्शन की मान्यता है जीव जब स्वभाव में रहता है तो वह स्व में स्थित होने से स्वस्थ कहलाता है ! वह राग द्वेष काम क्रोध मद लोभ आदि विकारों से रहित होता है ! उपर्युक्त सभी लक्षणों से विदित होता है कि शारीरिक स्वास्थ्य के साथ आत्मा इन्द्रिय एवं मन प्रसन्न हो यह स्वास्थ्य का लक्षण है ! जैन धर्म में मनुष्य योनि में जन्म लेना उपलब्धि माना है तथा जीवन का शुभ उपयोग के आचरण और व्यवहार एवं आत्मशुद्धि एवं मन की प्रसन्नता के लिए इन्द्रिय निग्रह इन्द्रियों का समुचित उपयोग करना निर्देशित किया गया है ! जैन दर्शन इन्द्रियों का दमन या त्याग नहीं कराता बल्कि उनके विषय राग द्वेष, क्रोध अहंकार लोभ ईर्ष्या आदि का त्याग करता है ! जैन दर्शन आध्यात्मिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को प्रमुखता देता है ! जैन धर्म के दश धर्म, अहिंसा, सत्य आचार्य, तप, ब्रह्मचर्य एव आकेंद्र्न का आदि आत्मिक शुद्धि मानसिक विकारों को उपशांत करते हैं अतः व्यक्ति इन्द्रिय विषयों समदेव्ष से रहित रहने हेतु इन्द्रिय निग्रह आत्म साधना माना है ! इसका पालन कर व्यक्ति स्वास्थ्य के तीनों स्तर आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक स्तर पर स्वस्य रहकर अपने मन को प्रसन्न रखता है ! सामान्यता स्वास्थ्य के संबंध में हमारी अद्यन्त स्थूल दृष्टि है हम चेतना एवं मन की अस्वस्थता को गंभीरता से नहीं लेटे जब मानसिक रोग भयंकर होकर तनाव, अवसाद पैरोनाइड आदि होने पर चिकित्सा करवाते हैं ! हम आहार के संबंध में भी अज्ञान है हम मुंह के दवारा ग्रहण किये भोजन पेय को ही आहार समझते हैं जबकि हमारी इन्द्रिया सतत भोजन आहार ग्रहण करती है ! जैसे आँख द्रश्य कान ध्वनि, नाक गंध तथा शरीर त्वचा स्पर्श रूप में आहार ग्रहण करती है ! औरयह आहार हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता रहता है ! इन्द्रियों के दवारा विषय सेवन चित एवं शरीर दोनों को विक्रत बनाता है शारीरिक क्षमता कम कर देता है !