अमृतर्विषणी टीका—
लोगुज्जोए धम्मतित्थयरे जिणवरे य अरहंते। कित्तण केवलिमेव य उत्तमबोिंह मम दिसंतु।।५४१।।१
गाथार्थ—लोक में उद्योत करने वाले धर्म तीर्थ के कर्ता अर्हन्त केवली जिनेश्वर प्रशंसा के योग्य हैं। वे मुझे उत्तम बोधि प्रदान करें।।५४१।।
आचारवृत्ति—लोक अर्थात् जगत् में उद्योत अर्थात् प्रकाश को करने वाले लोकोद्योतकर कहलाते हैं। उत्तमक्षमादि को धर्म कहते हैं और संसार से पार होने के उपाय को तीर्थ कहते हैं अत: यह धर्म ही तीर्थ है। इस धर्मतीर्थ को करने वाले अर्थात् चलाने वाले धर्म तीर्थंकर कहलाते हैं। कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले को जिन कहते हैं और उनमें वर अर्थात् जो प्रधान हैं वे जिनवर कहलाते हैं। सर्वज्ञदेव को अर्हंत कहते हैं। तथा सर्व को प्रत्यक्ष करने वाला जिनका ज्ञान है वे केवली हैं। इस विशेषणों में विशिष्ट अर्हन्त भगवान् उत्तम हैं, प्रकृष्ट हैं, सर्व पूज्य हैं। ऐसे जिनेन्द्र भगवान् मुझे संसार से पार होने के लिए उपायभूत ऐसी बोधि को प्रदान करें। इस प्रकार से यह स्तव किया जाता है। तात्पर्य यह है कि लोक में उद्योतकारी, धर्मतीर्थंकर, जिनवर, केवली, अर्हंन्त भगवान् उत्तम हैं। इस प्रकार से उनका कीर्तन करना, उनकी प्रशंसा करना तथा ‘वे मुझे बोधि प्रदान करें’ ऐसा कहना ही स्तव है। अथवा ये अर्हंत, धर्मतीर्थंकर, लोकोद्योतकर, जिनवर, कीर्तनीय, उत्तम, केवली भगवान् मुझे बोधि प्रदान करें। अथवा अर्हंत भगवान् सर्व विशेषणों से विशिष्ट हैं वे मुझे बोधि प्रदान करें ऐसा केवली भगवान् का स्तवन ही स्तव है। लोक शब्द की निरुक्ति करते हुए आचार्य कहते हैं—
लोयदि आलोयदि पल्लोयदि सल्लोयदित्ति एगत्थो। जह्मा जिणेिंह कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोओ।।५४२।।
गाथार्थ—लोकित किया जाता है, आलोकित किया जाता है, प्रलोकित किया जाता है और संलोकित किया जाता है, ये चारों क्रियाएँ एक अर्थवाली हैं। जिस हेतु से जिनेन्द्रदेव द्वारा यह सब कुछ अवलोकित किया जाता है इसीलिए यह ‘लोक’ कहा जाता है।।५४२।।
आचारवृत्ति—लोकन करना—(अवलोकन करना), आलोकन करना, प्रलोकन करना, संलोकन करना और देखना ये शब्द पर्यायवाची शब्द हैं। जिनेन्द्रदेव द्वारा यह सर्वजगत् लोकित—अवलोकित १. मूलाचार भाग—१ पृ. ४०९ से ४११ तक। कृतिकर्म विधि २८२ / अमृतर्विषणी टीका वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला श्री गौतम गणधर वाणी कर लिया जाता है इसीलिए इसकी ‘लोक’ यह संज्ञा सार्थक है। यहाँ पर इन चारों क्रियाओं का पृथक्करण करते हुए भी टीकाकार स्पष्ट करते हैं। छद्मस्थ अवस्था में मति और श्रुत इन दो ज्ञानों के द्वारा यह सर्व ‘लोक्यते’ अर्थात् देखा जाता है इसीलिए इसे ‘लोक’ कहते हैं अथवा अवधिज्ञान द्वारा मर्यादारूप से यह ‘आलोक्यते’ आलोकित किया जाता है इसलिए यह ‘लोक’ कहलाता है। अथवा मन:पर्ययज्ञान के द्वारा ‘प्रलोक्यते’ विशेषरूप से यह देखा जाता है अत: ‘लोक’ कहलाता है। अथवा केवलज्ञान के द्वारा श्री जिनेन्द्र भगवान् इस सम्पूर्ण जगत् को जैसा है वैसा ही ‘संलोक्यते’ संलोकन करते हैं अर्थात् सर्व द्रव्य पर्यायों को सम्यक््â प्रकार से उपलब्ध कर लेते हैं—जान लेते हैं इसलिए इसको ‘लोक’ इस नाम से कहा गया है। -सूक्तिवचनअभ्यास से कर्मों में कुशलता आती है क्योंकि पत्थर पर पड़ने वाली बूंद एक बार में पत्थर में निशान नहीं कर सकती है, किन्तु बार—बार पड़ने से ही निशान करती है इसलिए मुनियों, यतियों और त्यागियों को सतत विद्या अभ्यास करते रहना चाहिए।