णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।१
टीका—अरिहननाद्रजोहननाद्रहस्याभावाच्च परिप्राप्तानंतचतुष्टयस्वरूपा:, शतेन्द्रादिविनिर्मितामतिशयवतीं पूजामर्हंतीत्यर्हंत:— घातिक्षयजमनन्तज्ञानादिचतुष्टयं विभूत्याढ्यम्। येषामस्त्यर्हन्तस्तेत्र जिनेन्द्रा: समुद्दिष्टा:।।१।। विशिष्टशुक्लध्यान२ महोदयान्निखिलकर्मापाये सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान् साधितवन्तो ये ते सिद्धा:— शुक्लध्यानविशेषान्निरस्तनि:- शेषकर्मसंघाता:। सम्यक्त्वादिगुणाढ्या: सिद्धा: सिद्धिं प्रयच्छन्तु।।२।। १. क्रियाकलाप, पृ. १४२ से १४७ तक। २. माहात्म्यान इत्यपि पाठ:। ३. सामायिक भाष्य पृ. ८६ से ९९ तक। सामायिक दण्डक का हिन्दी अनुवाद
‘‘णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।१।।’’
इस महामंत्र में जिनको नमस्कार किया है, उन अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के गुणों का स्पष्टीकरण ग्रंथकार श्री प्रभाचन्द्र देव करते हैं।३ प्रथमत: अरिहन्त शब्द का निरुक्तिपूर्वक स्पष्टीकरण—मैं अरिहंत परमेष्ठी को नमस्कार करता हूँ। मोहनीय कर्म को ‘अरि’ कहते हैं। इसका घात—नाश करने से तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों की रजसंज्ञा और रहस्य अन्तरायकर्म की संज्ञा है, इन सबका अभाव होने से जिनेन्द्र भगवान अरिहंत कहे गये हैं। अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय इन चार कर्मों का हनन करने से प्रभु को अरिहंत नाम प्राप्त हुआ है। उपर्युक्त चार घातिकर्मों का नाश करने से उन्हें अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त शक्ति ये चार गुण प्रकट हो गये हैं। भगवान का अर्हन् भी नाम है। अर्ह धातु से अर्हन् शब्द निष्पन्न हुआ है। अर्ह का अर्थ पूजायोग्य होना—इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवत्र्यादिकों से की हुई अतिशय प्रभावना युक्त पूजा को प्राप्त हुए जिनेन्द्र को अर्हन् कहते हैं। अर्थात् घातिकर्मों का क्षय होने से उत्पन्न हुए समवसरण, चौंसठ चामर, तीन छत्र, सिंहासन विभव की पूर्णता के साथ अनन्तचतुष्टय जिनको हैं, वे अर्हन्त हैं वे ही यहाँ जिनेन्द्र कहे गये हैं।।१।। कृतिकर्म विधि २१४ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी स्वयं पंचधाचारमाचरंति शिष्यांश्चाचारयंति ये ते आचार्या:— पंचधाचरन्त्याचारं शिष्यानाचारयंति च। सर्वशास्त्रविदो धीरास्तेत्राचार्या: प्रर्कीितता:।।३।। ये स्वयं पंचाचारमाचरन्ति नान्यानाचारयन्त द्वादशांगादिशास्त्रं तु शिष्यानध्यापयंति ते उपाध्याया:। उपेत्य अधीयते मोक्षार्थं शास्त्रमेतेभ्य इति व्युत्पत्ते:— दिशंति द्वादशांगादिशास्त्रं लोभादिवर्जिता:। स्वयं शुद्धव्रतोपेता उपाध्यायास्तु ते मता:।।४।। शिष्याणां दीक्षादिदानाध्यापनपराङ्मुखा: सकलकर्मोन्मूलनसमर्था मोक्षमार्गानुष्ठानपरा ये ते साधव:। सिद्धिं साधयंति साधयिष्यंतीति वा साधव:— ये व्याख्यांति न शास्त्रं न ददति दीक्षादिकं च शिष्याणाम्। कर्मोन्मूलनशक्ता ध्यानरतास्तेत्र साधवो ज्ञेया:।।५।। सर्वशब्द: साधूनां विशेषणं, सर्वे च ते साधवश्चेति। तेषां अर्हदादीनां संबंधी नमो नमस्कारोऽस्तु। नम:शब्दयोगे चतुर्थी प्राप्नोतीति चेन्न प्राकृते चतुथ्र्या विधानासंभवात्। यदि वा पंचानामपि परमेष्ठिनां व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान के माहात्म्य से संपूर्ण कर्मों का नाश होने से सम्यक्त्वादिक आठ गुणों को जिन्होंने साध्य किया है, उन्हें सिद्ध परमेष्ठी कहना चाहिये। अर्थात् शुक्लध्यान की विशेषता से जिन्होंने सम्पूर्ण कर्मसमूह नष्ट कर दिये हैं तथा जो सम्यक्त्वादि गुणों के अधिपति हुए हैं, वे सिद्धपरमात्मा हमें सिद्धि—मोक्ष प्रदान करें।।२।। स्वयं पांच आचारों का पालन करते हैं तथा शिष्यों को पालन कराते हैं वे आचार्य परमेष्ठी हैं। जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार और तपाचार इन पाँच आचारों का स्वयं पालन करते हैं तथा शिष्यों को भी पालन कराते हैं, जो सर्व शास्त्रों के ज्ञाता और धीर—उपसर्गादिकों को सहते हैं, वे आचार्य परमेष्ठी हैं।।३।। जो आचारादि बारह अंगों का, उत्पादादि चौदह पूर्वों का तथा सामायिकादि अंगबाह्य शास्त्रों का ज्ञान शिष्यों को प्रदान करते हैं, उनको उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। मोक्षप्राप्ति की इच्छा मन में धारण कर जिनके संनिध आकर अध्ययन किया जाता है, वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं। इन वाक्यों का स्पष्टीकरण—
अर्थ—शिष्यों से अपने को कुछ लाभ होवे ऐसी इच्छा जिनको नहीं है तथा जगत में अपनी र्कीित पैâलाने की भी जिनके मन में इच्छा नहीं है। जो नि:स्पृह होकर वात्सल्य से शिष्यों के हितार्थ द्वादशांगादि शास्त्रों का ज्ञान उनको देते हैं वे उपाध्याय पद के धारक मुनिराज हैं। वे अपने अहिंसादि महाव्रतों की रक्षा करते हैं, वे उपाध्याय परमेष्ठी हैं। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २१५ लुप्तविभक्तिक: सर्वशब्दो लोकशब्दश्च विशेषणं। ततो णमो लोए सव्व अरहंताणमित्यादि: संबंध: कर्तव्य:। नन्वर्हदादय: संज्ञाभेदा: िंक नानात्मनामेते संभवंति िंक वा एकस्यापीति चेत् , अर्हदादिलक्षणोपेतत्वे एकस्य नानात्मनां च तत्संज्ञाभेदाविरोध:। एकस्य तल्लक्षणभेदोऽपि कथं विरोधादिति चेन्नावस्थाभेद एकस्यापि तत्संभवाविरोधात् तल्लक्षणभेदश्चोक्त: प्रागिति। चत्तारि मंगलं—अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। टीका—अर्हदादयश्चत्वारो भव्यानां मलगालनहेतुत्वात् मंगं सुखं तत्प्राप्तिहेतुत्वाद्वा मंगलम्। आचार्योपाध्याययो: पृथग्मंगलत्वप्रसङ्गाचत्वार इत्येतदयुक्तमिति चेन्न तर्योिनखिलकर्मोन्मूलनसमर्थध्यानपरत्वादिसाधुगुणोपेतत्वेन साधुष्वंतर्भावात्। शिष्यों को जो दीक्षा देते नहीं, संघरक्षण नहीं करते हैं तथा शिष्यों को जो पढ़ाते नहीं हैं, दीक्षादानादिकार्यों से पराङ्मुख हो गये हैं, जो सर्व कर्मों को नष्ट करने में दत्तचित्त हैं, रत्नत्रयाराधना करने में सतत तत्पर रहते हैं, जो मोक्षमार्ग का आचरण करने में लीन हुए हैं वे साधु हैं। जो मोक्ष को सिद्ध करते हैं, जिन्होंने मोक्षसिद्धि प्राप्त की हैं, उन्हें साधु परमेष्ठी कहना चाहिये।।५।। जो शास्त्र का निरूपण करते नहीं, जो शिष्यों को दीक्षा, प्रायश्चित, व्रतादिक नहीं देते हैं, कर्मनाश करने में खूब प्रयत्नशील हैं, सतत आत्मध्यान में तत्पर रहते हैं, उनको साधु परमेष्ठी कहते हैं। यहाँ ‘‘सर्व’’ शब्द साधु का विशेषण है। उन सर्व अर्हदादिकों को मेरा नमस्कार हो अथवा सर्व शब्द तथा लोक शब्द भी पंचपरमेष्ठियों का विशेषण है। अत: मंत्र इस प्रकार कहना चाहिए। ‘‘णमो लोए सव्व अरहंताणं। णमो लोए सव्व सिद्धाणं।’’ इत्यादि।
शंका—ये अर्हदादि नाम अनेक आत्माओं के हैं अथवा एक ही आत्मा के ये अनेक नाम है ?
उत्तर—ये नाम एक व्यक्ति के अथवा अनेक व्यक्ति के भी होते हैं। उनमें कुछ विरोध नहीं हैं। अरहंत, सिद्ध आदि नाम विशिष्ट अवस्था के द्योतक हैं। अर्थात् एक आत्मा भी आचार्य, उपाध्याय, साधु, अरहंत और सिद्ध ऐसी अवस्थाएँ क्रम से धारण करता है। किंवा कोई आचार्य अवस्था, कोई उपाध्यायपदवी, कोई साधुदशा धारण करते हैं। अत: अनेक व्यक्तियों के भी ये नाम हो सकते हैं। ऊपर सब अवस्थाओं के लक्षण भी कहे हैं। ये पूर्वकथित अर्हदादिक चार मंगल हैं, ऐसा कथन—ये अर्हदादिक चार भव्यों के लिए मंगल हैं; क्योंकि ये भव्यों का मल—गालन करने में कारण हैं। मंग—सुख, उसकी प्राप्ति होने में ये अर्हदादिक कारण हैं, अत: मंगल हैं।
शंका—आचार्य और उपाध्याय भी पृथक् मंगल होने से चार ही मंगल कहना योग्य नहीं है। उसका समाधान यह है। ये दोनों परमेष्ठी संपूर्ण कर्मों के नाशक ध्यानों की सिद्धि में तत्पर रहने से कृतिकर्म विधि २१६ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी चत्तारि लोगुत्तमा—अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
टीका—उत्तमगुणोपेतत्वात, उत्तमपदप्राप्तत्वात्, उत्तममार्गाधिरूढत्वात् , भव्यानामुत्तमगुणादिप्राप्तिहेतुत्वाद्वा अर्हदादयश्चत्वार उत्तमा:। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि— अरहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
टीका—दुर्जयकर्मारातिप्रभवदु:खार्णवोत्तरणहेतुभूतत्वादार्हदादीन् चतुर: शरणं प्रव्रजामि। संसारमहादु:खार्णवे—ऽन्यस्योत्तरणहेतुत्वासंभवात्। तथा साधु अट्ठाईस मूलगुणयुक्त होने से तीनों का समावेश उपर्युक्त चार मंगलों में हो जाता है। इसलिए चार ही मंगलदायक हैं, यह कहना अविरुद्ध है। उपर्युक्त समानता होने से आचार्य और उपाध्यायजी का साधू में जैसा अन्तर्भाव होता है, वैसे आचार्य, उपाध्याय के भिन्न—भिन्न लक्षण भी ऊपर दिखाये हैं। अत: भेदनय से उनकी भिन्नता मानकर पंचपरमेष्ठीपना भी इस तरह सिद्ध हो जाता है। ये चार जैसे मंगल हैं, वैसे ये चार लोगोत्तम भी हैं। उनके लोगोत्तमत्व का वर्णन इस प्रकार समझना— लोकोत्तम ४ हैं—अरिहंत लोकोत्तम हैं, सिद्ध लोकोत्तम हैं, साधु लोकोत्तम हैं और केवलियों से कहा हुआ धर्म लोकोत्तम है। संसारीलोगों में अनन्तचतुष्टय दिखता नहीं, अरहन्तों में दिखता है। सिद्धों में सम्यक्त्वादि आठ गुण लोकोत्तम हैं। आचार्यों में स्वयं पंचाचार पालन करना तथा शिष्यों से पालन कराना लाकोत्तम गुण हैं। उपाध्याय द्वादशांग का अध्ययन शिष्यों से कराते हैं। अत: इन गुणों से उपाध्याय लोकोत्तम हैं। साधुओं में २८ मूलगुण हैं तथा वे आत्मध्यानरत रहते हैं। अत: उनमें भी लाकोत्तमत्त्व है। केवलियों से कहा हुआ धर्म उत्तम क्षमादिगुणयुक्त तथा रत्नत्रययुक्त है। अत: वह भी लोकोत्तम है। ये अरंहतादिक चार उत्तमपद को प्राप्त होने से, उत्तम रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग पर अधिरूढ़ होने से तथा भव्यों को उत्तम गुणों की प्राप्ति कराने में कारण होने से लोकोत्तम हैं। इन चार की ही शरण जाना चाहिए, ऐसा आचार्य कहते हैं— मैं चार की ही शरण जाता हूँ। मैं अरिहंतों की शरण लेता हूँ, सिद्धों की शरण लेता हूँ, साधुओं की शरण लेता हूँ और केवलियों से कहे हुए धर्म की शरण जाता हूँ। इन अर्हत्सिद्धादि चार की मैं शरण जाता हूँ। जीतने को कठिन ऐसे कर्मरूपी शत्रुओं से उत्पन्न दु:खरूपी समुद्र से भव्यजीवों को पार उतारने वाले अर्हदादिकों की मैं शरण लेता हूँ। इनको छोड़कर अन्य हरिहरादिक इस संसाररूप महादु:खसमुद्र से जीवों को पार नहीं लगा सकते। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २१७ अड्ढाइज्जदीव—दोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु जाव अरहंताणं भयवंताणं आदियराणं तित्थयराणं जिणाणं जिणोत्तमाणं केवलियाणं, सिद्धाणं, बुद्धाणं, परिणिव्वुदाणं, अन्तयडाणं, पारयडाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसियाणं धम्मणायगाणं, धम्मवरचाउरंगचक्कवट्टीणं, देवाहिदेवाणं, णाणाणं, दंसणाणं, चरित्ताणं सदा करेमि किरियम्मं। टीका—क्वते अर्हदादय: संभवंतीत्याह—अड्ढाइज्जेत्यादि। पण्णारसकम्मभूमिसु—पंचभरता: पंचैरावता: पंचविदेहाश्चेति कर्मभूमयस्तासूत्पन्ना येऽर्हदादय:, अड्ढाइज्जदीवदोसमुद्देसु—जंबूद्वीपो धातकीखंड: पुष्कराद्र्धश्चेत्यर्धतृतीयद्वीपा:, लवणोद: कालोदश्चेति द्वौ समुद्रौ तन्मध्ये ये व्यवस्थिता:, पंचदशसु कर्मभूमिषु हि स्वयमेवोत्पन्ना अन्यत्रोपसर्गवशादृद्धिवशाद्वार्हदादयो व्यवस्थिता: तेषां सदा करोमि क्रियाकर्मेत्येनेनाभिसंबंध:। तत्र कीदृक्स्वरूपाणां अर्हतां सदा करोमि क्रियाकर्मेत्याह— जावअरहंताणमित्यादि। जाव—यावतां यत्परिमाणानामनाद्यनिधनकाल-प्रवृत्तानां, अरहंताणं अर्हतां। भयवंताणं—भगवतां ज्ञानवतां पूज्यानां वा। आदियराणं—आदितीर्थप्रवर्तकानां। तित्थयराणं—तीर्थं श्रुतमर्हतां उत्तमक्षमादिलक्षणो धर्मश्च संसारसागरोत्तरणहेतुत्वात्, तत्कृतवतां। जिणाणं—जिनानां ये अर्हदादिक कहाँ उत्पन्न होते हैं, इस प्रश्न का उत्तर— ढाईद्वीपों में अर्थात् जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और पुष्करार्ध द्वीप तथा लवणसमुद्र और कालोदसमुद्र के प्रदेशों में उत्पन्न होते हैं। ढाईद्वीपों में पंद्रह कर्मभूमियाँ हैं—५ भरत, ५ ऐरावत और ५ विदेह। इनमें तीर्थंकरादिकों की उत्पत्ति होती हैं। तथापि भोगभूमि और समुद्रप्रदेश में भी इनका अस्तित्व दिखता है। वह इस प्रकार— कर्मभूमियों में तो इनका निवास स्वयं होता है और समुद्र तथा भोगभूमियों में उपसर्गवश या ऋद्धिविशेष के कारण अस्तित्व होता है। मुनि कभी कभी भोगभूमियों में उपदेश देने के लिए ऋद्धि से जाते हैं, ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है। एक कर्मभूमि के मुनि उपसर्ग के कारण अन्य कर्मभूमि में मुक्त हुए, ऐसे उल्लेख मिलते हैं। अरिहंत अनादिकाल से उत्पन्न हो रहे हैं तथा वे अविच्छिन्नरूप से उत्पन्न होते रहेंगे अर्थात् वे अनाद्यनिधन हैं। तीर्थंकर ज्ञानादि विभूति से मंडित और त्रिलोकपूज्य होते हैं। अरहंत जिन धर्मोद्धारक होने से तीर्थंकर कहलाते हैं। उनका कहा हुआ द्वादशाङ्ग शास्त्र तथा उनसे कहा गया क्षमादिरूप दशधर्म तीर्थ कहा जाता है। ये उभय तीर्थ भव्यों को संसार से तारते हैं। अत: उनको तीर्थ कहते हैं। इस तीर्थ को अरहंत उत्पन्न करते हैं। अत: उन्हें तीर्थंकर कहा जाता है। भयंकर नानाविध दु:खों को उत्पन्न करने वाले कर्मों को अरिहंतों ने जीता है। अत: उनको ‘जिन’ कहते हैं। गणधरों को ‘देशजिन’ कहते हैं। उनमें भी श्रेष्ठ होने से अरिहंत जिनोत्तम कहलाते हैं। उन्हें केवली भी कहते हैं। इस प्रकार नाना नामों को धारण करने वाले अरहंतों की स्तुति करके अब मैं क्रियाकर्म आलोचनादिक कत्र्तव्यकर्म करता हूँ। कृतिकर्म विधि २१८ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी अनेकविषमभवगहनव्यसनप्रापणहेतुकर्मारात्युन्मूलकानां। जिणोत्तमाणं—देशजिनेभ्यो गणधरदेवादिभ्य उत्कृष्टानां। केवलियाणं—केवलज्ञानसम्पन्नानां। तथा जाव सिद्धाणं—यत्परिमाणानां सिद्धानां सदा क्रियाकर्म करोमि। कथंभूतानां? बुद्धाणं—निखिलार्थज्ञानवतां। अनेन मुक्तात्मनां जडरूपता यौगोपकल्पिता प्रत्युक्ता। परिणिव्वुदाणं—परिनिर्वृतानां सुखीभूतानामित्यर्थ:। अनेन सांख्यैर्मुक्तस्य शुद्धं यच्चैतन्यमात्रमिष्टं तन्निरस्तं। अंतयडाणं—अशेषकर्मणां तत्प्रभवसंसारस्य चान्तं विनाशं कृतवतामित्यनेन सदा मुक्तत्वमीश्वरस्य निराकृतं। यदि वा एवैâकस्य तीर्थकरस्य काले दश दश अंतकृतो भवंति तद्रूपाणां। ये हि दुद्र्धरोपसर्गं प्राप्यांतर्मुहूर्तमध्ये घातिकर्मक्षयं कृत्वा केवलमुत्पाद्य शेषकर्मक्षयं च विधाय सिद्धयन्ति तेंतकृत इत्युच्यंते। पारयडाणं—संसारमहोदधे: पारं पर्यंतं कृतवतां। पारगयाणमिति पाठे पारंगतानां। तथा आचार्यादीनां यत्परिमाणानां सदा क्रियाकर्म करोमि। िंकविशिष्टानां ? धम्माइरियाणं—धर्मश्चारित्रं ‘चारित्तं खलु धम्मो’ इत्याभिधानात् उत्तमक्षमादिरूपो वा तमाचरतां आचायतां वा आचार्याणां। धम्मदेसयाणं— उपाध्यायानामित्यर्थ:। धम्मणायगाणं—धर्मानुष्ठात¸णां सर्वसाधूनामित्यर्थ:। कथंभूतानामेतेषां पंचानामित्याह—धम्मेत्यादि धम्मवरचाउरंगचक्कवट्टीणं—धर्म एव वरं चातुरंगं स्वकार्यकरणे अप्रतिहतप्रसरत्वात् तस्य चक्रर्वितनां स्वामिनां। देवाहिदेवाणं—देवानां चतुर्णिकायरूपाणां अधिदेवानां— वंद्यानामित्यर्थ:। अथ गुणिन: स्तुत्वा गुणांस्तोतुमाह—णाणाणमित्यादि ज्ञानदर्शनचारित्राणां सदा करोमि क्रियाकर्म। गुणनामानंत्यसंभवेऽपि रत्नत्रयस्य प्राधान्येन मोक्षोपायभूतत्वात्तदेव स्तुतं। अब मैं सिद्धों की स्तुति करता हूँ। सिद्धपरमेष्ठियों को सर्व परपदार्थों का ज्ञान होता है। अत: उन्हें बुद्ध कहते हैं। यौगमती मुक्तात्माओं को ज्ञानरहित मानते हैं। उनका निरसन करने के लिए आचार्य सिद्धों को ‘बुद्ध’ कहते हैं। जैनाचार्य नैयायिक के समान मुक्तात्माओं को ज्ञानरहित नहीं मानते हैं। ज्ञान आत्मस्वभाव होने से कर्म के अभाव से मुक्तदशा में पूर्णावस्था को पहुँचता है। अत: मुक्तात्माओं को अज्ञानी कहना योग्य नहीं है। सिद्ध अनंत सुखी होने से ‘परिनिर्वृत्त’ कहे जाते हैं। मुक्तदशा में शुद्धचेतना रहती है। अत: वह ज्ञान और सौख्यरहित है सांख्यजन ऐसा कहते हैं। परन्तु ज्ञान के समान ही सुख भी आत्मधर्म होने से मुक्तदशा में भी कायम रहता है। अत: सिद्ध अनंतसुखी होते हैं। संपूर्ण कर्मों का तथा संसार का नाश करने वाले सिद्धों को अन्तकृत् कहते हैं, ‘अन्तकृत्’ शब्द से जीव की मुक्तिदशा अनादि नहीं है, यह अभिप्राय सिद्ध होता है। नैयायिकों ने ईश्वर को सदामुक्त कहा है। उनका निरसन करने के लिए आचार्यों ने ‘अन्तकृत्’ शब्द की योजना की है। मुक्तावस्था सापेक्ष है, संसारदशा के बिना मुक्तावस्था नहीं है। संसारदशा नष्ट होकर ही मुक्तदशा जीव की प्रकट होती है। जगत् में सदामुक्त कोई नहीं है। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २१९ करेमि भंते! सामाइयं सव्वसावज्जजोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा, वचसा कायेण ण करेमि, ण कारेमि, करंतं पि ण समणुमणामि तस्स भंते! अइचारं पडिक्कमामि णिंदामि, गरहामि, जाव अरहंताणं भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि। टीका—अर्हदानीनां क्रियाकर्म कुर्वाणो भंते—भगवन् प्रथमतस्तावत्सामायिवंâ करोमि। िंक पुन: सामायिवंâ इति चेत् माध्यस्थ्यं रागद्वेषयोरभाव:। तदुत्तंâ। जीवियमरणे लाहालाहे संजोगविप्पजोगे य। बंधुरिसुहदुक्खादिसु समदा सामाइयं णाम।।१।। तं च कुर्वाण: सव्वं—सर्वमपि सावज्जजोगं—अशुभमनोवाक्कायव्यापारं पच्चक्खामि—परित्यजामि। कथं? जावजीवं—जीवितपर्यन्तं। कथं ? तिविहेण—तदेव त्रैविध्यं दर्शयति मणसा वचिया कायेणेति। कायेन तावत्स्वयं न करोमि, वचसा न कारयामि, मनसा अन्यं कुर्वन्तमपि सावद्ययोगं न समनुमन्ये। एवं वचसा मनसा च न करोमीत्यादि योज्यम्। तस्सेत्यादि—तस्य अर्हदादिक्रियाकर्मण: संबंधिनमतीचारं अन्तकृत् शब्द से दूसरा अर्थ भी यहाँ ग्राह्य है। प्रत्येक तीर्थंकर के समय दारुण उपसर्ग सहनकर दशदशमुनि मुक्त होते हैं। वे अन्तर्मुहूर्त में घातिकर्मों के विनाश से केवलज्ञान प्राप्त करके उसी समय आयुकर्मादिक अघातिकर्मों का भी नाश होने से मुक्त होते हैं। सिद्धपरमेष्ठी संसारसमुद्र के दूसरे किनारे को प्राप्त कर लेते हैं। अत: उन्हें पारकृत् कहते हैं। ऐसे अनेक नाम धारण करने वाले सिद्धों की स्तुति करके मैं क्रियाकर्म करता हूँ। अब धर्माचार्य की स्तुति करते हैं—वे धर्माचार्य धर्मोपदेश देते हैं। ‘चारित्तं खलु धम्मो’ निश्चय से चारित्र को धर्म कहा है। अथवा उत्तम क्षमादिरूप दशधर्म है, उनका आचरण वे करते हैं तथा शिष्यों से आचरण कराते हैं। धर्मोपदेश देने वाले उपाध्याय परमेष्ठी की मैं स्तुति करता हूँ। धर्म की साधना करने वाले साधुपरमेष्ठी की मैं स्तुति करता हूँ। रत्नत्रय धर्म का आचरण करने वाले सर्वसाधुजनों की मैं स्तुति करता हूँ। ये पंचपरमेष्ठी धर्मरूपसैन्य के स्वामी हैं, चक्रवर्ती है। ये चतुर्णिकाय देवों से वन्दनीय है तथा रत्नत्रयस्वरूप जगद्वन्द्य है। इनकी स्तुति करके मैं क्रियाकर्म करता हूँ। हे भगवन् अब ‘मैं सामायिक करता हूँ। माध्यस्थ्य को—रागद्वेषों के अभाव को सामायिक कहते हैं। इस सामायिक का स्वरूप ऐसा कहा है— जीवित, मरण, लाभ और हानि, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, बंधु—शत्रु, सुख तथा दु:ख इन अवस्थाओं में समताभाव रखना ही सामायिक कहलाता है अर्थात् कषायों का उद्रेक न होने देना सामायिक है। कृतिकर्म विधि २२० / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी हे भगवन् , यदि कोई व्यक्ति पापप्रवृत्ति कर रहा है तो उसे सामायिक करने वाला मैं मन, वचन, काय के द्वारा सम्मति नहीं दूँगा। तथा वचन और शरीर से भी स्वयं अशुभप्रवृत्ति नहीं करूंगा, किसी के द्वारा अशुभप्रवृत्ति नहीं कराऊँगा तथा करने वाले को सम्मति प्रदान नहीं करूँगा। सामायिक करते समय जो दोष मैंने किये हों, उनकी मैं निन्दा और गर्हा करके त्याग करता हूँ। ‘‘हाय ! मैंने पापकार्य किये, मैं दुष्ट हूँ’’ इस प्रकार से अपनी आत्मसाक्षी से निर्भत्र्सना करना िंनदा है तथा देव, गुरु, शास्त्र के आगे मैंने अशुभ कार्य किये, ऐसा कहकर अपनी निंदा करना, उसे गर्हा कहते हैं। यही िंनदा और गर्हा में अन्तर है। जबतक शुद्ध अन्त:करण से पूज्य सर्वज्ञ अर्हत् परमेष्ठी का चिन्तन, सेवाभक्ति करूँगा, तब तक संसारवद्र्धक पापकर्म तथा अशुभचेष्टाओं का त्याग करता हूँ। उन पापकर्मों में तथा अशुभ चेष्टाओं में मैं उदासीन रहूँगा। दोषं भंते—भगवन् पडिक्कमामि निराकरोमि। कथं तत् पडिक्कमामि इत्याह णिंदामीत्यादि। कृतदोषस्यात्मसाक्षिकं हा दुष्टं कृतमिति चेतसि भावनं िंनदा। गुर्वादिसाक्षिवंâ तदेव गर्हेत्युच्यते। न केवलं सावद्ययोगमेव प्रत्याख्यामि किन्तु जाव अरहंताणं—यावत्कालमर्हतां। भयवंताणं—भगवतां ज्ञानवतां पूज्यानां वा, पज्जुवासं करेमि—विशुद्धेन मनसा भगवतोऽनुिंचतनं पर्युपासनं सेवां तत्करोमि, तावकालं—तावत्कालं, पावकम्मं, पापं—अशुभं संसारप्रवृद्धिनिमित्तं कर्म यस्मात्पापाय वा कर्म क्रिया व्यापारो यस्य, दुच्चरियं—दुष्टं संसारप्रवृत्तिनिमित्तं चरित्रं चेष्टितं व्यापारो यस्य वोस्सरामि—व्युत्सृजामि तत्रोदासीनो भवामि इत्यर्थ:। श्रीपाश्र्वनाथ जिनस्तुति: -उपजातिछंदकल्याणकल्पद्रुमसारभूतं, चिंतामणिं चिंतितदानदक्षम्। श्रीपाश्र्वनाथस्य सुपादपद्मं, नमामि भक्त्या परया मुदा च।। जो कल्याण कल्पतरु सार-भूत चिंतामणि चिंतितदा। श्रीपारस प्रभु पादकमल को, भक्तिभाव से नमूँ मुदा।।
-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी