भारत में जैनों की जनसंख्या की विकासं दर नगण्य होती जा रही है, यह एक महान्चिंता का बिषय है 1 इस बिषय पर सबसे पहले हम कुछ प्राचीन आंकडों पर बिचार कों 1 तात्या साहब के. चौपड़े की मराठी भाषा में 1 945 में प्रकाशित एक महत्वफूर्ग पुस्तक है ‘जैन आणि हिन्दू। इस पुस्तक के पृष्ठ 4 7 4 ,९ पर कुछ चौकाने वाले तथ्य लिखे हैँ जिसका उल्लेख आचार्यश्री विद्यानंद मुनिराज की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘महात्मागांधी और जैन धर्म’ में भी है
1 . ईसा के 1 000 वर्ष पहले 40 करोड़ जेन थे |
2 . ईसा के 5 00…600 वर्ष पहले 2 5 क्ररोड़ जैन थे ।
3 . सन् 8 1 5 में सम्राट अमोघवर्ष के काल में 2 0 करोड़ जेन थे
4 . सन् 1 1 73 में महाराजा कुमारपाल के काल में 1 2क्ररोड़जैन थे
5 . सनू 1 5 5 6 अकबर के काल में 4 करोड़ जैन थे यदि इन आकडों को सही माना जाये तो यह अत्यधिक चिंता का बिषय है कि अकबर के काल से २५०० बर्ष पहले जैन ४० करोड़ थे ‘और उसके समय तक यह संख्या ९००/० की कमी के बाद महज १००/० बची ” इसके बाद अब कुछ नए अत्कडों पर बिचार करें । वर्ष 2001 के आंकडों के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या 102 करोड़ थी जिसमें हिंदुओं की जनसंख्या (82.75 करोड़ ( 80.45 प्रतिशत) और मुस्लिम जनसंख्या 13.8 करोड़( 13.4 प्रतिशत) थी ” इसी जनगणना के अनुसार भारत में जैन धर्म के लोगों की संख्या 42,25.053 थी जबकि उस समय भारत की कुल जनसंख्या 1,02,86,10,328 थी ” 1,00,000 से अधिक जैन जनसंख्या वाले राज्यों में जैनों की संख्या राज्य एवं क्षेत्र में निम्मानुसार थी : राज्यों में जन जनसंख्या
यह सम्भव है कि जैन लोगों की कुल संख्या जनगणना के आँकडों से मामूली मात्र में अधिक हो सकती है 1 अभी 20 1 5 में जारी 20 1 1 की जनगणना के अनुसार जैनों की जनसंख्या 44, 5 1, 753 हैं जिनमे 5 1 । प्रतिशत पुरुष एवं 4४ 8 महिलाए हैँ1 धर्म आधारित जनगणना से संबधित मुख्य तथ्य निम्नलिखित रूप से सामने आये हैं हिदुआ की कुल जनसंख्या 96. 63 करोड यानी 79. 8 प्रतिशत मुस्लिमों की कुल जनसंख्या 1 7. 22 कगड़ यानी 1 4 2 प्रतिशत इसाहया की कल जनसंख्या 2. 7 8 कराड़ यानी 2 3 प्रतिशत सिखों की कुल जनसंख्या 2.08 करोड यानी 1 . 7 प्रतिशत. बौद्धों की कुल जनसंख्या 84 लाख यानी 0.7 प्रतिशत. ५ जैनों की कुल जनसंख्या 45 लाख यानी 0.4 प्रतिशत. जनसंख्या के आँकडों के अनुसार 2 00 1 से 20 1 1 के बीच मुरिन्त जनसंख्या में बढोतरी हुईं “और हिंदू जनसंख्या घटी।
सिख समुदाय २ जनसंख्या में 0 . 2 प्रतिशत बिंदु (पीपी) की कमी आई और बोद्ध जनसंरदृ 0. 1 पीपी कम हुईं। ईसाइयों और जैन समुदाय की जनसंख्या में कं महत्वपूर्णबदलावनहीं हुआ। जनगणना के धर्म आधारित ताजा आंकडों के अनुसार 2 00 1 से 2 0 1 1 हैं बीच 1 0 बर्ष की अवधि में मुस्लिम समुदाय की जनसंख्या में 0. 8 प्रतिशत व इजाफा हुआ है और यह 1 3.8 क्ररोड़ से 1 7.22 करीड़ हो गयी, वहीं हिंरु जनसंख्या में 0. 7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी और इस अवधि मेँ यह 96.63 करीड़ हो गयी। सिखों की जनसंख्या में 0.2० ०, बोद्ध जनसंख्या मे 0 . 1 ० ० की कमी दर्ज की गई है जबकि इस दौरान मुस्लिमों की जनसंरदृया 0 . 8 प्रतिशत बढी है।
ईसाई और जैन समुदाय की जनसंख्या में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नजर नहीं आया है। वर्ष 2001 से 201 1 के दोरान हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 1 6 . 8० ०, मुस्लिमों की जनसंख्या 24.6० ०, ईंसाईं की जनसंख्या 1 5.50 ०, सिख की जनसंख्या 8.4० ०, बौद्ध की जनसंख्या 6. 1 और जैन की जनसंख्या 5 . 4० ० रही है। 2 0 0 1 की तुलना में 2 0 1 1 में जहाँ एक तरफ देश की जनसंख्या लगभग बीस करोड़ बढ गयी है वहीं जैनों की संख्या महज दो लाख (2 ,2 6, 700 ) के लगभग ही बढी है 1 चौंकाने वाली बात यह भी है कि जैनों की जनसंख्या वृद्धि दर 1991 से 200 1 के बीच 2 5 . 8 ० ० थी जो 200 1 से 2 0 1 1 के बीच 5 . 4 ० ० के लगभग रह गयी है । मैं भारत सरकार द्वारा जारी इन अकिंडों को सही मानता हुआ, कुछ अपने मन की बात आप सभी के समक्ष रखना चाहता हूँ
आज हमें इस बिषय पर गंभीरता से विचार करना ही होगा कि जैन समुदाय की वृद्धि दर सबसे कम क्यों रही ‘2 यह निश्चित रूप से हमारे अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण चुनौती है 1 अब इस बिषय पर किसी सरकार पर आरोप लगा कर तो हम निथिन्त हो नहीं सकते क्यों कि इसकी जिम्मेवारी पूरी हमारी है 1 राष्ट्र की नज़र में इसे जैनों का बहुत बडा योगदान भी माना जा सकता है कि जनसंख्या विस्फोट में जैनों की भारपिदारी न के ठाराजर र ही लेकिन जिस प्रकार किसी जीव की प्रजाति लुप्त होने का खतरा देख कर उसके संरक्षण का उपाय. संबर्धन के तरीकों पर बिचार किया जाने लगता है उसी प्रकार इस देश की मूल श्रमण जैन संस्कृति के अनुयायियों की जनसंख्या यदि इसी प्रकार कम होती रही और भारत की कुल जनसंख्या का एक प्रतिशत भाग भी हम हासिल न कर सके तो भविष्य में जेन कहानियों में भी सुरक्षित रह जाएँ तो गनीमत माननी पडेगी ।
जैनों की घटती जनसंख्या के प्रमुख कारण… आम तौर पर जब इस वात कीं चिंता की जाती है तो एक सरसरी निगाह से जैनों की घटती जनसंख्या के निम्नलिखित प्रमुख कारण समझ में आते हैँ १ . परिवार नियोजन के प्रति अत्यधिक सजगता । २ . शिक्षा का विकास५ ९४० ० साक्षरता की दर । ३ . ब्रह्मचर्य व्रत के प्रति गलत धारणा । ४ . प्रेम विवाह के कारण जेन परिवार की कन्याओँ का अन्य धर्म परिवारों में विवाह ” ५ . विवाह में विलम्ब । ६. अविवाहितों की बढती संख्या । ७ . साधर्मी भाइयों के प्रति तिरस्कार की बढती प्रवृत्ति । ८. पंथवाद और जातिवाद की कट्टरता । ९ . विभिन्नरोगों के कारण बढती मृत्युदर । १० . दूसरों क्रो जैन बनाने की प्रवृत्ति या घर वापसी (सराक ब रंगिया सराक जाति के लोगाजैसे आंदोलनों का अभाव 11 .अरर्थिकसमृद्धिकींबढ़तीदर जेमों की जनसंख्यर बढाने के लिए कुछ प्रमुख उपाय
जैन समुदाय को भारत की कुल जनसंख्या का कम से कम एक प्रतिशत भाग हासिल करने के लिए भी अवश्य ही एक अभियान चलाना होगा । हमारी विडंबना है कि हम प्रत्येक सामजिक कार्य साधुओं की ही अगुआई में संपन्न करनेलगेहैँ। खुदकाक्रोईंनेतृत्वहीनहीँहै। जैनज़नसंख्यरबढानेजैसे मद्दे पर भी साधुओं से मारदिइनि और नेतृत्व की यदि अपेक्षा रखेंगे र्वेरहमसे अधिक दर्भाग्यशाली शायद ही कोई हो । इसकार्यमेंरबत: ही प्रेरित होना होगा, इसे एक सामाजिक आन्दोलन बनाना होगा ।
इसके लिए हमें कुछ समाधान की तरफ आगें बढना होगा। वे समाधान निम्नलिखित प्रकार से हो हुँहुँदुरदूरर क्रो समद्ध बनायें … संपन्न तथा संस्कारी परिवारों क्रो परिवार नियोजन के प्रति थहूँरडी उदासीनता रखनी चाहिए । हम दो हमारे एक की अवधारणा क्रो छोड़ कर कम से कम हम ‘हम दो हमारे दो’ , या लीन का माँएं तो हेना ही होगा, हमारे चार या पाँच भी हों तो भी बहुत अधिक समरवा नही होगी 1 यदि हमारे पास अक्वीश्कि सम्पन्नता है और पर्याप्त संसाधन है और किसी कारण से बच्चे नहीं हैँ या हो नहीँ रहे हैँ तो हमें अनामालय से बच्चे रनिद होने में भी संकोच नहीं काना चाहिए । यदि बच्चे पहले से है किंन्तु कम है तो भी उन बच्चों के क्रल्यपृण के लिए तथा अपने धर्म की रक्षा के लिए भी गोद लेने की प्रबत्ति को विकसित करना चाहिए ।
इससे वे बच्चे जन्म से संस्कारी तथा जैन बनेंगे। समृद्धि का अर्थ सिर्फ धनादि अचेतन वस्तुओं का भण्डार नहीं होता बल्कि चैतन्य बच्चों की चहल पहल भी उसका एक दूसरा म्नहत्वपृट्ठों अर्थहैँ ” २ बहे एबं संयुक्त परिवारों कर करं अभिनन्टन समाज का अब ठन माना पिना मा” क्रो सार्वजनिक समार्दर्व में ” कर पुररकत भी करना प्रारंभ क्रम्मा चाडिए किंवोंने अधिक सतवै यह कार्यक्रम एक प्रेरणा का काम कंम्मा । एक सरकारों नाग क हुआ “छोटा परिवार, मुखी परिवार”. जैन समाज ने इस मूत्र अपनाया । इस नांर का धूरक मात्र यत ध्वनित हुआ कि चढा परिदृ परिवार’, इन सिद्धांतों क पीछे आर्थिक और मामाजिक कारण कू कमाने वाला एक होगा और खाने वाले अधिक नो दुखी परिवार हं खाने वाले कम होंग ता परिवार सुखी होगा द्रकिन्तु गही में जाकर टेरदें स्थिति नहीं है । संतोष, सादगी, सहिष्णुता, त्याग, प्रेम. अनासक्ति आटि आथ्यात्मिदृ के अभाव में छोटे परिवार भी दुखी रहते हैं और जहाँ ये मूल्य हैं ब परिवार भी सुखी रहता है ।
सुख और समृद्धि क्रो एक मात्र आर्थिक अ निर्धारित करना बेमानी है । नारा होना चाहिए ‘आध्यात्मिक परिवा परिवार’ । एक संतान की संस्कृति ने सबसे बड़ । तुक स ।न यह होने ०। रता है किं कारण हमारे मघुर रिश्ते नाते जिनसे हमारे सामाजिक संबंधों के सुन्द वामे और जीबन के मूल्य जुडे हुए थे वे भविष्य में नष्ट होने के कगार मृ जब बच्चा ही एक होगा तो भविष्य में सगे मामाँ-मामी, मौसी-र चाचा चाची, बुआ फूफा, साला साली, और यहाँ तक की १ बहन तक येतमाम रिश्ते स्वाहा हो जाएँगे । एक लड़का होगा तो वह कभी भी बहन के प्यार के मायने ही नहीं ३ पायेगा औरयहीहालत्तब भी होगा जबमात्रएक लड़कीहीहोगी, वीजा नहीं पायेगी कि भैया माने क्या ‘2 इधर बीच मेरे कुछ एक मित्रों ने जिन्होंने ही संतान का संकल्प ले रक्खर है एक नयी समस्या का जिक्र भी किया है यह कि उनकी एकलौती संतान अवसाद या असामान्थ व्यवहार ब बीमारी से ग्रसित हैँ और डॉक्टर ने इसका एकमात्र इलाज यह बताया है आपको दूसरा बच्चा करना ही होगा तभी यह पहला स्वस्थ हो पायेगा ।
इ ये पता लगता है कि परिवार में जो दो चार भाईं बहन आपस में खेलते लड़ते रहते हैँ वो समस्या नहीं बल्कि एक किस्म मनोवैज्ञानिक चिकित्सा है जिससे उनका मानसिक संतलन बना रहता है ” ३ .बहाचर्य अणुव्रतकेप्रतिगत्नत अवधारणा… ७ अक्सर लोग कम जनसंख्या के पीछे तुरंत ही ब्रह्मचर्य अणुव्रत को दोष दै लग जाते हैँ । यह छोटी और तुच्छ सोच है । गृहस्थ क्रो संतान उत्पत्ति ‘ उद्देश्य सै की जाने वाली मैथुन क्रिया का कभी भी धर्म शारत्रों ने निषेध नइ किया । श्रावक धर्म प्रदीप का एक श्लोक है … बिहाय यक्षान्यकत्नत्रमात्रं सपत्रहेतो: स्वकत्नत्र एव 1 करोति रावी समयेन सडूपां ब्रड्डक्रहैतं तस्य क्रिलैकदेशम् । । श्लोक १७८ आप गहराई से विचार करें तोपाएँगे कि जबतक गृहस्यों के जीबन में ब्रह्मचदृ अणव्रत की अधिकता रही है तब तक बच्चों की संख्या अधिक रही । आज इस वत का अभाव है और संतानें कम हो रही हैँ ।
कोई अनाडी होगा जो ये कहेगा कि आज बच्चे इसलिए कम हो रहे हैँ क्योंकि परों में ब्रह्मचर्यं है । राजा ऋषभदेव के सौ पुत्र थे जब कि पत्मी केवल दो थीं । आज़ कीं पीढी जब अपने ही बुजुर्गों के १ ० … १ ५ बच्चों की बातें सुनती है तो मजाक में सहज ही कह उठती है कि उन्हें और कोई काम नहीं धा क्या? जब कि साथ ही यह भी सच है कि उन्होंने उन्हें कभी सतत्रोमांस करते नहीं देखा । आज रोमांस तो खुले में सड़कों पर उन्मुक्त है किन्तु उसमें संतानोत्पत्ति का पावन उद्देश्य नहीँ है, बल्कि इसके स्थान पर मात्र भोग और वासना है । बच्चे पैदा करना और उनका लालन मालन करना एक तपस्या है जो भोगी नहीं कर सकते और करते भी नहीं हैँ । यह काम भी ब्रह्मचर्य अणुवत के महत्व को समझने वाले योगी ही करतें हैँ इसलिए ‘बच्चा माने अब्रह्यचर्यं’ यह अवधारणा जितनी जल्दी सुधर जाए उतना अच्छा है ।
यह कतई नहीं कहा जाता कि जो जोडा बच्चा प्लान नहीं करता , वह प्र ह्म व र्य का सं व 1 रुक हैँ 1 ४. प्रेम विवाह की समस्या को समझें… प्रेम विवाह के प्रति आज भी हमारा नजरिया दकियानृहुंनी है । हम अपने समाज में अ 1०1श्यकत । अनुस । र कोई अवसर प्रदान नहीं करतें ‘और बाद में रोते हैँ ! प्रेम विवाह आजकी आवश्यकता बन चुका है, इसे रोकने की बजाय इसे नयी आकृति दीजिये । काफी हद तक समाधान प्राप्त हो सकता है 1 हमारी बेटियाँ जो अन्य धर्म के लड़कों के साथ प्रेम विवाह कर रही हैँ इसके लिए हमे अपनी समाज में एक तरफ तो संस्कइरों को मजबूत बनाना होगा दूसरी तरफ समाज में खुला वातावरण भी रखना होगा । सामाजिक संस्थऱओ में अनेक युवा क्लब ऐसे भी बनाने होंगे, जहाँ जैन युवक युवती आपस में खुल कर विचारों का आदान प्रदान कर सके, एक दृहुंनरे के पेशे व्यवसाय को जान सके और अपने ही समाज में अपने पेशे और भावना के अनुरूप जीवन साथी खोज सके । समाज में अनेक छोटे बड़े कार्यक्रम तो होते ही रहते हैँ किन्तु वे धार्मिक किस्म के ही होते हैं और वहाँ जैन युवक युवतियों को साथ में उठना बैठना, वार्तालाप आदि करना भी पाप माना जाता है, तब ऐसी स्थिति में उन्हे स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, दफ्तर आदि में अपने अनुरूप जीवन साथी खोजने पड़त्ते हैँ जो किसी भी धर्म के हो सकते हैँ। यद्यपि यदि बेटी के संस्कार अत्यंत मजबूत हों तो बेटी अन्थ धर्म के परिवार में जाकर युक्ति पूर्वक उन्हें जैन धर्म का अनुयायी बना सकती है और यह जैन समुदाय की संरव्या बढने में कारगर हो सकता है लेकिन ऐसा बहुत दुर्लभ और नगण्य है । यदि हम अपने परिवार और बेटे के संस्कारों को बहुत मजबूत रखे तो अन्य धर्म से आईं बहूभी जेन धर्म का पालन कर सकती है किन्तु ऐसा बहुत कम देखा जाता है । अधिकांश जैन परिवार एक अजैन बहु से प्रभावित होकर अजैन होते देखे गए हैँ ।
आज के परिवेश में प्रेम विवाहों को कोई नहीं रोक सकता अत: ऐसे अवसर निर्मित करने होंगे ताकि साधर्मी प्रेम विवाह ज्यादा हों 1 ५ . विवाह में विलम्ब ह मुख्य समस्या … हमने विवाह क्रो लेकर इतने जटिल ताने बाने बुन रखे हैं कि उन्हे सुलझाने में बच्वंद्दे की उम्र निकल जाती है और उलझनें फिर भी सयाम नहीं होनो । आज से पचास वर्ष पूर्व और अब में जो विटंवना देखने में आ रही है वह वड कि तब विवाह पहले होता था और जवानी वाउ में आनी थी, आज ववानं बचपन में ही आ जाती है और विवाह अधेढ़ उम्र में होना है । मैं वाल विवाह का पक्षधर नहीं दूँलेकिन उसके थी अपने उज्जालं पक्ष थे जो हम टेरद्र नहं पाए । बाल विवाह के विरोध में जो सवसे मज़बूत तक यह दिया गया कि किशोरावस्था में ग्रभधारण लडकी के म्बारथ्य के लिए ठीक नहीं है. वात सही है किन्तु ये समस्या तो आज भी है। अतर वस इतना है कि पहले वह विवाह के अनंतर होती थी और आज विवाह से पूर्व । इस समस्या को थोडे खुले दिमाग से समझना होगा । आज़ लडका हो या लडकी उनका विवाह तभी होता है जब उनका केरियर बन जावे. पढ लिख जाएँ । यह विवाह नहीं समझौता है ।
जीवन में जवानी का सावन अपने समय से ही आता है जब किसी भी किशोर या युवा को शारीरिक, मानसिक तधा भावनात्मक रूप से एक जीवन साथी की प्रबल अपेक्षा होती है, जहॉ उसका अधूरापन पूर्व होता है । वे स्वयं. परिवार या समाज शिक्षा, केरियर, पैसा, दहेज या अन्य अनेक कारणों से उन दिनों विवाह नहीं होने देते, तब ऐसे समय में बाह्य कारणों से भले है वाह्य द्रव्य विवाह न होता हो किन्तु भाव विवाह /हश्वा/प्रेम/मुहब्बत …………. आदि आवश्यकता के अनुसार गुप्त रूप से संपन्न होने लगते हैँ क्योंकि प्रकृति अपना स्वभाव समय पर दिखाती है, वह आपकी कृत्रिम व्यवस्था के अनुसार नहीं चलती । बरसात यह सोच कर कभी नहीं रुकती कि अभी छत पर आपके कपडे सूखे नहीं हैँ ।
फिर हम रोते हैं मेरे बेटे ने दूसरी जात धर्म की लड़कीं से शादी कर ली क्योंकि वह उसी के साथ अच्छी नौकरी पर है या मेरी बेटी मोहल्ले के एक अलग धर्म /जात के सुन्दर लड़के के साथ भाग गयी भले ही वह बेरोजगार हो । गलती सिर्फ बच्चों की ही नहीं है माँ बाप और समाज की भी उतनी ही है । विशेषज्ञों का मानना है कि कोई भी लडकी/महिला यदि तीस वर्ष की उम्र तक एकबार भी माँ नहीं बने तो बाद में उसे माँ बनने में बहुत समस्या होती है. अब अगर उसका विवाह ही किसी भी कारण से २ ९ ३ ० वर्ष में होगा तो समस्या तो आएगी ही । कहने में बात अटपटी जरूर लग सकती है लेकिन क्या कों, जो कारण है अगर उसका जिक्र हो ही न, तो बात बने केसे? वर्तमान में खी शिक्षा के बिकास ने कईं समाधान तो दिए ही हैँ लेकिन इसका दूसरा पहलु देखें तो एक समस्या भी दी है वह यह कि स्रियों का शिक्षा प्रतिशत बढने के साथ साथ. समय पर उनके विवाह होने का प्रतिशत निरंतर गिरा है, उनके नौकरा आदि की अत्यधिक बढती प्रवृत्ति ने विवाह और परिवार संस्था को काफी समस्याग्रस्त भी बनाया है । यह इसलिए हुआ कि खी शिक्षा और रोजगार के विकास के साथ साथ समाज का जो मानस विकसित होना चाहिए था वह न हो सका ।
आज भी एक रोजगार से युक्त लड़का तो बेरोजगार लड़की से शादी कर लेता है किन्तु एक की रोचूमृरहहुँ लगी लंड़र्की चाहे जितनी उप्र हो जाए एक बेरोजगार लड़के से शा न करती . ‘ ३ ० पदस्थ वर की हमेहैज्ञहँड्डूततगहुँरहूँतहुँटुत्रुहूँदु रूप ये अपने से ऊची शेस्ट पर कभी कभी दुर्लभ हो जाता है फलस्वरूप बो अधिक उम्र तक अविवाहित रहती हैँ ।समाज में यह असंतत्तनं दिना दिन निरत्तर बढ़ ही रहा है। कूक काएँरिहुं र्की दुनिया में लडकियों को अवसर प्रदान करने का ज्यादा प्रचलन है क्योंकि वे कम पैकेज में भी कार्य करने में संकोच नहीं करती हैँ । इस हैनरण लड़को की अपेक्षा लडकियाँ रोज़गार में भी औसतन ज्यादा हैं । राज़गार युक्त लड़क्ती बेरोजगार लड़के से विवाह नहीं करती और लड़कों का हिदृमृह इसलिए नहीं होता क्योंकि वे अच्छे रोज़गार पर नहीं हैं, फल स्वरुप दादा अविवाहित हैँ ।
या फिर जो अनुकूल लगा उससे विवाह किया, चाहे वह अपन धर्म या जाति से विपरीत ही क्यों न हो । ये एक किस्म की बिडम्बना है , छद्म आधुनिक बिकास का नशा है तो उसके दुष्परिणाम भी सामने हैँ । इस विकास के पक्ष में आप अनेकों लाभ भी गिना ही सकते हैं किन्त इसके जो दुष्यरिणामहैँउनसेथीनर्जरंचुराईनहीँजासकतीं। कहने का मतलब यह हे कि इस जटिलता क्रो हम नहीँ सुलझाएँगे तो कौन सुलझाएगा ‘2 विवाह के बाद की खर्चीली शर्तों क्रो यदि हम धोड़े वर्षों के लिए टाल दें और उच्च शिक्षा आदि को भी विवाह के बाद या साथ-साथ करने का सहज वातावरण बनायें तो समस्या काफी कुछ हद तक सुलझ सकती है । जनसंख्या में कमी का ही नहीं सामाजिक संतुलन और स्वास्थ्य बिगड़ने का भी यह एक बहुत बडा कारण है । शाखों के अनुसार भी वास्तविक विवाह सिर्फ कन्या का ही होता है, महिलाओं की तो सिर्फ शादी/समझौता होता है । लिग अनृपात्त में असन्तुलनयह एक संखद सूचना है कि जैन समाज में लिंग असन्तुलनं थोडा म्नन्तुलित क्या है, हुँ ॰ ० १ में १ ० ० ० जैन ब्लड़कौ के पीछे ८ ७ ० लडकियाँ थीं, जैनों ने काफी सामाजिक आन्दोलन किये, जिसके परिणामस्वरूप २ ० १ १ मैं यह आंकडा ८ ८ ९ होगया, जबकि सिख समाज के अलावा अन्य सभी समाज के परिणाम निराशा ज़नक रहेहैँ। किन्तु लड़र्की पैदा होने पर आज भी क्षाभ होता है और कही न कही गर्भपदुत्त भी हो रहे हैं।
लडकियों के अभाव मे भी५विवाह नहीं हो पा रहे है। आज गाब द्रदृङ्गव्र में और शहरों में भी ऐसे अनेक नुथाग्य हदृक है जिनके क्या बीतने पर भी विवाह नहीं हो पा रहे हैं, यह समस्या विशष रूप से मध्यम वर्म या छोटे दुयन्देत्रुदुवृदुदुदुदु ‘अग्य क्षेत्रों में अनेक जैन परिचाट्ठों में पैसे खर्च करके `३ ५५ ` ओडिशाआदिप्रदेशोंसेकन्याआ’क्रोव्याहकरलाया दलालाकमाध्यमस द्र ० ले लडकी क्रो जैन लड़किया मिलना मुश्किल हो क्व । सामान्य आयवा कु कु णचूरहुँदु। हुन विषयों पर हम कुछ नहीं कर पा रहे है । ऐसे तदु दुदुदुश्वदुहुँदु लिए समाज की संस्थाओं कौ विशाल स्तर पर एक ‘ब्रा उस-वेहुंमाता पिता क्रो प्रारम्भ करनी चाहिए जिसमें कन्या के जन्म के साथ हीउसकी शिक्षा लालन सम्मानित किया जाये तथा यदि आवश्यकता हो तों न पाहात्रु चिकित्सा आदि की संस्थान द्वारा पूरा किया जाए। ६. सहिष्णुता का विकास करना होगा -समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपने जेन भाई के प्रति सहिष्णुता, सौहाद्र‘ आँ, सहयोग की भावना का विकासं करना ही होगा ताकि लोग जेन धर्मं ओ, समाज का अग बनने में सुरक्षित और गौरव का अनुभव करें । सामाजिक बहिष्कार क्री प्रवृत्ति पर अकुश लगाना होगा । अलप पंथ, जाति आटि के प्रति सह…अस्तित्व का भाव बनाये रखना होगा ।
एक दूसरे को मिथ्यादृहि कहने की प्रवृत्ति पर लगाम कसनी होगी । हम चाहे परंपरा, धार्मिकता, दार्शनिकता, सांस्कृतिकता, जातीयता क्रे आधार पर कितने ही मतभेद रख लें किन्तु मन-भेद कदापि न रखें, प्रत्येक के प्रति लोकतंत्रात्मक दृष्टिकोण ऐसा अवश्य रखें कि भले ही वह अन्य गुरु या सम्प्रदाय का भक्त है, पर है तो जैन ही। अत ८ जैनत्व के माते भी आस्था और विश्वास के उसके कुछ अपने कुछ स्वतंत्र अधिकार हैं उसे इस अधिकार से वंचित करने वाले हम कौन होते हैँ ? हमें तीसरी शती के आचार्य समंतभद्र विरचित रत्मकरंडक श्राबकाचार का यह शोक हमेशा याद रखना चाहिए स्मयेन यो$न्यानत्येति धर्मस्थरनम्गर्विताशय: । सोठत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिंकेर्बिना । । श्नोक२६ ७. धर्म के नए सदस्य बनाने होंगे … हमने आज तक विशाल स्तर पर कभी ऐसे प्रयास नहीं किये जिससे अन्य लोग भी जैन बनें । अपनी सेवा आदि के माध्यम से ऐसे उपाय करने होंगें कि अन्य धर्म के लोग जैन धर्मं के प्रति आकर्षित हों तथा इस धर्म का पालन करें । ऐसे अनाथालय, स्कूल आदि विकसित करने होंगें जहॉ रहने, खाने. चिकित्सा आदि की पृहुंर्म निशुल्क व्यवस्था हो और जहॉ सभी जाति और समुदाय के हजारों, लाखों बच्चे पढे ।
वहाँ उन्हें जेन संस्कार जन्म से दिए जाएँ और उन्हें आचरण, पूजन पाठ आदि के प्रति निष्ठावान बनाया जाये । उम्हेंजैन संज्ञा देकर उनके तथा उनके परिवार को हम संर-क्रारित कर सकते हैँ । हमारे यहॉ ऐसे मिशन का अकाल है । आर्य समाज में गुरुकुल में बच्चों क्रो पढाते हैं और बाद में उनके नाम के आगे ‘आर्य’ यह शीर्षक लिखा जाने लगता है। आज जब जैन समाज में कई ऐसै विद्यालय तथा छात्रावास भी अर्थाभाव में बंद होने के कगार पर हैँ, जहाँ सिफै जैन बच्चे पढते हैँ और जैनदर्शन पढाया जाता है वहॉ यह अपेक्षा केसे कीडा सकती है कि अन्य समाज के गरीब बच्चों के लिए वे ये सुविधाएँ दे पाएँने और यह विशाल मिशन अपने धर्म की बृद्धि के लिएशुरू कर पाएँगें । बंगाल और उसके आसपास के इलाकों में सराक जाति के लोग जैन श्रावक थे, उन्हीं की तरह और भी जातियों का अध्ययन करके उन्हें वापस जैन समाज में गर्भित करने की बिशाल योजनाएँ भी बनानी होंगी। पर वापसी आन्दोलन चलाना होगा तब जाकर हम जैन समाज का अस्तित्व सुरक्षित का पाएँगे । ८. न्यूनतम आचार संहिता बनानी होगी -जेन कहलाने के भी कुछ न्यूनतम सामान्थ मापदंड बनाये जाएँ जैसे जो णपोकार मंत्र जानता है, मद्य/मांस का त्यागी है और वीतरागी देव शास्त्र गुरु क्रो ही मानता है वह जैन है 1 हमें कर्मणा जैन की अवधारणा क्रो अधिक विकसित करना होगा । यहॉ हम जाति आदि के चक्वार में न फँसें तो बेहतर होगा ।
आचार्य सोमदेव सृही ने अपने नीतिचाक्यरमृतम्ग्रन्थमेंकहाहै किं मांस मदिरा आदि के त्याग से जिसका आचरण पवित्र हो, नित्य स्नान आदि से जिसका शरीर पवित्र हो ऐसा शूद्र भी ब्राह्मणों आदि के समान श्रावक (जैन) धर्म का पालन करने केयोग्य है मृ आचारांनबद्यत्वं शुचिरुपस्करर: शरीरशुद्धिक्ष करोति शूद्रानपि देबद्विजत्तपस्विपरिकर्मसुयोग्यान् ।(7/12) अगर हम विकसित सोच वाले बने तो जैन धर्म की ध्वजा क्रो पहुँ विश्व में फहरा सकते हैं। इस सन्दर्भ में मेरा यह परिवर्तित नया दोहा हमारा मार्गदइकि हो सकता है ‘जातपातपृछेनहीँक्रोर्दू अरिहंतभजेसोजैनीहोई’ ५। ९. स्वंरस्यय के प्रति सजगता जैन धर्म के अनुयायियों क्रो अपने स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना होगा, भोजन समृद्धि के अनुसार नहीं बल्कि स्वास्थ्य के अनुसार लेने की प्रवृत्ति इस दिशा में सुधार ला सकती है । इससे आयु अधिक होगी और मृत्यु दर कम होगी ” जेन योग और ध्यान की अवधारणा का प्रायोगिक विकास करना होगा जो हमें स्वस्थ्य रखेगा और दीर्घ झायु दूनंष्णग्राकीं ‘परां १०. जैन नाम का विस्तार औरा त्रदानं पर … १अपने नाम के आगे ८८”जैन लगाने की प्रवृति को और अधिक विकसित करना होगा ।
आज भी बहसंख्य जैन अपने नाम के आगे जैन न लगाकर गोत्र आदि ही लिखते हैँ जिहँसे जैनों की गिनती करने में बहुत परेशानी होती है और वास्तविक आंकडे सामने नहीं आ पाते । इसके साथ ही जेन धर्म क साधारणीकरण भी करना होगा और उसे जनं धर्मबनानाहोगा । जोलोगजै: धर्म स्वीकार कर लें उन्हें संस्कार शिविरों, प्रतिष्ठा महोत्सवों में बड़े स्तर प श्रावक दीक्षा दी जाये, उन्हें भविष्य में जेन समाज में मिलने का अवसर दिय जाये, इसके लिए कोई प्रतिष्ठित जैन श्रावक अहे गोद लेकर अहे ९१ 1र्वण मिव रूप से गोत्र दान कों ” यदि हम इसी प्रकार कुछ और अन्य उपाय भी विकसित करेंतं हम अपने एक प्रतिशत के लक्ष्य तक तो पहुंच ही सकते हैं, शेष और अधिब के लिए बाद में अन्थ रणनीतियाँ भी बनानी होंगी ।