अनादिसिद्ध अनंतानंत आकाश के मध्य में चौदह राजू ऊँचा, सर्वत्र सात राजू मोटा, तलभाग में पूर्व पश्चिम सात राजू चौड़ा, घटते हुए मध्य में एक राजू चौड़ा, पुन: बढ़ते हुए ब्रह्म स्वर्ग तक पांच राजू चौड़ा और आगे घटते-घटते सिद्धलोक के पास एक राजू चौड़ा ऐसा पुरुषाकार लोकाकाश है। इसमें मध्यलोक एक राजू चौड़ा और एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। जम्बूद्वीप का विस्तार-मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समूहों से वेष्टित गोल तथा जंबूवृक्ष से युक्त जंबूद्वीप स्थित है। यह एक लाख योजन विस्तार वाला है” ”जंबूद्वीप की परिधितीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताइस योजन, तीन कोश, एक सौ अट्ठाइस धनुष और कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल है अर्थात् योजन ३,१६,२२७ योजन ३ कोश १२८ धनुष १३-(१/२) अंगुल है। लगभग १२६४९०८००६ मील। ”जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल-सात सौ नब्बे करोड़, छप्पन लाख, चौरानवे हजार, एक सौ पचास ७९०,५६,९४,१५० योजन है अर्थात् तीन नील, सोलह खबर, बाईस अरब, सतहत्तर करोड़, छ्यासठ लाख (३,१६,२२,७७,६६,००,०००) मील है।
”जम्बूद्वीप की जगती-आठ योजन (३२०००मील) ऊँची, मूल में बारह (४८००० मील), मध्य में आठ (३२००० मील) और ऊपर में चार महायोजन (१६०००) मील विस्तार वाली है। जंबूद्वीप के परकोटे को जगती कहते हैं। यह जगती मूल में वङ्कामय, मध्य में सर्वरत्नमय और शिखर पर वैडूर्यमणि से निर्मित है, इस जगती के मूल प्रदेश में पूर्व-पश्चिम की ओर सात-सात गुफायें हैं, तोरणों से रमणीय, अनादिनिधन ये गुफायें महानदियों के लिए प्रवेश द्वार हैं। ”वेदिका-जगती के उपरिम भाग पर ठीक बीच में दिव्य सुवर्णमय वेदिका है। यह दो कोश ऊँची और पांच सौ धनुष चौड़ी है अर्थात् ऊँचाई २ कोश और चौड़ाई ५०० धनुष है। जगती के उपरिम विस्तार चार योजन में वेदी के विस्तार को घटाकर शेष को आधा करने पर वेदी के एक पाश्र्व भाग में जगती का विस्तार है यथा धनुष। विशेष-दो हजार धनुष का एक कोश और चार कोश का एक योजन होने से चार योजन में ३२००० धनुष होते हैं अत: ३२००० धनुष में ५०० धनुष घटाया है। वेदी के दोनों पाश्र्व भागों में उत्तम वापियों से संयुक्त वन खंड हैं। वेदी के अभ्यंतर भाग में महोरग जाति के व्यंतर देवों के नगर हैं। इन व्यंतर नगरों के भवनों में अकृत्रिम जिनमंदिर शोभित हैं। ”जंबूद्वीप के प्रमुख द्वार-चारों दिशाओं में क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार गोपुरद्वार हैं। ये आठ महायोजन (३२००० मील) ऊँचे और चार योजन (१६००० मील) विस्तृत हैं। सब गोपुर द्वारों में सिंहासन, तीन छत्र, भामंडल और चामर आदि से युक्त जिनप्रतिमायें स्थित हैं। ये द्वार अपने-अपने नाम के व्यंतर देवों से रक्षित हैं।। प्रत्येक द्वार के उपरिम भाग में सत्रह खन (तलों) से युक्त, उत्तम द्वार हैं। ”विजय आदि देवों के नगर-द्वार के ऊपर आकाश में बारह हजार योजन लम्बा, छह हजार योजन विस्तृत विजयदेव का नगर है। ऐसे ही वैजयंत आदि के नगर हैं। इनमें अनेकों देवभवनों में जिनमंदिर शोभित हैं। विजय आदि देव अपने-अपने नगरों में देवियों और परिवार देवों से युक्त निवास करते हैं। ”वनखंड वेदिका-जगती के अभ्यंतर भाग में पृथ्वीतल पर दो कोस विस्तृत आम्रवृक्षों से युक्त वनखंड हैं। सुवर्ण रत्नों से निर्मित उस उद्यान की वेदिका दो कोस ऊंची, पांच सौ धनुष चौड़ी है।
जंबूद्वीप का सामान्य वर्णन
जंबूद्वीप के भीतर दक्षिण की ओर भरत क्षेत्र है। उसके आगे हैमवत,हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। हिमवान, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी ये छह पर्वत हैं। दक्षिण में भरतक्षेत्र का विस्तार योजन है। भरतक्षेत्र से दूना हिमवान पर्वत है, उससे दूना हैमवत क्षेत्र हैंं। ऐसे विदेहक्षेत्र तक दूना-दूना विस्तार आगे आधा-आधा है। भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम लंबा समुद्र को स्पर्श करता हुआ विजयार्ध पर्वत है। हिमवान आदि छह कुलाचलों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केशरी, पुंडरीक और महापुंडरीक ऐसे छह सरोवर हैं। इन छह सरोवरों से गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकांता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा ये चौदह नदियां निकलती हैं जो कि एक-एक क्षेत्र में दो-दो नदी बहती हुई सात क्षेत्रों में बहती हैं। ”विदेहक्षेत्र के बीचोंबीच में सुमेरु पर्वत भरतक्षेत्र के छह खंड-हिमवान पर्वत के पद्मसरोवर से गंगा-सिंधु नदियां निकलकर नीचे कुंड में गिरकर विजयार्ध पर्वत की गुफाओं में प्रवेश करके दक्षिण भरत में आ जाती हैं और पूर्व-पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं इसलिये भरतक्षेत्र के छह खंड हो जाते हैं। इस प्रकार से जंबूद्वीप की यह सामान्य व्यवस्था है। इस जंबूद्वीप में तीन सौ ग्यारह पर्वत हैं जिनमें एक मेरु, छह कुलाचल, चार गजदंत, सोलह वक्षार, चौंतीस विजयार्ध, चौंतीस वृषभाचल, चार नाभिगिरि, चार यमकगिरि, आठ दिग्गजेंद्र और दो सौ कांचनगिरि हैं। यथा- १±६±४±१६±३४±३४±४±४±८+२००·३११ सत्रह लाख बानवे हजार नब्बे नदियां हैं। चौंतीस कर्मभूमि, छह भोगभूमि, जम्बू- शाल्मलि ऐसे दो वृक्ष, चौंतीस आर्यखण्ड, एक सौ सत्तर म्लेच्छ खंड और पांच सौ अड़सठ कूट हैं। ये सब कहाँ-कहाँ हैं ? इन सभी को इस पुस्तक में बताया गया है।
जंबूद्वीप का विशेष वर्णन
छह कुलाचल हिमवान-हिमवानपर्वत भरतक्षेत्र की तरफ १४४७१-५/१९ योजन (५७८८५०५२-१२/१९ मील) लम्बा है और हैमवत क्षेत्र की तरफ २४९३२-१/१९ योजन (९९७२८२१०-१०/१९ मील) लम्बा है। इसकी चौड़ाई १०५२-१२/१९ योजन (४२०८४२१(१/१९मील) प्रमाण है। ऊंचाई १०० योजन (४००००० मील) प्रमाण है। महाहिमवान-यह पर्वत ४२१०-१०/१९ योजन (१६८४२१०५-५/१९ मील) विस्तार वाला है। हैमवत की तरफ इसकी लंबाई ३७६७४-१६/१९ योजन (१५०६९९३६८-८/१९ मील) है और हरिक्षेत्र की तरफ इसकी लंबाई ५३९३१-६/१९ योजन (२१५७२५२६३-३/१९ मील) है। यह पर्वत २०० योजन (८००००० मील) ऊँचा है। निषध-यह पर्वत १६८४२-२/१९ योजन (६७३६८०००-१/१९ मील) विस्तृत है। इसकी हरिक्षेत्र की तरफ लंबाई ७३९०१-१७/१९ योजन (२९५६०४३५७-१७/१९ मील) एवं विदेह की तरफ की लंबाई ९४१५६-२/१९ योजन (३७६६२४४२१-१/१९ मील) है। इसकी ऊंचाई ४०० योजन (१६०००००मील) है। आगे का नील पर्वत निषध के प्रमाण वाला है, रूक्मी पर्वत महाहिमवान सदृश है और शिखरी पर्वत हिमवान के प्रमाण वाला है। पर्वतों के वर्ण-हिमवान् पर्वत का वर्ण सुवर्णमय है आगे क्रम से चांदी, तपाये हुये सुवर्ण, वैडूर्यमणि, चांदी और सुवर्ण सदृश है। ये पर्वत ऊपर और मूल में समान विस्तार वाले हैं एवं इनके पाश्र्वभाग चित्र- विचित्र मणियों से निर्मित हैं।
छह पर्वतों के कूट
हिमवान के ११ कूट- सिद्धायतन, हिमवत, भरत, इला, गंगा, श्रीकूट, रोहितास्या, सिंधु, सुरा देवी, हैमवत और वैश्रवण ये ११ कूट हैं। प्रथम सिद्धायतन कूट पूर्व दिशा में है उस पर जिनमंदिर है। बाकी १० कूटों में से स्त्रीलिंग नामवाची कूटों पर व्यंतर देवियां एवं अवशेष कूटों पर व्यंतरदेव रहते हैं। सभी कूट पर्वत की ऊँचाई के प्रमाण से चौथाई प्रमाण वाले होते हैं। जैसे हिमवान पर्वत १०० योजन(४००००० मील) ऊँचा है तो इसके सभी कूट २५-२५ योजन ऊँचे हैं। मूल में २५ योजन (१००००० मील) विस्तृत, मध्य में १८-३/४ योजन(७५००० मील) और ऊपर १२-१/२ योजन (५०००० मील) विस्तार है। इनके ऊपर देवों व देवियों के भवन बने हुए हैं। महाहिमवान के आठ कूट-सिद्धकूट,महाहिमवत्, हैमवत, रोहित, ह्रीकूट, हरिकांता, हरिवर्ष और वैडूर्य ये आठ कूट हैं। ये ५० योजन (२००००० मील) ऊंचे, मूल में ५० योजन, ऊपर में २५ योजन (१००००० मील) विस्तृत हैं। निषध के ९ कूट-सिद्धकूट, निषध, हरिवर्ष, पूर्वविदेह, हरित्, धृति, सीतोदा, अपरविदेह और रुचक ये ९ कूट हैं। ये १०० योजन (४०००००मील) ऊंचे, मूल में १०० योजन विस्तृत, मध्य में ७५ योजन (३००००० मील) और ऊपर में ५० योजन (२००००० मील) विस्तृत हैं। नील के ९ कूट-सिद्ध, नील,पूर्वविदेह, सीता, कीर्ति, नरकांता, अपरविदेह, रम्यक और अपदर्शन ये ९ कूट हैं।
ये कूट भी १०० योजन ऊंचे हैं, मूल में १०० योजन विस्तृत और ऊपर में ५० योजन विस्तृत हैं अर्थात् क्रम से ४००००० मील ऊंचे, मूल में इतने ही चौड़े तथा मध्य में ३००००० मील और ऊपर में २०००००मील चौड़े हैं। रुक्मि के ८ कूट-सिद्ध, रुक्मि, रम्यक, नारी, बुद्धि, रुप्यकूला, हैरण्यवत और मणिकाँचन ये ८ कूट हैं। ये ५० योजन ऊंचे, ५० योजन विस्तृत और ऊपर में २५ योजन विस्तृत हैं अर्थात् २००००० मील ऊंचे, चौड़े, मध्य में १५०००० मील, ऊपर में १००००० मील विस्तृत हैं। शिखरी के ११ कूट-सिद्ध, शिखरी, हैरण्यवत, रसदेवी, रक्ता, लक्ष्मी, सुवर्ण, रक्तवती, गंधवती, ऐरावत और मणिकांचन ये ११ कूट हैं। ये २५ योजन (१००००० मील) ऊँचे, २५ योजन विस्तृत, मध्य में १८-३/४ योजन (७५००० मील) और ऊपर में १२-१/२ योजन (५०००० मील) विस्तृत हैं। विशेष-सभी कूटों में पूर्व दिशा के सिद्धकूट में जिनभवन हैं। स्त्रीलिंगवाची कूटों में व्यन्तर देवियाँ हैं और शेष में व्यंतर देवों के भवन बने हुए हैं। वनखंड-सभी पर्वतों के नीचे(तलहटी में) और ऊपर दोनों तरफ वनखंड हैं और इनके कूटों के नीचे चारों तरफ वनखंड दो कोश चौड़े हैं एवं पर्वत पर्यंत लम्बे हैं। इन वनखंडों की वेदिका पांच सौ धनुष चौड़ी, दो कोस ऊँची हैं। ये वेदिकायें और वनखंड सभी पर्वत, नदी, सरोवर आदि में सर्वत्र सदृश मध्य प्रमाण वाले हैं।
छह सरोवर
१. पद्म सरोवर-यह सरोवर हिमवान् पर्वत के मध्य भाग में है। ५०० योजन चौड़ा, इससे दुगुना १००० योजन लम्बा और १० योजन गहरा है। इसके मध्य भाग में एक योजन का एक कमल है। इसके एक हजार ग्यारह पत्र हैं। इसकी नाल बयालीस कोस ऊंची, एक कोश मोटी है। यह वैडूर्यमणि की है। इसका मृणाल तीन कोश मोटा रूप्यमय-श्वेतवर्ण का है। इसका नाल ४२ कोश अर्थात् १०-१/२ योजन प्रमाण है अत: दस योजन नाल तो जल में है और दो कोश जल के ऊपर है। कमल की कर्णिका दो कोश ऊँची और एक कोश चौड़ी है। इस कर्णिका के ऊपर श्रीदेवी का भवन बना हुआ है। यह भवन एक कोश लंबा, अद्र्ध कोश चौड़ा और पौन कोश ऊँचा है। इसमें श्रीदेवी निवास करती है। इसकी आयु एक पल्य प्रमाण है। श्रीदेवी के परिवार कमल-एक लाख चालीस हजार एक सौ पंद्रह (१,४०,११५) परिवार कमल हैं वे इसी सरोवर में हैं। इन परिवार कमलों की नाल दस योजन प्रमाण है अर्थात् इनकी नाल जल से दो कोश ऊपर नहीं है जल के बराबर है। इन कमलों का विस्तार आदि मुख्य कमल से आधा-आधा है। इनमें रहने वाले परिवार देवों के भवनों का प्रमाण भी श्रीदेवी के भवन के प्रमाण से आधा है।
२.महापद्म सरोवर-यह सरोवर महाहिमवान् पर्वत पर है। यह १००० योजन चौड़ा, २००० योजन लंबा और २० योजन गहरा है। इसके मध्य में जो मुख्य कमल है वह दो योजन विस्तृत है। इसकी कर्णिका दो कोस की है और इसमें ह्रीदेवी का भवन है। वह दो कोश लंबा, डेढ़ कोश ऊँचा और एक कोश चौड़ा है। इस देवी के परिवार कमल २,८०,२०३ हैं। इन परिवार कमलों का एवं इनके भवनों का प्रमाण मुख्य कमल से आधा-आधा है। इसके मुख्य कमल पर ह्रीदेवी निवास करती है। इसकी आयु भी एक पल्य प्रमाण है।
३. तिगिंछ सरोवर-यह सरोवर निषध पर्वत के मध्य में है। यह २००० यो. चौड़ा, ४००० योजन लंबा एवं ४० यो. गहरा है। इस सरोवर में जो मुख्य कमल है वह चार योजन विस्तृत है। इसकी कर्णिका चार कोश की है उसमें बना हुआ धृति देवी का भवन चार कोश लंबा, २ कोश चौड़ा और ३ कोश ऊँचा है। इसके परिवार कमल ५,६०,४६० हैं। इन कमलों का प्रमाण तथा इनके भवनों का विस्तार आदि मुख्य कमल से आधा-आधा है। इसके मुख्य कमल में ‘धृतिदेवी’ रहती है, इसकी आयु भी एक पल्य की है। पद्म सरोवर का क्षेत्रफल आदि-५०० यो. चौड़ा, १००० यो. गहरा है। इसका क्षेत्रफल-५००²१०००·५००००० यो. है। घनफल ५०००००²१०·५०००००० योजन है। क्षेत्रफल की मील बनाने से ५०००००²४०००·२,००,००,००,०००(दो अरब) मील पद्म सरोवर का क्षेत्रफल है। इनमें मुख्य कमल एक योजन का अर्थात् २००० कोश (४०००मील) का है। शेष इसके आधे-आधे प्रमाण के हैं। ये कमल १,४०,११५ हैं। मुख्य कमल की नाल १०-१/२ यो. है अत: जल से दो कोश ऊपर है दस योेजन जल में डूबी है। परिवार कमलों की नाल जल प्रमाण ही है, ऊपर निकली हुई नहीं है। महापद्म सरोवर का क्षेत्र आदि-१०००²२०००·२०,००,०००(बीस लाख) यो. क्षेत्रफल है। २०,००,०००²४०००· ८,००,००,००,००० (आठ अरब मील) है, इसमें मुख्य कमल दो योजन का, ८००० मील का है। शेष इससे आधे प्रमाण के हैं। ये कमल २,८०,२३० हैं। तिगिंछ सरोवर का विशेष विस्तार-२०००²४०००·८०,००००० योजन है। इसके मील ८००००००²४०००·३२,००,००,००,००० (बत्तीस अरब) होते हैं। इसमें मुख्य कमल चार योजन का है अर्थात् ४²४०००·१६००० मील का है। शेष इससे आधे-आधे प्रमाण के हैं। वे कमल ५,६०,४६० हैं।
४. केसरी सरोवर-इस सरोवर का सारा वर्णन तिगिंछ के सदृश है। अन्तर इतना ही है कि यहाँ ‘बुद्धि’ नाम की देवी निवास करती है।
५.पुंडरीक सरोवर-इस सरोवर का सारा वर्णन ‘महापद्म’ के सदृश है। अन्तर इतना ही है कि इसके कमल पर ‘र्कीितदेवी’ निवास करती है।
६.महापुंडरीक-इस सरोवर का सारा वर्णन पद्म सरोवर के सदृश है। यहाँ ‘लक्ष्मी’ नाम की देवी रहती है। विशेष-सरोवरों के चारों ओर वेदिका से वेष्टित वनखण्ड हैं। वे अर्धयोजन चौड़े हैं। सरोवरों के कमल पृथ्वीकायिक हैं, वनस्पतिकायिक नहीं हैं। इनमें बहुत ही उत्तम सुगंधि आती है। जिनमंदिर-इन सरोवरों में जितने कमल कहे हैं वे महाकमल हैं। इनके अतिरिक्त क्षुद्रकमलों की संख्या बहुत है। इन सब कमलों के भवनों में एक-एक जिनमंदिर है इसलिये जितने कमल हैं उतने ही जिनमंदिर हैं।
भरतक्षेत्र
विजयार्ध पर्वत भरतक्षेत्र के बीच में पूर्व-पश्चिम लंबा विजयार्ध पर्वत है। दक्षिण की तरफ इसकी लम्बाई ९७४८-११/१९ योजन (३८९९४३१५-१५/१९) मील है। उत्तर भरत की तरफ इस पर्वत की लंबाई १०७२०-११/१९ योजन (४२८८२३१५-१५/१९ मील) है। यह पर्वत ५० योजन (२०००००मील) चौड़ा और २५ योजन (१००००० मील) ऊंचा है। उसकी नींव सवा छह योजन है। इस पर्वत के दक्षिण-उत्तर दोनों तरफ पृथ्वीतल से १० योजन (४,०००० मील) ऊपर जाकर दस योजन विस्तीर्ण उत्तम श्रेणी हैं। उनमें दक्षिण श्रेणी में पचास और उत्तर श्रेणी में साठ ऐसी विद्याधरों की ११० नगरियां हैं। उसके ऊपर दोनों तरफ दस योजन जाकर दस योजन विस्तीर्ण श्रेणियां हैं। इनमें आभियोग्य जाति के देवों के नगर हैं। इन आभियोग्यपुरों से पांच योजन (२०,००० मील) ऊपर जाकर दस योजन (४०,००० मील) विस्तीर्ण विजयार्ध पर्वत का उत्तम शिखर है। उस समभूमि भाग में सुवर्ण मणियों से निर्मित दिव्य नौ कूट हैं। उन कूटों में पूर्व की ओर से सिद्धकूट, भरतकूट, खंडप्रपात, मणिभद्र, विजयार्धकुमार, पूर्णभद्र, तिमिश्रगुहकूट, भरतकूट और वैश्रवण ऐसे नौ कूट हैं।
ये सब ६-१/४ योजन(२५००० मील) ऊंचे,मूल में इतने ही चौड़े और ऊपर भाग में कुछ अधिक तीन योजन(१२००० मील) चौड़े हैं। सिद्धकूट में जिनभवन एवं शेष कूटों के भवनों में देव-देवियों के निवास हैं। दो महागुफायें-इस विजयार्ध पर्वत में ८ योजन ऊंची (३२००० मील), ५० योजन (२००००० मील) लंबी और १२ योजन (४८०००) मील विस्तृत दो गुफायें हैं। इन गुफाओं के दिव्य युगल कपाट आठ यो. (३२००० मील) ऊंचे, छह यो. (२४००० मील) विस्तीर्ण हैं। गंगा-सिंधु नदियां इन गुफाओं से निकलकर बाहर आकर लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं। इन गुफाओं के दरवाजे को चक्रवर्ती अपने दण्डरत्न से खोलते हैं और गुफा के भीतर काकिणीरत्न से प्रकाश करके सेना सहित उत्तर म्लेच्छों में जाते हैं। चक्रवर्ती द्वारा इस पर्वत तक इधर के तीन खंड जीत लेने से आधी विजय हो जाती है अत: इस पर्वत का विजयार्ध यह नाम सार्थक है। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत है।
गंगा-सिंधु नदी
हिमवान पर्वत के पद्म सरोवर की चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार हैं। उनमें पूर्व तोरण से गंगा नदी निकलती है। गंगा नदी का निर्गम स्थान वङ्कामय है। ६-१/४ योजन (२५००० मील) विस्तृत, १/२ कोस (५०० मील) अवगाह से सहित है। यह नदी यहाँ से निकलकर ५०० योजन (२०,००००० मील) पूर्व की ओर जाती हुई गंगा कूट के दो कोश (२००० मील) इधर से दक्षिण की ओर पाँच सौ तेईस योजन (२०९२००० मील) कुछ अधिक १/२ कोश आकर हिमवान् पर्वत के तट पर स्थित जिह्विका के अन्दर प्रविष्ट होकर, पर्वत की तलहटी से पच्चीस यो. (१,००००० मील) आगे बढ़कर नीचे गिरती है। उपर्युक्त जिह्विका (नाली) सींग, मुख, कान, जिह्वा, नयन और भ्रू (भौंह) से गौ के सदृश है इसलिये यह वृषभाकार कहलाती है। गंगाकुण्ड-गंगा नदी जहाँ पर गिरती है वहाँ पृथ्वीतल पर साठ योजन (२४०००० मील) व्यास वाला गोल कुण्ड है। यह दस योजन (४०००० मी.) गहरा है। इस कुण्ड के बीच में रत्नों से विचित्र आठ योजन (३२००० मी.) विस्तृत द्वीप है। यह धवल जल से ऊपर दो कोश (२००० मील) ऊँचा है। इस महाद्वीप के मध्य भाग में उत्तम वङ्कामय पर्वत है। यह दस योजन (४०००० मील) ऊंचा, मूल में चार (१६००० मील) मध्य में दो (८००० मील) और ऊपर एक योजन (४००० मील) चौड़ा है। इसके ऊपर रत्ननिर्मित गंगाकूट नाम से प्रसिद्ध दिव्य भवन है।
वह भवन मूल में ३०००, मध्य में २००० और ऊपर १००० धनुष प्रमाण विस्तृत है तथा २००० धनुष ऊंचा कूट के सदृश है। उसमें स्वयं गंगादेवी रहती है। उस भवन के ऊपर कमलासन पर जटामुकुटरूप शेखर से युक्त जिनेन्द्र प्रतिमायें हैं। उन प्रतिमाओं का अभिषेक करते हुए के समान गंगा नदी गंगाकूट पर गिरती है। कुण्ड में चारों ओर तोरण द्वार हैं। यह नदी दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर आगे के भूमिभागों में कुटिलता को प्राप्त होती हुई विजयार्ध की गुफा में आठ योजन (३२००० मील) विस्तृत होकर प्रविष्ट होती है। अन्त में चौदह हजार परिवार नदियों से संयुक्त होकर पूर्व की ओर जाती हुई लवणसमुद्र में प्रविष्ट हुई है। गंगा के निर्गम स्थान का तोरणद्वार ६-१/४ योजन (२५००० मील) चौड़ा और ९-३/८ योजन (३७५०० मील) ऊंचा है। लवण समुद्र के प्रवेश स्थान पर गंगा का तोरणद्वार ९३-३/४ योजन-तिरानवे योजन और तीन कोश (३७५००० मील) ऊंचा है। आधा योजन (२००० मील) अवगाह से सहित है तथा ६२-१/२ योजन (२५०००० मील) विस्तृत है। इन तोरणों पर जिनेन्द्र प्रतिमायें स्थित हैं। ‘गंगा१ नदी के कुण्डों से उत्पन्न हुई परिवार नदियां ढाई म्लेच्छखंडों में ही हैं आर्यखंड में नहीं हैं।’ गंगा२ कुण्ड में गिरते समय गंगा नदी की धारा की मोटाई २५ योजन (१००००० मील) है और दीर्घता (ऊंचाई) १०० योजन (४००००० मील) है।
इस प्रकार से संक्षेप में गंगा नदी का वर्णन हुआ है। ऐसे ही पद्म सरोवर के पश्चिम तोरणद्वार से सिंधुनदी निकलकर सिंधुकूट में गिरकर आगे पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है। इन दोनों नदियों के दोनों पाश्र्व भागों में वनखंड हैं और वेदिका हैं, ये वनखंड अत्रुटितरूप से विजयार्ध की गुफा के अन्दर से बाहर तक चले गये हैं। भरतक्षेत्र के छ: खंड-बीच के विजयार्ध पर्वत और इन दोनों नदियों के निमित्त से भरतक्षेत्र के छह खंड हो गये हैं। भरत के ५२६-६/१९ योजन (२१०५२६३-३/१९ मील) में विजयार्ध की चौड़ाई ५० योजन (२,००००० मील) प्रमाण निकल आती है। यथा-(५२६-६/१९-५०)´२·२३८-३/१९ योजन दक्षिण भरत के मध्य का भाग आर्यखंड है और शेष पांच खंड म्लेच्छ खंड हैं अर्थात् दक्षिण भरत ९५२६३१-११/१९ मील है। वृषभाचल-उत्तर भरत के मध्य के खंड में एक पर्वत है जिसका नाम ‘वृषभ’ है। यह पर्वत १०० योजन (४,००००० मील) ऊंचा है, २५ योजन (१,००००० मील) नींव से युक्त, मूल में १०० योजन (४,००००० मील) मध्य में ७५ योजन (३००००० मील) और उपरिभाग में ५० योजन (२,००००० मील)विस्तार वाला है, गोल है। इस भवन के ऊपर ‘वृषभ’ नाम से प्रसिद्ध व्यंतर देव का भवन है, उसमें जिनमंदिर है। इस पर्वत के नीचे तथा शिखर पर वेदिका और वनखंड हैं। चक्रवर्ती छह खंड को जीत कर गर्व से युक्त होता हुआ इस पर्वत पर जाकर प्रशस्ति लिखता है।
उस समय इसे सब तरफ प्रशस्तियों से भरा हुआ देखकर सोचता है कि मुझ समान अनंतों चक्रियों ने यह वसुधा भोगी है अत: अभिमानरहित होता हुआ दण्डरत्न से एक प्रशस्ति को मिटाकर अपना नाम पर्वत पर अंकित करता है। आर्यखण्ड-म्लेच्छ खण्ड की व्यवस्था- भरतक्षेत्र के और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंडों में सुषमासुषमा से लेकर षट्काल परिवर्तन होता रहता है। प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल में यहाँ की व्यवस्था में चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण ऐसे त्रेसठ शलाका पुरुष जन्म लेते हैं। इस बार यहाँ हुंडावसर्पिणी के दोष से नौ नारद और नौ रुद्र भी उत्पन्न हुए हैं। पुन: पंचम काल और छठा काल आता है। यहाँ अभी पंचम काल चल रहा है। इसमें धर्म का ह्रास होते-होते छठे काल में धर्म नहीं रहता है, प्राय: मनुष्य पाशविक वृत्ति के बन जाते हैं। विद्याधर की दोनों श्रेणियों की एक सौ दस नगरियों में और पांच म्लेच्छ खंडों में चतुर्थ काल की आदि से लेकर अंत तक काल परिवर्तन होता है।
हैमवत क्षेत्र
रोहित-रोहितास्या नदीपद्म सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से ‘रोहितास्या’ नदी निकल कर दो सौ छियत्तर योजन से कुछ अधिक २७६-६/१ योजन (११०४००० मील) दूर तक पर्वत के ऊपर बहती है और रोहित् नदी महाहिमवान पर्वत के महापद्म सरोवर के दक्षिण द्वार से निकलकर १६०५-५/१९ योजन (६४२१०५२-१२/१९ मील) प्रमाण पर्वत पर आकर नीचे गिरती है। इन रोहित-रोहितास्या के तोरण द्वार उद्गम स्थान में १२-१/२ योजन (५०००० मील) चौड़े, १८-३/४ योजन (७५००० मील) ऊंचे हैं और जहाँ गिरती है वहाँ के कुण्ड १२० योजन (८४०००० मील) विस्तृत हैं। इनके द्वीप १६ योजन(६४००० मील) विस्तृत और जल के ऊपर एक यो. (४००० मील)ऊंचे हैं। उनमें स्थित पर्वतों की ऊँचाई बीस योजन (८०००० मील) मूल विस्तार आठ योजन (३२००० मील), मध्य विस्तार चार योजन (१६००० मील), शिखर विस्तार दो योजन (८००० मील) है। इन दोनों नदियों में से रोहितास्या की धारा का विस्तार और दीर्घता गंगा नदी के समान है तथा रोहित की धारा का विस्तार पचास योजन (२००००० मील) और दीर्घता (लंबाई) दो सौ योजन (८००००० मील) है। इनके ऊपर रोहित-रोहितास्या देवी के भवन बने हैं जो कि मूल में ६००० धनुष, मध्य में ४०००, ऊपर में १००० धनुष विस्तृत हैं एवं ४००० धनुष ऊंचे हैं। इन भवनों की छत पर कमलासन पर जिनप्रतिमायें हैं।
उन पर नदियों की धारा गिरती है। इन रोहित कूट और रोहितास्या कूट में रोहित, रोहितास्या देवियाँ निवास करती हैं। नाभिगिरि पर्वत- हैमवत क्षेत्र के बीचोंबीच में एक नाभिगिरि पर्वत है। यह पर्वत गोल है, १००० योजन (४०,००००० मील) ऊँचा, १००० योजन मूल में और ऊपर विस्तृत है। यह पर्वत श्वेतवर्ण का है। इसका नाम ’श्रद्धावान’ है। इस पर ‘स्वाति’ नामक व्यंतर देव का भवन जिनमंदिर से सनाथ है१। उपर्युक्त रोहितास्या नदी रोहितास्या कुण्ड के उत्तर तोरणद्वार से निकलकर नाभिगिरि पहँुचने से दो कोस इधर से ही पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाती है और हैमवत क्षेत्र में बहती हुई पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती है। रोहित नदी रोहितकुण्ड के दक्षिण तोरणद्वार के निकलकर नाभिगिरि की दो कोश से इधर से ही प्रदक्षिणा देते हुए के समान पूर्वाभिमुख होकर आगे बहती हुई पूर्व समुद्र में प्रवेश करती है। ये दोनों नदियाँ २८-२८ हजार परिवार नदियों से सहित हैं, इनके प्रवेश का तोरणद्वार १२५ योजन (५००००० मील) विस्तृत है और १८७-१/२ योजन (७५०००० मील) ऊँचा है।
हरिक्षेत्र
हरित-हरिकांता नदी महापद्म सरोवर के उत्तर तोरणद्वार से हरिकांता नदी निकलकर १६०५-५/१९ योजन प्रमाण (६४२१०५२-१२/१९ मील) पर्वत पर आती है पुन: सौ योजन (४००००० मील) पर्वत से दूर ही हरिकांता कुण्ड में गिरती है तथा हरित नदी निषध पर्वत के तिगिंछ सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर ७४२१-१/१९ योजन (२९६८४२१०-१०/१९ मील)पर्वत पर आकर सौ योजन (४००००० मील) पर्वत को छोड़कर ही नीचे हरितकुण्ड में गिरती है। इन दोनों नदियों के उद्गम और प्रवेश के तोरणद्वार, कुण्ड, पर्वत और देवियों के भवनों का प्रमाण तथा नदी की धारा का प्रमाण रोहित नदी से दूना-दूना है, ऐसा समझना। नाभिगिरि-यहाँ हरिक्षेत्र में १००० योजन (४०,००००० मील) ऊँचा, १००० योजन ही विस्तृत श्वेतवर्ण वाला पर्वत है। इसका नाम ‘विजयवान् ’ है। इस पर चारण नामक व्यंतरदेव का भवन जिनमंदिर सहित है। पूर्वोक्त दोनों नदियाँ दो कोश दूर से ही इस पर्वत को छोड़कर प्रदक्षिणा के आकार से बहती हुई अपनी परिवारनदियोंं के पूर्व-पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं।
विदेह क्षेत्र
सीता-सीतोदा नदी सीतोदा नदी निषध के तिगिंछ सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से निकलकर पर्वत पर ७४२१-१/१९ योजन (२९६८४२१०-१०/१९ मील) तक आकर पर्वत को दो सौ योजन (८००००० मील) छोड़कर नीचे सीतोदा कुंड में गिरी है। सीता नदी भी नील पर्वत के केसरी सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर ७४२१-१/१६ योजन (२९६८४२१०-१०/१९ मील) तक पर्वत पर बहकर दो सौ योजन (८००००० मील) नीचे पर्वत को छोड़कर सीताकुंड में नीचे गिरी है। ये दोनों नदियां मेरु पर्वत को दो कोस दूर से ही छोड़कर प्रदक्षिणा के आकार की होती हुई विदेह क्षेत्र में चली जाती हैं। सीता नदी पूर्व विदेह में बहती हुई पूर्व समुद्र में प्रवेश करती है और सीतोदा नदी पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है। सीता-सीतोदा नदियों की परिवार नदियां चौरासी-चौरासी हजार हैं। ये परिवार नदियां देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र में ही बहती हैं।
सुमेरु पर्वत
विदेहक्षेत्र के बीचोंबीच मेें सुमेरु पर्वत है। यह पृथ्वी से ९९००० योजन (३९६०,००००० मील) ऊंचा है। इसकी नींव पृथ्वी के नीचे १००० योजन (४०,०००००मील) गहरी है। इसकी चूलिका ४० योजन (१६०००० मील) है। मेरु पर्वत के ऊपर ५०० योजन (२०,००००० मील) जाकर नंदनवन है, उसका विस्तार ५०० योजन (२०,००००० मील) प्रमाण है। यह नंदनवन मेरु पर्वत के चारों ओर भीतर भाग में अवस्थित है। नंदनवन से ६२५०० योजन (२५०००००००मील) ऊपर जाकर सौमनसवन है। इसका विस्तार भी चारोंं तरफ ५०० योजन (२०००००० मील) है। सौमनसवन से ३६००० योजन (१४,४०,०००००मील) ऊपर जाकर पांडुकवन है। इस पांडुकवन का विस्तार ४९४ योजन है अर्थात् (१९,७६००० मील) है। इस पांडुकवन के ठीक बीच में सुमेरु की चूलिका है। इसका विस्तार मूल में १२ योजन (४८००० मील), मध्य में ८ योजन (३२००० मील) और अग्रभाग में ४ योजन (१६००० मील) मात्र है।
यह ४० योजन (१६०००० मील) ऊँची है। यह मेरु पर्वत नींव में १००९०-१०/११ योजन (४०३६३६३६-४/११ मील) चौड़ा है। १००० योजन (४०००००० मील) के बाद अर्थात् पृथ्वी के ऊपर भद्रसाल वन में १०००० योजन (४००००००० मील) चौड़ा है। यह पर्वत नंदनवन के बाह्य भाग में ९९५४-६/११ योजन(३९८१८१८१-९/११ मील) है, आगे घटते-घटते सौमनसवन में इसका बाह्य विस्तार ४२७२-८/११ योजन (१७०९०९०९-१/११ मील) तथा अभ्यंतर भाग में ३१७-८/११ योजन (१२७०९०९-१/११) मील) है, आगे पांडुकवन में बाह्य विस्तार १००० योजन (४०००००० मील) है। अभ्यंतर भाग में १२ योजन (४८००० मील) की चूलिका है वही विस्तार है। पर्वत के घटने का क्रम-इस पर्वत के विस्तार में मूल से एक प्रदेश से ग्यारह प्रदेशों पर एक प्रदेश की हानि हुई है। इसी प्रकार ग्यारह अंगुल जाने पर एक अंगुल, ग्यारह हाथ जाने पर एक हाथ की एवं ग्यारह योजन जाने पर एक योजन की हानि हुई है। इस पर्वत में नंदनवन और सौमनस की कटनी पाँच-पाँच सौ योजन (२०००००० मील-२०००००० मील) की है अत: नंदनवन के ऊपर और सौमनसवन से ऊपर ११००० योजन (४४०००००० मील) तक समान विस्तार वाला है अर्थात् वहाँ घटने का क्रम नहीं है। बाकी सर्वत्र उपर्युक्त क्रम से घटा है। मेरू पर्वत की परिधियाँ-मेरू पर्वत की छह परिधियों में से प्रथम परिधि हरितालमयी, दूसरी वैडूर्यमणि, तीसरी सर्वरत्नमयी, चौथी वङ्कामयी, पांचवीं पंचवर्ण और छठी लोहितवर्ण है। मेरु के जो ये परिधि भेद हैं वे भूमि से होते हैं। प्रत्येक परिधि का विस्तार १६५०० योजन (६६०००००० मील) है।
सातवीं परिधि वृक्षों से की गई है। सातवीं परिधि के ११ भेद हैं। भद्रसालवन, मानुषोत्तरवन, देवरमण, नागरमण, भूतरमण ये पांंच वन भद्रसालवन में हैं। नंदनवन, उपनंदनवन ये दो वन नंदनवन में हैं। सौमनसवन, उपसौमनसवन ये दो वन सौमनसवन में हैं। पांडुक, उपपांडुकवन ये दो वन पांडुकवन में हैं। ये सब बाह्य भाग से हैं१। मेरु पर्वत का वर्ण-यह पर्वत मूल में (नींव में) १००० योजन (४०००००० मील) तक वङ्कामय है। पृथ्वीतल से लेकर ६१००० योजन (२४४०००००० मील) तक उत्तम रत्नमय, ऊपर ३८००० योजन (१५२०००००० मील) तक सुवर्णमय है और चूलिका वैडूर्यमणिमय है। भद्रसाल वन- सुमेरु पर्वत के चारों तरफ पृथ्वी पर भद्रसाल वन है। यह पूर्व-पश्चिम में २२००० योजन (८८०००००० मील) है और दक्षिण-उत्तर में २५० योजन (१०००००० मील) चौड़ा है। इस भद्रसाल वन में चारों दिशाओं में चार१ चैत्यालय हैं। ये चैत्यालय सौ योजन लंबे, पचास योजन चौड़े और पचहत्तर योजन ऊंचे हैं।
इनका वर्णन त्रिलोकसार आदि में बड़ा ही मनोरम है। इन चैत्यालयों में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें हैं, जो बहुत ही सुन्दर हैं। भद्रसाल वन के बाह्य-अभ्यंतर दोनों पाश्र्वभाग में वेदिका है जो एक योजन (४००० मील) ऊंची,अर्ध योजन (२००० मील) चौड़ी है। नंदनवन-नंदनवन सर्वत्र पांच सौ योजन (२०००००० मील) विस्तृत है। इसकी चारों दिशाओं में भी भद्रसाल वन के चैत्यालय सदृश चार चैत्यालय हैं। नंदन वन में ईशान विदिशा में एक बलभद्र नाम का कूट है। यह १०० योजन (४००००० मील) ऊंचा, १०० योजन चौड़ा और ऊपर में ५० योजन (२०००००मील) विस्तृत है। नंदनवन में नंदन, मंदर, निषध, हिमवान् ,रजत, रुचक, सागर और वङ्का ये आठ कूट हैं। ये सुवर्णमयी, ५०० योजन (२००००००मील) ऊंचे, ५०० योजन (२००००००मील) मूल में विस्तृत हैं और २५० योजन (१००००००मील) ऊपर में विस्तृत हैं। बलभद्र कूट में बलभद्र नाम का देव और इन१ कूटों में दिक्कुमारी देवियां रहती हैं। सौमनस वन-सौमनसवन में भी चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं वे प्रमाण में नंदनवन२ से आधे हैं। वहाँ भी नौ कूट हैं।
पांडुकवन-पांडुक वन की चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं जो कि प्रमाण में १०० कोश लंबे, ५० कोश चौड़े और ७५ कोश ऊंचे हैं। पांडुकशिला-इस वन की चारों विदिशाओं में चार शिलायें हैं। ईशान दिशा में पांडुकशिला, आग्नेय में पांडुवंâबला, नैऋत्य में रक्ता और वायव्य में रक्तवंâबला नाम वाली हैं। ये शिलायें अर्ध चन्द्राकार हैं। १०० योजन (४००००० मील) लंबी, ५० योजन (२०००००मील) चौड़ी और ८ योजन (३२००० मील) मोटी हैं। इन शिलाओं के ऊपर बीच में तीर्थंकर के लिये सिंहासन है और उसके आजू-बाजू सौधर्म-ईशान इन्द्र के लिये भद्रासन हैं। ये आसन गोल हैं। पांडुकशिला पर भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों का और पांडुवंâबला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का, रक्ता शिला पर पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का और रक्तवंâबला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक होता है। विशेष-नंदन और सौमनसवन में सौधर्म इन्द्र के लोकपालों के भवन, अनेकों बावड़ियां, सौधर्म इन्द्र की सभा आदि अनेकों वर्णन हैं जो कि तिलोयपण्णत्ति आदि से ज्ञातव्य हैं। यहाँ संक्षेप मात्र में दिग्दर्शन कराया गया है। विदेह क्षेत्र का विस्तार-इस विदेहक्षेत्र का विस्तार ३३६८४-४/१९ योजन (१३४७३६८४२-२/१९ मील) है।
इस क्षेत्र के मध्य की लंबाई १००००० योजन (४०००००००० मील) चालीस करोड़ मील है। गजदंत पर्वत-भद्रसालवन में मेरु की ईशान दिशा में माल्यवान्, आग्नेय में महासौमनस, नैऋत्य में विद्युत्प्रभ और वायव्य विदिशा में गंधमादन ये चार गजदंत पर्वत हैं। दो पर्वत निषध और मेरु का तथा दो पर्वत नील और मेरु का स्पर्श करते हैं। ये पर्वत सर्वत्र ५०० योजन (२०००००० मील) विस्तृत हैं और निषध-नील पर्वत के पास ४०० योजन (१६००००० मील) ऊँचे; तथा मेरु के पास ५०० योजन (२००००००मील) ऊँचे हैं। ये पर्वत ३०२०९-६/१९ योजन (१२०८३७२६३-३/१९ मील) लंबे हैं। सदृश आयत हैं। इन गजदंतों में नील और निषध के पास का अंतराल ५३००० योजन (२१२०००००० मील) आता है। माल्यवंत और विद्युत्प्रभ इन दो गजदंतों में सीता-सीतोदा नदी निकलने की गुफा है। सीता नदी नील पर्वत के केसरी सरोवर के उत्तर-द्वार से निकलकर पृथ्वी पर सीताकुंड में गिरकर आगे बहती हुई जाती है पुन: माल्यवान् पर्वत की गुफा में प्रवेश कर बाहर निकलकर मेरु की प्रदक्षिणा करते हुए पूर्वभाग में चली जाती है।
ऐसे ही सीतोदा नदी निषध के तिगिंछ सरोवर के दक्षिणद्वार से निकलकर विद्य़ुत्प्रभ गजदंत की गुफा में प्रवेश कर बाहर निकलकर मेरु की अद्र्ध प्रदक्षिणा देकर पश्चिम भाग में चली जाती है। माल्यवान् पर्वत का वर्ण वैडूर्यमणि जैसा है। महासौमनस का रजतमय, विद्युत्प्रभ का तपाये सुवर्ण सदृश और गंधमादन का सुवर्ण सदृश है। माल्यवान् पर्वत के नव कूटों के नाम-सिद्धकूट, माल्यवान् , उत्तरकौरव, कच्छ, सागर, रजत, पूर्णभद्र, सीता और हरिसह ये नवकूट हैं। सुमेरु के पास का कूट सिद्धकूट है। यह १२५ योजन (५००००० मील) ऊँचा, मूल में १२५ योजन (५०००००मील) विस्तृत और ऊपर ६२-१/२ योजन (२५००००मील) विस्तृत है। अंतिम कूट हरिसह १०० योजन (४०००००मील) ऊँचा, १०० योजन मूल में विस्तृत और उपरिमभाग में ५० योजन (२००००० मील) है। शेष कूट पर्वत की ऊँचाई के चौथाई भागप्रमाण यथायोग्य हैं। सिद्धकूट में जिनमंदिर तथा शेष में देव-देवियों के आवास हैं। महासौमनस पर्वत के ७ कूट के नाम-सिद्ध, सौमनस, देवकुरु, मंगल, विमल, कांचन, वशिष्ट ये ७ कूट हैं। विद्युत्प्रभ के नव कूटों के नाम-सिद्ध, विद्युत्प्रभ, देवकुरु, पद्म, तपन, स्वस्तिक, शतज्वाल, सीतोदा और हरिकूट। गंधमादन के ७ कूटों के नाम-सिद्ध, गंधमादन, उत्तरकुरु, गंधमालिनी, लोहित, स्फटिक और आनंद ये सात कूट हैं। विशेष-इनमें सिद्धकूटों में जिनमंदिर, शेष में यथायोग्य देव-देवियों के आवास हैं। चारों के सिद्धकूट १२५ योजन (५००००० मील) ऊँचे एवं अंत के कूट १०० योजन (४००००० मील) ऊँचे हैं। शेष अपने-अपने पर्वतों के ऊँचाई के चतुर्थभाग प्रमाण ऊँचे हैं। बत्तीस विदेह मेरू की पूर्व दिशा में पूर्वविदेह और पश्चिम दिशा में पश्चिमविदेह हैं। पूर्व विदेह के बीच में सीता नदी है। पश्चिम विदेह के बीच में सीतोदा नदी है। इन दोनों नदियों के दक्षिण-उत्तर तट होने से चार विभाग हो जाते हैं। इन एक-एक विभाग में आठ-आठ विदेह देश हैं। पूर्व-पश्चिम में भद्रसाल की वेदी है उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे विभंगा नदी, उसके आगे वक्षार पर्वत, उसके आगे देवारण्य व भूतारण्य की वेदी, ये नव हुए। इन नव के बीच-बीच में आठ विदेहदेश हैं। इस प्रकार सीता-सीतोदा के दक्षिण-उत्तर तट संबंधी बत्तीस विदेह हो जाते हैं।
सोलह वक्षार और बारह विभंगा नदी
सीतानदी के उत्तर तट में भद्रसाल की वेदी से लेकर आगे क्रम से चित्रकूट, पद्मकूट, नलिनकूट और एकशैल ये चार वक्षार पर्वत हैं। गाधवती, द्रहवती,पंकवती ये तीन विभंगा नदियाँ हैं। सीतानदी के दक्षिण तट में देवारण्य वेदी से लगाकर क्रम से त्रिकूट, वैश्रवण, अंजनात्मा, अंजन ये वक्षारपर्वत और तप्तजला, मत्तजला, उन्मत्तजला ये तीन विभंगा नदियाँ हैं। पश्चिम विदेह की सीतोदा नदी के दक्षिण तट में भद्रसाल वेदी से लगाकर क्रम से श्रद्धावान् , विजटावान् , आशीविष, सुखावह ये चार वक्षार और क्षारोदा, सीतोदा, स्रोतोवाहिनी ये तीन विभंगा नदियाँ हैं। इसी पश्चिम विदेह की सीतोदा नदी के उत्तर तट में देवारण्य की वेदी से लगाकर क्रम से चंद्रमाल, सूर्यमाल, नागमाल, देवमाल ये चार वक्षार पर्वत हैं। गंभीरमालिनी, पेâनमालिनी, र्ऊिममालिनी ये तीन विभंगा नदियाँ हैं। वक्षार पर्वतों का वर्णन-ये वक्षार पर्वत सुवर्णमय हैं। प्रत्येक वक्षार शैलों का विस्तार ५०० योजन (२००००००मील) है और लंबाई १६५९२-२/१९ योजन (६६३६८४२१-१/१९ मील) तथा ऊँचाई निषध-नील पर्वत के पास ४०० योजन (१६००००० मील) एवं सीता-सीतोदा नदी के पास ५०० योजन (२००००००मील) है। प्रत्येक वक्षार पर चार-चार कूट हैं। नदी के तरफ के कूट सिद्धकूट हैं उन पर जिन चैत्यालय हैं। बचे तीन-तीन कूटों में से एक-एक कूट वक्षार पर्वत के नाम के हैं एवं दो-दो कूट के अपने-अपने वक्षार के पूर्व-पश्चिम पाश्र्व के दो विदेह देशों के जो नाम हैं वे ही नाम हैं। यथा-चित्रकूट वक्षार के ऊपर सिद्धकूट, चित्रकूट, कच्छा, सुकच्छा ये नामधारक कूट हैं।
विभंगा नदियों का प्रमाण-ये नदियाँ निषध-नील पर्वत की तलहटी के पास कुंड से निकलती हैं। अपने-अपने कुंड के पास उत्पत्ति स्थान में ५० कोस (५००००मील) तथा सीता-सीतोदा नदियों के पास प्रवेश स्थान में ५०० कोश (५०००००मील) प्रमाण हैं। इन नदियों की परिवार नदियाँ २८-२८ हजार हैं। देवारण्यवन-पूर्व-पश्चिम विदेह के अन्त में सीता-सीतोदा दोनों नदी के दक्षिण-उत्तर दोनों तट में चार देवारण्य नाम के वन हैं अर्थात् विदेह के अन्त में समुद्र के पास देवारण्य नाम के वन हैं। विदेह के बत्तीस देशों के नाम-सीता नदी के उत्तर तट में भद्रसाल से लगाकर कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला, पुष्कलावती ये आठ देश हैं। सीता नदी के दक्षिण तट में देवारण्य की वेदी से इधर क्रम से वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्या, रमणीया, मंगलावती ये आठ देश हैं। सीतोदा नदी के दक्षिण तट में भद्रसाल वेदी से आगे क्रम से पद्मा,सुपद्मा-महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिनी, कुमुद, सरित ये आठ देश हैं। सीतोदा नदी के उत्तर तट में देवारण्य वेदी से लेकर क्रम से वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गंधा, सुगंधा, गंधिला, गंधमालिनी ये आठ देश हैं। एक-एक देश के छह-छह खंड-ये विदेह देश पूर्वापर २२१२-७/८ योजन (८८५१५०० मील) विस्तृत हैं। प्रत्येक क्षेत्र की दक्षिण-उत्तर लंबाई १६५९२-२/१९ योजन प्रमाण है।
इन विदेह देशों के बहुमध्य भाग में ५० योजन (२०००००मील) और देश के विस्तार समान लम्बा अर्थात् २२१२-७/८ योजन (८८५१५०० मील) लम्बा विजयार्ध पर्वत है। इन विजयार्धों में भी दोनों पाश्र्व भागों में दो-दो श्रेणियां हैं। अन्तर इतना ही है कि इनमें विद्याधर श्रेणियों में दोनों तरफ ५५-५५ नगरियां हैं अत: एक-एक विजयार्ध संबंधी ११०-११० नगरियाँ हैं। इन विजयार्धोंं पर भी नव-नव कूट हैं और दो-दो महागुफायें हैं जो पूर्वोक्त प्रमाण वाली हैं। गंगा-सिंधु नदियाँ-सीता-सीतोदा के दक्षिण तट के देशों में दो-दो नदियाँ हैं उनके गंगा-सिंधु नाम हैं। वे नील पर्वत के पास जो कुंड हैं उनसे निकलकर सीधे दक्षिण दिशा में आती हुई विजयार्ध की गुफा से निकलकर आगे आकर सीता-सीतोदा नदी में मिल जाती हैं। इनके उद्गम स्थान में तोरण द्वार ६-१/४ योजन (२५००० मील) चौड़ा है और प्रवेश स्थान में तोरण द्वार ६२-१/२ योजन (२५०००० मील) चौड़ा है। रक्ता-रक्तोदा नदियाँ-सीता-सीतोदा के उत्तर तट में दो-दो नदियाँ हैं। उनके नाम रक्ता-रक्तोदा हैं। ये नदियाँ निषध पर्वत के पास के कुंडों से निकलकर उत्तर दिशा में जाती हुई विजयार्ध पर्वत की गुफा में प्रवेश कर आगे निकल कर सीता-सीतोदा नदियों में मिल जाती हैं। इनके भी उद्गम-प्रवेश के तोरणद्वार पूर्वोक्त गंगा-सिंधु के समान हैं। प्रत्येक देश में एक विजयार्ध और दो नदियों के निमित्त से छह-छह खंड हो जाते हैं। इनमें एक आर्यखंड और पाँच म्लेच्छ खंड कहलाते हैं। पूर्वोक्त कच्छा आदि विदेह देशों की मुख्य-मुख्य राजधानी इन आर्यखंडों में हैंं, कच्छा आदि देश की राजधानियों के नाम-क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपुरी आदि हैं। इन विदेहदेश के पांच म्लेच्छ खण्डों में से मध्य के म्लेच्छ खण्ड में एक-एक वृषभाचल पर्वत है अत: विदेह के ३२ वृषभाचल पर्वत हो गए हैं। इन पर वहाँ के चक्रवर्ती अपनी-अपनी प्रशस्तियां लिखते हैं। वहाँ विदेह की गंगा-सिंधु और रक्ता-रक्तोदा की परिवार नदियाँ भी १४-१४ हजार हैं। इस प्रकार संक्षेप में विदेह के बत्तीस भेदों का वर्णन किया है।
यमकगिरि
नील पर्वत से मेरु की तरफ आगे हजार योजन आकर सीता नदी के पूर्व तट पर ‘चित्र’ और पश्चिम तट पर ‘विचित्र’ नाम के दो पर्वत हैं। ऐसे ही निषध पर्वत से मेरु की तरफ आगे हजार योजन जाकर सीतोदा के पूर्व तट पर ‘यमक’ और पश्चिम तट पर ‘मेघ’ नाम के दो पर्वत हैं। इन चारों को यमकगिरि कहते हैं। ये चारों पर्वत गोल हैं। इन चित्र-विचित्र के मध्य में पाँच सौ योजन (२००००००मील) का अन्तराल है, उस अंतराल में सीता नदी है। ऐसे ही यमक और मेघ पर्वत के मध्य भाग में पाँच सौ योजन के अन्तराल में सीतोदा नदी है। ये पर्वत १००० योजन (४००००००मील) ऊँचे, मूल में १००० योजन विस्तृत और ऊपर में ५०० योजन (२०००००० मील) विस्तृत हैं। इन पर्वतों पर अपने-अपने पर्वत के नाम वाले व्यंतर देवों के भवन हैं। सीता-सीतोदा नदी के बीस सरोवर१-यमकगिरि जहाँ पर हैं वहाँ से पाँच सौ योजन (२०,००००० मील) जाकर सीता और सीतोदा नदी में पाँच-पाँच सरोवर हैं अर्थात् देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि के दो क्षेत्र हैं और पूर्व-पश्चिम भद्रसाल के दो क्षेत्र हैं। उनमें पाँच-पाँच सरोवर हैं । ये सरोवर पाँच सौ-पाँच सौ योजन अर्थात् यमकगिरि के स्थान से ५०० योजन के अन्तराल से हैं, (२०००००० मील) आगे जाकर मेरु की तरफ सीता-सीतोदा नदी में एक-एक सरोवर हैं, पुन: पाँच सौ योजन आगे जाकर एक-एक सरोवर हैं, ऐसे पाँच-पाँच सरोवर हैं।
ये देवकुरु-उत्तरकुरु में हैं। इसी प्रकार सीता-सीतोदा नदी के भीतर पाँच-पाँच सरोवर पूर्व-पश्चिम भद्रसाल में हैं। ऐसे ये बीस सरोवर सीता-सीतोदा नदी के बीच में हैं। ये सरोवर नदी की चौड़ाई प्रमाण चौड़े और १००० योजन लम्बे हैं। इनकी चौड़ाई ५०० योजन है, ऐसा तिलोयपण्णत्ति में कहा है। इन सरोवरों की चौड़ाई और लम्बाई नदी के प्रवाह में है। इन सरोवरों में एक-एक मुख्य कमल हैं वे एक-एक योजन विस्तृत हैं। शेष परिवार कमल १,४०,११५ हैं। सभी सरोवरों में परिवार कमलों की इतनी ही संख्या है। इन कमलों पर नागकुमारी देवियाँ अपने-अपने परिवार सहित रहती हैं। ये सरोवर नदी के प्रवेश करने और निकलने के द्वार से सहित हैं। नदी के प्रवाह के बीच में इन सरोवरों की तटवेदियाँ बनी हुई हैं। कांचनगिरि-इन बीस सरोवरों के दोनों तटों पर पंक्तिरूप से पाँच-पाँच कांचनगिरि हैंं। एक तट संबंधी २०²५·१००,दूसरे तट संबंधी २०²५·१००,ऐसे १००±१००·२०० कांचनगिरि हैं। ये पर्वत १०० योजन (४०००००मील) ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत और ऊपर में ५० योजन (२०००० मील) विस्तृत हैं। इन पर्वतों के ऊपर अपने-अपने पर्वत के नाम वाले देवों के भवन हैं। इनमें रहने वाले देव शुक (तोते के) वर्ण वाले हैं। देवों के भवन के द्वार सरोवरों के सन्मुख हैं अत: ये पर्वत अपने-अपने सरोवर के सन्मुख कहलाते हैं। विशेष-सरोवर से आगे २०९२-२/१९ योजन (८३६८४२१-१/१९ मील) जाकर नदी के प्रवेश करने के द्वार से सहित दक्षिण भद्रसाल और उत्तर भद्रसाल की वेदिका है अर्थात् अन्तिम सरोवर और भद्रसाल की वेदी का इतना अंतराल है।
दिग्गज पर्वत
देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि में और पूर्व-पश्चिम भद्रसाल में महानदी सीता-सीतोदा हैं। उनके दोनों तटों पर दो-दो दिग्गजेंद्र पर्वत हैं। ये पर्वत आठ हैं। ये १०० योजन (४०००००मील) ऊँचे, मूल में १०० योजन विस्तृत और ऊपर भाग में ५० योजन (२०००००मील) प्रमाण हैं। इनके नाम-पूर्व भद्रसाल में पद्मोत्तर, नील, देवकुरु में स्वस्तिक, अंजन, पश्चिम भद्रसाल में कुमुद, पलाश, उत्तरकुरु में अवतंस और रोचन ये नाम हैं। इन पर्वतों पर दिग्गजेंद्र देव रहते हैं। देवकुरु-उत्तरकुरु भोगभूमि-मेरु और निषध पर्वत के मध्य में देवकुरु और मेरु तथा नील पर्वत के मध्य में उत्तरकुरु हैं। कुरुक्षेत्र का विस्तार ११८४२-२/१९ योजन (४७३६४२१-१/१९ मील) प्रमाण है। कुरुक्षेत्रों का वृत्त विस्तार ७११४३-४/१९ योजन (२८४५७२८४२-२/१९ मील) तथा एक कला का नौवां अंश ( १/१९²९) है। कुरुक्षेत्र की जीवा ५३००० योजन (२१२०००००० मील) और उसके धनुष का प्रमाण ६०४१८-१२/१९ योजन (२४१६७४५२६-६/१९ मील) प्रमाण है। इसमें उत्तर भोगभूमि की व्यवस्था है।
जंबूवृक्ष-मेरु पर्वत के ईशान कोण में सीता नदी के पूर्व तट पर नील पर्वत के पास में जंबूवृक्ष का स्थल है। इस स्थल के ऊपर सब ओर आधा योजन (२०००मील) ऊँची १/१६ योजन (२५० मील) विस्तृत रत्नों से व्याप्त एक वेदिका है। ५०० योजन (२००००००मील) विस्तार वाले और मध्य में आठ योजन (३२०००मील) तथा अन्त में दो कोस (२०००मील) मोटाई से संयुक्त उस सुवर्णमय उत्तम स्थल के ऊपर मूल में, मध्य में और ऊपर यथाक्रम से १२ योजन (४८०००मील), ८ योजन (३२००० मील), ४ योजन (१६०००मील) विस्तृत तथा ८ योजन (३२००० मील) ऊँची जो पीठिका है उसकी बारह पद्मवेदिकायें हैं। इस पीठिका पर बहुमध्य भाग में जंबूवृक्ष है, यह ८ योजन (३२००० मील) ऊँचा है, इसकी वङ्कामय जड़ दो कोस (२००० मील) गहरी है। इस वृक्ष का दो कोस (२०००मील) मोटा, दो योजन (८०००मील) मात्र ऊँचा स्कंध है। इस वृक्ष की चारों दिशाओं में चार महाशाखायें हैं। इनमें से प्रत्येक शाखा ६ योजन (२४०००मील) लम्बी है१ और इतने मात्र अन्तर से सहित है। इनके सिवाय क्षुद्रशाखायें अनेकों हैं। यह वृक्ष पृथ्वीकायिक है, जामुन के वृक्ष के समान इनमें फल लटकते हैं अत: यह जंबूवृक्ष कहलाता है अर्थात् यह वृक्ष १० योजन२ (४००००मील) ऊँचा, मध्य में ६-१/४ योजन (२५,००० मील) चौड़ा और ऊपर चार योजन (१,६०,०००मील) चौड़ा है।
सुमेरु के उत्तर भाग में उत्तरकुरु भोगभूमि है इसमें अर्थात् मेरु की ईशान दिशा में स्थित जंबूवृक्ष और उसकी बारह पद्म वेदिकायें। शाखा पर जिनमंदिर-जंबूवृक्ष की उत्तरदिशा संबंधी, नील कुलाचल की तरफ जो शाखा है उस शाखा पर जिनमंदिर है। शेष तीन दिशा की शाखाओं पर आदर-अनादर नामक व्यंतर देवों के भवन हैं। इस मुख्यवृक्ष के चारों तरफ जो बारह पद्म वेदिकायें बताई हैं, उनमें प्रत्येक में चार-चार तोरणद्वार हैं। उनमें इस जंबूवृक्ष के परिवार वृक्ष हैं। उनकी संख्या १,४०,११९ है। इनमें चार देवांगनाओं के चार वृक्ष अधिक हैं अर्थात् पद्मद्रह के परिवार की संख्या १,४०,११५ है। यहाँ चार देवांगनायें अधिक हैं। परिवार वृक्षों का प्रमाण मुख्य वृक्ष से आधा-आधा है। शाल्मलीवृक्ष-इसी प्रकार सीतोदा नदी के पश्चिम तट में निषध कुलाचल के पास मेरु पर्वत से नैऋत्य दिशा में देवकुरु क्षेत्र में रजतमयी स्थल पर शाल्मलिवृक्ष है। इसका सारा वर्णन जंबूवृक्ष सदृश है। इसकी दक्षिण शाखा पर जिनमंदिर है शेष तीन शाखाओं पर वेणु और वेणुधारी देवों के भवन हैं। इसके परिवार वृक्ष भी पूर्वोक्त प्रमाण हैं। विशेष-जितने जंबूवृक्ष और शाल्मलिवृक्ष हैं। प्रत्येक की शाखाओं पर एक-एक जिनमंदिर होने से उतने ही जिनमंदिर हैं। जिस प्रकार से विदेहक्षेत्र के सुमेरु, गजदंत, वक्षारपर्वत, विभंगा नदी, बत्तीसदेश, विजयार्ध, वृषभाचल, गंगा-सिंधु आदि नदियाँ, यमकगिरि, नदी के मध्य के सरोवर, दिग्गज और जंबू-शाल्मलि वृक्षों का वर्णन किया गया है,जो कि नाममात्र से है।
रम्यक क्षेत्र
नारी-नरकांता नदी इस रम्यक क्षेत्र का सारा वर्णन हरिक्षेत्र के सदृश है। यहाँ पर नील पर्वत के केसरी सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से नरकांता नदी निकली है और रुक्मि पर्वत के महापुंडरीक सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से नारी नदी निकलती है। ये नदियाँ नारी-नरकांता कुंड में गिरती हैं। यहाँ के नाभिगिरि का नाम पद्मवान् है, इस पर पद्म नाम का व्यंतर देव रहता है। हैरण्यवत क्षेत्रसुवर्णकूला-रूप्यकूला नदी इस हैरण्यवत क्षेत्र का सारा वर्णन हैमवत क्षेत्र के सदृश है। यहाँ पर रुक्मि पर्वत के महापुंडरीक सरोवर के उत्तर तोरणद्वार से रूप्यकूला नदी एवं शिखरी पर्वत के पुंडरीक सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से सुवर्णकूला नदी निकलती है। यहाँ पर नाभिगिरि का गंधवान् नाम है उस पर प्रभास नाम का देव रहता है।
ऐरावत क्षेत्र
रक्ता-रक्तोदा नदी इस ऐरावत क्षेत्र का सारा वर्णन भरतक्षेत्र के सदृश है। इसमें बीच में विजयार्ध पर्वत है। उस पर नव कूट हैं-सिद्धकूट, उत्तरार्धऐरावत, तमिस्रगुह, माणिभद्र, विजयार्धकुमार, पूर्णभद्र, खंडप्रपात, दक्षिणार्ध ऐरावत और वैश्रवण। यहाँ पर शिखरी पर्वत के पुंडरीक सरोवर के पूर्व-पश्चिम तोरणद्वार से रक्ता-रक्तोदा नदियाँ निकलती हैं जो कि विजयार्ध की गुफा से निकलकर पूर्व-पश्चिम समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं अत: यहाँ पर भी छह खंड हैं। उसमें भी मध्य का आर्यखंड है। इस प्रकार संक्षेप से सात क्षेत्रों का वर्णन हुआ।
जंबूद्वीप का संक्षिप्त अवलोकन
तीन सौ ग्यारह पर्वत कहाँ हैं सुमेरु पर्वत विदेह के मध्य में है। छह कुलाचल-सात क्षेत्रों की सीमा करते हैं। चार गजदंत मेरु की विदिशा में हैं। सोलह वक्षार विदेह क्षेत्र में हैं। बत्तीस विजयार्ध बत्तीस विदेह देश में हैं और दो विजयार्ध, भरत और ऐरावत में एक-एक हैं अत: चौंतीस विजयार्ध हैं। बत्तीस विदेह के ३२, भरत-ऐरावत के दो ऐसे चौंतीस वृषभाचल हैं। हैमवत, हरि तथा रम्यक और हैरण्यवत में एक-एक नाभिगिरि ऐसे चार नाभिगिरि हैं।सीता नदी के पूर्व-पश्चिम तट पर एक-एक ऐसे चार यमकगिरि हैं। देवकुरु-उत्तरकुरु में दो-दो तथा पूर्व-पश्चिम भद्रसाल में दो-दो ऐसे आठ दिग्गज पर्वत हैं। सीता-सीतोदा के बीच बीस सरोवरों में प्रत्येक सरोवर के दोनों तटों पर पाँच-पाँच होने से दो सौ कांचनगिरि हैं।
जंबूद्वीप की संपूर्ण नदियां कितनी हैं और कहाँ कहाँ हैं?
भरतक्षेत्र की गंगा-सिंधु २± इनकी सहायक नदियां २८०००±हैमवतक्षेत्र की रोहित-रोहितास्या २± इनकी सहायक नदियां ५६०००± हरिक्षेत्र की हरित्-हरिकांता २± इनकी सहायक १,१२०००± विदेहक्षेत्र की सीता-सीतोदा २± इनकी सहायक १,६८००० (८४०००²२) ± विभंगा नदी १२ ± इनकी सहायक ३,३६,००० (२८०००²१२) बत्तीस विदेह देशों की गंगा-सिंधु और रक्ता-रक्तोदा नाम की ६४± इनकी सहायक नदियां ८९६००० (१४०००²६४)। रम्यकक्षेत्र की नारी-नरकांता २ ± इनकी सहायक नदियां १,१२,०००± हैरण्यवत क्षेत्र की सुवर्णकूला २± इनकी सहायक ५६०००± ऐरावत क्षेत्र की रक्ता-रक्तोदा २± इनकी सहायक नदियां २८०००· १७,९२,०९०। अर्थात् सम्पूर्ण जंबूद्वीप में सत्रह लाख, बानवे हजार, नब्बे नदियां हैं। इनमें विदेह की नदियां चौदह लाख, अठहत्तर हैं। सीता-सीतोदा की जो परिवार नदियाँ हैं, वे देवकुरु-उत्तरकुरु में ही बहती हैं। आगे पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह में विभंगा तथा गंगा सिंधु और रक्ता-रक्तोदा हैं। जितनी परिवार नदियां हैं वे सभी अपने-अपने कुण्डों से उत्पन्न होती हैं।
चौंतीस कर्मभूमि
भरतक्षेत्र के आर्यखंड की एक कर्मभूमि, वैसे ही ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड की एक कर्मभूमि तथा बत्तीस विदेहों के आर्यखंड की ३२ कर्मभूमि ऐसे चौंतीस कर्मभूमि हैं। इनमें से भरत-ऐरावत में षट्काल परिवर्तन होने से ये दो अशाश्वत कर्मभूमि हैं एवं विदेहों में सदा ही कर्मभूमि व्यवस्था होने से वे शाश्वत कर्मभूमि हैं।
छह भोगभूमि
हैमवत और हैरण्यवत में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर मनुष्यों की शरीर की ऊँचाई एक कोस है, एक पल्य आयु है और युगल ही जन्म लेते हैं युगल ही मरते हैं। दस प्रकार के कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त करते हैं। हरिवर्ष क्षेत्र और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। वहाँ पर दो कोस ऊँचे, दो पल्य आयु वाले मनुष्य होते हैं। ये भी भोग सामग्री को कल्पवृक्षों से प्राप्त करते हैं। देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर तीन कोस ऊंचे, तीन पल्य की आयु वाले मनुष्य होते हैं। ये छहों भोगभूमियां शाश्वत हैं,यहाँ पर परिवर्तन कभी नहीं होता है। जंबूवृक्ष-शाल्मलिवृक्ष उत्तरकुरु में ईशान दिशा में जंबूवृक्ष एवं देवकुरु में नैऋत्य दिशा में शाल्मलिवृक्ष हैं। चौंतीस आर्यखंड एक भरत में, एक ऐरावत में और बत्तीस विदेहदेशों में बत्तीस ऐसे आर्यखंड चौंतीस हैं। एक सौ सत्तर म्लेच्छखंड भरत क्षेत्र के पाँच, ऐरावत क्षेत्र के पाँच और बत्तीस विदेह के प्रत्येक के पाँच-पाँच ५±५± (३२²५) ·१७० म्लेच्छ खंड हैं। वेदी और वनखंड जंबूद्वीप में ३११ पर्वत हैं,उनके आजू-बाजू या चारों तरफ मणिमयी वेदियां हैं और वनखंड हैं। नब्बे कुंड प्रमुख हैं-गंगादि १४ नदियां जहां गिरती हैं वहाँ के १४, विभंगा नदियों की उत्पत्ति के १२, विदेह की गंगादि-रक्तादि ६४ नदियों की उत्पत्ति के ६४ ऐसे १४± १२± ६४·९० कुंड हैं। इनके चारों तरफ उतनी ही वेदी और वनखंड हैं।
२६ सरोवर हैं-कुलाचल के ६ ± सीता-सीतोदा के २०·२६। इनके चारों तरफ ही वनखंड हैं। जितनी नदियां हैं उनके दोनों पाश्र्व भागों में अर्थात् १७९२०९०²२ ·३५८४१८० मणिमयी वेदिका हैं और उतने ही वनखंड हैं। इन वेदियों की ऊँचाई आधा योजन और विस्तार पाँच सौ धनुष प्रमाण है। सर्वत्र वनखंड आधा योजन चौड़े हैं।
जम्बूद्वीप में ५६८ कूट
उनका स्पष्टीकरण-
(१) हिमवान आदि छह कुलाचल के क्रमश:- हिमवान -शिखरी पर्वत के ११±११ महाहिमवान -रुक्मी के ८±८ निषध -नील के ९±९ ये २२±१६±१८·५६ हैं।
(२) विदेह क्षेत्र के ३२ विजयार्ध एवं भरत-ऐरावत के २ ऐसे ३४ विजयार्ध पर्वत के ९-९ कूट ऐसे ३४²९·३०६ हैं।
(३) सोलह वक्षार पर्वत के ४-४ ऐसे १६²४·६४ हैं।
(४) चार गजदंत के क्रमश:-९±७±९±७ ऐसे ३२ हैं। ”
(५)सुमेरुपर्वत के नंदनवन व सौमनसवन में ९±९ ऐसे १८ हैं।
(६) गंगा-सिंधु आदि चौदह नदियों के नीचे गिरने के स्थान पर १४ कूट हैं, जिन पर गंगा आदि देवियों के महल की छत पर जटाजूट सहित अकृत्रिम जिनप्रतिमाएँ हैं, उन पर ही ये गंगा आदि नदियाँ अभिषेक करते हुए जैसी गिरती हैं। ऐसे गंगा आदि १४ नदियों के १४ हैं।
(७) हिमवान आदि छह पर्वतों के ऊपर पद्म, महापद्म आदि छह सरोवरों में १३-१३ कूट हैं। ऐसे ६²१३·७८ हैं।
(देखें-तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ)ये सब कुल मिलाकर ५६±३०६±६४±३२±१८±१४±७८·५६८ कूट होते हैं। विशेष-इनमें से छह कुलाचलों के एक-एक सिद्धकूट, चार गजदंत के एक-एक सिद्धकूट, सोलह वक्षार के एक-एक सिद्धकूट और चौंतीस विजयार्ध के एक-एक सिद्धकूटऐसे-६±४±१६±३४·६० ऐसे सिद्धकूटों पर जम्बूद्वीप के ७८ जिनमंदिर में से ६० जिनमंदिर हैं। शेष सभी कूटों पर देवभवनों में जिनमंदिर हैं उनकी गणना व्यंतर देवों के मंदिरों में होती है। इन्हीं ६० जिनमंदिरों में सुमेरु के १६ एवं जम्बूवृक्ष-शाल्मली वृक्ष के २ मिलाने से ७८ अकृत्रिम जिनमंदिर जम्बूद्वीप के होते हैं।
जंबूद्वीप के अठहत्तर जिनचैत्यालय
सुमेरु के चार वन संबंधी १६ ± छह कुलाचल के ६ ± चार गजदंत के ४± सोलह वक्षार के १६± चौंतीस विजयार्ध के ३४ ±जंबू शाल्मलि वृक्ष के २ ·७८। ये जंबूद्वीप के अठहत्तर चैत्यालय हैं। इनमें प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं उनको मेरा मन, वचन, काय से नमस्कार होवे। इस जंबूद्वीप में हम कहाँ हैं ? यह भरतक्षेत्र, जंबूद्वीप के १९० वें भाग (५२६-६/१९) योजन प्रमाण है। इसके छह खंड में जो आर्यखंड है उसका प्रमाण लगभग निम्न प्रकार है। दक्षिण का भरतक्षेत्र २३८-३/१९ योजन का है। पद्मसरोवर की लम्बाई १००० योजन है तथा गंगा-सिंधु नदियां ५-५ सौ योजन पर्वत पर पूर्व-पश्चिम बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। यह आर्यखंड उत्तर-दक्षिण २३८ योजन चौड़ा है। पूर्व-पश्चिम में १०००± ५००±५००·२०००योजन लम्बा है। इनको आपस में गुणा करने से २३८²२००० · ४,७६,००० योजन प्रमाण आर्यखंड का क्षेत्रफल हो जाता है। इसके मील बनाने से ४,७६,०००²४०००·१९०,४०,००,००० (एक सौ नब्बे करोड़ चालीस लाख) मील प्रमाण क्षेत्रफल हो जाता है। इस आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूर पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगानदी की तटवेदी है अर्थात् आर्यखंड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर दिशा में विजयार्ध, पूर्व दिशा में गंगा नदी एवं पश्चिम दिशा में सिंधु नदी है ये चारोें आर्यखण्ड की सीमारूप हैं। अयोध्या से दक्षिण में ४,७६,००० मील (चार लाख छियत्तर हजार मील) जाने से लवण समुद्र है और उत्तर में, ४,७६,००० मील जाने से विजयार्ध पर्वत है। उसी प्रकार अयोध्या से पूर्व में ४०,००००० (चालीस लाख) मील दूर गंगानदी तथा पश्चिम में इतनी ही दूर पर सिंधु नदी है। आज का सारा विश्व इस आर्यखंड में है। हम और आप सभी इस आर्यखंड में ही भारतवर्ष में रहते हैं।
षट्काल परिवर्तन
काल के दो भेद हैं-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। अवसर्पिणी के छह भेद हैं। सुषमासुषमा, सुषमा, सुषुमादुषमा, दुषमा सुषमा, दुषमा और दुषमा दुषमा। प्रथम काल चार कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है, द्वितीय काल तीन कोड़ाकोड़ी सागर, तृतीय काल दो कोड़ाकोड़ी सागर, चतुर्थ काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, पंचम काल इक्कीस हजार वर्ष का एवं छठा काल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है। ऐसे उत्सर्पिणी के दुषुमा-दुषुमा से लेकर छह भेद हैं। उनमें छठे से पहले तक परिवर्तन चलता है। अवसर्पिणी में आयु, शरीर की ऊँचाई आदि का ह्रास होता है और उत्सर्पिणी में आयु, शरीर की ऊँचाई, सुख आदि की वृद्धि होती जाती है। जब पहले इस भरतक्षेत्र के आर्यखंड में सुषमा-सुषमा काल चल रहा था तब वहाँ के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई तीन कोस की थी और आयु तीन पल्य की थी, वे स्वर्ण सदृश वर्ण के थे। वे तीन दिन बाद कल्पवृक्षों से प्राप्त बदरीफल बराबर उत्तम भोजन ग्रहण करते थे। उनके मल-मूत्र, पसीना, रोग, अपमृत्यु आदि बाधायें नहीं थीं। वहाँ की स्त्रियां आयु के नव महीने शेष रहने पर गर्भ धारण करती थीं और युगल पुत्र- पुत्री को जन्म देती थीं। संतान के जन्म होते ही पुरुष को जंभाई और स्त्री को छींक आने से वे मर जाते थे। ये युगल वृद्धि को प्राप्त होकर कल्पवृक्षों से उत्तम सुख का अनुभव करते रहते थे। दस प्रकार के कल्पवृक्ष-पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, मालांग, ज्योतिरांग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग। ये उत्तम वृक्ष अपने नाम के अनुसार ही उत्तम वस्तुयें मांगने पर देते हैं।
इसे उत्तम भोगभूमि कहते हैं।धीरे-धीरे आयु आदि घटते-घटते प्रथम काल समाप्त होकर दूसरा काल प्रवेश करता है। तब मनुष्यों की आयु दो पल्य, शरीर की ऊँचाई दो कोस और शरीर का वर्ण चन्द्रमा के समान रहता है। ये लोग दो दिन बाद कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए बहेड़े के बराबर भोजन को ग्रहण करते हैं। इसे मध्यम भोगभूमि कहते हैं। द्वितीय काल पूर्ण हो जाने के बाद तृतीय काल प्रवेश करता है तब यहाँ के मनुष्यों की आयु एक पल्य, ऊँचाई एक कोस और शरीर का वर्ण हरित रहता है। ये एक दिन के अन्तर से आंवले के बराबर भोजन ग्रहण करते हैं। आगे क्रम से आयु आदि घटती जाती है इस प्रकार यह भोगभूमि का काल चल रहा था। जब तृतीय काल में पल्य का आठवां भाग शेष रह गया तब ज्योतिरांग कल्पवृक्षों का प्रकाश मंद पड़ने से आकाश में सतत घूमने वाले सूर्य,चन्द्र दिखने लगे। उस समय प्रजा के डरने से ‘प्रतिश्रुति’ नाम के प्रथम कुलकर ने उनको वास्तविक स्थिति बताकर उनका डर दूर किया। ऐसे ही क्रम से तेरह कुलकर और हुए। अन्तिम कुलकर महाराज नाभिराज थे। उनकी पत्नी मरुदेवी युगलिया जन्म न लेकर किसी प्रधान कुल की कन्या थीं।
उन दोनों का विवाह इन्द्रों ने बड़े उत्सव से कराया था। पुन: चतुर्थ काल में जब चौरासी लाख पूर्व वर्ष, तीन वर्ष साढ़े आठ माह काल बाकी था तब अन्तिम कुलकर नाभिराज की रानी मरुदेवी के गर्भ में भगवान वृषभदेव आए और नव महिने बाद जन्म लिया। ये प्रथम तीर्थंकर थे। इनकी आयु चौरासी लाख वर्ष पूर्व की थी । इन्होंने कल्पवृक्ष के नष्ट हो जाने के बाद प्रजा को असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या इन षट्क्रियाओं से आजीविका करना बतलाया। क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये तीन वर्ण स्थापित किये। भगवान ने विदेहक्षेत्र की स्थिति को अपने अवधिज्ञान से जानकर यह सब व्यवस्था बनाई। भगवान की आज्ञा से इन्द्र ने कौशल, काशी आदि देश, अयोध्या, हस्तिनापुर, उज्जयिनी आदि नगरियों की रचना की। इस काल में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि और शरीर पाँच सौ धनुष का ऊँचा होता था। भगवान ने अपनी पुत्रियों को ब्राह्मी लिपि और अंक लिपि सिखाई। पुत्र-पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात किया। अनन्तर दीक्षा लेकर मोक्षमार्ग को प्रगट किया। पुन: केवलज्ञान होने के बाद साक्षात् संपूर्ण जगत को जान लिया और अन्त में चतुर्थकाल के तीन वर्ष, आठ माह, एक पक्ष शेष रहने पर कार्तिक कृष्णा अमावस्या के उषाकाल में पावापुरी से मोक्ष गये हैं।
उसके बाद दुषमा नामक पंचमकाल आ गया। इसमें मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु १२० वर्ष और शरीर की ऊँचाई अधिक से अधिक सात हाथ की है। दिन पर दिन आयु आदि घट रहे हैं। महावीर स्वामी को हुये अब तक लगभग ढाई हजार वर्ष व्यतीत हो गये हैं। हम लोग इस पंचमकाल के मनुष्य हैं। आगे साढ़े अठारह हजार वर्ष तक भगवान महावीर का शासन चलता रहेगा, अनन्तर एक राजा दिगंबर मुनि से प्रथम ग्रास को शुल्करूप में मांगेगा तब मुनि अन्तराय करके जाकर आर्यिका, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ सहित सल्लेखना ग्रहण कर मरकर स्वर्ग जाएंगे। उस समय धरणेन्द्र कुपित हो राजा को मार देगा, तब राजा नरक जाएंगे। बस! धर्म का और राजा का अंत हो जाएगा। अनंतर छठा काल आएगा, उस समय मनुष्यों का शरीर एक हाथ का, आयु सोलह वर्ष की मात्र रह जाएगी। ये मनुष्य पशुवृत्ति करेंगे। मांसाहारी होंगे, जंगलों में घूमेंगे, दु:खी, दरिद्री, रोगी, कुटुंबहीन होंगे।
पुन: उनचास दिन के प्रलय के बाद इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर छठा काल समाप्त होगा और देव-विद्याधरों द्वारा रक्षा किये गये कुछ मनुष्य जीवित रहकर पुन: सृष्टि की परम्परा बढ़ाएंगे। उत्सर्पिणी के छठे काल के बाद धीरे-धीरे पंचम आदि काल आते रहेंगे। यह काल परिवर्तन परम्परा अनादि है। जैनधर्म अनादि है यह सार्वधर्म है-सभी जीवों का हित करने वाला है। सभी तीर्थंकर इस धर्म का उपदेश देते हैं, वे स्वयं इस धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। ऐसे अनंतों तीर्थंकर हो चुके हैं और भविष्य में होते रहेंगे। कोई भी जीव अपने आप धर्म पुरुषार्थ के बल से अपने आपको तीर्थंकर भगवान बना सकता है, ऐसा समझना। यह षट्काल परिवर्तन भरत, ऐरावत के आर्यखंडों में ही होता है अन्यत्र नहीं है।प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञानभास्करा:। कुर्वंतु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।
लवण समुद्र का वर्णन
लवणसमुद्र जंबूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए खाई के सदृश गोल है, इसका विस्तार दो लाख योजन प्रमाण है। एक नाव के ऊपर अधोमुखी दूसरी नाव के रखने से जैसा आकार होता है उसी प्रकार वह समुद्र चारों ओर आकाश में मण्डलाकार से स्थित है। उस समुद्र का विस्तार ऊपर दस हजार योजन और चित्रा पृथ्वी के समभाग में दो लाख योजन है। समुद्र के नीचे दोनों तटों में से प्रत्येक तट से पंचानवे हजार योजन प्रवेश करने पर दोनों और से एक हजार योजन की गहराई में तल विस्तार दस हजार योजन मात्र है। समभूमि से आकाश में इसकी जलशिखा है,यह अमावस्या के दिन समभूमि से ११००० योजन प्रमाण ऊंची रहती है। वह शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होकर पूर्णिमा के दिन १६००० योजन प्रमाण ऊंची हो जाती है। इस प्रकार जल के विस्तार में १६००० योजन की ऊँचाई पर दोनों ओर समान रूप से १,९०,००० योजन की हानि हो गई है। यहाँ प्रतियोजन की ऊँचाई पर होने वाली वृद्धि का प्रमाण ११-७/८ योजन प्रमाण है। गहराई की अपेक्षा रत्नवेदिका से ९५ प्रदेश आगे जाकर एक प्रदेश की गहराई है, ऐसे ९५ अंगुल जाकर एक अंगुल, ९५ हाथ जाकर एक हाथ, ९५ कोस जाकर एक कोस एवं ९५ योजन जाकर एक योजन की गहराई हो गई है।
इसी प्रकार से ९५ हजार योजन जाकर १००० योजन की गहराई हो गई अर्थात् लवण समुद्र के समजल भाग से समुद्र का जल एक योजन नीचे जाने पर एक तरफ से विस्तार में ९५ योजन हानिरूप हुआ है। इसी क्रम से एक प्रदेश नीचे जाकर प्रदेशों की, एक अंगुल नीचे जाकर ९५ अंगुलों की, एक हाथ नीचे जाकर ९५ हाथों की भी हानि समझ लेना चाहिये। अमावस्या के दिन उक्त जलशिखा की ऊँचाई ११००० योजन होती है। पूर्णिमा के दिन वह उससे ५००० योजन बढ़ जाती है अत: ५००० के १५ वें भाग प्रमाण क्रमश: प्रतिदिन ऊँचाई में वृद्धि होती है। १६०००-११०००/१५ ·५०००/१५, ५०००/१५·३३३, १/३ योजन-तीन सौ तेतीस से कुछ अधिक प्रमाण प्रतिदिन वृद्धि होती है। समुद्र के मध्य में पाताल-लवण समुद्र के मध्य भाग में चारों ओर उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य ऐसे १००८ पाताल हैं। ज्येष्ठ पाताल ४, मध्यम ४ और जघन्य १००० हैं। उत्कृष्ट पाताल चार दिशाओं में चार हैं, मध्यम पाताल ४ विदिशाओं में ४ एवं उत्कृष्ट मध्यम के मध्य में ८ अन्तर दिशाओं में १००० जघन्य पाताल हैं। ४ उत्कृष्ट पाताल-उस समुद्र के मध्य भाग में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से पाताल, कदम्बक, वड़वामुख और यूपकेसर नामक चार पाताल हैं। इन पातालों का विस्तार मूल में और मुख में १००० योजन प्रमाण है।
इनकी गहराई, ऊँचाई और मध्यविस्तार मूल विस्तार से दस गुणा-१००००० योजन प्रमाण है। पातालों की वङ्कामय भित्तिका ५०० योजन मोटी है। ये पाताल जिनेन्द्र भगवान द्वारा अरंजन-घट विशेष के समान कहे गये हैं। पाताल के उपरिम त्रिभाग में सदा जल रहता है, उनके मूल के त्रिभाग में घनी वायु और मध्य त्रिभाग में क्रम से जल, वायु दोनों रहते हैं। सभी पातालों के पवन सर्वकाल शुक्ल पक्षों में स्वभाव से बढ़ते हैं एवं कृष्ण पक्ष में स्वभाव से घटते हैं। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा तक प्रतिदिन २२२२-२/९ योजन पवन की वृद्धि हुआ करती है। पूर्णिमा के दिन पातालों के अपने-अपने तीन भागों में से नीचे के दो भागों में वायुु और ऊपर के तृतीय भाग में केवल जल रहता है। अमावस्या के दिन अपने-अपने तीन भागों में से क्रमश: ऊपर के दो भागों में जल और नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु स्थित रहता है। पातालों के अन्त में अपने-अपने मुख विस्तार को ५ से गुणा करने पर जो प्राप्त हो, उतने प्रमाण आकाश में अपने-अपने पाश्र्व भागों में जलकण जाते हैं। ‘‘तत्त्वार्थराजवार्तिक’’ गं्रथ में जलवृद्धि का कारण किन्नरियों का नृत्य बतलाया है।
तत उभयत आरत्नवेदिकाया: सर्वत्र द्विगव्यूतिप्रमाणा जलवृद्धि:।
पातालोन्मीलन-वेगोपशमेन हानि:।
अर्थ-रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग में रहने वाली वातकुमार देवियों की क्रीडा से क्षुब्ध वायु के कारण ५०० योजन जल की वृद्धि होती है अर्थात् वायु और जल का निष्क्रम और प्रवेश होता है और दोनों तरफ रत्नवेदिका पर्यन्त सर्वत्र दो गव्यूति प्रमाण जलवृद्धि होती है। पाताल के उन्मीलन के वेग की शांति से जल की हानि होती है। इन पातालों का तीसरा भाग १०००००/३·३३३३३-१/३ योजन प्रमाण है। ज्येष्ठ पाताल सीमंत बिल के उपरिम भाग से संलग्न हैं अर्थात् ये पाताल भी मृदंग के आकार के गोल हैं, समभूमि से नीचे की गहराई का जो प्रमाण है वह इन पातालों की ऊँचाई है। यदि प्रश्न यह होवे कि एक लाख योजन तक इनकी गहराई समतल से नीचे वैâसे होगी ? तो उसका समाधान यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है, वहाँ खरभाग, पंकभाग पर्यन्त ये पाताल पहुँचे हुए ऊँचे गहरे हैं। ४ मध्यम पाताल-विदिशाओं में भी इनके समान चार पाताल हैं, उनका मुख विस्तार और मूल विस्तार १००० योजन तथा मध्य में और ऊँचाई, गहराई में १०,००० योजन है, इनकी वङ्कामय भित्ति ५० योजन प्रमाण है। इन पातालों के उपरिम तृतीय भाग में जल, नीचे के तृतीय भाग में वायु, मध्य के तृतीय भाग में जल, वायु दोनों रहते हैं। पातालों की गहराई-ऊँचाई १०,००० योजन है, १०,०००/३·३३३३-१/३ पातालों का तृतीय भाग तीन हजार तीस सौ तेतीस से कुछ अधिक है।
इनमें प्रतिदिन होने वाली जलवायु की हानि-वृद्धि का प्रमाण २२२-२/९ योजन प्रमाण है। १००० जघन्य पाताल-उत्तम, मध्यम पातालों के मध्य में आठ अन्तर दिशाओं में एक हजार जघन्य पाताल हैं। मध्यम पाातालों की अपेक्षा दसवें भाग मात्र है अर्थात् मुख और मूल में ये पाताल १०० योजन हैं। मध्य में चौड़े और गहरे १००० योजन प्रमाण हैं। इनमें भी उपरिम त्रिभाग में जल, नीचे में वायु और मध्य में जलवायु दोनों हैं। इनका त्रिभाग ३३३-१/३ योजन है और प्रतिदिन जलवायु की हानि-वृद्धि २२-२/९ योजन मात्र है। नागकुमार देवों के १,४२,००० नगर-लवणसमुद्र के बाह्य भाग में ७२०००, शिखर पर २८००० और अभ्यन्तर भाग में ४२००० नगर अवस्थित हैं। समुद्र के अभ्यन्तर भाग की वेला की रक्षा करने वाले वेलंधर नागकुमार देवों के नगर ४२००० हैं। जलशिखा को धारण करने वाले नागकुमार देवों के २८००० नगर हैं एवं समुद्र के बाह्य भाग की रक्षा करने वाले नागकुमार देवों के ७२००० नगर हैं। ये नगर दोनों तटों से ७०० योजन जाकर तथा शिविर से ७००-१/२ योजन जाकर आकाश तल में स्थित हैं। इनका विस्तार १०,००० योजन प्रमाण है। नगरियों के तट उत्तम रत्नों से निर्मित समान गोल हैं। प्रत्येक नगरियों में ध्वजाओं, तोरणों से सहित दिव्य तट वेदियाँ हैं। उन नगरियों में उत्तम वैभव से सहित वेलंधर और भुजग देवों के प्रासाद स्थित हैं।
जिनमंदिरों से रमणीय, वापी, उपवनों से सहित इन नगरियों का वर्णन बहुत ही सुन्दर है, ये नगरियाँ अनादिनिधन हैं। उत्कृष्ट पाताल के आसपास के ८ पर्वत-समुद्र के दोनों किनारों में बयालीस हजार योजन प्रमाण प्रवेश करके पातालों के पाश्र्व भागों में आठ पर्वत हैं। (ऊपर) तट से ४२००० योजन आगे समुद्र में जाकर ‘‘पाताल’’ के पश्चिम दिशा में कौस्तुभ और पूर्व दिशा में कौस्तुभास नाम के दो पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत रजतमय,धवल, १००० योजन ऊँचे, अर्धघट के समान आकार वाले वङ्कामय मूल भाग से सहित, नाना रत्नमय अग्रभाग से सुशोभित हैं। प्रत्येक पर्वत का तिरछा विस्तार एक लाख सोलह हजार योजन है। इस प्रकार से जगती से पर्वतों तक तथा पर्वतों का विस्तार मिलाकर दो लाख योजन होता है। पर्वत का विस्तार १,१६०००। जगती से पर्वत का अंतराल ४२०००± ४२००० · ८४००० । १,१६००० ± ८४००० · २,०००००। ये पर्वत मध्य में रजतमय हैं, इनके ऊपर इन्हीं के नाम वाले कौस्तुभ ,कौस्तुभास देव रहते हैं। इनकी आयु, अवगाहना आदि विजयदेव के समान है। कदंब पाताल की उत्तर दिशा में उदक नामक पर्वत और दक्षिण दिशा में उदकाभास नामक पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत नीलमणि जैसे वर्ण वाले हैं। इन पर्वतों के ऊपर क्रम से शिव और शिवदेव निवास करते हैं। इनकी आयु आदि कौस्तुभदेव के समान है।
बड़वामुख पाताल की पूर्व दिशा में शंख और पश्चिम दिशा में महाशंख नामक पर्वत हैं। ये दोनों ही शंख के समान वर्ण वाले हैं। इन पर उदक, उदकावास देव स्थित हैं, इनका वर्णन पूर्वोक्त सदृश है। यूपकेसरी के दक्षिण भाग में दक नामक पर्वत और उत्तरभाग में दकवास नामक पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत वैडूर्यमणिमय हैं। इनके ऊपर क्रम से लोहित, लोहितांक देव रहते हैं। ८ सूर्यद्वीप हैं-‘ जगती से बयालीस हजार योजन जाकर ‘‘सूर्यद्वीप’’ नाम से प्रसिद्ध आठ द्वीप हैं। ये द्वीप पूर्व में कहे हुए कौस्तुभ आदि पर्वतों के दोनों पाश्र्वभागों में स्थित होकर निकले हुए मणिमय दीपकों से युक्त शोभायमान हैं। त्रिलोकसार में १६ ‘‘चन्द्रद्वीप’’ भी माने गये हैं। यथा-अभ्यन्तर तट और बाह्य तट दोनों से ४२००० योजन छोड़कर चारों विदिशाओं के दोनों पाश्र्वभागों में दो-दो, ऐसे आठ ‘‘सूर्यद्वीप’’ हैं। और दिशा-विदिशा के बीच में जो आठ अन्तरदिशायें हैं, उनके दोनों पाश्र्व भागों में दो-दो, ऐसे १६ ‘‘चन्द्रद्वीप’’ नामक द्वीप हैं। ये सब द्वीप ४२००० योजन व्यास वाले और गोल आकार वाले हैं। यहाँ द्वीप से ‘‘टापू’’ को समझना। समुद्र में गौतम द्वीप का वर्णन-लवण समुद्र के अभ्यन्तर तट से १२००० योजन आगे जाकर १२००० योजन ऊँचा एवं इतने ही प्रमाण व्यास वाला, गोलाकार गौतम नामक द्वीप है जो कि समुद्र में ‘‘वायव्य’’ विदिशा में है।
ये उपर्युक्त सभी द्वीप वन, उपवन, वेदिकाओं से रम्य हैं और ‘‘जिनमंदिर’’ से सहित हैं। उन द्वीपों के स्वामी वेलंंधर जाति के नागकुमार देव हैं। वे अपने-अपने द्वीप के समान नाम के धारक हैं। मागधद्वीप आदि का वर्णन-भरतक्षेत्र के पास समुद्र के दक्षिण तट से संख्यात योजन जाकर आगे मागध, वरतनु और प्रभास नाम के तीन द्वीप हैं अर्थात् गंगा नदी के तोरणद्वार से आगे कितने ही योजन प्रमाण समुद्र में जाने पर ‘‘मागध’’ द्वीप है। जंबूद्वीप के दक्षिण वैजयंत द्वार से कितने ही योजन समुद्र में जाने पर ‘‘वरतनु’’ द्वीप है एवं सिंधु नदी के तोरण से कितने ही योजन जाकर ‘‘प्रभास’’ द्वीप है। इन द्वीपों में इन्हीं नाम के देव रहते हैं। इन देवों को भरतक्षेत्र के चक्रवर्ती वश में करते हैं। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र के उत्तर भाग में रक्तोदा नदी के पाश्र्व भाग में समुद्र के अन्दर ‘‘मागध’’ द्वीप, अपराजित द्वार से आगे ‘‘वरतनु’’ द्वीप एवं रक्ता नदी के आगे कुछ दूर जाकर ‘‘प्रभास’’ द्वीप है जो कि ऐरावत क्षेत्र के चक्रर्वितयों के द्वारा जीते जाते हैं। ४८ कुमानुषद्वीप-लवणसमुद्र में कुमानुषों के ४८ द्वीप हैं। इनमें से २४ द्वीप तो अभ्यन्तर भाग में एवं २४ द्वीप बाह्यभाग में स्थित हैं।
जंबूद्वीप की जगती से ५००० योजन आगे जाकर ४ द्वीप चारों दिशाओं में और इतने ही योजन जाकर चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। जंबूद्वीप की जगती से ५५० योजन आगे जाकर दिशा, विदिशा की अन्तर दिशाओं में ८ द्वीप हैं। हिमवन्, विजयार्ध पर्वत के दोनों किनारों में जगती से ६००० योजन जाकर ४ द्वीप एवं उत्तर में शिखरी और विजयार्ध के दोनों पाश्र्व भागों से ६०० योजन अन्तर समुद्र में जाकर ४ द्वीप हैं। दिशागत द्वीप १०० योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं, ऐसे ही विदशागत द्वीप ५५ योजन विस्तृत, अन्तरदिशागत द्वीप ५० योजन विस्तृत एवं पर्वत के पाश्र्वगत द्वीप २५ योजन विस्तृत हैं। ये सब उत्तम द्वीप वनखंड, तालाबों से रमणीय, फल पूâलोें के भार से संयुक्त तथा मधुर रस एवं जल से परिपूर्ण हैं। यहाँ कुभोगभूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर जन्म लेने वाले मनुष्य ‘‘कुमानुष’’ कहलाते हैं और विकृत आकार वाले होते हैं। पूर्वादिक दिशाओं में स्थित चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से एक जंघा वाले, पूँछ वाले, सींग वाले और गूंगे होते हैं। आग्नेय आदि विदिशाओं के कुमानुष क्रमश: शष्कुलीकर्ण, कर्णप्रावरण, लम्बकर्ण और शशकर्ण होते हैं। अन्तर दिशाओं में स्थित आठ द्वीपों के वे कुमानुष क्रम से सिंह, अश्व, श्वान, महिष, वराह, शार्दूल, घूक और बंदर के समान मुख वाले होते हैं। हिमवान् पर्वत के पूर्व-पश्चिम किनारों में क्रम से मत्स्यमुख, कालमुख तथा दक्षिण विजयार्ध के किनारों में मेषमुख, गोमुख कुमानुष होते हैं। शिखरी पर्वत के पूर्व पश्चिम किनारों पर क्रम से मेघमुख, विद्युन्मुख तथा उत्तर विजयार्ध के किनारों पर आदर्शमुख, हस्तिमुख कुमानुष होते हैं। इन सबमें से एकोरुक कुमानुष गुफाओं में होते हैं और मिष्ट मिट्टी को खाते हैं।
शेष कुमानुष वृक्षों के नीचे रहकर फल पूâलों से जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार से दिशागत द्वीप ४, विदिशागत ४, अन्तर दिशागत ८, पर्वत तटगत ८। ४±४±८±८·२४ अंतद्र्वीप हुए हैं, ऐसे ही लवण समुद्र के बाह्य भाग के भी २४ द्वीप मिलकर २४±२४±·४८ अन्तद्र्वीप लवण समुद्र में हैं। कुभोगभूमि में जन्म लेने के कारण-मिथ्यात्व में रत, मन्दकषायी, मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर, विषम पंचाग्नि तप तपने वाले, सम्यक्त्व रत्न से रहित जीव मरकर कुमानुष होते हैं। जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व और तप से युक्त साधुओं का किच्ािंत् अपमान करते हैं, जो दिगंबर साधु की निंदा करते हैं, ऋद्धि रस आदि गौरव से युक्त होकर दोषों की आलोचना गुरु के पास नहीं करते हैं, गुरुओं के साथ स्वाध्याय वंदना कर्म नहीं करते हैं, जो मुनि एकाकी विचरण करते हैं, क्रोध कलह से सहित हैं, अरहंत गुरु आदि की भक्ति से रहित, चतुर्विध संघ में वात्सल्य से रहित, मौन बिना भोजन करने वाले हैं, जो पाप में संलग्न हैं वे मृत्यु को प्राप्त होकर विषम परिपाक वाले, पाप कर्मों के फल से इन द्वीपों में कुत्सित रूप से युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं।
त्रिलोकसार में भी यह कहा है-
दुब्भावअसूचिसूदकपुफ्फवई-जाइसंकरादीहिं।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते।।९२४।।
अर्थ-खोटे भाव से सहित, अपवित्र, मृतादि के सूतक पातक से सहित, रजस्वला स्त्री के संसर्ग से सहित, जातिसंकर आदि दोषों से दूषित मनुष्य जो दान करते हैं और जो कुपात्रों में दान देते हैं ये जीव कुमानुष में उत्पन्न होते हैं क्योंकि ये जीव मिथ्यात्व और पाप से रहित विंâचित् पुण्य उपार्जन करते हैं अत: कुत्सित भोगभूमि में जन्म लेते हैं। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण रहती है। एक कोस ऊँचे शरीर वाले हैं युगलियाँ होते हैं।
मरकर नियम से भवनत्रिक देवों में जन्म लेते हैं। कदाचित् सम्यक्त्व को प्राप्त करके ये कुमानुष सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं। लवण समुद्र के दोनों ओर तट हैं। लवणसमुद्र में ही पाताल है अन्य समुद्रों में नहीं है। लवण समुद्र के जल की गहराई और ऊँचाई में हीनाधिकता है अन्य समुद्रों के जल में नहीं है। सभी समुद्रों के जल की गहराई सर्वत्र हजार योजन है और ऊपर में जल समतल प्रमाण है। लवणसमुद्र का जल खारा है। लवणसमुद्र में जलचर जीव पाये जाते हैं, लवणसमुद्र के मत्स्य नदी के गिरने के स्थान पर ९ योजन अवगाहना वाले एवं मध्य में १८ योजन प्रमाण हैं। इसमें कछुआ, शिंशमार, मगर आदि जलजंतु भरे हैं। पद्मपुराण में रावण की लंका को लवणसमुद्र में माना है अत: इस समुद्र में और भी अनेकों द्वीप हैं जैसा कि पद्मपुराण से स्पष्ट है। यथा-
अस्त्यत्र लवणांभोधौ व्रूâरग्राहसमाकुलै:।
प्रख्यातो राक्षसद्वीप: प्रभूताद्भूतसंकुल:।।१०६।।
शतानिसप्त……………………………………………..१०७ से ११० तक पद्म पुराण, ४८ पर्व। अर्थ-दुष्ट मगरमच्छों से भरे हुए इस लवणसमुद्र में अनेक आश्चर्यकारी स्थानों से युक्त प्रसिद्ध ‘‘राक्षसद्वीप’’ है, जो सब ओर सात योजन विस्तृत है तथा कुछ अधिक इक्कीस योजन उसकी परिधि है। उसके बीच में सुमेरु पर्वत के समान त्रिकूट नाम का पर्वत है जो नौ योजन ऊँचा और ५० योजन चौड़ा है, सुवर्ण तथा नाना प्रकार की मणियों से देदीप्यमान एवं शिलाओं के समूह से व्याप्त है। राक्षसों के इन्द्र भीम ने मेघवाहन के लिये वह दिया था। तट पर उत्पन्न हुए नाना प्रकार के चित्र-विचित्र वृक्षों से सुशोभित उस त्रिकूटाचल के शिखर पर लंका नाम की नगरी है जो मणि और रत्नों की किरणों तथा स्वर्ण के विमानों के समान मनोहर महलों से एवं क्रीडा आदि के योग्य सुन्दर प्रदेशों से अत्यंत शोभायमान है। जो सब ओर से तीस योजन चौड़ी है तथा बहुत बड़े प्राकार और परिखा से युक्त होने के कारण दूसरी पृथ्वी के समान जान पड़ती है।
लंंका के समीप में और भी ऐसे स्वाभाविक प्रदेश हैं जो रत्न, मणि तथा सुवर्ण से निर्मित हैं। वे सब प्रदेश उत्तमोत्तम नगरों से युक्त हैं, राक्षसों की क्रीडाभूमि हैं तथा महाभोगों से युक्त विद्याधरों से सहित हैं। संध्याकार सुबेल, कांचन, ह्रादन, योधन, हंस, हरिसागर और अर्धस्वर्ग आदि अन्य द्वीप भी वहाँ विद्यमान हैं, जो समस्त ऋद्धियों तथा भोगों को देने वाले हैं। वन-उपवन आदि से विभूषित हैं तथा स्वर्ण प्रदेशों के समान जान पड़ते हैं। ‘छठे पर्व में ६२ से ८२ तक वर्णन है- इस लवणसमुद्र में बहुत से द्वीप हैं जहाँ कल्पवृक्षों के समान आकार वाले वृक्षों से दिशायें व्याप्त हो रही हैं। इन द्वीपों में अनेकों पर्वत हैं जोे रत्नों से व्याप्त ऊँचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित हैं। राक्षसों के इन्द्र भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य देवों के द्वारा आपके वंशजों के लिए ये सब द्वीप और पर्वत दिये गये हैं ऐसा पूर्वपरंपरा से सुनने में आता है। उन द्वीपों में अनेक नगर हैं।
उन नगरों के नाम-संध्याकार, मनोह्लाद, सुबेल, कांचन, हरियोधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कांत, स्फुटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेम इत्यादि सुन्दर-सुन्दर हैं। यहाँ वायव्य दिशा में समुद्र के बीच तीन सौ योजन विस्तार वाला, बड़ा भारी वानरद्वीप है। उसमें महामनोहर हजारों अवांतर द्वीप हैं। उस वानर द्वीप के मध्य में रत्न सुवर्ण की लम्बी, चौड़ी शिलाओं से सुशोभित ‘‘किष्कु’’ नाम का बड़ा भारी पर्वत है। जैसे यह त्रिकूटाचल है वैसे ही वह किष्कु पर्वत है इत्यादि। इस प्रकरण से यह ज्ञात होता है कि इस समुद्र में और भी अनेक द्वीप विद्यमान हैं। लवणसमुद्र की जगती ८ योजन ऊँची, मूल में १२ योजन, मध्य में ८ एवं ऊपर में ४ योजन प्रमाण विस्तार वाली है। इसके ऊपर वेदिका, वनखंड, देवनगर आदि का पूरा वर्णन जंबूद्वीप की जगती के समान है। इस जगती के अभ्यन्तरभाग में शिलापट्ट और बाह्यभाग में वन हैं। इस जगती की बाह्यपरिधि का प्रमाण १५८११३९ योजन प्रमाण है। यदि जंबूद्वीप प्रमाण १-१ लाख के खंड किये जावें तो इस लवण समुद्र के जंबूद्वीप प्रमाण २४ खंड हो जाते हैं।
भूभ्रमण खण्डन
कोई आधुनिक विद्वान कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुसार यह पृथ्वी वलयाकार चपटी गोल नहीं है किन्तु यह पृथ्वी गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है तथा सूर्य, चन्द्र, शनि, शुक्र आदि ग्रह, अश्विनी, भरिणी आदि नक्षत्रचक्र, मेरु के चारों तरफ प्रदक्षिणारूप से अवस्थित हैं, घूमते नहीं हैं। यह पृथ्वी एक विशेष वायु के निमित्त से ही घूमती है। इस पृथ्वी के घूमने से ही सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि का उदय, अस्त आदि व्यवहार बन जाता है इत्यादि। दूसरे कोई वादी पृथ्वी का हमेशा अधोगमन ही मानते हैं एवं कोई-कोई आधुनिक पंडित अपनी बुद्धि में यों मान बैठे हैं कि पृथ्वी दिन पर दिन सूर्य के निकट होती चली जा रही है। इसके विरुद्ध कोई-कोई विद्बान् प्रतिदिन पृथ्वी को सूर्य से दूरतम होती हुई मान रहे हैं। इसी प्रकार कोई-कोई परिपूर्ण जलभाग से पृथ्वी को उदित हुई मानते हैं। किन्तु उक्त कल्पनायें प्रमाणों द्वारा सिद्ध नहीं होती हैं। थोड़े ही दिनों में परस्पर एक-दूसरे का विरोध करने वाले विद्वान् खड़े हो जाते हैं और पहले-पहले के विद्वान् या ज्योतिष यन्त्र के प्रयोग भी युक्तियों द्वारा बिगाड़ दिये जाते हैं। इस प्रकार छोटे-छोटे परिवर्तन तो दिन-रात होते ही रहते हैं।
इसका उत्तर जैनाचार्य इस प्रकार देते हैं- भूगोल का वायु के द्वारा भ्रमण मानने पर तो समुद्र, नदी, सरोवर आदि के जल की जो स्थिति देखी जाती है उसमें विरोध आता है। जैसे कि पाषाण के गोले को घूमता हुआ मानने पर अधिक जल ठहर नहीं सकता है अत: भू अचला ही है भ्रमण नहीं करती है। पृथ्वी तो सतत घूमती रहे और समुद्र आदि का जल सर्वथा जहाँ का तहाँ स्थिर रहे, यह बन नहीं सकता अर्थात् गंगा नदी जैसे हरिद्वार से कलकत्ता की ओर बहती है, पृथ्वी के गोल होने पर उल्टी भी बह जायेगी, समुद्र और कुओं के जल गिर पड़ेगे। घूमती हुई वस्तु पर मोटा अधिक जल नहीं ठहर कर गिरेगा ही गिरेगा। दूसरी बात यह है कि पृथ्वी स्वयं भारी है। अध:पतन स्वभाव वाले बहुत से जल, बालू, रेत आदि पदार्थ हैं जिनके ऊपर रहने से नारंगी के समान गोल पृथ्वी हमेशा घूमती रहे और यह सब ऊपर ठहरे रहें, पर्वत, समुद्र, शहर, महल आदि जहाँ के तहाँ बने रहें यह बात असंभव है। यहाँ पुन: कोई भूभ्रमणवादी कहते हैं कि घूमती हुई इस गोल पृथ्वी पर समुद्र आदि के जल को रोके रहने वाली एक वायु है जिसके निमित्त से समुद्र आदि ये सब जहाँ के तहाँ ही स्थिर बने रहते हैं। इस पर जैनाचार्यों का उत्तर-जो प्रेरक वायु इस पृथ्वी को सर्वदा घुमा रही है, वह वायु इन समुद्र आदि को रोकने वाली वायु का घात नहीं कर देगी क्या ? यह बलवान् प्रेरक वायु तो इस धारक वायु को घुमाकर कहीं पेंâक देगी। सर्वत्र ही देखा जाता है कि यदि आकाश में मेघ छाए हैं और हवा जोरों से चलती है तब उस मेघ को धारण करने वाली वायु को विध्वंस करके मेघ को तितर-बितर कर देती है, वे बेचारे मेघ नष्ट हो जाते हैं या देशांतर में प्रयाण कर जाते हैं।
उसी प्रकार अपने बलवान् वेग से हमेशा भूगोल को सब तरफ से घुमाती हुई जो प्रेरक वायु है, वह वहाँ पर स्थित हुए समुद्र, सरोवर आदि को धारने वाली वायु को नष्ट-भ्रष्ट कर ही देगी अत: बलवान् प्रेरक वायु भूगोल को हमेशा घुमाती रहे और जल आदि की धारक वायु वहाँ बनी रहे, यह नितांत असंभव है। पुन: भूभ्रमणवादी कहते हैं कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है अतएव सभी भारी पदार्थ भूमि के अभिमुख होकर ही गिरते हैं। यदि भूगोल पर से जल गिरेगा तो भी वह पृथ्वी की ओर ही गिरकर वहाँ का वहाँ ही ठहरा रहेगा अत: वह समुद्र आदि अपने-अपने स्थान पर ही स्थिर रहेंगे। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि-आपका कथन ठीक नहीं है। भारी पदार्थों का तो नीचे की ओर गिरना ही दृष्टिगोचर हो रहा है अर्थात् पृथ्वी में एक हाथ का लम्बा चौड़ा गड्ढा करके उस मिट्टी को गड्ढे के एक ओर ढलाऊ ऊँची कर दीजिये। उस पर गेंद रख दीजिये, वह गेंद नीचे की ओर गड्ढे में ही लुढ़क जायेगी। जबकि ऊपर भाग में मिट्टी अधिक है तो विशेष आकर्षण शक्ति के होने से गेंद को ऊपर देश में ही चिपकी रहना चाहिये था, परन्तु ऐसा नहीं होता है अत: कहना पड़ता है कि भले ही पृथ्वी में आकर्षण शक्ति होवे किन्तु उस आकर्षण शक्ति की सामथ्र्य से समुद्र के जलादिकों का घूमती हुई पृथ्वी से तिरछा या दूसरी ओर गिरना नहीं रुक सकता है।
जैसे कि प्रत्यक्ष में नदी, नहर आदि का जल ढलाऊ पृथ्वी की ओर ही यत्र-तत्र किधर भी बहता हुआ देखा जाता है और लोहे के गोलक, फल आदि पदार्थ स्वस्थान से च्युत होने पर गिरने पर नीचे की ओर ही गिरते हैं। इस प्रकार जो लोग आर्यभट्ट या इटली, यूरोप आदि देशों के वासी विद्वानों की पुस्तकों के अनुसार पृथ्वी का भ्रमण स्वीकार करते हैं और उदाहरण देते हैं कि-जैसे अपरिचित स्थान में नौका में बैठा हुआ कोई व्यक्ति नदी पार कर रहा है। उसे नौका तो स्थिर लग रही है और तीरवर्ती वृक्ष, मकान आदि चलते हुए दिख रहे हैं परन्तु यह भ्रम मात्र है, तद्वत् पृथ्वी की स्थिरता की कल्पना भी भ्रममात्र है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि- साधारण मनुष्य को भी थोड़ा सा ही घूम लेने पर आखों में घूमनी आने लगती है (चक्कर आने लगता है), कभी-कभी खंड देश में अत्यल्प भूकम्प आने पर भी शरीर में कंपकंपी, मस्तक में भ्रांति होने लग जाती है तो यदि डाकगाड़ी के वेग से भी अधिक वेगरूप पृथ्वी की चाल मानी जायेगी तो ऐसी दशा में मस्तक, शरीर,पुराने ग्रह, वूâपजल आदि की क्या व्यवस्था होगी। बुद्धिमान् स्वयं इस बात पर विचार कर सकते हैं।