आदितीर्थ—प्रवर्तकानां’’ टीकाकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने कहा है— पाँच भरतक्षेत्र और पाँच ऐरावत क्षेत्र इन दश क्षेत्रों में कर्मभूमि में अवर्सिपणी व उत्सर्पिणी के चतुर्थ काल में जो भी प्रथम तीर्थंकर होते हैं वे सभी तीर्थंकर ‘आदिकर’ कहलाते हैं चूँकि अवर्सिपणी में उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि में असि, मषि आदि षट् क्रियाओं के न होने से व उत्र्सिपणी में छठे, पंचमकाल के कर्मभूमि के व्यतीत हो जाने से विधिवत् चतुर्थ काल के प्रारम्भ में वर्णव्यवस्था आदि के सुचारु न होने से ये प्रथम तीर्थंकर षट्क्रिया, वर्ण—व्यवस्था आदि क्रियाओं को अपने अवधिज्ञान से, विदेह क्षेत्रों में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था को जानकर, उसी प्रकार व्यवस्था बनाकर या बतलाकर युगस्रष्टा, आदिब्रह्मा, विधाता व प्रजापति कहलाते हैं। ये सभी वर्तमान चौबीसी में आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के समान ही व्यवस्था बतलाते हैं, ऐसा समझना। इसी प्रकार अध्याय—७ में ‘आदिकम्मं’ पद आया है उसकी टीका देखें— ‘‘आइकम्मं’’ कर्मभूम्यनुप्रवेशे प्रथमत: प्रवृत्तमसिमषिकृष्यादिकं कृत्रिमं कर्म।१ इसी प्रकार अध्याय ९ में ‘आदियरेिंह’ पद की टीका देखें— ‘‘आदियरेिंह’’ आदिमुच्छिन्नस्य तीर्थस्य प्रथमप्रवृत्ति ये कुर्वन्ति त आदिक—रास्तै:।।२ भगवान ऋषभदेव के द्वारा विद्या, शिक्षा आदि उन सब राजकुमारों में तेजस्वियों में भी तेजस्वी भरत सूर्य के समान सुशोभित होता था और समस्त संसार से अत्यन्त सुन्दर युवा बाहुबली चन्द्रमा के समान शोभायमान होता था।।६९।। शेष राजपुत्र ग्रह, नक्षत्र तथा तारागण के समान शोभायमान होते थे। उन सब राजपुत्रों में ब्राह्मी दीप्ति के समान और सुन्दरी चाँदनी के समान सुशोभित होती थी।।७०।। उन सब पुत्र—पुत्रियों से घिरे हुए सौभाग्यशाली भगवान् वृषभदेव ज्योतिषी देवों के समूह से घिरे हुए ऊँचे मेरु पर्वत की तरह सुशोभित होते थे।।७१।।३ अथानन्तर किसी एक समय भगवान् वृषभदेव सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे कि उन्होंने अपना चित्त कला और विद्याओं के उपदेश देने में व्यापृत किया—लगाया।।७२।। उसी समय उनकी ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की पुत्रियाँ मांगलिक वेष—भूषा धारणकर उनके निकट पहुँची।।७३।। वे दोनों ही पुत्रियाँ कुछ—कुछ उठे हुए स्तनरूपी कुड्मलों से शोभायमान और बाल्य अवस्था के अनन्तर १. प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी पृ. ९९-१००, २. प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी—पृ. १४२। ३. आदिपुराण पर्व—१६। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २२९ प्राप्त होने वाली किशोर अवस्था में वर्तमान थीं अतएव अतिशय सुन्दर जान पड़ती थीं।।७४।। वे दोनों ही कन्याएँ बुद्धिमती थीं, विनीत थी, सुशील थीं, सुन्दर लक्षणों से सहित थीं, रूपवती थीं और मानिनी स्त्रियों के द्वारा भी प्रशंसनीय थी।।७५।। क्या ये दोनों दिव्य कन्याएँ हैं ? अथवा नागकन्याएँ हैं ? अथवा दिक्कन्याएँ है ? अथवा सौभाग्य देवियाँ हैं, अथवा लक्ष्मी और सरस्वती देवी हैं, अथवा उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं ? अथवा उनका अवतार हैं ? अथवा क्या जगन्नाथ (वृषभदेव) रूपी महासमुद्र से उत्पन्न हुई लक्ष्मी हैं ? क्योंकि इनकी यह आकृति अनेक कल्याणों का अनुभव करने वाली है इस प्रकार लोग बड़े आश्चर्य के साथ जिनकी प्रशंसा करते हैं ऐसी उन दोनों कन्याओं ने विनय के साथ भगवान् के समीप जाकर उन्हें प्रणाम किया।।९०-९३।। दूर से ही जिनका मस्तक नम्र हो रहा है ऐसी नमस्कार करती हुई उन दोनों पुत्रियों को उठाकर भगवान् ने प्रेम से अपनी गोद में बैठाया, उन पर हाथ फेरा, उनका मस्तक सूँघा और हँसते हुए उनसे बोले कि आओ, तुम समझती होगी कि हम आज देवों के साथ अमरवन को जायेंगी परन्तु अब ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि देव लोग पहले ही चले गऐ हैं।९४-९५।। इस प्रकार भगवान् वृषभदेव क्षणभर उन दोनों पुत्रियों के साथ क्रीड़ा कर फिर कहने लगे कि तुम अपने शील और विनयगुण के कारण युवावस्था में भी वृद्धा के समान हो।।९६।। तुम दोनों का यह शरीर, यह अवस्था और यह अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित किया जाये तो तुम दोनों का यह जन्म सफल हो सकता है।।९७।। इस लोक में विद्यावान् पुरुष पण्डितों के द्वारा भी सम्मान को प्राप्त होता है और विद्यावती स्त्री भी सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त होती है।।९८।। विद्या ही मनुष्यों का यश करने वाली है, विद्या ही पुरुषों का कल्याण करने वाली है, अच्छी तरह से आराधना की गयी विद्या देवता ही सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली है।।९९।। विद्या मनुष्यों के मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु है, विद्या ही चिन्तामणि है, विद्या ही धर्म, अर्थ तथा कामरूप फल से सहित सम्पदाओं की परम्परा उत्पन्न करती है।।१००।। विद्या ही मनुष्यों का बन्धु है, विद्या ही मित्र है, विद्या ही कल्याण करने वाली है, विद्या ही साथ—साथ जाने वाला धन है और विद्या ही सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है।।१०१।। इसलिए हे पुत्रियों, तुम दोनों विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो क्योंकि तुम दोनों के विद्या ग्रहण करने का यही काल है।।१०२।। भगवान् वृषभदेव ने ऐसा कहकर तथा बार—बार उन्हें आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित किया, फिर दोनों हाथो से ‘अ आ’ आदि वर्णमाला लिखकर उन्हें लिपि (लिखने का) उपदेश दिया और अनुक्रम से इकाई—दहाई आदि अंकों के द्वारा उन्हें संख्या के ज्ञान का भी उपदेश दिया। भावार्थ–ऐसी प्रसिद्धि है कि भगवान् ने दाहिने हाथ से वर्णमाला और बायें हाथ से संख्या लिखी थी।।१०३-१०४।। कृतिकर्म विधि २३० / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी तदनन्तर जो भगवान् के मुख से निकली हुई है, जिसमें ‘सिद्धं नम:’ इस प्रकार का मंगलाचरण अत्यन्त स्पष्ट है, जिसका नाम सिद्धमातृका है, जो स्वर और व्यंजन के भेद से दो भेदों को प्राप्त है, जो समस्त विद्याओं में पायी जाती है, जिसमें अनेक संयुक्त अक्षरों की उत्पत्ति है, जो अनेक बीजाक्षरों से व्याप्त है और जो शुद्ध मोतियों की माला के समान है ऐसी अकार को आदि लेकर हकार पर्यन्त तथा विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय इन अयोगवाह पर्यन्त समस्त शुद्ध अक्षरावली को बुद्धिमती ब्राह्मी पुत्री ने धारण किया और अतिशयसुन्दरी, सुन्दरी देवी ने इकाई, दहाई आदि स्थानों के क्रम से गणित शास्त्र को अच्छी तरह धारण किया।।१०५-१०८।। वाङ्मय के बिना न तो कोई शास्त्र है और न कोई कला है, इसलिए भगवान् वृषभदेव ने सबसे पहले उन पुत्रियों के लिए वाङ्मय का उपदेश दिया था।।१०९।। अत्यन्त बुद्धिमती उन कन्याओं ने सरस्वती देवी के समान अपने पिता के मुख से संशय, विपर्यय आदि दोषों से रहित शब्द तथा अर्थरूप समस्त वाङ्मय का अध्ययन किया था।।११०।। वाङ्मय के जानने वाले गणधरादि देव व्याकरण शास्त्र, छन्दशास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं।।१११।। उस समय स्वयम्भू अर्थात् भगवान वृषभदेव का बनाया हुआ एक बड़ा भारी व्याकरण शास्त्र प्रसिद्ध हुआ था उसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गम्भीर था।।११२।। इसी प्रकार उन्होंने अनेक अध्यायों में छन्दशास्त्र का भी उपदेश दिया था और उसके उक्ता, अत्युक्ता आदि छब्बीस भेद भी दिखलाये थे।।११३।। अनेक विद्याओं के अधिपति भगवान् ने प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, एकद्वित्रिलघुक्रिया, संख्या और अध्वयोग छन्दशास्त्र के इन छह प्रत्ययों का भी निरूपण किया था।।११४।। भगवान् ने अलंकारों का संग्रह करते समय अथवा अलंकार संग्रह ग्रंथ में उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकारों का कथन किया था, उनके शब्दालंकार और अर्थालंकाररूप दो मार्गों का विस्तार के साथ वर्णन किया था और माधुर्य ओज आदि दश प्राण अर्थात् गुणों का भी निरूपण किया था।।११५।। अथानन्तर ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों की पदज्ञान (व्याकरण ज्ञान) रूपी दीपिका से प्रकाशित हुई समस्त विद्याएँ और कलाएँ अपने आप ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो गयी थीं।।११६।। इस प्रकार गुरु अथवा पिता के अनुग्रह से जिनने समस्त विद्याएँ पढ़ ली हैं ऐसी वे दोनों पुत्रियाँ सरस्वती देवी के अवतार लेने के लिए पात्रता को प्राप्त हुई थी। भावार्थ—वे इतनी अधिक ज्ञानवती हो गयी थीं कि साक्षात् सरस्वती भी उनमें अवतार ले सकती थी।।११७।। जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव ने इसी प्रकार अपने भरत आदि पुत्रों को भी विनयी बनाकर क्रम से आम्नाय के अनुसार अनेक शास्त्र पढ़ाये।।११८।। भगवान् ने भरत पुत्र के लिए अत्यन्त विस्तृत बड़े—बड़े अध्यायों से स्पष्टकर अर्थशास्त्र और संग्रह (प्रकरण) सहित नृत्यशास्त्र पढ़ाया था।।११९।। स्वामी वृषभदेव ने अपने पुत्र वृषभसेन के लिए जिसमें गाना, बजाना आदि अनेक पदार्थों का संग्रह है और जिसमें सौ से भी अधिक अध्याय हैं ऐसे गन्धर्व शास्त्र का व्याख्यान किया था।।१२०।। श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २३१ अनन्तविजय पुत्र के लिए नाना प्रकार के सैकड़ों अध्यायों से भरी हुई चित्रकला—सम्बन्धी विद्या का उपदेश दिया और लक्ष्मी या शोभा सहित समस्त कलाओं का निरूपण किया।।१२१।। इसी अनन्त— विजय पुत्र के लिए उन्होंने सूत्रधार की विद्या तथा मकान बनाने की विद्या का उपदेश दिया।। उस विद्या के प्रतिपादक शास्त्रों में अनेक अध्यायों का विस्तार था तथा उसके अनेक भेद थे।।१२२।। बाहुबली पुत्र के लिए उन्होंने कामनीति, स्त्री—पुरुषों के लक्षण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, घोड़ा—हाथी आदि के लक्षण जानने के तन्त्र और रत्नपरीक्षा आदि के शास्त्र अनेक प्रकार के बड़े—बड़े अध्यायों के द्वारा सिखलाये।।१२३-१२४।। इस विषय में अधिक कहने से क्या प्रयोजन है ? संक्षेप में इतना ही बस है कि लोक का उपकार करने वाले जो—जो शास्त्र थे भगवान् आदिनाथ ने वे सब अपने पुत्रों को सिखलाये थे।।१२५।। जिस प्रकार स्वभाव से देदीप्यमान रहने वाले सूर्य का तेज शरद् ऋतु के आने पर और भी अधिक हो जाता है उसी प्रकार जिन्होंने अपनी समस्त विद्याएँ प्रकाशित कर दी हैं ऐसे भगवान् वृषभदेव का तेज उस समय भारी अद्भुत हो रहा था।।१२६।। जिन्होंने समस्त विद्याएँ पढ़ ली हैं ऐसे पुत्रों से भगवान् वृषभदेव उस समय उस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार कि शरद्ऋतु में अधिक कान्ति को प्राप्त होने वाला सूर्य अपनी किरणों से सुशोभित होता है।।१२७।। अपने इष्ट पुत्र और इष्ट स्त्रियों से घिरे हुए भगवान् वृषभदेव का बहुत भारी समय निरन्तर अनेक प्रकार के दिव्य भोग भोगते हुए व्यतीत हो गया।।१२८।। इस प्रकार अनेक प्रकार के भोगों का अनुभव करते हुए भगवान् का बीस लाख पूर्व वर्षों का कुमारकाल पूर्ण हुआ था ऐसी उत्तम मुनिगणधरदेव ने गणना की है।।१२९।। इसी बीच में काल के प्रभाव से महौषधि, दीप्तौषधि, कल्पवृक्ष तथा सब प्रकार की औषधियाँ शक्तिहीन हो गयी थीं।।१३०।। मनुष्यों के निर्वाह के लिए जो बिना बोये हुए उत्पन्न होने वाले धान्य थे वे भी काल के प्रभाव से पृथिवी में प्राय: करके विरलता को प्राप्त हो गये थे—जहाँ कहीं कुछ–कुछ मात्रा में ही रह गये थे।।१३१।। जब कल्पवृक्ष रस, वीर्य और विपाक आदि से रहित हो गये तब वहाँ की प्रजा रोग आदि अनेक बाधाओं से व्याकुलता को प्राप्त होने लगी।।१३२।। कल्पवृक्षों के रस, वीर्य आदि के नष्ट होने से व्याकुल मनोवृत्ति को धारण करती हुई प्रजा जीवित रहने की इच्छा से महाराज नाभिराज के समीप गयी।।१३३।। तदनन्तर नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान् वृषभनाथ के समीप गयी और अपने जीवित रहने के उपाय प्राप्त करने की इच्छा से उन्हें मस्तक झुकाकर नमस्कार करने लगी।।१३४।। अथानन्तर अन्नादि के नष्ट होने से जिसे अनेक प्रकार के भय उत्पन्न हो रहे हैं और जो सबको शरण देने वाले भगवान् की शरण को प्राप्त हुई है, ऐसी प्रजा सनातन—भगवान् के समीप जाकर इस प्रकार निवेदन करने लगी कि।।१३५।। हे देव, हम लोग जीविका प्राप्त करने की इच्छा से आपकी शरण में आये हुए हैं इसलिए हे तीन लोक के स्वामी, आप उसके उपाय दिखलाकर हम लोगों की रक्षा कीजिए।।१३६।। हे विभो, जो कृतिकर्म विधि २३२ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी कल्पवृक्ष हमारे पिता के समान थे—पिता के समान ही हम लोगों की रक्षा करते थे वे सब मूल सहित नष्ट हो गये हैं और जो धान्य बिना बोये ही उत्पन्न होते थे वे भी अब नहीं फलते हैं।।१३७।। हे देव ! बढ़ती हुई भूख, प्यास आदि की बाधाएँ हम लोगों को दुखी कर रही है। अन्न—पानी से रहित हुए हम लोग अब एक क्षण भी जीवित रहने के लिए समर्थ नहीं हैं।।१३८।। हे देव ! शीत, आतप, महावायु और वर्षा आदि का उपद्रव आश्रयरहित हम लोगों को दुखी कर रहा है इसलिए आज इन सबके दूर करने के उपाय कहिए।।१३९।। हे विभो, आप इस युग के आदि कर्ता है और कल्पवृक्ष के समान उन्नत हैं, आपके आश्रित हुए हम लोग भय के स्थान वैâसे हो सकते हैं ?।।१४०।। इसलिए हे देव, जिस प्रकार हम लोगों की आजीविका निरुपद्रव हो जाये, आज उसी प्रकार उपदेश देने का प्रयत्न कीजिए और हम लोगों पर प्रसन्न होइए।।१४१।। इस प्रकार प्रजाजनों के दीन वचन सुनकर जिनका हृदय दया से प्रेरित हो रहा है ऐसे भगवान् आदिनाथ अपने मन में ऐसा विचार करने लगे।।१४२।। कि पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है।।१४३।। वहाँ जिस प्रकार असि, मषी आदि छह कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम— घर आदि की पृथक््â—पृथक््â रचना है उसी प्रकार यहाँ पर भी होनी चाहिए। इन्हीं उपायों से प्राणियों की आजीविका चल सकती है। इनकी आजीविका के लिए और कोई उपाय नहीं है।।१४४-१४५।। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर अब यह कर्मभूमि प्रकट हुई है, इसलिए यहाँ प्रजा को असि, मषी आदि छह कर्मों के द्वारा ही आजीविका करना उचित है।।१४६।। इस प्रकार स्वामी वृषभदेव ने क्षणभर प्रजा के कल्याण करने वाली आजीविका का उपाय सोचकर उसे बार—बार आश्वासन दिया कि तुम भयभीत मत होओ।।१४७।। अथानन्तर भगवान् के स्मरण करने मात्र से देवों के साथ इन्द्र आया और उसने नीचे लिखे अनुसार विभाग कर प्रजा की जीविका के उपाय किये।।१४८।। शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न के समय तथा सूर्य आदि ग्रहों के अपने—अपने उच्च स्थानों में स्थित रहने और जगद्गुरु भगवान् के हर एक प्रकार की अनुवूâलता होने पर इन्द्र ने प्रथम ही मांगलिक कार्य किया और फिर उसी अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिर की रचना की। इसके बाद पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी यथाक्रम से जिनमन्दिरों की रचना की।।१४९-१५०।। तदनन्तर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमा सहित गाँव तथा खेड़ों आदि की रचना की थी।।१५१।। सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, उण्ड्र, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, किंलग, अंग, वंग, सुह्य, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्णाट, कौशल, चोल, केरल, दारु, अभिसार, श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २३३ सौवीर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदि, पल्लव, काम्बोज, आरट्ट, वाह्लीक, तुरुष्क, शक और केकय इन देशों की रचना की तथा इनके सिवाय उस समय और भी अनेक देशों का विभाग किया।।१५२-१५६।। इन्द्र ने उन देशों में से कितने ही देश यथासम्भवरूप से अदेवमातृक अर्थात् नदी—नहरों आदि से सींचे जाने वाले, कितने ही देश देवमातृक अर्थात् वर्षा के जल से सींचे जाने वाले और कितने ही देश साधारण अर्थात् दोनों से सींचे जाने वाले निर्माण किये थे।।१५७।। जो पहले नहीं थे नवीन ही प्रकट हुए थे ऐसे देशों से वह पृथिवीतल ऐसा सुशोभित होता था मानो कौतुकवश स्वर्ग के टुकड़े ही आये हों।।१५८।। विजयार्ध पर्वत के समीप से लेकर समुद्र पर्यन्त कितने ही देश साधारण थे, कितने ही बहुत जलवाले थे और कितने ही जल की दुर्लभता से सहित थे, उन देशों से व्याप्त हुई पृथिवी भारी सुशोभित होती थी।।१५९।। जिस प्रकार स्वर्ग के धामों—स्थानों की सीमाओं पर लोकपाल देवों के स्थान होते हैं उसी प्रकार उन देशों की अन्त सीमाओं पर भी सब ओर अन्तपाल अर्थात् सीमारक्षक पुरुषों के किले बने हुए थे।।१६०।। उन देशों के मध्य में और भी अनेक देश थे जो लुब्धक, आरण्य, चरट, पुलिन्द तथा शबर आदि म्लेच्छ जाति के लोगों के द्वारा रक्षित रहते थे।।१६१।। उन देशों के मध्यभाग में कोट, प्राकार, परिखा, गोपुर और अटारी आदि से शोभायमान राजधानी सुशोभित हो रही थीं।।१६२।। जिनका दूसरा नाम स्थानीय है ऐसे राजधानीरूपी किले को घेरकर सब ओर शास्त्रोक्त लक्षण वाले गाँवों आदि की रचना हुई थी।।१६३।। जिनमें बाड़ से घिरे हुए घर हों, जिनमें अधिकतर शूद्र और किसान लोग रहते हों तथा जो बगीचा और तालाबों से सहित हों, उन्हें ग्राम कहते हैं।।१६४।। जिसमें सौ घर हों उसे निकृष्ट अर्थात् छोटा गाँव कहते हैं तथा जिसमें पाँच सौ घर हों और जिसके किसान धनसम्पन्न हों उसे बड़ा गाँव कहते हैं।।१६५।। छोटे गाँवों की सीमा एक कोस की और बड़े गाँवों की सीमा दो कोस की होती है। इन गाँवों के धान के खेत सदा सम्पन्न रहते हैं और इनमें घास तथा जल भी अधिक रहता है।।१६६।। नदी, पहाड़, गुफा, श्मशान, क्षीरवृक्ष अर्थात् थूबर आदि के वृक्ष, बबूल आदि कंटीले वृक्ष, वन और पुल ये सब उन गाँवों की सीमा के चिन्ह कहलाते हैं अर्थात् नदी आदि से गाँवों की सीमा का विभाग किया जाता है।।१६७।। गाँव के बचाने और उपभोग करने वालों के योग्य नियम बनाना, नवीन वस्तु के बनाने और पुरानी वस्तु की रक्षा करने के उपाय, वहाँ के लोगों से बेगार कराना, अपराधियों को दण्ड देना तथा जनता से कर वसूल करना आदि कार्य राजाओं के अधीन रहते थे।।१६८।। जो परिखा, गोपुर, अटारी, कोट और प्राकार से सुशोभित हो, जिसमें अनेक भवन बने हुए हों, जो बगीचे और तालाबों से सहित हो, जो उत्तम रीति से अच्छे स्थान पर बसा हुआ हो, जिसमें पानी का प्रवाह पूर्व और उत्तर के बीच वाली ईशान दिशा की ओर हो और जो प्रधान पुरुषों के रहने के योग्य हो, वह प्रशंसनीय पुर अथवा नगर कहलाता है।।१६९-१७०।। जो नगर नदी और पर्वत से घिरा कृतिकर्म विधि २३४ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी हुआ हो उसे बुद्धिमान् पुरुष खेट कहते हैं और जो केवल पर्वत से घिरा हुआ हो उसे खर्वट कहते हैं।।१७१।। जो पाँच सौ गाँवों से घिरा हो उसे पण्डितजन मडम्ब मानते हैं और जो समुद्र के किनारे हो तथा जहाँ पर लोग नावों के द्वारा उतरते हैं—(आते जाते हैं) उसे पत्तन कहते हैं।।१७२।। जो किसी नदी के किनारे पर हो उसे द्रोणमुख कहते हैं और जहाँ मस्तक पर्यन्त ऊँचे—ऊँचे धान्य के ढेर लगे हों वह संवाह कहलाता है।।१७३।। इस प्रकार पृथिवी पर जहाँ—तहाँ अपने—अपने योग्य स्थानों के अनुसार कहीं—कहीं पर ऊपर कहे हुए गाँव नगर आदि की रचना हुई थी।।१७४।। एक राजधानी में आठ सौ गाँव होते हैं, एक द्रोणमुख में चार सौ गाँव होते हैं और एक खर्वट में दो सौ गाँव होते हैं। दश गाँवों के बीच जो एक बड़ा भारी गाँव होता है उसे संग्रह (जहाँ पर हर एक वस्तुओं का संग्रह रखा जाता हो) कहते हैं। इसी प्रकार घोष तथा आकर आदि के लक्षणों की भी कल्पना कर लेनी चाहिए अर्थात् जहाँ पर बहुत घोष (अहीर) रहते हैं उसे घोष कहते हैं और जहाँ पर सोने, चाँदी आदि की खान हुआ करती है उसे आकर कहते हैं।।१७५-१७६।। इस प्रकार इन्द्र ने बड़े अच्छे ढंग से नगर, गाँवों आदि का विभाग किया था इसलिए वह उसी समय से पुरन्दर इस सार्थक नाम को प्राप्त हुआ था।।१७७।। तदनन्तर इन्द्र भगवान् की आज्ञा से इन नगर, गाँव आदि स्थानों में प्रजा को बसाकर कृतकृत्य होता हुआ प्रभु की आज्ञा लेकर स्वर्ग को चला गया।।१७८।। असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कार्य प्रजा की आजीविका के कारण हैं। भगवान् वृषभदेव ने अपनी बुद्धि की कुशलता से प्रजा के लिए इन्हीं छह कर्मों द्वारा वृत्ति (आजीविका) करने का उपदेश दिया था सो ठीक ही है क्योंकि उस समय जगद्गुरु भगवान् सरागी ही थे वीतरागी नहीं थे।
भावार्थ—सांसारिक कार्यों का उपदेश सराग अवस्था में दिया जा सकता है।।१७९-१८०।। उन छह कर्मों में से तलवार आदि शस्त्र धारणकर सेवा करना असिकर्म कहलाता है, लिखकर आजीविका करना मषिकर्म कहलाता है, जमीन को जोतना—बोना कृषिकर्म कहलाता है, शास्त्र अर्थात् पढ़ाकर या नृत्य—गायन आदि के द्वारा आजीविका करना विद्याकर्म है, व्यापार करना वाणिज्य है और हस्त की कुशलता से जीविका करना शिल्पकर्म है वह शिल्पकर्म चित्र खींचना, पूâल, पत्ते काटना आदि की अपेक्षा अनेक प्रकार का माना गया है।।१८१-१८२।। उसी समय आदि ब्रह्मा भगवान् वृषभदेव ने तीन वर्णों की स्थापना की थी जो कि क्षतत्राण अर्थात् विपत्ति से रक्षा करना आदि गुणों के द्वारा क्रम से क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कहलाते थे।।१८३।। उस समय जो शस्त्र धारणकर आजीविका करते थे वे क्षत्रिय हुए, जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे वैश्य कहलाते थे और जो उनकी सेवा—शुश्रूषा करते थे वे शूद्र कहलाते थे। वे शूद्र दो प्रकार थे— एक कारु और दूसरा अकारु। धोबी आदि शूद्र कारु कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु कहलाते थे। कारु शूद्र भी स्पृश्य तथा अस्पृश्य के भेद से दो प्रकार के माने गये हैं उनमें जो प्रजा से बाहर रहते हैं श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २३५ उन्हें अस्पृश्य अर्थात् स्पर्श करने के अयोग्य कहते हैं और नाई वगैरह को स्पृश्य अर्थात् स्पर्श करने के योग्य कहते हैं।।१८४-१८६।। उस समय प्रजा अपने—अपने योग्य कर्मों को यथायोग्यरूप से करती थी। अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर कोई दूसरी आजीविका नहीं करता था इसलिए उनके कार्यों में कभी शंकर (मिलावट) नहीं होता था। उनके विवाह, जाति सम्बन्ध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान् आदिनाथ की आज्ञानुसार ही होते थे।।१८७।। उस समय संसार में जितने पाप रहित आजीविका के उपाय थे वे सब भगवान् वृषभदेव की सम्मति में प्रवृत्त हुए थे सो ठीक है क्योंकि सनातन ब्रह्मा भगवान् वृषभदेव ही है।।१८८।। चूँकि युग के आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेव ने इस प्रकार कर्मयुग का प्रारम्भ किया था इसलिए पुराण के जानने वाले उन्हें कृतयुग नाम से जानते हैं।।१८९।। कृतकृत्य भगवान् वृषभदेव आषाढ़मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन कृतयुग का प्रारम्भ करके प्राजापत्य (प्रजापतिपने) को प्राप्त हुए थे अर्थात् प्रजापति कहलाने लगे थे।।१९०।। इस प्रकार जब कितना ही समय व्यतीत हो गया और छह कर्मों की व्यवस्था से जब प्रजा कुशलतापूर्वक सुख से रहने लगी तब देवों ने आकर शीघ्र ही उनका सम्राट पद पर अभिषेक किया उस समय उनका प्रभाव स्वर्गलोक और पृथिवीलोक में खूब ही प्रकट हो रहा था।।१९१-१९२।। यद्यपि भगवान् के राज्याभिषेक का अन्य विशेष वर्णन करने से कोई लाभ नहीं है इतना वर्णन कर देना ही बहुत है कि आदर से भरे हुए देवों ने दिव्य जल से उन आदिब्रह्मा भगवान् वृषभदेव का अभिषेक किया था तथापि उसका कुछ अन्य वर्णन कर दिया जाता है क्योंकि प्राय: साधारण मनुष्य अत्यन्त प्रसिद्ध बात को भी नहीं जानते हैं।।१९३-१९४।। उस समय समस्त संसार आनन्द से भर गया था, देवलोग इन्द्र को आगे कर स्वर्ग से अवतीर्ण हुए थे—उतरकर अयोध्यापुरी आये थे।।१९५।। उस समय अयोध्यापुरी खूब ही सजायी गयी थी। उसके मकानों के अग्रभाग पर बाँधी गयी पताकाओं से समस्त आकाश भर गया था।।१९६।। उस समय राजमन्दिर में बड़ी आनन्द—भेरियाँ बज रही थीं, स्त्रियाँ मंगलगान गा रही थीं और देवांगनाएँ नृत्य कर रही थीं।।१९७।। देवों के बन्दीजन मंगल गानों के साथ–साथ भगवान् के पराक्रम पढ़ रहे थे और देवलोग सन्तोष से ‘जय जीव’, इस प्रकार की घोषणा कर रहे थे।।१९८।। राज्याभिषेक के प्रथम ही पृथिवी के मध्यभाग में जहाँ मिट्टी की वेदी बनायी गयी थी और उस वेदी पर जहाँ देव—कारीगरों ने बहुमूल्य श्रेष्ठ आनन्द मण्डप बनाया था, जो रत्नों के चूर्ण समूह से बनी हुई रंगावली से चित्रित हो रहा था। और जहाँ अनेक मंगलद्रव्यों का संग्रह हो रहा था ऐसे राजमहल के आँगनरूपी रंगभूमि में योग्य सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके भगवान् वृषभदेव को बैठाया और जब गन्धर्व देवों के द्वारा प्रारम्भ किए हुए संगीत के समय होने वाला मृदंग का गम्भीर शब्द समस्त दिक्तटों के साथ—साथ तीन लोकरूपी कुटी के मध्य में व्याप्त हो रहा था तथा नृत्य करती हुई देवांगनाओं के पढ़े जाने वाले संगीत के स्वर में स्वर मिलाकर किन्नर कृतिकर्म विधि २३६ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी जाति की देवियाँ कानों को सुख देने वाला भगवान् का यश गा रही थीं उस समय देवों ने तीर्थोदक से भरे हुए सुवर्ण के कलशों से भगवान वृषभदेव का अभिषेक करना प्रारम्भ किया।।१९९-२०८।। भगवान् के राज्याभिषेक के लिए गंगा और सिन्धु इन दोनों महानदियों का वह जल लाया गया था जो हिमवत्पर्वत की शिखर से धारारूप में नीचे गिर रहा था तथा जिसने पृथिवी तल को छुआ तक भी नहीं था।
भावार्थ—नीचे गिरने से पहले ही जो बरतनों में भर लिया गया था।।२०९।। इसके सिवाय गंगाकुण्ड से गंगा नदी का स्वच्छ जल लाया गया था और सिन्धुकुण्ड से सिन्धु नदी का निर्मल जल लाया गया था।।२१०।। इसी प्रकार ऊपर से पड़ती हुई अन्य नदियों का स्वच्छ जल भी उनके गिरने के कुण्डों से लाया गया था।।२११।। श्री, ह्री आदि देवियाँ भी पद्म आदि सरोवरों का जल लायी थीं जो कि सुवर्णमय कमलों की केसर के समूह से पीतवर्ण हो रहा था।।२१२।। सायंकाल के समय खिलने वाले सुगन्धित कमलों की सुगन्ध से मधुर, अतिशय मनोहर और नील कमलों सहित तालाबों का जल लाया गया था। जो बाहर प्रकट हुए मोतियों के समूह से अत्यन्त श्रेष्ठ है ऐसा लवणसमुद्र का जल भी लाया गया था।।२१३।। नन्दीश्वर द्वीप में जो अत्यन्त स्वच्छ जल से भरी हुई नन्दोत्तरा आदि वापिकाएँ हैं उनका भी स्वच्छ जल लाया गया था।।२१४।। इसके सिवाय क्षीरसमुद्र, नन्दीश्वर समुद्र तथा स्वयम्भूरमण समुद्र का भी जल सुवर्ण के बने हुए दिव्य कलशों में भरकर लाया गया था।।२१५।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए प्रसिद्ध जल से जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव का अभिषेक किया गया था। चूँकि भगवान् का शरीर स्वयं ही पवित्र था अत: अभिषेक से वह क्या पवित्र होता ? केवल भगवान् ने ही अपने स्वयं पवित्र अंगों से उस जल को पवित्र कर दिया था।।२१६।। उस समय भगवान के मस्तक पर देवों के द्वारा छोड़ी हुई जल की धारा ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो उस मस्तक को राज्यलक्ष्मी का आश्रय समझ कर ही छोड़ी गयी हो।।२१७।। चर और अचर पदार्थों के गुरु भगवान् वृषभदेव के मस्तक पर पड़ती हुई जल की छटाएँ ऐसी शोभायमान होती थी मानो संसार का सन्ताप नष्ट करने वाली और निर्मल गुणों की सम्पदाएँ ही हों।।२१८।। यद्यपि भगवान् का शरीर स्वभाव से ही पवित्र था तथापि इन्द्र ने गंगा नदी के जल से उसका अभिषेक किया था इसलिए उसकी पवित्रता और अधिक हो गयी थी।।२१९।। उस समय इन्द्रों ने केवल भगवान् के अंगों का ही प्रक्षालन नहीं किया था किन्तु देखने वाले पुरुषों की मनोवृत्ति, नेत्र और शरीर का भी प्रक्षालन किया था।
भावार्थ–भगवान् का राज्याभिषेक देखने में मनुष्यों के मन, नेत्र तथा समस्त शरीर पवित्र हो गये थे।।२२०।। उस समय नृत्य करती हुई देवांगनाओं के कटाक्षरूपी वाण उस जल के प्रवाह में प्रतिबिम्बित हो रहे थे इसलिए ऐसे मालूम होते थे मानो उन पर तेज पानी रखा गया हो और इसलिए वे मनुष्यों के चित्त को भेदन कर रहे थे। भावार्थ–देवांगनाओं के कटाक्षों से देखने वाले मनुष्यों के चित्त भिद जाते श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २३७ थे।।२२१।। भगवान् के शरीर के संसर्ग से पवित्र हुई निर्मल जल से समस्त पृथिवी व्याप्त हो गयी थी इसलिए वह ऐसी जान पड़ती थी मानो स्वामी वृषभदेव की राज्य सम्पदा से सन्तुष्ट होकर अपने शुभ भाग्य से बढ़ ही रही हो।२२२।। इन्द्र जब सुवर्ण के बने हुए कलशों से भगवान् का अभिषेक करते थे तब भगवान ऐसे सुशोभित होते थे जैसे कि सायंकाल में होने वाले बादलों से मेरु पर्वत सुशोभित होता है।।२२३।। नाभिराज को आदि लेकर जो बड़े—बड़े राजा थे उन सभी ने सब राजाओं में श्रेष्ठ यह वृषभदेव वास्तव में राजा के योग्य हैं ऐसा मानकर उनका एक साथ अभिषेक किया था।।२२४।। नगर निवासी लोगों ने भी, किसी ने कमलपत्र के बने हुए दोने से और किसी ने मिट्टी के घड़े से सरयू नदी का जल लेकर भगवान् के चरणों का अभिषेक किया था।।२२५।। मागध आदि व्यन्तर देवों के इन्द्रों ने भी तीन ज्ञान को धारण करने वाले भगवान् वृषभदेव की ‘यह हमारे देश के स्वामी हैं’ ऐसा मानकर प्रीतिपूर्वक पवित्र अभिषेक के द्वारा पूजा की थी।।२२६।। भगवान् वृषभदेव का सबसे पहले तीर्थ जल से अभिषेक किया था फिर कषाय जल से अभिषेक किया गया और फिर सुगन्धित द्रव्यों से मिले हुए सुगन्धित जल से अन्तिम अभिषेक किया गया था।।२२७।। तदनन्तर जिनका अभिषेक किया जा चुका है ऐसे भगवान ने कुछ–कुछ गरम जल से भरे हुए स्नान योग्य सुवर्ण के कुण्ड में प्रवेश कर सुखकारी स्नान का अनुभव किया था।।२२८।। भगवान ने स्नान करने के अन्त में जो माला, वस्त्र और आभूषण उतारकर पृथिवी पर छोड़ दिये थे—डाल दिये थे उनसे वह पृथिवीरूपी स्त्री ऐसी मालूम होती थी मानो उसे स्वामी के शरीर का स्पर्श करने वाली वस्तुएँ ही प्रदान की गयी हों।
भावार्थ—लोक में स्त्री पुरुष प्रेमवश एक दूसरे के शरीर से छुए गये वस्त्राभूषण धारण करते हैं यहाँ पर आचार्य ने भी उसी लोकप्रसिद्ध बात को उत्प्रेक्षालंकार में गुम्फित किया है।।२२९।। इस प्रकार जब देवों के बन्दीजन उच्च स्वर से शुभस्नानसूचक मंगल पाठ पढ़ रहे थे तब भगवान् वृषभदेव ने राज्यलक्ष्मी को धारण करने अथवा उसके साथ विवाह करने योग्य स्नान को प्राप्त किया था। तदनन्तर जिनका अभिषेक पूर्ण हो चुका है और जिनकी आरती की जा चुकी है ऐसे भगवान् को देवों ने स्वर्ग से लाये हुए माला, आभूषण और वस्त्र आदि से अलंकृत किया।।२३१।। ‘महामुकुटबद्ध राजाओं के अधिपति भगवान् वृषभदेव ही हैं’ यह कहते हुए महाराज नाभिराज ने अपने हाथ से भगवान के मस्तक पर मुकुट बांधा था।।२३२।। जगत् मात्र के बन्धु भगवान् वृषभदेव के ललाट पर पट्टबन्ध भी रखा जो कि ऐसा मालूम होता था मानो यहाँ—वहाँ भागने वाली चंचल राज्यलक्ष्मी को स्थिर करने वाला एक बन्धन ही हो।।२३३।। तदनन्तर नाट्यशास्त्रों को जानने वाला इन्द्र उस सभारूपी रंगभूमि में आनन्द के साथ आनन्द नाम का नाटक कर स्वर्ग को चला गया।।२३९।। जो अपना कार्य समाप्त कर चुके हैं और जिनके चित्त की वृत्ति भगवान् के चरणों की सेवा में लगी हुई है ऐसे देव और असुर उस इन्द्र के साथ ही अपने—अपने स्थानों पर चले गये।।२४०।। कृतिकर्म विधि २३८ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी अथानंतर—कर्मभूमि की रचना करने वाले भगवान वृषभदेव ने अपने पिता महाराज नाभिराज से साम्राज्य पाकर नीचे लिखे अनुसार प्रजा के पालन करने का प्रयत्न किया।।२४१।। प्रथम ही भगवान ने प्रजा की सृष्टि उत्पन्न की, तदनंतर प्रजा के आजीविका के नियम बनाये और फिर प्रजा के लिये अपनी—अपनी मर्यादा के उल्लंघन न करने का नियम बनाया, इस प्रकार वे अपनी प्रजा का शासन करने लगे।।२४२।। उस समय भगवान ने अपने दोनों हाथों में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की रचना की अर्थात् उन्हें शस्त्रविद्या सिखलाई सो ठीक ही है क्योंकि जो हाथ में शस्त्र लेकर दूसरे सबल व शत्रु के प्रहार से जीवों की रक्षा करे उन्हें ही क्षत्रिय कहते हैं।।२४३।। तदनंतर भगवान ने अपने ऊरुओं से यात्रा करना अर्थात् परदेश जाना दिखलाकर वैश्यों की सृष्टि की, सो भी ठीक ही है क्योंकि समुद्र आदि जल प्रदेशों में तथा स्थल प्रदेशों में यात्रा करके व्यापार करना वैश्यों की मुख्य आजीविका है।।२४४।। सदा नीच कामों में तत्पर रहने वाले शूद्रों की रचना भगवान ने अपने पैरों से ही की, सो ठीक ही है क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तम वर्णों के पैर दाबना, हर तरह से उनकी सेवा सुश्रूषा करना, उनकी आज्ञा पालन करना आदि शूद्रों की आजीविका अनेक प्रकार की कही गई है।।२४५।। इस प्रकार तीन वर्णों की सृष्टि तो प्रथम ही हो चुकी थी उसके बाद भगवान वृषभदेव के पुत्र महाराज भरत अपने मुख से शास्त्रों का अध्ययन (पाठ) कराते हुये ब्राह्मणों की रचना करेंगे और पढ़ना, पढ़ाना, दान देना, दान लेना, पूजा करना, कराना आदि उनकी आजीविका के उपाय होंगे।।२४६।। शूद्र को शूद्र की वृत्ति (आजीविका) का पालन करना चाहिये, अन्य कार्य नहीं करना चाहिये। नैगम अर्थात् वैश्य को वाणिज्य— व्यापारादिरूप वृत्ति करना चाहिए, क्वचित् शुश्रूषारूप वृत्ति भी कर सकता है राजन्य अर्थात् क्षत्रियवर्ण को शस्त्रधारी हो प्रजा का संरक्षण करना चाहिए क्वचित् व्यापार अथवा सेवा वृत्ति भी कर सकता है ब्राह्मणों को अध्ययन, अध्यापनादि कार्य करना चाहिये; क्वचित् अन्य वर्ण सम्बन्धी वृत्ति का आश्रय कर सकता है।।२४७।। इस प्रकार र्विणत अपनी वृत्ति अर्थात् आजीविका के क्रम का उल्लंघन कर जो अन्य प्रकार की वृत्ति को अपनायेगा वह राजाओं के द्वारा दण्डनीय होगा। ऐसा न होने पर वर्णसंकीर्णता होगी।।२४८।। भगवान वृषभदेव ने चारों वर्ण तथा उनका विवाह संबंध आदि की रचना करने के पहिले ही असि, मसि, कृषि आदि छह कर्मों की रचना कर दी थी और उस समय से लोग अपने कर्म करने लग गये थे इसलिये उन कर्मों के करने से इस भारतवर्ष में कर्मभूमि प्रगट हो गई थी। भावार्थ—अब तक भोगभूमि थी, अब असि, मसि आदि कर्मकर जीविका होने से कर्मभूमि कही जाती थी।।२४९।। इस प्रकार भगवान वृषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रजा की रचना की और उसका योग अर्थात् जो वस्तु नहीं है उसे उत्पन्न करना और क्षेम अर्थात् जो वस्तु विद्यमान है उसकी रक्षा करना इन दोनों को अच्छी तरह चलाने के लिये बड़ी युक्ति से हा, मा और धिक्कार ये तीनों प्रकार के दंड स्थापन किये थे।।२५०।। दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना अर्थात् उन्हें दंड देना और सज्जन पुरुषों का पालन करना यह क्रम कर्मभूमि से पहिले अर्थात् श्री गौतम गणधर वाणी अमृतर्विषणी टीका / २३९ भोगभूमि में नहीं थी, क्योंकि भोगभूमि में प्रजा के सब लोग निरपराध होते थे, कोई भी कुछ अपराध नहीं करता था।।२५१।। यदि कर्मभूमि में दंड देने वाला राजा न होगा तो फिर संसार में मात्स्य न्याय की प्रवृत्ति हो जायेगी अर्थात् जिस प्रकार बड़ी—२ मछलियाँ छोटी—२ मछलियों को खा जाती हैं उसी प्रकार की रीति यहाँ भी प्रचलित हो जायेगी, क्योंकि यह प्रसिद्ध ही है कि जो अंतरंग का दुष्ट और बलवान होता है वह निबल को खा जाता है अर्थात् उसे पीड़ा देता है।।२५२।। यदि अपराधी लोगों को दंड दिया जायेगा तो फिर वे दंड के डर से कुमार्ग की ओर नहीं दौड़ेंगे इसलिये अपराधी लोगों को दंड देने वाला राजा अवश्य होना चाहिये और ऐसा राजा ही पृथ्वी को जीत सकता है।।२५३।। जिस प्रकार बिना किसी तरह की पीड़ा दिये दूध देने वाली गाय से दूध निकालने में गाय सुखी रहती है और उसका दूध बढ़ता है। उसी प्रकार राजा को प्रजा से भी धन वसूल करना चाहिये उस पर अधिक पीड़ा देने वाला कर नहीं लगाना चाहिये, ऐसा करने से ही प्रजा सुखी रहती है और धन भी अच्छा वसूल हो जाता है।।२५४।। यही समझकर भगवान वृषभदेव ने नीचे लिखे हुये पुरुषों को प्रजा को दंड आदि देने वाला राजा बनाया सो ठीक ही है क्योंकि प्रजा का योग अर्थात् जो वस्तु नहीं है उसे उत्पन्न करना और क्षेम अर्थात् जो वस्तु है उसकी रक्षा का उपाय करना, इन दोनों का विचार करना राजा के ही आधीन है।।२५५।। भगवान् ने हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ इन चार महा भाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सम्मान और सत्कार किया। तदनन्तर राज्याभिषेक कर उन्हें महामाण्डलिक राजा बनाया। ये राजा चार हजार अन्य छोटे—छोटे राजाओं के अधिपति थे।।२६६-२५७।। सोमप्रभ, भगवान् से कुरुराज नाम पाकर कुरुदेश का राजा हुआ और कुरुवंश का शिखामणि कहलाया।।२५८।। हरि, भगवान् की आज्ञा से हरिकान्त नाम को धारण करता हुआ हरिवंश को अलंकृत करने लगा क्योंकि वह श्रीमान् हरिपराक्रम अर्थात् इन्द्र अथवा सिंह के समान पराक्रमी था।।२५९।। अकम्पन भी, भगवान् से श्रीधर नाम पाकर उनकी प्रसन्नता से नाथवंश का नायक हुआ।।२६०।। और काश्यप भी जगद्गुरु भगवान् से मघवा नाम प्राप्तकर उग्रवंश का मुख्य राजा हुआ सो ठीक ही है। स्वामी की सम्पदा से क्या नहीं मिलता है ? अर्थात् सब कुछ मिलता है।।२६१।। तदनन्तर भगवान् आदिनाथ ने कच्छ, महाकच्छ आदि प्रमुख—प्रमुख राजाओं का सत्कार कर उन्हें अधिराज के पद पर स्थापित किया।।२६२।। इसी प्रकार भगवान् ने अपने पुत्रों के लिए भी यथायोग्यरूप से महल, सवारी तथा अन्य अनेक प्रकार की सम्पत्ति का विभाग कर दिया था सो ठीक ही है क्योंकि राज्यप्राप्ति का यही तो फल है।।२६३।। उस समय भगवान ने मनुष्यों को इक्षु का रस संग्रह करने का उपदेश दिया था इसलिए जगत् के लोग उन्हें इक्ष्वाकु कहने लगे।।२६४।। ‘गो’ शब्द का अर्थ स्वर्ग है जो उत्तम स्वर्ग हो उसे सज्जन पुरुष ‘गोतम’ कहते हैं। भगवान् वृषभदेव स्वर्गों में सबसे उत्तम सर्वार्थसिद्धि से आये थे इसलिए वे ‘गौतम’ कृतिकर्म विधि २४० / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी इस नाम को भी प्राप्त हुए थे।।२६५।। ‘काश्य’ तेज को कहते हैं भगवान् वृषभदेव उस तेज के रक्षक थे इसलिए ‘काश्यप’ कहलाते थे उन्होंने प्रजा की आजीविका के उपायों का भी मनन किया था इसलिए वे मनु और कुलधर भी कहलाते थे।।२६६।। इनके सिवाय तीनों जगत् के स्वामी और विनाशरहित भगवान् को प्रजा ‘विधाता’ विश्वकर्मा’ और ‘स्रष्टा’ आदि अनेक नामों से पुकारती थी।।२६७।। भगवान् का राज्यकाल तिरसठ लाख पूर्व नियमित था सो उनका वह भारी काल, पुत्र— पौत्र आदि से घिरे रहने के कारण बिना जाने ही व्यतीत हो गया अर्थात् पुत्र—पौत्र आदि के सुख का अनुभव करते हुए उन्हें इस बात का पता भी नहीं चला कि मुझे राज्य करते हुए कितना समय हो गया है।।२६८।। महादेदीप्यमान भगवान् वृषभदेव ने अयोध्या के राज्यिंसहासन पर आसीन होकर पुण्योदय से प्राप्त हुई साम्राज्यलक्ष्मी का सुख से अनुभव किया था।।२६९।। इस प्रकार सुर और असुरों के गुरु तथा अचिन्त्य धैर्य के धारण करने वाले भगवान् वृषभदेव को इन्द्र उनके विशाल पुण्य के संयोग से भोगोपभोग की सामग्री भेजता रहता था जिससे वे सुखपूर्वक सन्तोष को प्राप्त होते रहते थे। इसलिए हे पण्डितजन! पुण्योपार्जन करने में प्रयत्न करो।।२७०।। इस संसार में पुण्य से सुख प्राप्त होता है। जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार पुण्य के बिना सुख नहीं होता। दान देना, इन्द्रियों को वश करना, संयम धारण करना सत्यभाषण करना, लोभ का त्याग करना और क्षमाभाव धारण करना आदि शुभ चेष्टाओं से अभिलषित पुण्य की प्राप्ति होती है।।२७१।। सुर, असुर, मनुष्य और नागेन्द्र आदि के उत्तम—उत्तम भोग, लक्ष्मी, दीर्घ आयु, अनुपम रूप, समृद्धि, उत्तम वाणी, चक्रवर्ती का साम्राज्य, इन्द्रपद, जिसे पाकर फिर संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता ऐसा अरहन्त पद और अन्तरहित समस्त सुख देने वाला श्रेष्ठ निर्वाण पद इन सभी की प्राप्ति एक पुण्य से ही होती है इसलिए हे पण्डितजन! यदि स्वर्ग और मोक्ष के अचिन्त्य महिमा वाले श्रेष्ठ सुख प्राप्त करना चाहते हो तो धर्म करो क्योंकि वह धर्म ही स्वर्गों के भोग और मोक्ष के अविनाशी अनन्त सुख की प्राप्ति कराता है। वास्तव में सुखप्राप्ति होना धर्म का ही फल है।।२७२-२७३।। हे सुधीजन ! यदि तुम सुख प्राप्त करना चाहते हो तो र्हिषत होकर श्रेष्ठ मुनियों के लिए दान दो, तीर्थंकरों को नमस्कार कर उनकी पूजा करो, शीलव्रतों का पालन करो और पर्व के दिनों में उपवास करना नहीं भूलो।।२७४।। इस प्रकार जो प्रशस्त लक्ष्मी के स्वामी थे, स्थिर रहने वाले भोगों का अनुभव करते थे, स्नेह रखने वाले अपने पुत्र—पौत्रों के साथ सन्तोष धारण करते थे। इन्द्र सूर्य और चन्द्रमा आदि उत्तम—उत्तम देव जिनकी आज्ञा धारण करते थे और जिन पर किसी की आज्ञा नहीं चलती थी ऐसे भगवान् वृषभदेव सिंहासन पर आरूढ़ होकर इस समुद्रान्त पृथिवी का शासन करते थे।।२७५।।